शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

"राष्ट्र' शब्द का कोई अर्थ नहीं यदि उसका अर्थ "जनता' न हो



( प्रसिद्ध बुद्धिजीवी एजाज़ अहमद की पुस्तक का यह अंश भाई भारत भूषण तिवारी ने हमें जनपक्ष के लिये उपलब्ध कराया है। औपनिवेशिक युग में राष्ट्रवाद के उदय के विभिन्न पक्षों पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण लेखांश को यहां प्रस्तुत करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है और हमारा मानना है कि इसे पढ़ने के लिये पाठकों को लंबा वक़्त दिया जाना चाहिये। तो अनुरोध है कि सोमवार तक जनपक्ष पर कोई नयी पोस्ट न लगायी जाये)



जब मैंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि पारंपरिक समाज से सेकुलरिज़्म का उद्भव स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं हुआ बल्कि यह (सेकुलरिज़्म) एक आधुनिक नागरी विशेषता है जो समाज के आमूलचूल परिवर्तन के उद्यम के साथ-साथ अस्तित्व में आई, तब मैं कुछेक बातों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता था. एक तो यह कि भारत में आधुनिक राजनीति की शुरुआत नागरिकता के व्यवहार के तौर पर नहीं हुई क्योंकि कोई किसी उपनिवेश का नागरिक नहीं हो सकता. ऐसे दबाव समूहों का संगठन करने के बहुतेरे प्रयासों के तौर पर आधुनिक राजनीति की शुरुआत हुई जो उपनिवेशीय सत्ता के साथ बातचीत कर सकें. अनिवार्यतः इन दबाव समूहों का संगठन समाज में पहले से मौजूद सीमा-रेखाओं के इर्द-गिर्द हुआ जिससे कि धर्म, जाति और समुदाय के तत्त्व उनके संगठन में सर्वोपरि थे. सेकुलर होने के तमाम प्रयासों और दावों के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तक, अपने उद्धव के समय, विभिन्न धार्मिक घटकों और जातिगत समुदायों के बीच किसी तरह का संतुलन बनाने हेतु प्रयासरत थी. मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि धर्मविशेष अथवा संप्रदाय को मानने वाले विभिन्न व्यक्तियों और समूहों की व्याख्या सामंजस्यपूर्ण समुदायों और राजनीतिक घटकों के तौर पर केवल इसलिए की गई क्योंकि संभ्रांत समूहों के लिए यह ज़रूरी था कि वे ऐसे समुदायों और घटकों के प्रतिनिधित्व का दावा पेश करें. उपनिवेशीय समाज में जहाँ सम्प्रदाय मौजूद था वहाँ नागरिकता नहीं थी.


इस विचार को हम अब स्वतःसिद्ध मानते हैं कि हिन्दू और मुस्लिम और ईसाई क्रमशः समरूप और राजनीतिक आशयों वाले समुदाय हैं.यह विचार उत्पन्न है उस असाधारण क्षण का जब प्रतिनिधियों को उस चीज़ का अविष्कार करना पड़ा जिसका कि वे प्रतिनिधित्व कर रहे थे. गैर-नागरिकता वाले आधे-अधूरे तौर पर आधुनिक होते उस समाज में अपने प्रारम्भिक क्षण में राष्ट्रवाद केवल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही हो सकता था. ऐसे इसलिए क्योंकि राजनीतिक तौर पर बने राष्ट्र की सी पहचान का दावा करने की दृष्टि से वह (राष्ट्रवाद) राजनीतिक तौर पर अत्यंत दुर्बल था. कृपया इस तथ्य पर विचार करें कि हम एक राष्ट्र हैं यह दावा, हमारे इतिहास में, इस दावे से बहुत पुराना है कि हम एक सेकुलर राष्ट्र हैं या कि उपनिवेशीय अधिनायकवाद के उन्मूलन के बिना किसी मूलभूत तौर पर इस राष्ट्रत्व का जन्म नहीं हो सकता. हमारे राष्ट्रवादियों में सर्वाधिक सेकुलर लोग तक भारत को उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन ही से उपजा एक आधुनिक राष्ट्र और पंद्रह अगस्त 1947 की घड़िया से निकला एक घटक न मानकर सभ्यता के रूप में परिभाषित एक प्राचीन राष्ट्र समझते रहे. इन संकल्पनाओं में राष्ट्र एक सार्वजनिक नागरिकता और वैधिक समानता का उत्पाद न होकर पहले से ही एक कल्पित साझा संस्कृति का मूर्तन था. हमारा राष्ट्रवाद राजनीतिक या नागरी या सेकुलर होने से बहुत पहले सांस्कृतिक था. ऐसे माहौल में रक्त और जुड़ाव के, आध्यात्मिक तत्त्व के, नस्ली या धार्मिक विशेषता के, पुनरुत्थानवाद और शुद्धीकरण के प्रलोभन ख़ास तौर से प्रबल थे. हमारे धर्मवैधानिक सुधार आन्दोलनों में और भारतीय राष्ट्रवाद के पूर्वेतिहास तक में धार्मिक पहचान का निर्माण किया गया, उपनिवेशवाद-विरोधी और सांप्रदायिक अर्थों वाले राष्ट्रवाद के सम्पूर्ण इतिहास के दौरान ये बंगाल में उभरे हों या अन्यत्र, मसलन उत्तर भारत के मुस्लिम सुधारकों के बीच ही नहीं बल्कि समूचे मुस्लिम राजनीतिक एलीट में भी. अलगाववादी आन्दोलनों में हिस्सा लेने वालों में जितनी उतनी ही कांग्रेस राष्ट्रवाद में आत्मसात कर लिए गए आन्दोलनों में भी. ज़िन्ना और आज़ाद दोनों का मुस्लिम होने और मुस्लिमों का नेता होने पर समान आग्रह था; एकमात्र पेचीदगी यह थी कि मुसलमानों के लिए,जिनके प्रतिनिधित्व का दावा दोनों ही करते थे, दोनों के नुस्खे अलग-अलग थे.

