शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

इसे कलारियों की चखचख मत बनाईये

विभूति नारायण राय-रवीन्द्र कालिया प्रसंग के सामने आते ही जनपक्ष ने अपना स्टैण्ड स्पष्ट कर दिया था। पाठकों का भरपूर समर्थन मिला और कुछ दूसरे मित्रों द्वारा चलाये जा रहे अभियान के साथ शामिल होकर हमने हस्ताक्षर एकत्र करने की भी मुहिम चलाई। हम सबके लिये न तो यह किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ कोई व्यक्तिगत लड़ाई थी न हीं केवल स्त्री समाज की लड़ाई। यह साहित्यजगत में व्याप्त मर्दवादी सोच के ख़िलाफ़ हमारा साझा प्रतिरोध था जिसे हिन्दी के ही नहीं बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ लेखकों का सहयोग मिला। फेसबुक पर वह हस्ताक्षर अभियान अब भी ज़ारी है और दबाव निरन्तर बढ़ रहा है।

लेकिन इन सबके बीच अपनी कलहप्रियता और बेनामी टीपों के माध्यम से अश्लील चरित्र हनन के लिये कुख्यात एक व्यवसायिक वेबसाईट मोहल्ला ने इस पूरे मुद्दे को व्यक्ति केन्द्रित बनाने और इस बहाने अपनी टी आर पी बढ़ाने की कुत्सित कोशिशें लगातार ज़ारी रखी हैं। आज इस वेबसाईट पर कवि बोधिसत्व के लिये जिस तरह की भाषा का उपयोग किया है वह कोई मदांध लंपट ही कर सकता है।

ज्ञातव्य है कि बोधिसत्व इस मसले पर हमारी राय से असहमत हैं और हमने इसका प्रतिकार भी फेसबुक और ब्लाग्स पर किया है। लेकिन हमारा मानना है कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक़ है और असहमतियों की अभिव्यक्ति भी शालीन भाषा में ही होनी चाहिये। इस वेबसाईट का असल उद्देश्य किसी तरह से पूरी लड़ाई से फ़ायदा हासिल करना और व्यक्तिगत कुंठायें निकालना लग रहा है जिसका फ़ायदा अंततः राय साहब और कालिया जी को ही होगा।

हम इस वेबसाईट द्वारा प्रयोग की गयी भाषा की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं और यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि वह हमारी लड़ाई का हिस्सा नहीं है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपने सही लिखा है अशोकजी. इस समय हम बेहतर उद्देश्यों के लिए एकजुट हैं. उसमें इस तरह के प्रसंग नहीं होने चाहिए. मैं बोधिसत्वजी का बड़ा सम्मान करता हूँ और अपने ब्लॉग पर मैंने उनको उसी प्रकार संबोधित भी किया है. किसी और साईट पर जो लिखा गया है उससे मेरा कोई लेना देना नहीं है.

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  2. जो जिस खेल में माहिर हो, वही करेगा, ऐसे किसी कृत्य से अपना कोई मतलब ही नहीं हो सकता.

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  3. अब तो मोहल्ला का उल्लेख तक करना बुरा लगता है।

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  4. दोस्तों, मैं तो "मोहल्ला" को एक शालीन लोकतांत्रिक मंच समझता था. वह मेरी भूल थी. वहाँ इतनी अभद्र भाषा का इस्तेमाल होता है कि मानों मुद्दे पर बहस नहीं गालियाँ देने की प्रतियोगिता हो रही हो!
    कुछ दिन पहले आलोक तोमर जी के लिए भी काफी गन्दी भाषा का प्रयोग किया गया था. मैं बहुत क्षुब्ध हुआ हूँ, अत: मोहल्ला पर जाने के वाबजूद टिप्पणी वहाँ करना बंद कर दिया है.
    हम पढ़े-लिखे लोग यदि असहमति के लिए गलियों और अभद्र टिप्पणियों का सहारा लेंगे तो हमारे सभ्य कहलाने का क्या औचित्य है ?
    असहमतियों को भी शालीन तरीके से व्यक्त किया जा सकता है. व्यक्तिगत खुन्नस या भड़ास निकलने के लिए जिस मंच का उपयोग हो, वह सार्थकताविहीन और साहित्यिक मानकों से बाहर ही माना जायेगा. तब उसके साथ, संबंध रखना हम साहित्यजीवियों के लिए कदाचित संभव नहीं होगा. कम से कम मेरे लिए तो नहीं ही होगा.

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  5. bahut acha article likha hai aapne..


    mere naye blog par bhi aapka sawagat hai..

    http://asilentsilence.blogspot.com/

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