मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मई दिवस पर कुछ मुख़्तसर सी बातें


(युवा संवाद के प्रदेश संयोजक प्रदीप की मई दिवस पर लेखमाला का पहला अंश)

मनुष्य जितना अधिक मूल्य पैदा करता है वह उतना ही कम उपभोग करता है, वह जितना ही मूल्य पैदा करता है उतना ही मूल्यहीन होता जाता है’........‘बुर्जूआ समाज में जीवित श्रम संग्रहीत श्रम को बढ़ाने का ज़रिया मात्र है....पूंजी स्वतंत्र है, उसका व्यक्तित्व है जबकि जिंदा व्यक्ति निर्भर है, उसका कोई व्यक्तित्व नहीं’
कार्ल मार्क्स





14वी-15वी शताब्दी में युरोप में पूंजीवादी उत्पादन पद्वति के प्रारम्भिक अंकूर फूटने लगे थे। लेकिन 16 वी शताब्दी तक उजरती मजदूर (ऐसे लोग जिनके पास उत्पादन के अपने कोई साधन नहीं होते तथा अपने श्रम-षक्ति के बाजार में बिक्री पर निभर्र करते है) आबादी का नगण्य हिस्सा थे। लेकिन औद्योेगिक क्रांति के परिणामस्वरूप पहले इंगलैंड में उसके बाद पूरे युरोप व अमेरिका में उजरती मजदूरों की संख्या लागातार बढ़ती गई। पूंजी के संकेन्द्रण के साथ ही मजदूरों का संकेन्द्रण भी बढ़ने लगा। इसी के साथ पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के हितों में टकराहट भी तेज होती गई। पूंजीवादी उत्पादन के संबंधों के प्रकट होने व विस्तार के साथ पंूजीवादी शोषण के विरूद्व मजदूरों का संघर्ष भी आरम्भ हूआ। जाॅन थेलवेल नामक रेडिकल आंदोलनकारी ने 1796 में लिखा था कि भविष्य की संभावनाऐं क्या थी - ‘‘कुछ हाथों में पूंजी के संकेन्द्रण और एकाधिकार.....की विराटता में समाधान के बीज़ थे......जो कुछ भी मनुष्य साथ लाता है उसमें कुछ बुराइयां भी होती हों तो अंततः उससे मानव स्वतंत्रता प्रोन्नत होती है, इसलिए हर बड़ा वर्कषाप या उत्पादन ग्रह एक तरह का राजनीतिक समाज होता है जिसे किसी पार्लियामेंट का कोई कानून चुप नहीं करा सकता और कोई मजिस्ट्रेट उसे भंग नहीं कर सकता.’’ उसकी भविष्यवाणी की पुष्टि दो दषकों में ही हो गई। ब्रिटेन में आंदोलनों का एक सिलसिला षुरू हो गया जो पहले से अधिक व्यापक और स्थायी षाबित हुआ। 1790 में लंदन के रेडिकल कारीगरों ने जिनमें मोज़ा बनाने वाले और जुलाहे जिनकी मजदूरी मषीने बनाने के कारण घट गई थी और कुशल मजदूरों, सूत कातने वालों, खेत मजदूरों की गैर-कानूनी यूनयिनों के संघर्ष के कई दौर आये - मशीने तोड़ी गई, जन प्रदर्शन हुए।


यह मजदूर वर्ग के विरोधों का आरंभिक दौर था। अभी तक मजदूर पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन होने वाले अपने शोषण के स्वरूप को समझने में सक्षम नहीं थे। मजदूरों के अस्तित्व की परिस्थितियां ही उन्हें संघर्ष के लिए विवष करती थी। लंबें समय तक वे अपने वर्गीय हितों को नहीं समझ पाये और यह भी कि उनके ये हित पूंजीपति वर्ग के हितों के विपरीत हैं। अपनी सामाजिक परिस्थितियों (जिंदगी के हालातो) को बदलने की कोषिष में मजदूर अपना गुस्सा मशीनों पर निकालते थे। वे अपने हालातों के लिए मशीनों को जिम्मदार समझते थे। उन दिनों मजदूरों की वर्ग चेतना के पिछड़ेपन के कारण इसने मशीनों के खिलाफ विद्रोह का रूप ग्रहण किया। पंूजीपतियों के भयानक षोषण के जवाब में मजदूर मशीनें तोड़ते थे। मशीनों या नई मशीनों के आ जाने से श्रम की उत्पादकता कई गूना बड़ जाती है, जिसके कारण मजदूरों की छटनी कर दी जाती है क्योकि अब नई मशीनों के माध्यम से पहले से कम मजदूर कई गुना अधिक उत्पादन कर सकते हैं। नई तकनीक और मशीनों का परिणाम काफी मजदूरों के बेरोजगार हो जाने में होता था जिसके कारण वे भूखमरी के कगार पर पहूॅच जाते थे। इसके लिए वे मशीनों को दोषी समझते थे। परंतू अपने जीवन अनुभव के आधार पर मजदूर धीरे-धीरे यह सीख रहे थे कि बात मषीनों की नहीं है, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था की है, जिसमें इन मषीनों का उपयोग उद्योगपतियों को ओर समृ़द्ध बनाने के लिए किया जाता है। अभी भी मजदूर पूंजीपतियों को अपना वर्ग षत्रु नहीं समझते थे, कतिपय दुष्ट व्यक्तियों के नाते ही उनसे संघर्ष करते थे। पूंजीवाद के विकास के साथ ही अपने हितों के लिए संघर्ष के दौरान ही मजदूर वर्ग ने अपने असली शत्रुओं की पहचाना, अपने वर्गीय हित समझे और यह भी कि वे शासक वर्ग के हितों के विपरीत हैं।

लेकिन आज भी काफी संख्या में ऐसे विचार और लोग मौजूद है जो लोगों की गरीबी, शोषण और बेरोजगारी के लिए मशीनों या मशीनीकरण को जिम्मेदार समझते हैं। न कि उस सामाजिक व्यवस्था को जिसके अधीन आज तकनीक का इस्तेमाल पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाने के लिए किया जाता है, न कि मजदूर वर्ग को काम के घंटे कम करके उनके व्यक्त्वि के अन्य पहलुओं का विकास करने के लिए। जब से मानव सभ्यता विकसित हुई है तभी से मनुष्य अपनी आजीविका को बेहतर और कम समय में कमाने के लिए नई तकनीकों का विकास करता रहा है। उत्पादन की तकनीकों में यह विकास पूंजीवाद के अधीन सबसे ज्यादा हुआ है। जरूरत तकनीक के विरोध की नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था के स्थापना की है ताकि मजदूर अपने श्रम से पैदा अधिशेष का स्वंय मालिक व नियोजनकर्ता बन सकें और उत्पादन की शक्तियों का विकास पूरी मानवता की मुक्ति का माध्यम बनें न कि आज की तरह केवल पूंजीपतियों की शोषण और लूट का माध्यम।

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