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बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

'मर्द' बनाते विज्ञापनों की एक गंभीर पड़ताल


उपभोक्ता संस्कृति की पुरुषवादी संस्कार प्रक्रिया

  • मनोज पाण्डेय  



    
अब यह पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि टीवी हमारे जीवन को हर तरह से प्रभावित कर रहा है.समाज और समय से काट देने के बाद टीवी अपने तय ढंग से व्यक्ति को ‘समाज और समय’ से जोड़ता है. टीवी समय के विस्तार को लगातार आभासी प्रसार दे रहा है.दिन के चौबीस घंटे टीवी चैनलों के हिसाब से बढ़ता जा रहा है. टीवी चैनलों की दुनिया के ताने बाने पर थोडा सा भी ध्यान देने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि यह किसी भी रूप में जनता के हिस्से या हक वाली चीज नहीं है.जबकि भ्रम इसी बात का बनाया गया है.दुनिया भर में टीवी और तमाम सूचना और मनोरंजन माध्यमो पर मुनाफा और सत्ता के भूखमरों का कब्जा है. मुनाफा और सत्ता के भूखमरों की यह जमात पुरुषवादी मानसिकता का हरावल दस्ता भी है.

मुनाफे की निरन्तरता के लिए यह जमात दुनिया भर में ‘उपभोक्ता संस्कृति’ बनाने और विकसित करने में हर जुगत आजमाता है और हर कोशिश में सफल भी हो जाता दिख रहा है.जरूरतों के कितने अनिवार्य आयाम हो सकते है,यह व्यक्ति इन माध्यमो के सबसे प्रभावी हिस्से यानि ‘विज्ञापनों’ को देखने के बाद ही जान पाता है.बढ़ते बच्चे के लिए दूध में मिलाये जाने वाले जरूरी विशेष ब्रांडो से लेकर स्कूली परीक्षा के समय दिमाग को तेज कर देने वाले चमत्कारी पेय का विज्ञापनों से आम सरल नागरिक ही नहीं अच्छे खासे पढ़े समझदार लोग भी चक्कर में आ जाते है.विज्ञापन प्रभावित मात्र नहीं करते बल्कि उससे कही आगे जाकर अपने पक्ष की मानसिकता का विकास भी करते है.इस प्रक्रिया को हम उपभोक्ता संस्कृति की संस्कार प्रक्रिया कह सकते है.यह बिंदु इस दुनिया का एक आयाम भर है.यहाँ बात इससे आगे और अलग दृष्टिबोध की पहचान की कोशिश करने की होनी चाहिए.

संस्कार-प्रक्रिया को संचालित और प्रभावित करने का दमखम अन्य सभी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनितिक स्थितियों की भांति ताकतवर जमात के पास ही है. टीवी चैनलों की दुनिया पर पुरुषवादी मानसिकता से आपादमस्तक डूबे इन ताकतवर जमातों के लिए ‘स्त्री’ और ‘स्त्रीदेह’ सबसे फायदेमंद टूल दिखाई देता है.वह इस टूल का बर्बरता की हद तक इस्तेमाल करता है.इसके साथ ही साथ ही वह यह भी जानता है कि इस टूल का व्यक्तिव भी है ब्रेख्त से शब्द लेकर कहे तो ‘उसमे एक नुस्ख है कि वह एक आदमी भी’ होती है.किसी भी व्यक्ति को अपना गुलाम बना लेने की सबसे मजबूत और सरल तरीका है;उसकी सोचने समझने की प्रक्रिया को अपने हिसाब से विकसित कर देना.उपभोक्तावादी दुनिया के स्वामी अपने इस ‘टूल’ को हर संभव असंभव तरीके से अपने कब्जे में रखे रहना चाहता है.यहाँ यह मान लेने में गुरेज नहीं है कि ऐसा करने में वह पूरी तरह सफल भी है.

स्त्रियों की मानसिकता को पुरुषवादी घेरे के भीतर ही बनाने और विकसित करने की सूक्ष्म एवं प्रभावी काम  टीवी चैनलों सहित तमाम मनोरंजन-सूचना माध्यमो द्वारा किया जा रहा है.कई बार यह काम स्त्री-स्वतंत्रता और मुक्ति के नाम पर किया जाता है.जीवविज्ञान और रोजाना होने  नये विदेशी अनुसन्धानो को आधार बना कर स्त्री की सामान्य दैनिक आवश्यकताओं को अलगाया जाता है.जिन विज्ञापनों में स्त्री और स्त्री-देह को टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है उन्ही के माध्यम से स्त्री मन को संस्कारित करते रहने की प्रक्रिया भी संचालित करता है.यहाँ ‘संस्कार’ का सकारात्मक अर्थ लेना सबसे बड़ी भूल होगी.यह संस्कार पूरी तरह पुरूषवादी चाशनी में डुबोया रहता है.इसको उदाहरणों से सिद्द करने में आपको ज्यादा नहीं किसी भी समय टीवी या दूसरे माध्यमों के विज्ञापनों की ओर देखना होगा.

