शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

गाँधी ,धर्मं और साम्प्रदायिकता

कुछ साल पहले अस्पताल से लकर कॉलेज तक की दीवारों पर लिखा होता था, ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।’ जनवादी तथा प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ साम्प्रदायिकता को बल प्रदान करनेवाले एक से बढ़कर एक लेखों के ढेर लगाये जा रहे थे। विकृत मानसिकता को तरजीह दी जा रही थी और बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों तक में साम्प्रदायिक रंग भरे जा रहे थे। यह मानवीय मूल्यों तथा चेतना का संकट है। यह विचारों की स्वच्छता, आत्मा की पवित्रता तथा इन सबसे एक कदम आगे बढ़कर एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के अस्तित्व का सवाल है। ऐसे में गांधीजी को याद करने का मतलब होगा साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान चलाना, हर ऐन मौके पर फिरकापरस्त ताकतों को शिकस्त देना, मात देना। 

हालांकि कुछ लोग गांधीजी के साम्प्रदायिकता संबंधी दृष्टिकोण के बारे में दूसरे ही तरह का ख्याल रखते हैं। रजनी पाम दत्त जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों का मानना है कि ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अपील करते हुए भी गांधीजी एक ऐसे राष्ट्रीय नेता के रूप में नहीं बोलते थे जो दोनों सम्प्रदायों में एक होने की भावना पैदा करता है। वह हिंदू नेता के रूप में बोलते थे, जो हिंदुओं को ‘‘हमलोग’’ कहता था, और मुसलतानों को ‘‘वे लोग’’।’

गांधीजी एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति थे। उनका धर्म लोगों से प्यार करने को कहता था, उनका धर्म उन्हें मानवता की पूजा करना बतलाता था। उनका धर्म कभी नहीं कहता था कि एक धर्म की रक्षा दूसरे धर्मावलंबी की हिंसा/हत्या के बाद ही हो सकती है। अहिंसा, सदाचार तथा अपने दुष्मनों तक को प्यार करने की नीति उनके धर्म के आदर्श थे। इस मानी में अगर कहा जाये तो वे एक सच्चे धार्मिक थे, एक संत थे, जिसकी मिसाल भारत क्या इस पूरे संसार में भी बहुत कम ही है।

अक्सर साम्प्रदायिक दंगों के लिए धर्म को गुनाहगार ठहराया जाता रहा है। लेकिन जब-कभी साम्प्रदायिक दंगों के मूल कारणों की खोज की दिशा में पहल होती है तो एक व्यापक संदर्भ में सामाजिक-आर्थिक कारण ही हाथ लगते हैं। धर्म तो मात्र एक बहाना है जिसकी आड़ में स्वार्थी तत्व अपने हितों  की पटरी बैठाते हैं। दंगे की जड़ में अगर धर्म होता तो गांधी निःसंदेह दुनिया के सबसे बड़े दंगाई या फिरकापरस्त होते। लेकिन यह क्या है कि भारत के किसी भी क्षेत्र में साम्प्रदायिक दंगा भड़क जाने पर यह विचार किये बगैर कि इलाका हिंदू का है अथवा मुसलमान का, अमन कायम करने पहुँच  जाते थे ? कभी-कभी तो महीनों तक अन्न तक का त्याग कर देते।

साम्प्रदायिक दंगों की जड़ में धर्म नहीं है, इसे स्पष्ट करते हुए गांधीजी ने एकबार ‘हरिजन’ में लिखा था, ‘मुझे लगता है कि साम्प्रदायिक दंगे का कारण हिन्दू-मुसलमान का आपसी विद्वेष नहीं है, बल्कि इसके कारण अंग्रेजी राज द्वारा जनता का शोषण, करों का भारी बोझ तथा इसी तरह के अन्य असंतोष हैं।

कुछ लोग गोकशी/गोहत्या को भी साम्प्रदायिक दंगा का एक प्रमुख कारण मानते हैं। डा. अखिलेश कुमार ने अपनी पुस्तक ‘कम्युनल रॉयट्स इन माडर्न इंडिया’ (दरअसल यह काम बिहार के दंगों पर है, लेकिन प्रकाशक ने व्यावसायिक कारणों से ‘माडर्न बिहार’ की जगह ‘माडर्न इंडिया’ प्रकाशित कर दिया। यहां यह जोड़ देना मुनासिब है कि बिहार के दंगों पर यह संभवतः पहली और अकेली पुस्तक है।) में सप्रमाण दिखाया है कि गोकशी/गोहत्या कहीं से भी हिंदू-मुस्लिम विद्वेष का असली कारण नहीं है। अगर सवाल सिर्फ गोहत्या का होता तो हिंदू अंग्रेजों का भी विरोध करते क्योंकि गोमांस उनके भोजन में प्रमुखता से शामिल था। डा. कुमार ने जोर देकर लिखा है कि गोकशी को लेकर हिंदुओं ने अंग्रेजों का कभी विरोध नहीं किया। यह साम्प्रदायिक तनाव सिर्फ हिन्दू-मुसलमान के बीच देखा जाता था। गांधीजी ने तो लिखा भी है, ‘मैं यह समझने में सदा असमर्थ रहा कि अंग्रेजों द्वारा की जा रही गोकशी का हम विरोध क्यों नहीं करते ? हमारे गुस्से में इजाफा तब होता है जब गोहत्या कोई मुसलमान करता है।’

