गुरुवार, 18 नवंबर 2010

दरअसल गलती इतिहास की नहीं।

(राशिद अली टीवी पत्रकार हैं और उन्हीं के शब्दों में पत्रकारिता की वर्तमान हालत देख अपने पत्रकार होने पर शर्मिंदा हैं। उनसे मुलाक़ात हुई फेसबुक पर और हमारे आग्रह पर उन्होंने यह लेख जनपक्ष के लिये उपलब्ध कराया। राष्ट्रवाद पर चल रही हमारी बहस को यह लेख और समृद्ध करता है। लेख लंबा है इसलिये दो भागों में)


इतिहास की ढ़लान

  • राशिद अली

जब कला थी इतिहास नहीं था
जब तक इतिहास लिखा गया
कला मर चुकी थी...

इतिहास आज एक यक्ष प्रश्न बन चुका है. आज अगर महाभारत के युधिष्ठिर जिंदा होते (गर कभी थे) तो या वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मे ढ़ल चुके होते या फिर मंटो के तौबा टेक सिंह की तरह नो मैंस लैंड में रघुवीर सहाय का 'फटा.सुथन्ना' पहनकर मारे मारे फिर रहे होते। अधिक उम्मीद यही थी कि वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही चोला पहनते क्योंकि महाभारत और रामायण सीरियल के ज़्यादातर पात्र संघ का ही प्रचार कर रहे हैं। तौबा टेक सिंह की सुनता कौन? पागल जो ठहरे! दरअसल गलती इतिहास की नहीं। यह तो पहले से ही वेद.वाक्य या फ़रमाने इलाही बनकर हमारी चेतना मे घुसा हुआ है। स्कूल के दिनों मे 'विद्या' नाम के मास्टर हमें पढ़ाते थे। वे मुसलमानों से 'नफ़रत' तो नहीं करते थे, पर हां किसी मुसलमान बच्चे के बारे में यह जरुर मानते थे कि नया पाकिस्तान बनाने मे इस बच्चे के अंदर भी प्रबल संभावना है। बाद मे जब मै जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय आकर कम्यूनिस्ट बन गया तो पता चला कि 'विद्या' सर तो इप्टा से जुड़े हैं।

प्रकांड मार्क्सवादी आलोचकों को मेरे इस तरह लिखने से आपत्ति हो सकती है, क्योंकि मै जीनियॉलोजी का सहारा ले रहा हूंए न कि शुद्ध अकादमिक विमर्शों का। लेकिन सवाल यह है कि 'पर्सनल हिस्ट्री' बृहत इतिहास का हिस्सा क्यों नहीं हो सकती। सिर्फ वर्ग की समग्रता के चश्मे में ही तो सबकुछ पिरोया नहीं जा सकता। 'वाम दल' अगर 'मध्मय.वर्ग' की राजनीति करें तो ठीक, आप सिर्फ लेखन के मामले में ही 'उत्तरसंरचनावादी' बनने की छूट नहीं ले सकते! वाह! क्या फरमाने इलाही है! खैर मेरी इन विषयों को लेकर काफी सतही समझ है और शायद मै इसीलिए किसी भी बात को लेकर आश्वस्त नहीं होना चाहता। मेरी मां ने कभी भी सैयद आगा हसन अमानत द्वारा रचित नाटक इन्दर.सभा नहीं पढ़ा था या इस नाम से बनी फिल्म को नहीं देखा था। जैसा चार्ल्स डिकेंस के ग्रेट एक्सपेक्टेशंस के अनाथ किरदार पिप को अपने मरे हुए मां.बाप की कोई छवि इसलिए याद नहीं थी क्योंकि उस समय तक फोटोग्राफी का ईजाद नहीं हुआ था, ठीक ऐसी ही मेरी मां भी थी। पर उनके समय में खूब नाटक और फिल्में देखी जा रही थीं। बस करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह ही उनकी बूढ़ी आंखें भी कलात्मकता के इस जादू से वंचित थीं। रास.लीला पर आधारित 1853 मे लिखे गए इस नाटक में इंद्र उर्दू बोलते थे, न कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। जब बचपन मे मेरी मां 'अधुआ और सब्ज़परी' की कहानी सुनाती थी तो इसमे इंद्र भोजपुरी बोलते थे। इस कहानी मे 'विरित्रासुर' को हराने वाले इंद्रासन की हार होती थी। जब बचपन मे हम यह कहानी सुनते थे, उससे बहुत पहले ही हिंदुस्तान.पाकिस्तान का विभाजन हो चुका था। जाहिर है मेरी मां ने भी विभाजन की त्रासदी झेली होगी।