कुछ विज्ञापनों का जिक्र और उन पर पर चर्चा करते हुए इस साजिश की परतों को उघाडा जा सकता है.पहले बच्चो के लिए ‘निर्धारित’ चैनलों की बात करे. एक विज्ञापन में डब्ल्यू.डब्ल्यू.ऍफ़ के सितारों वाले प्लेइंग कार्ड का प्रभाव दिखाया जाता है.मियां-बीबी और बेटा-बेटी वाले इस आधुनिक परिवार में पिता-पुत्र की जोड़ी नये सितारों की उपलब्धियों वाला कार्ड पा टीवी देखना झोड़ ‘पुरुषोचित’ खेल के आभासी मजे लेने लगते है.बेटी अपनी माँ के साथ टीवी सीरियलों वाली सास-बहू और साजिश के लिए प्रशिक्षित होने लगती है.वैसे मुझे नही लगता कि बच्चों के लिए कार्टून सीरियल बनाते समय गर्ल-चाइल्ड को भी ध्यान में रखा जाता है.खास कर हिंदी में प्रसारित होने वाले सीरियलों के बारे में तो यह दावे के साथ कहां जा सकता है.पोषण देने वाले तथाकथित पूरक आहारों का किन-किन विज्ञापनों में आपने किसी ‘बढती बच्ची’ की चिंता देखी है.जोर डालने पर शायद एकाध की धुधली याद आये.हमारा ध्यान इस बात की ओर भी जाना चाहिए कि इन हस्ट-पुष्ट करने वाले विज्ञापनों को बच्चियां भी गाहे बगाहे ही सही ,देखती तो जरूर होंगी.इन विज्ञापनों में अपना चेहरा ना पा कर उसकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा.उसके मन के किसी कोने में हीनता का एहसास जन्म न ले,या अपने छोटे-बड़े भाई के कुछ विशेष होने का आभास न मिले, ऐसा कतई माना जा सकता.जिस समाज में बच्चियों को जन्म लेने से पहले ही हमेशा के लिए विदा कर दिया जाता है.वहा बच्चियों के ‘पोषण’ को बेच कर मुनाफा नहीं कमाया जा सकता है.मुनाफा भले ही ना कमाया जा सके पर उन्ही बच्चियों को माँ की तरह लिपस्टिक पोतते दिखा कर भविष्य के बाजार के कई पहलू तैयार किया जा सकता है.

अब थोड़ी बड़ी बच्चियों के बारे में चर्चा भी जरूरी हो जाता है.इनके लिए विज्ञापन की दुनिया में  अनंत विस्तार वाले जाल को लगातार बुना जा रहा है.इसका एक उदाहरण हमे इत्र या डीयो या फ्रेगरेन्स के विज्ञापनों के रूप में मिलता है.अधिकाँश विज्ञापनों की भोंडी और अश्लील प्रस्तुति चर्चा के साथ कभी-कभी विरोध का केंद्र बनता है.फिर भी मामला जस का तस हो जाता है.इन विज्ञापनों में सारा जोर इस बात पर होता है कि  इत्र या डीयो या फ्रेगरेन्स के प्रभाव में स्त्रियाँ सारी हदें तोड़ देती है.जिस पुरुष ने नैनो ग्राम में भी इनको लगाया वह चाहे न चाहे परियाँ तक उसके लिए अपना परीपना तक छोड़ देने में क्षणभर की देरी नहीं करती है.इसके महिमा और आगे बढ़ कर वर्ग-भेद तक को ख़त्म कर देती है. इत्र की महक मिलने भर की देर नहीं कि अपने बॉय फ्रेंड से मिल कर निकली लडकी सडक किनारे बैठे बेसहारे आदमी से चिपटने लगती है.इसके लिए उसे साम्यवादी-समाजवादी  होने की जरूरत नहीं होती. इत्र उसे चिंतन और विचार स्तर को इतना सपाट और निष्क्रिय कर देता है कि वह कामुक जीव मात्र रह जाती है.एक विज्ञापन में आगे की हद ‘बम चिका बमबम’ के नारे के साथ दिखाई देती है.नायक अपनी मित्र को अपने बॉस से पहली बार मिलवाता है.वाशरूम में गया बॉस गलती से नायक के इत्र की डिबिया से एक स्प्रे ले लेता है.आगे जो होता है उसमे  गलती उसकी नहीं निकाल सकते है.उसके कर्मचारी की महिला-मित्र उसी इत्र के प्रभाव में ‘वल्गर’ ढंग से उसके कपड़े उतार देती है.