इन सुधारकों, पुनरुत्थानवादियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के जातीय और वर्ग चरित्र ने इन सब बातों को और भी जटिल बना दिया था. जाति और वर्ग के इस उद्गम के लिए निश्चित तौर पर
ज़रूरी था कि उस जनता के वास्तविक चरित्र का अस्वीकार हो जिसे अब राष्ट्र माना जा रहा था. हमें आर्य मूल, वैदिक शुद्दता और मुस्लिम अत्याचार के बिम्ब प्रदान करने वाला ओरिएंटलिस्ट अध्ययन दरअसल किताबी यूरोपियनों और इन उच्च-जातीय भद्रजनों का मिलाजुला उत्पाद था, और इन बिम्बों में इन दोनों का निवेश एक-सा लेकिन भिन्न था. इसलिए इन अध्ययनों से जो नॉस्टालजिया उभरा उसका विशेष तौर पर तीव्र जातीय स्वरूप था; अतीत का भारत इन उच्च जातियों का अतीत था. ये पुनरुत्थानवाद किसी भी सारभूत तरीके से राष्ट्रीय भी न थे, जैसा कि ग्राम्शी का शाश्वत कथन है कि "राष्ट्र' शब्द का कोई अर्थ नहीं यदि उसका अर्थ "जनता' न हो. मगर उन भद्रजन-सुधारकों के लिए "जनता" एक अलंकारिक श्रेणी बनी रही जिसका हमेशा आवाहन तो किया जा सके पर सुधार के उन उद्यमों में जिसे कोई स्वायत्त स्पेस न दी जाये, जबकि राष्ट्र के नाम पर प्रस्तावित अथवा प्रयोजित सुधार हमेशा ही उन सुधारकों के अपने वर्ग, जाति एवं/या समुदाय तक सीमित रहे. इस तरह सुधार और पुनरुत्थानवाद के बीच की विभाजन रेखा सदैव अस्पष्ट बनी रही और ये पुनरुत्थानवाद वास्तव में उन उच्च जातियों की आत्मरति मात्र थे जो अब यथार्थ में शासन नहीं कर पा रहे थे और इस कारण केवल कल्पना में शासन कर रहे थे. और यह शासन वर्तमान में न होकर अतीत में था जिसे किसी भी तरह भविष्य में परिवर्तित किया जाना था. इस फैंटसी की सुरक्षा की एकमात्र गारंटी थी संपत्ति की वास्तविकता, जो अब भी उनके कब्ज़े में थी जैसा कि अतीत में हुआ करती थी. तो यहाँ उनके अतीत और वर्तमान के बीच की वास्तव कड़ी थी जिसे भविष्य में भी बनाये रखने की उन्हें आशा थी. उपनिवेशीय सत्ता इसलिए स्वीकार्य थी क्योंकि वह संपत्ति कि सच्ची गारंटीदाता थी. हमारे वे शुरूआती नायक सामाजिक और राजनीतिक तौर पर रूढ़िवादी थे उल्लेख किये जाने लायक भी उपनिवेशवाद-विरोधी नहीं थे.