आज मेरी मां नहीं हैं जैसे करोड़ों लोग नहीं हैं। मै इमरजेंसी के दौर मे पैदा हुआ था जो विभाजन के बाद की सबसे बड़ी घटना थी। मुझे उस समय का कुछ भी याद नहीं। हां जब इन्दिरा गांधी का कत्ल हुआ था तो हम लोग उस औरत के यूं मर जाने से रोते थे और सरदारों को कोसते थे। जब तक होश संभाला, बाबरी मस्जिद गिर चुकी थी और जब कुछ लिखने पढ़ने का समय आया तो गुजरात कत्लगाह बन चुका था। आज जब मै यह लेख लिख रहा हूं तो हिंदुस्तान से टूटा हुआ पाकिस्तान और भी टूट रहा है और तालिबान जैसा शेषनाग फन उठाए पूरे पाकिस्तान को डसने को तैयार बैठा है। अगर सलमान रश्दी के शब्दों में कहें तो सचमुच इतिहास को लेकर हम कितने 'रेडियोऐक्टिव' हैं।

पर जैसा कि प्रेमचंद ने कहा है कि लेखन कर्म तपस्या जैसा है, लोग आज भी उसी शिद्दत से लिख रहे हैं. यहां तपस्या के दो संदर्भ हैं. एक तो ऋषि.मुनियों की जैसी तपस्या जो अक्सर इतिहासकार करते हैं. दूसरी सामाजिक सरोकार रखने वाले लोगों की तपस्या. पुराने इतिहासकार आज भी 'हज़ारों सालों' की तपस्या कर रहे हैं और मुक्तिबोध के शब्दों में 'मार्क्स का सिंह जैसा सिर' लिए दिल्ली की सड़कों पर मिमियाते फिर रहे हैं। वहीं लेखकों की युवा पीढ़ी भी है जो मूलतः इतिहासकार तो नहीं पर हां पुराने इतिहासकारों की समझ का भंडा फोड़ कर रही है। जब हम पुराने इतिहासकारों की बात करते हैं तो अक्सर उनके लेखन में प्रतिक्रियावाद और प्रगतिवाद के स्वर एक साथ गुंजायमान होते हैं। ऐसे इतिहासकार अक्सर दयानंद, विवेकानंद, गांधीए भगत सिंह, नेहरु, अंबेडकर और पटेल को एक ही कतार मे खड़ा कर देते हैं और जनरल डायर की तरह हुक्म देते हैं कि मानो! यही असली इतिहास है। यहीं से वे राष्ट्रीयता की एक पहचान विकसित करने की कोशिश करते हैं। कुल मिलाकर राष्ट्र ही धर्म बन जाता है और धर्म राष्ट्र। हत्ता यह कि सैंकड़ों सालों से हम 'सैमुअल बेकेट के गोडो' का इंतजार कर रहे हैं और 'ऐतिहासिक अक्रमन्यता' को 'ऐतिहासिक सूत्र' मे पिरोने की कोशिश कर रहे हैं। पर असली इतिहास है क्या?

इस सवाल का जवाब आसान नहीं क्योंकि इतिहास राजतरंगिनी या इंडिका या मुंतखबत तारीख नहीं है. या यूं कहें कि मध्यकालीन भारत और प्राचीनकालीन भारत भी इतिहास नहीं है तो बेजा न होगा। जब मध्यकाल और प्राचीनकाल मे भारत या हिंदुस्तान का वजूद था ही नहीं, तो स्टेनलेपूल के द्वारा किए गए इस काल निर्धारण को हम क्यों मान लें। हम आधुनिकता के सांचे मे ढ़ली राष्ट्र की परिकल्पना को मध्य या प्राचीन काल पर कैसे थोप सकते हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि इतिहास संस्कृतियों या सभ्यताओं की निरंतरता पर टिका है। यहीं फूको इतिहास की इस निरंतरता का खंडन करते हैं और कहते हैं 'इतिहास तर्कमूलक आचारों का अनिरंतर सिलसिला है।' ये तर्कमूलक आचार क्या हैं? ये अलिखित और अनकहे नियम हैं, जिन्हें मानना सबके लिए बाध्य हो जाता है और जो नहीं मानते उनके लिए चुप्पी का नर्कद्वार खुल जाता है। मार्क्स ने भी तो इतिहास को विचारों के संघर्ष के रुप मे देखा था। जब इतिहास मे पहले ही इतना विरोधाभास है और सारी की सारी संस्कृतियां विडंबनाओं से लबरेज़ हैं तो ऐसे मे इतिहास को लेकर वस्तुपरक रवैया अपनाना एक खास किस्म की मानसिकता को ही उजागर करता है।