एक खास किस्म की बाईक पर सवार होने पर राह चलती अनजानी लडकियां अकुंठ भाव से ‘बैकसीटपर बैठने के लिए आतुर दिखाई देती है.बर्तनों या किचन से जुडी चीजों के विज्ञापनो महिलायों को ही केंद्र में रखा जाता है.यदि आधुनिक कपड़े में सजी लडकी बिंदास और खरीदारी की मानसिकता से प्रभावित होती है तो घरेलू महिलाओं को दुनियादार स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है.सौन्दर्य-साधनों के विज्ञापन में विशेष किस्म पुरुषसापेक्ष स्त्री बनने  की मानसिकता को उभारा ही नहीं जाता बल्कि हर संभव तरीके से उसे विकसित करने का और स्थापित करने का निर्द्वन्द्व प्रयास किया जाता है. लिए   इसी तरह के तमाम विज्ञापन क्षण दर क्षण हमारें और हमारे परिवारों के आखों के आगे चाहे अनचाहे फ्लेश हो रहा है. इन्हें छोटी छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी बूढी सब देख रही है.जब घर की बड़ी बूढी भी इन विज्ञापनों के गहरी मार से बच नहीं पा रही है.वैसे में छोटी और किशोर होती बच्चियों की कौन सी बिसात.टीवी देखने में चेतना और समझदारी की बात उठाई जा सकती है.यहाँ ध्यान दिलाते चले की ‘चेतना और समझदारी’ के विकास के लिए जिस स्वतंत्र स्पेस की आवश्यकता होती है उसके लिए ये माध्यम कोई गुंजाइश छोड़ रहे है क्या? विज्ञापनो में भूमिका निभा रही स्त्री का बार बार एक ही रस्ते पर जाते हुए देखने के बाद बहुत सी किशोरियों उपभोक्तावादी जीवन के लिये संस्कार सम्पन्न हो जाने में कोई दुविधा नहीं है. वह अगर तेजी से बाजार के हिसाब से ढलती है तो बाजार को नियंत्रित करने वाली ताकतों की ‘पुरूषवादी साजिश’ सफल हो जाती है आगे चल कर पुरुष होने वाले बच्चों और किशोरों भी यह अच्छी तरह जान लेते है कि लडकियाँ तो ऐसी ही होती है.टूल की तरह इस्तेमाल कर रहा बाजार अपने टूल को भविष्य के लिए भी तैयार करता रहता है.

एकाध विज्ञापनों में इस तरह का प्रस्तुतिकरण होता तो शायद ज्यादा चिंतित होने की जरूरत न पडती.यहाँ हर कुएं में भांग ही नहीं दूसरी तमाम नशीली चीजे जम कर घोली जा रही है.बाजार में इन उत्पादों की बढती मांग भी विज्ञापनों की ताकत सिद्द कर रही है. हिंदी सिनेमा का बादशाह का यह कहनालडकियों वाली क्रीम लडके तो मानते ही होंगे,साथ ही लडकियां भी सचेत होती होंगी कि उनका गोरा होना जरूरी है,क्योकि लडके भी छुप-छुप के गोरे होने के लिए ‘बादशाह’ की बात मान रहे है. के   यहाँ चिंता का मामला यह है कि टीवी देखते समय हमेशा सजग बने रहना कठिन है.इन विज्ञापनों को केवल सजग और चिन्तनशील जमात ही नहीं देखता.विज्ञापनों सहित सभी पुरुषवादी सत्ता प्रतिष्ठानों का प्रयास भी यही होता है कि सजग और चिंतनशील जमात किसी भी रूप में विकसित न होने पाए.अगर हो भी तो उन्ही के तय दायरे में.इतना होने के बाद भी चेतना का अंकुर फूट ही पड़ते है और उनके फूटते ही इन ‘संस्कारों की कड़ियों को एक झटके में तोड़ देती है..

अचानक 
कहता है मर्द 
"देखो
मैं इश्वर हूँ
औरत देखती है उसे 
और 
ईश्वर को खो देने की पीड़ा से बिलबिलाकर 
फेर लेती है 
अपना मुँह
**(ज्योत्स्ना मिलन)


शनिवार, 22 जनवरी 2011

अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याएँ - फैज अहमद फैज

शीमा माजीद द्वारा संपादित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिन्दा अंग्रेजी लेखों का संग्रह 'कल्चर एंड आइडेंटिटी: सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स ऑफ़ फैज़' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2005) अपनी तरह का पहला संकलन है. इस संकलन में फ़ैज़ के संस्कृति,कला, साहित्य,सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख इसी शीर्षक के पांच खण्डों में विभाजित है. इसके अलावा एक और 'आत्म-कथ्यात्मक' खंड है, जिसमें प्रमुख है फ़ैज़ द्वारा 7 मार्च 1984 (अपने इंतकाल से महज़ आठ महीने पहले) को इस्लामाबाद में एशिया स्टडी ग्रुप के सामने कही गई बातों की संपादित ट्रांसक्रिप्ट. पुस्तक की भूमिका पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के मशहूर आलोचक मुहम्मद रज़ा काज़िमी ने लिखी है. शायरी के अलावा फ़ैज़ साहब ने उर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में साहित्यिक आलोचना और संस्कृति के बारे में विपुल लेखन किया है. साहित्य की प्रगतिशील धारा के प्रति उनका जगजाहिर झुकाव इस संकलन के कई लेखों में झलकता है. इस संकलन में शामिल अमीर ख़ुसरो, ग़ालिब, तोल्स्तोय, इक़बाल और सादिकैन जैसी हस्तियों पर केन्द्रित उनके लेख उनकी 'व्यावहारिक आलोचना' (एप्लाइड क्रिटिसिज्म) की मिसाल हैं. यह संकलन केवल फ़ैज़ साहब के साहित्यिक रुझानों पर ही रौशनी नहीं डालता बल्कि यह पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की संस्कृति और विचार की बेहद साफदिल और मौलिक व्याख्या के तौर पर भी महत्त्वपूर्ण है. इसी पुस्तक के एक लेख 'कल्चरल प्रौब्लम्स इन अंडरडेवलप्ड कंट्रीज' का हिन्दी अनुवाद नया पथ के फ़ैज़ विशेषांक से साभार प्रस्तुत है - भारत भूषण तिवारी

अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याएँ


इंसानी समाजों में संस्कृति के दो मुख्य पहलू होते हैं; एक बाहरी,औपचारिक और दूसरा आंतरिक,वैचारिक. संस्कृति के बाह्य स्वरूप,जैसे सामाजिक और कला-सम्बन्धी,संस्कृति के आंतरिक वैचारिक पहलू की संगठित अभिव्यक्ति मात्र होते है और दोनों ही किसी भी सामाजिक संरचना के स्वाभाविक घटक होते हैं.जब यह संरचना परिवर्तित होती है या बदलती है तब वे भी परिवर्तित होते हैं या बदलते हैं और इस जैविक कड़ी के कारण वे अपने मूल जनक जीव में भी ऐसे बदलाव लाने में असर रखते हैं या उसमें सहायता कर सकते हैं. इसीलिए सांस्कृतिक समस्याओं का अध्ययन या उन्हें समझना सामाजिक समस्याओं अर्थात राजनीतिक और आर्थिक संबंधों की समस्याओं से पृथक करके नहीं किया जा सकता. इसलिए अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में मतलब सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में में रखकर समझना और सुलझाना होगा.

फिर अविकसित देशों की मूलभूत सांस्कृतिक समस्याएँ क्या हैं? उनके उद्गम क्या हैं और उनके समाधान के रास्ते में कौन से अवरोध हैं?
मोटे तौर पर तो यह समस्याएँ मुख्यतः कुंठित विकास की समस्याएँ हैं; वे मुख्यतः लम्बे समय के साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शासन और पिछड़ी, कालबाह्य सामाजिक संरचना के अवशेषों से उपजी हुई हैं. इस बात का और अधिक विस्तार से वर्णन करना ज़रूरी नहीं. सोलहवीं और उन्नीसवीं सदी के बीच एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के देश यूरोपीय साम्राज्यवाद से ग्रस्त हुए. उनमें से कुछ अच्छे-खासे विकसित सामंती समाज थे जिनमें विकसित सामंती संस्कृति की पुरातन परम्पराएँ प्रचलित थीं. औरों को अब भी प्रारम्भिक ग्रामीण कबीलाईवाद से परे जाकर विकास करना था. राजनीतिक पराधीनता के दौरान उन देशों का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जम सा गया और यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने तक जमा ही रहा. तकनीकी और बौद्धिक श्रेष्ठता के बावजूद इन प्राचीन सामंतवादी समाजों की संस्कृति एक छोटे से सुविधासंपन्न वर्ग तक ही सीमित थी और उसका अंतर्मिश्रण जन साधारण की समानान्तर सीधी सहज लोक संस्कृति से कदाचित ही होता. अपनी बालसुलभ सुन्दरता के बावजूद आदिम कबीलाई संस्कृति में बौद्धिक तत्त्व कम ही था. एक ही वतन में पास पास रहने वाले कबीलाई और सामंतवादी समाज दोनों ही अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ लगातार कबीलाई, नस्ली और धार्मिक या दीगर झगड़ों में लगे रहते. अलग अलग कबीलाई या राष्ट्रीय समूहों के बीच का लम्बवत विभाजन (vertical division), और एक ही कबीलाई या राष्ट्रीय समूह के अंतर्गत विविध वर्गों के बीच का क्षैतिज विभाजन (horizontal division), इस दोहरे विखंडन को उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी प्रभुत्व से और बल मिला. यही वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूलभूत ज़मीनी संरचना है जो नवस्वाधीन देशों को अपने भूतपूर्व मालिकों से विरासत में मिली है.

एक बुनियादी सांस्कृतिक समस्या जो इनमें से बहुत से देशों के आगे मुँह बाए खड़ी है, वह है सांस्कृतिक एकीकरण की समस्या. लम्बवत एकीकरण जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जन समूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक ऊपर उठाना और शिक्षित करना. इसका मतलब यह कि उपनिवेशवाद से आज़ादी तक के गुणात्मक राजनीतिक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपने पीछे छोड़ गया है.

एशियाई, अफ्रीकी और लातिन अमरीकी देशों पर जमाया गया साम्राज्यवादी प्रभुत्व विशुद्ध राजनीतिक आधिपत्य की निष्क्रिय प्रक्रिया मात्र नहीं था और वह ऐसा हो भी नहीं सकता था. इसे सामाजिक और सांस्कृतिक वंचन (deprivation) की क्रियाशील प्रक्रिया ही होना था और ऐसा था भी. पुराने सामंती या प्राक-सामंती समाजों में कलाओं, कौशल्य,प्रथाओं, रीतियों,प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों और बौद्धिक प्रबोधन के माध्यम से जो कुछ भी अच्छा, प्रगतिशील और अग्रगामी था उसे साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने कमज़ोर करने और नष्ट करने की कोशिश की. और अज्ञान, अंधविश्वास,जीहुजूरी और वर्ग शोषण अर्थात जो कुछ भी उनमें बुरा, प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी था उसे बचाए और बनाए रखने की कोशिश की. इसलिए साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने नवस्वाधीन देशों को वह सामाजिक संरचना नहीं लौटाई जो उसे शुरुआत में मिली थी बल्कि उस संरचना के विकृत और खस्सी कर दिए गए अवशेष उन्हें प्राप्त हुए. और साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने भाषा, प्रथा, रीतियों, कला की विधाओं और वैचारिक मूल्यों के माध्यम से इन अवशेषों पर अपने पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रतिरूपों की घटिया,बनावटी, सेकण्ड-हैण्ड नकलें अध्यारोपित कीं.