अतः इस परिवेश में जन्म हुआ था हमारे राष्ट्रवाद का.



(थ्री एसेज़ द्वारा प्रकाशित पुस्तक "ऑन कम्युनलिज़्म एंड ग्लोबलाइज़ेशन: ऑफेंसिव्ज़ ऑफ़ दि फार राईट" से ऐजाज़ अहमद के निबंध (व्याख्यान) "राईट विंग पॉलिटिक्स, अॅण्ड दि कल्चर ऑफ़ क्रुअल्टी" का अंश)

7 टिप्‍पणियां:

  1. ग्राम्शी ने एक वाक्य में सब कुछ कह दिया है। इस अनुवाद के लिए भारत जी का आभार।

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  2. सहमत हूँ...अनुवाद के लिए आभार.

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  3. एक समीचीन आलेख...

    और यह निष्कर्ष:
    ‘हमारे राष्ट्रवादियों में सर्वाधिक सेकुलर लोग तक भारत को उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन ही से उपजा एक आधुनिक राष्ट्र और पंद्रह अगस्त 1947 की घड़िया से निकला एक घटक न मानकर सभ्यता के रूप में परिभाषित एक प्राचीन राष्ट्र समझते रहे.’
    एक बेहतर प्रस्थान बिंदु है...

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  4. इसका अर्थ यह है कि अब भारत "राष्ट्र" नहीं रह गया है।

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  5. सहमत हूँ. हमारा देश भारत वर्ष कभी भी एक राष्ट्र नहीं रहा जैसा कि राष्ट्रवादियों के द्वारा बार-बार प्रस्तुत किया गया. भारतीय राष्ट्र का विकास उपनिवेशकाल में ही हुआ है. पुनरुत्थानवादियों द्वारा भारत को एक प्राचीन राष्ट्र घोषित करने के प्रयासों के फलस्वरूप ही सांप्रदायिकता का उभार हुआ. इन लोगों को अब भी भारत को एक बहु सांस्कृतिक देश मानने में कठिनाई होती है, जबकि भारत विविध संस्कृतियों और लोकसंस्कृतियों का एक गुच्छा है. हाशिये पर पड़ी आदिवासी संस्कृतियाँ भी भारत का उतना ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं, जितना कि मुख्यधारा की संस्कृति. अगर ये बात सर्वसम्मति से मान ली जाये, तो सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोग मिलजुलकर रह सकते हैं.
    कुछ लाइनें मुझे बहुत पसन्द आईं. इनको एक-दो बार और पढ़कर फिर टिप्पणी करूँगी---
    --इन संकल्पनाओं में राष्ट्र एक सार्वजनिक नागरिकता और वैधिक समानता का उत्पाद न होकर पहले से ही एक कल्पित साझा संस्कृति का मूर्तन था. हमारा राष्ट्रवाद राजनीतिक या नागरी या सेकुलर होने से बहुत पहले सांस्कृतिक था. ऐसे माहौल में रक्त और जुड़ाव के, आध्यात्मिक तत्त्व के, नस्ली या धार्मिक विशेषता के, पुनरुत्थानवाद और शुद्धीकरण के प्रलोभन ख़ास तौर से प्रबल थे
    ---हमें आर्य मूल, वैदिक शुद्दता और मुस्लिम अत्याचार के बिम्ब प्रदान करने वाला ओरिएंटलिस्ट अध्ययन दरअसल किताबी यूरोपियनों और इन उच्च-जातीय भद्रजनों का मिलाजुला उत्पाद था, और इन बिम्बों में इन दोनों का निवेश एक-सा लेकिन भिन्न था.
    ----इस तरह सुधार और पुनरुत्थानवाद के बीच की विभाजन रेखा सदैव अस्पष्ट बनी रही और ये पुनरुत्थानवाद वास्तव में उन उच्च जातियों की आत्मरति मात्र थे जो अब यथार्थ में शासन नहीं कर पा रहे थे और इस कारण केवल कल्पना में शासन कर रहे थे.

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  6. Bahut saarthak aur upyogi post aur mukti ji ne bhi jis tarh se aur spasth kiya hai wah anupam hai....
    Bahut shubhkamnayne.....

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