यह सही है कि साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगा के मामले में गांधीजी की दृष्टि बहुत साफ नहीं थी और हमें बहुत दूर ले भी नहीं जाती। इसका कारण शायद यह हो कि वे आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का एक सही संदर्भ में विश्लेषित कर पाने में असमर्थ थे। लकिन इतना तो फिर भी मानना पड़ेगा कि धर्म को इसका कारण मानने के लिए वे तैयार न थे।
हिंदू -मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के लिए गोकशी/गोहत्या कोई समस्या नहीं रही। इसको स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद ने ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ शीर्षक लेख में लिखा था, ‘शायद ऐसे बहुत कम राजे महाराजे या विदेश में शिक्षा प्राप्त करनेवाले हिंदू निकलेंगे जो गोमांस न खा चुके हों। और उनमें से कितने ही आज हमारे नेता हैं, और हम उनके नामों का जयघोष करते हैं।’ कहना होगा कि पंडित मोतीलाल नेहरु भी कई मौकों पर गोमांस का स्वाद चख चुके थे। स्वयं गांधीजी ने स्वीकार किया है कि यूरोप प्रवास के दिनों में गोमांस खाते-खाते बचे। (शायद ईश्वर ने उन्हें बचाया हो!) ऐतिहासिक तथ्य है कि ‘गौरक्षिणी समिति’ की स्थापना से पहले गोकशी समाप्त करने पर यू.पी. के एक स्कूल शिक्षक ने काफी जोर दिया है।

हिंदू-मुस्लिम दंगों की जड़ सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में निहित थी। प्रथम विश्वयुद्ध के आसपास हिंदू-मुस्लिम दंगों का मुख्य कारण गोकशी/गोहत्या है। इस तरह के दंगों का केंद्र पशुमेला हुआ करता था। बिहार के ऐसे पशुमेलों में सोनपुर, बराहपुर तथा ऐनखांव के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हिंदू सम्प्रदाय के निम्न मध्य-वर्ग के लोगों के बीच ही साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति थी। संभवतः इनलोगों के बीच यह भ्रांत धारणा बैठा दी गई थी कि गोकशी/गोहत्या के कारण पशुओं की कीमत में वृद्धि हो जा रही है   
मुसलमानों के बीच निम्न मध्य-वर्ग के लोग चमड़े के व्यापार में लगे थे। गोहत्या पर पाबंदी से उनके व्यापार-व्यवसाय को धक्का पहुंचने का डर व्याप्त था। इसलिए गोकशी का संबंध धर्म से कम आर्थिक हितों से ज्यादा था।

इस नजरिए से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो धर्म कहीं से भी साम्प्रदायिक दंगों या वैमनस्य का कारण नहीं है। हालांकि दंगा शुरू हो जाने के बाद अक्सर इसे ही मूल कारण का जामा पहनाकर पेश किया जाता रहा है। यह हमारे साम्प्रदायिक लीडरान की करतूत है और अप्रत्यक्ष उनकी भी जो ‘धर्मनिरपेक्षता’ की ‘दूकान’ को जिंदा रखने में विश्वास रखते हैं। गांधीजी ने एकबार कहा था, ‘अगर हमारे नेतागण आपस में भाईचारा कायम कर लें तो शायद साम्प्रदायिक तनाव खत्म हो सकता है। गांधीजी के इस वक्तव्य के दो अर्थ निकलते हैं। पहले अर्थ के बारे में कहा जा सकता है कि गांधीजी का यह अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण था जो साम्प्रदायिकता की समस्या का हल राजनीतिज्ञों के हेल-मेल में ढूंढ़ता था। दूसरा अर्थ कहीं ज्यादा दुखद और अनर्थकारी है जो ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेताओं की पोल खोल देता है।