अविकसित देशों के सामने इस वजह से बहुत सी सांस्कृतिक समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं. पहली समस्या है अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचा कर निकालने की जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार है, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके, और जो प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मज़बूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद करे. दूसरी समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक संरचना का मूलाधार हैं, जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं, और जो अधिक विवेक बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं. तीसरी समस्या है, आयातित विदेशी और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौन्दर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले जाने में सहायक हों, और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग करने की जो अधःपतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य बढ़ावा देने का काम करते हैं.

तो ये सभी समस्याएँ नवीन सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की हैं. और इन समस्याओं का समाधान आमूल सामाजिक (अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक) पुनर्विन्यास के बिना केवल सांस्कृतिक माध्यम से नहीं हो सकता.

इन सभी बातों के अलावा, अविकसित देशों में राजनीतिक स्वतंत्रता के आने से कुछ नई समस्याएँ भी आई हैं. पहली समस्या है उग्र-राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवाद, और दूसरी है नव-साम्राज्यवादी सांस्कृतिक पैठ की समस्या.

इन देशों के प्रतिक्रियावादी सामाजिक हिस्से; पूंजीवादी, सामंती,प्राक-सामंती और उनके अभिज्ञ और अनभिज्ञ मित्रगण ज़ोर देते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा के अच्छे और मूल्यवान तत्वों का ही पुनःप्रवर्तन और पुनरुज्जीवन नहीं किया जाना चाहिए बल्कि बुरे और बेकार मूल्यों का भी पुनःप्रवर्तन और स्थायीकरण किया जाना चाहिए. आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के बुरे और बेकार तत्वों का ही नहीं बल्कि उपयोगी और प्रगतिशील तत्वों का भी अस्वीकार और परित्याग किया जाना चाहिए. इस प्रवृत्ति के कारण एशियाई और अफ्रीकी देशों में कई आन्दोलन उभरे हैं. इन सारे आन्दोलनों के उद्देश्य मुख्यतः राजनीतिक हैं, अर्थात बुद्धिसम्पन्न सामाजिक जागरूकता के उभार में बाधा डालना और इस तरह शोषक वर्गों के हितों और विशेषाधिकारों की पुष्टि करना.

उसी समय नव-उपनिवेशवादी शक्तियाँ, मुख्यतः सं.रा.अमरीका, अपराध,हिंसा,सिनिसिज्म,विकार और लम्पटपन का महिमामंडन और गुणगान करने वाली दूषित फिल्मों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, संगीत, नृत्यों, फैशनों के रूप में सांस्कृतिक कचरे,या ठीक-ठीक कहें तो असांस्कृतिक कचरे के आप्लावन से प्रत्येक अविकसित देश के समक्ष खड़े सांस्कृतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रही हैं. ये सभी निर्यात अनिवार्यतः अमरीकी सहायता के माध्यम से होने वाले वित्तीय और माल के निर्यात के साथ साथ आते हैं और उनका उद्धेश्य भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात अविकसित देशों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ने से रोकना और इस तरह उनके राजनीतिक और बौद्धिक परावलंबन का स्थायीकरण करना. इसलिए इन दोनों समस्याओं का समाधान भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात देशज और विदेशी प्रतिक्रियावादी प्रभावों की जगह पर प्रगतिशील प्रभावों को स्थानापन्न करना. और इस काम में समाज के अधिक प्रबुद्ध और जागरूक हलकों जैसे लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका होगी. संक्षेप में, कुंठित विकास, आर्थिक विषमता, आंतरिक विसंगतियाँ, नकलचीपन आदि अविकसित देशों की प्रमुख सांस्कृतिक समस्याएँ मुख्यतः सामाजिक समस्याएँ हैं; वे एक पिछड़ी हुई सामाजिक संरचना के संगठन, मूल्यों और प्रथाओं से जुड़ी हुई समस्याएँ हैं. इन समस्याओं का प्रभावी समाधान तभी होगा जब राष्ट्रीय मुक्ति के लिए हुई राजनीतिक क्रान्ति के पश्चात राष्ट्रीय स्वाधीनता को पूर्ण करने के लिए सामाजिक क्रान्ति भी होगी.