यहीं मार्क्स इतिहास को समाज से अलग करते हैं। वे अलग अलग दौर के सामाजिक उथल.पुथल को वर्ग संघर्ष के नज़रिए से अध्ययन करते हैं क्योंकि समाज अपने आप हमें किसी दौर के तथ्यों और परिवर्तनों से अवगत नहीं करा सकता। बात सही भी है। बचपन से जवानी तक हमारा जेहन 'ऐतिहासिक तथ्यों' के 'ग़ैर ऐतिहासिक' दृष्टि से अटा पड़ा रहता है। जेम्स मिल ने जिस संदर्भ मे यह कहा था कि भारतीयों में इतिहास दृष्टि नहीं है' मैं उस संदर्भ की वकालत तो नहीं कर रहा लेकिन हां इतना जरुर कहूंगा कि एक औसत भारतीय आज भी चंगेज खान को 'मुसलमान' समझता है। इतिहास की यह मौखिक परंपरा दरअसल संघ परिवार के प्रचार से बहुत पहले की है। इस परंपरा के 'गुणसूत्र' मुख्य धारा से लेकर हाशिए तक में लटके पड़े हैं। उदाहरण के तौर पर अमीर खुसरो मुसलमान होते हुए भी 'राष्ट्रवादी' थे, औरंगजेब तो औरंगजेब, महाराणा प्रताप की छवि के आगे अकबर भी एक घोर 'निरंकुश' राजा था। साहित्य मे तो ऐसा इतिहास 'उत्तरआधुनिक कूड़े' के समान पड़ा है। सवाल यह नहीं है कि जनमानस मे ऐसा इतिहास विकसित कहां से हुआ बल्कि यह है कि कौन सी ऐसी 'ऐतिहासिक भूल है जिसके एवज में अबतक लाखों कराड़ों लोग मार दिए गए हैं और भविष्य मे भी मारे जाएंगे। ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन हिंदुओं और मुसलमानों की राष्ट्रीय अस्मिताओं के रुप मे देखा जाता है। तब बाकी संप्रदाय कहां गए - सिक्ख, इसाई, बौद्ध, जैन…यहां तक मुसलमानों के अंदर के फिरके। तब तो राष्ट्र सचमुच एंडरसन की एक 'इमैजिंड कम्यूनिटि' है।

जारी…………

4 टिप्‍पणियां:

  1. क्या राष्ट्र ही एक मिसकंसेप्ट नहीं है?

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  2. "मैं यह लेख अभी -अभी पढ़कर आ रहा हूँ . पहली नजर की राय है कि उत्तेजना हावी हो गई है दृष्टि पर . भारतीय इतिहास के काल विभाजन को अस्वीकार कर वे इतिहास कि निरंतरता को समाप्त कर देते हैं . प्राचीन काल ,मध्य काल(ये नाम कुछ भी हो सकते हैं ) न हो तो आधुनिक काल में राष्ट्र निर्माण क्या संभव है ? फ़िलहाल इतना ही . मैं इसे गंभीरता से पढ़ रहा हूँ ." --- fb पर राजूरंजन प्रसाद

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  3. "इतिहास ही नहीं, क्या दुनिया भी एक इमैजिन्ड यूनिवर्स नहीं...समय और विचार आंधियों के अपने-अपने कैपसूल्स में बन्द...अधिकांशतः या तो उन कैपसूल्स से चमत्कृत और सम्मोहित जिन्दगी निकालते या उनके बोझ तले किंकर्तव्य विमूढ़ या फिर कुछ बुद्धिजीवी या सिरफिरे उसे तोड़ने की कोशिश में लस्तपस्त?जबतक समाज की परिकल्पना परिवार के चबूतरों से नहीं उठेगी, अधिकांशतः मुद्दे उपेक्षित और आम आदमी तटस्थ ही रहेगा ...बहती गंगा में हाथ धोने वाले और किनारे पर दम तोड़ते दोनों को ही देखता ...जानबूझकर अनजान बना ।" - फेसबुक पर शैल अग्रवाल

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  4. एक औसत मुसलमान भी चंगेज़ ख़ान को मुसलमान समझता है और उसे अपनी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा मानता है। ऐसा बताते हैं कि चंगेज़ के वंशजो के पीठ पर एक पैदाईशी निशान होता है, शाहरुख़ के कुछ दोस्त पाकिस्तान से आए तो उसकी पीठ पर वो निशान खोजने लगे..

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