धर्म साम्प्रदायिक दंगों का कारण नहीं है लेकिन जनता की सदियों पुरानी एकता को भी तोड़ डालने का सबसे कारगर अस्त्र अवष्य है। बिहार राज्य अभिलेखागार के पॉलिटिकल स्पेशल फाइल नं. 112/1918 में एक अत्यंत ही मजेदार घटना का हवाला दर्ज है। उसमें लिखा है कि दंगा करनेवाले लोग ‘अंग्रेजी राज उठ गया’ तथा ‘जर्मन की जय’ के नारे लगा रहे थे। इस तरह की साम्राज्य-विरोधी चेतना को तोड़ने के लिए सरकार ने अनेक स्थलों पर प्रायोजित तरीके से मंदिरों-मस्जिदों को तुड़वाया। तब सी. आई. डी. की रिपोर्ट आई कि जर्मनी एवं इंग्लैंड की समस्या से विरत हो लोग साम्प्रदायिक दंगों में मशगूल हो चुके हैं। यह प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों की बात है।

बिहार के जहानाबाद जिले के अंतर्गत मथुरा सिंह नाम के एक विख्यात ‘हिंदू नेता’ थे। उनके बड़े लड़के ने ‘साक्षात्कार’ के क्रम में इस बात पर जोर दिया कि उनके पिता को मुसलमानों से कोई ऐतराज नहीं था जबकि वे उस क्षेत्र के लगभग सारे दंगों में शामिल थे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ‘उनके पिताजी कभी मुसलमानों का कत्ल करते तो कभी उसकी रक्षा भी करते, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य  कत्ल करना ही नहीं होता।’ दंगों के दौरान मंदिर-मस्जिद अगर आक्रमण का केंद्र बनते हैं तो इसका कारण शायद यही है कि वे धन-दौलत के साथ-साथ हथियार के भी केंद्र होते हैं। ‘गोल्डेन टेंपल’ इसका हाल का उदाहरण है।

गांधी और साम्प्रदायिकता पर बात करते इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके स्वभाव एवं आचरण के कुछ खास ऐसे नियम थे जिसके फलस्वरूप जनसाधारण मुसलमान के अंदर असुरक्षा का डर पैदा होता था। स्वराज्य की चर्चा करते गांधीजी ‘रामराज्य’ पर विशेष बल देते। ऐसा वे अपने ‘विशुद्ध धार्मिक’ संस्कारों की वजह से करते लेकिन मुसलमान भाइयों को लगता कि वे आजाद भारत में ‘हिंदू राज’ की स्थापना की बात कर रहे हैं। मुसलमानों के एक अत्यंत ‘आधुनिक’(धर्मनिरपेक्ष नहीं) नेता जिन्ना ने इस डर को व्यक्त करते हुए कहा था, ‘गांधीजी का लक्ष्य मुसलमानों की सभ्यता एवं संस्कृति को समाप्त कर भारत में हिंदू राज स्थापित करना है।’ आगे और भी कहते हैं, ‘उनकी मनसा ये नहीं है कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया जाये बल्कि वे अंग्रेजों की देखरेख में मुसलमानों पर शासन करने की छूट पा लेने की कोशिश मात्र में हैं।’ यह कहना क्षम्य है कि गांधीजी के आचार-विचार के नियमों से साम्प्रदायिक तनाव में वृद्धि हो जाया करती थी। लेकिन ‘गांधीजी की ऐसी मनसा थी,’ ऐसा कहना मनगढ़ंत, अनैतिहासिक और अनर्थकारी होगा।

जब-जब व्यवस्था-विरोधी संघर्ष तेज हुआ है, तब-तब भूख के मूल मसले को परे धकेलकर धर्म के मसले को सामने कर दिया जाता रहा है। कोई रामजन्मभूमि तथा बाबरी मस्जिद विवाद लेकर आता है तो कोई इसके बंद ताले को ‘सरकारी कुंजी ’ से खोलने की कोशिश करता है। मंदिर हो या मस्जिद-सभी मनुष्य के जीवन में मनुष्य के बाद ही स्थान पाने के हकदार हैं। किंतु कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि गाय-सूअर, मंदिर-मस्जिद सभी बने रहेंगे केवल इसके नाम पर अपनी जान देनेवाले भोले-भाले हिंदू-मुसलमान न बचेंगे। और तब ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के उद्घोष के लिए कोई ‘हिंदू’ भी बचा न रह सकेगा। 

प्रथम प्रकाशन
: जनशक्ति, पटना, पुनर्प्रकाशनः जनसत्ता, नई दिल्ली, 14 अक्तूबर, 2009।      

1 टिप्पणी:

  1. गांधी जी अगर सही मायने में धर्मनिरपेक्ष होते तो आज देश की तस्वीर बहुत अलग होती। भाईचारे की भावना और धर्मनिरपेक्षता दोनों अलग अलग चीजें हैं।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
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    व्यंग्य और व्यंग्यलोक
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