मंगलवार, 11 मई 2010

संस्कृति का विश्लेषण

संस्कृति बतौर संघर्ष-स्थल
के एन पणिक्कर
चित्र यहां से साभार
(यह आलेख-अंश कन्नूर विश्वविद्यालय, केरल में 28 से 30 दिसम्बर 2008 के दौरान हुए भारतीय इतिहास परिषद के 69 वें अधिवेशन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण पर आधारित है और इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, खण्ड XLIV, संख्या 7, 14-21 फरवरी 2009 में प्रकाशित मूल अंग्रेजी आलेख का अनुवाद है जिसे जनपक्ष के लिये अनुवादक भाई भारतभूषण तिवारी ने उपलब्ध कराया है)



"संस्कृति का विश्लेषण", क्लिफर्ड गर्ट्स के अनुसार, "सिद्धान्तों की खोज में रत प्रयोगात्मक विज्ञान न होकर अर्थ की तलाश करने वाला व्याख्यात्मक विज्ञान है" (गर्ट्स 1973: 5). संस्कृति के अर्थ की तलाश में "उन गतिविधियों के रूपों की समग्रता समाहित होती है जिनमें अथवा जिनके द्वारा मानवीय अस्तित्व स्वयं को सार्थक करता है". इसे ही अर्नेस्ट कसिरर 'संस्कृति का विज्ञान' कहते हैं (कसिरर 2002). संस्कृति के अर्थ की तलाश मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व और अस्तित्वपरक परिस्थितियों का सामना करने के उसके प्रयासों के समानान्तर चलती है. संस्कृति की अवधारणा इसीलिए समाज द्वारा स्थापित नियंत्रणों पर निर्भर करती है. मगर इसके साथ ही संस्कृति का अर्थ समाज की संरचना में होने वाले बदलावों के साथ साथ निरंतर संशोधित और परिष्कृत होता रहता है. दूसरे शब्दों में, संस्कृति अपने चरित्र और व्यवहार में जड़ न होकर गतिशील है. अपने गतिशील चरित्र के कारण ही समय के साथ संस्कृति अलग अलग अर्थ धारण करती है. मेथ्यु अर्नाल्ड ने जिस समय संस्कृति को 'स्टडी ऑफ़ परफेक्शन' के तौर पर चिन्हित किया था, तब से अब तक संस्कृति के मानी काफी हद तक बदल चुके हैं. अर्नाल्ड की दृष्टि में 'संस्कृति, ज्ञान-प्राप्ति के वैज्ञानिक आवेग की शक्ति मात्र से ही नहीं, बल्कि सद्कर्म करने की नैतिक एवं सामाजिक इच्छाशक्ति से भी प्रवाहित होती है' (अर्नाल्ड 1932: 45). इस आदर्श और यूटोपियन भावना की जगह अब उन संकल्पनाओं ने ले ली है जो सामाजिक संवेदना और राजनैतिक ज्ञान से युक्त हैं. उदाहरणार्थ नोर्बर्ट एलिअस संकेत करते हैं कि " कुल्तुर की अवधारणा राष्ट्र की आत्म-चेतना का प्रतिबिम्ब है जिसे राजनैतिक एवं आध्यात्मिक अर्थों में लगातार अपनी सीमाओं को ढूंढ़ना एवं नए सिरे से स्थापित करना पड़ा और बार बार स्वयं से पूछना पड़ा: क्या है हमारी वास्तविक पहचान?" (एलिअस 1978: 5-6). कई लोग दावे के साथ कहेंगे कि इस प्रश्न का उत्तर संस्कृति में गर्भित है और यह व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है.

एलिअस समाज की पहचान के निर्माण में संस्कृति की निर्णायक भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. उनके अनुसार समाज और संस्कृति का सम्बन्ध सहजीवी है क्योंकि स्वयं के चरित्र को आकार देने में उन्होंने परस्पर एक दूसरे को प्रभावित किया है. यह सहजीवी सम्बन्ध ऐतिहासिक है क्योंकि सांस्कृतिक बनावटें,उत्पादन की शक्तियों के सन्दर्भ में, एक लम्बे अन्तराल में विकसित हुईं. समाज की पहचान की तलाश, विशेषकर सामाजिक परिवर्तनों के दौर में प्रगट होकर, सांस्कृतिक अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ कर उन्हें नए अभिप्राय प्रदान करती है. वैश्वीकरण के वर्तमान दौर की तरह भारतीय इतिहास में उपनिवेशवाद का दौर ऐसा ही समय था जिसमें अतीत केवल मोहक ही नहीं लगता था बल्कि प्रतिरोध की सम्भावना को भी बनाए रखता था. मसलन औपनिवेशिक भारत में त्रस्त हो चुके परम्परावादी सम्भ्रान्त वर्ग ने 'वापिस उद्गम की ओर' जाकर संस्कृति के अर्थ की पुनर्रचना और समाज में होने वाले परिवर्तनों से उपजी चुनौतियों का सामना करने के लिए उसकी पुनर्व्याख्या करनी चाही. परन्तु 'वापिस उद्गम की ओर' जाने के प्रयास ने ऐतिहासिक अनुभव के उस आवश्यक तत्त्व को नकारना चाहा जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ आपस में मिलती हैं. इसी साहचर्य के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विविधता उपजी जो नित नए सांस्कृतिक प्रवाहों के मिश्रण से समृद्ध होती रही.

