शनिवार, 22 मई 2010
असहमति के आदर के सिवा
( ‘इतिहास बोध’ में छपी हरिश्चन्द्र पाण्डे की यह महत्वपूर्ण कविता यहां प्रस्तुत की जा रही है। देखिए किस नायाब तरीके से उन्होंने अपनी निराली दृष्टि को अभिव्यक्त किया है। आज के समय की अपेक्षा को बख़ूबी शब्द दिये हैं. )
असहमति
अगर कहूंगा शून्य
तो ढूंढ़ने लग जाएंगे बहुत से लोग बहुत कुछ
इसलिए कहता हूं खालीपन
जैसे बामियान में बुद्ध प्रतिमा टूटने के बाद का
जैसे अयोध्या में मस्जिद ढ़हने के बाद का
ढहा-तोड़ दिए गये दोनों
ये मेरे सामने-सामने की बात है
मेरे सामने बने नहीं थे ये
किसी के सामने बने होंगे
मैं बनाने का मंज़र नहीं देख पाया
वह ढहाने का
इन्हें तोड़ने में कुछ ही घंटे लगे
बनाने में महिनों लगे होंगे या फिर वर्षों
पर इन्हें बचाए रखा गया सदियों-सदियों तक
लोग जानते हैं इन्हें तोड़ने वालों को नाम से जो गिनती में थे
लोग जानते हैं इन्हें बनाने वालों के नाम से जो कुछ ही थे
पर इन्हें बचाए रखने वालों को नाम से कोई नहीं जानता
असंख्य-असंख्य थे जो
पूर्ण सहमति तो एक अपवाद पद है
असहमति के आदर के सिवा
भला कौन बचा सकता है किसी को
इतने लंबे समय तक
०००००
हरीशचन्द्र पाण्डे
अद्भुत…
जवाब देंहटाएंयह कविता इतनी सहजता से इतना बड़ा वितान रचती है कि लगता है इसे मैने क्यों नहीं लिखा?
अच्छी है कविता ! इतिहास के संवेदनशील पक्ष का 'खालीपन' !
जवाब देंहटाएंबेहद सरल और और खुली हुई कविता...
जवाब देंहटाएंलोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में।
जवाब देंहटाएंतुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने।।
इससे अलग और बेहतर क्या है पाण्डे जी की इस कविता में।एक थकीं अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
बेनामी जी
जवाब देंहटाएंसमझ मुह छिपाने से ज़्यादा मुश्किल हुनर है। अगर आप शीर्षक पंक्तियां ही पढ़ पाते तो जान पाते कि हरिशचन्द्र जी की कविता उस प्रसिद्ध शेर की भावुक चीत्कार से कितना आगे जाती है…'असहमति का आदर' यानि कि लोकतंत्र का सबसे ज़रूरी मूल्य…यही है जो विनाश को बचा सकता है…
ख़ैर बेचेहरा और बेईमान लोगों से क्या सहमति और क्या असहमति
जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
जवाब देंहटाएं