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

संग्रहालय की चीज़ बनाना चाहती है सरकार आदिवासियों को



एक ओर सामाजिक-आर्थिक प्रगति के झूठ के प्रचार और अपने लूट को ढंकने वाली सत्ता संस्कृति के विज्ञापन और दूसरी ओर अराजक तरीके से किए जा रहे उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों के विज्ञापन, बिहार में आजकल पहली नजर में इसी की भरमार दिखती है. जनता के बुनियादी सवालांे को घनघोर विज्ञापनबाजी के जरिए ढंक देने की जैसे एक जबर्दस्त कोशिश चल रही है. ऐसे ही समय में जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया. जिसका उद्घाटन करते हुए जनसंस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृश्ण ने कहा कि सृजनोत्सव पूरे मुल्क में विभिन्न भाशाओं, बोलियों और कलारूपों में जनता के रोजमर्रे के संघर्षों और आंदोलनों को एक मंच देने की शुरुआत है. उद्घाटन वक्तव्य से पहले पंजाब से आए मेहनतकष जनता और दलित स्वाभिमान के संघर्शषील प्रतीक बन चुके जनगायक बंत सिंह ने जिस तरह किसान-मजदूरों की एकता की जरूरत बताते हुए अपने गीत में न्याय के लिए लड़ने वाली बेटियों की आकांक्षा को स्वर दिया उसके जरिए भी इस आयोजन का मकसद अभिव्यक्त हुआ. अपने बेटी के बलात्कारियों को दंडित करवाने के संघर्ष के दौरान कांग्रेस समर्थक जमींदारों ने बंत सिंह के पैर और हाथ काट दिए थे, मगर इसके बावजूद प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति के लिए वे उतने ही बुलंद इरादे से सक्रिय हैं.


अपने उद्घाटन वक्तव्य में प्रणय कृष्ण ने कहा कि हिंदुस्तान अभी भी करोड़ों मेहनतकशों का राष्ट्र नहीं बन सका है. शासकवर्ग और बाजार के जरिए जिस संस्कृति को पेश किया जाता है वहां मेहनतकशों की राष्ट्रीय संस्कृति नजर नहीं आती. प्रभु वर्गों की कुलीन संस्कृति में मेहनतकश आदिवासी जनता सिर्फ सजावटी हिस्सा बनकर रह जाते हैं. उनके जीवन के संघर्श, उनकी पीड़ा और उनकी आकांक्षा को वहां जगह नहीं मिलती. जिस तरह अमेरिका में रेड इंडियन को नष्ट करके संग्रहालयों की चीज बना दिया गया, उसी तरह का व्यवहार यहां शासकवर्ग आदिवासियों के साथ कर रहा है, जिसका जोरदार प्रतिरोध जरूरी है. यह सृजनोत्सव मेहनतकश जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की संस्कृति तथा उनकी साझी राष्ट्रीय संस्कृति को ताकतवर बनाने और एक बेहतर मानवीय व्यवस्था के लिए जारी जद्दोजहद का एक अंग है. 

प्रणय कृष्ण ने कहा कि नागार्जुन की पूरी जिंदगी और उनका रचनाकर्म जनकार्रवाइयों और जनांदोलनों के जरिए निर्मित हुआ था, नागार्जुन के साथ ही यह वर्ष केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, अज्ञेय और फैज का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. जसम की ओर से इस दौरान जन संस्कृति की परंपरा के मूल्यांकन और उसे मजबूत बनाने के लिहाज से इन सारे रचनाकारों पर पूरे देश में आयोजन किए जाएंगे. 

मैथिली कथाकार अशोक ने निरंतर बढ़ती आत्मकेंद्रित संस्कृति के प्रति फिक्र जाहिर करते हुए नागार्जुन के जनजुड़ाव को एक जरूरत की तरह याद किया. अध्यक्षता कर रहे लोकयुद्ध पत्रिका के संपादक बृजबिहारी पांडेय ने कहा कि झूठ, लूट और दमन की शासकवर्गीय संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध की सारी परंपराओं को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा. यह वर्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती का भी जन्मशती वर्ष है, जिनके नेतृत्व में चले किसान आंदोलन में व्यक्ति और रचनाकार दोनों स्तर पर नागार्जुन शामिल थे
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आज के सांस्कृतिक संघर्षों के लिए हम अपनी परंपरा से क्या ले सकते हैं, इसकी बानगी सृजनोत्सव में विभिन्न कलारूपों और विधाओं तथा भाषाओं और बोलियों में हुई प्रस्तुतियों में नजर आई. एक ओर हिरावल (पटना) ने भारतेंदु हरिश्चन्द्र के बेहद लोकप्रिय नाटक को आज के शासकीय दमन के संदर्भों से जोड़कर पेश किया, वहीं दस्ता (बनारस) ने इंकलाबी शायर वामिक जौनपुरी की रचनाओं को गाकर सुनाया. चर्चित युवा रचनाकार हरिओम द्वारा पूरे दक्षिण एशिया में मशहूर इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज की कई मकबूल गजलों और नज्मों को एक नए अंदाज में पेश किया. इस तरह साझी संस्कृति और साझी विरासत के साथ ही इंकलाब के ख्वाब के प्रति हमारे दौर के संस्कृतिकर्मियों का जुड़ाव प्रदर्तशित हुआ
सृजनोत्सव का एक जबर्दस्त आकर्षण था भारत के महान जनवादी चित्रकारों चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के चित्रों की प्रदर्शनी. इस जनचित्रकला की परंपरा से लोगों को परिचित कराने में चित्रकार अशोक भौमिक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बंगाल के महाअकाल, महाराष्ट्र के अकाल और बाढ़, अनाथ, बाल श्रमिक से संबंधित चित्तप्रसाद के चित्र इस आयोजन में प्रदर्तशित थे. चित्तप्रसाद ने नौसेना विद्रोह में हिस्सा लिया था और उस विद्रोह से संबंधित चित्र भी बनाए थे. उन्हीं की तरह जैनुल आबेदिन बांग्ला देष के मुक्तियुद्ध में सक्रिय थे. बंगाल के अकाल पर बनाए गए उनके चित्र दस्तावेज की मान्यता रखते हैं. तेभागा आंदोलन के चित्रों के जरिए बहुचर्चित, ‘तेभागा डायरी’ के रचनाकार सोमनाथ होड़ द्वारा बनाए गए खेत मजदूरों के जीवन के अविस्मरणीय चित्र भी इस प्रदर्षनी में षामिल थे. इसके साथ ही श्रमषील आदिवासी जीवन से संबंधित युवा मूर्तिकार-चित्रकार मनोज पंकज के कांस्य शिल्प और रेखाचित्र, महिलाओं की शक्ति और सामर्थ्य को दर्शाती मधुलिका पंकज के चित्र भी अपने पूर्वज कलाकारों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रतीत हुए. दिल्ली के युवा चित्रकार अनुपम राय द्वारा कामनवेल्थ गेम के बहाने चलाई जा रही निर्माण योजनाओं में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की जिंदगी की विडंबनाओं पर बनाए गए चित्र एक तीखे कमेंट की तरह लगे. 

बाजार की संस्कृति की तीखी आलोचना कंदीर (कोलकाता) के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटक ‘टैलेंट हंट’ में थी, जो रियलिटी शो के खिलाफ था. आज लोक संस्कृति अपने शिल्प और प्रभाव में सत्ता और बाजार के सांस्कृतिक वर्चस्व को किस तरह चुनौती दे सकती है, इसकी बानगी देखने को मिली बंगाल से आई बाउल की टीम की प्रस्तुति के जरिए. जाति-संप्रदाय की बाड़ाबंदियों को नकारती लालन फकीर के गीतों को बाउल कलाकारों ने जिस तरह पेष किया, वह अद्भुत था. लोकनृत्य का जादू फरी नृत्य में भी दिखा, जिसे जोगिया (कुशीनगर) के कलाकारों ने पे्श किया. झारखंड संस्कृति मंच की महिला कलाकारों की टीम प्रेरणा द्वारा प्रस्तुत समूह नृत्य ‘जनी शिकारकिया गया, जो आदिवासी प्रतिरोध की प्रथम नायिकाओं सिनगी-कैली देई के नेतृत्व मंे हुए संघर्ष की याद में किया जाता है. 

सृजनोत्सव में बांग्ला, हिंदी, उर्दू, पंजाबी की जनपक्षधर रचनाओं के साथ-साथ इन भाशाओं की बोलियों के साथ-साथ झारखंड की जनभाशाओं की रचनाआंे और जनकला से भी लोग रूबरू हुए. पष्चिम बंग गण परिशद के कलाकारों ने बांग्ला और हिंदी जनगीत सुनाए
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एक सत्र हिंदी कविता पर कंेद्रित था, जिसमें चर्चित कवि दिनेश कुमार शुक्ल, शंभु बादल और रामाशंकर विद्रोही ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दिनेश कुमार शुक्ल की कविताओं ने जहां एक ओर मौजूदा साम्राज्यवादी-बाजारवादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न संकटों के खिलाफ चेतना को जगाने का काम किया, वहीं उसने प्रगतिषील जनवादी कविता और लोककाव्य की सुदीर्घ परंपरा की ताकत का भी अहसास कराया. गोरख पांडेय की याद में लिखी गई कविता की पंक्तियांे में वह जनता की ताकत के प्रति वह अभिनव आस्था दिखी, जिसके लिए दिनेश कुमार शुक्ल मौजूदा हिंदी कवियों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं- 

सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल/ किंतु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़/ चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़/ तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय/ और लड़ने का अब भी बनाते मन मछंदर/ फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछंदर. 

इतिहास में स्त्रियों के उत्पीड़न की लंबी दास्तान और उससे मुक्ति की आकांक्षा तथा धर्म के मिथ्या वजूद पर केंद्रित रामाशकर विद्रोही की लंबी कविताओं ने श्रोताओं को वैचारिक उत्तेजना से भर दिया. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता नूर मियां का भी पाठ किया. वरिष्ठ कवि शंभु बादल ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में मेहनतकश जनता की जिंदगी के संघर्श, आकांक्षा और परिवर्तन के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी. 

जसम बेगूसराय की टीम रंगनायक द्वारा नागार्जुन की कविताओं पर केंद्रित नाटक ‘हरिजन गाथा’ सृजनोत्सव की आखिरी प्रस्तुति था. इस मौके पर अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी, रंगनिर्देषक कुणाल, प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सत्यजीत और जसम के राषट्रीय पार्षदों समेत कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी बतौर दर्शक आयोजन में मौजूद थे. भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य भी अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच से समय निकालकर गजलों और बाउल की प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहे. सृजनोत्सव का संचालन जन संस्कृति मंच के बिहार राज्य सचिव युवा संस्कृतिकर्मी संतोष झा ने किया.  

प्रेषकः सुधीर सुमन


यह रिपोर्ट कुमार मुकुल के ब्लाग कारवां से साभार