बुधवार, 24 नवंबर 2010

जन्मदिन पर अरुंधती को सलाम!


यह पोस्ट कबाड़खाने से सीधे उधार…भाई अशोक पाण्डे की टीप सहित



सबसे पहली बात यह पोस्ट इसलिए एक्सक्लूसिव है कि इसे कबाड़ी शिवप्रसाद जोशी ने आज के वास्ते कबाड़ख़ाने के लिए लिखा है. उनके लेखन की सबसे बड़ी ख़ूबी है उनका  टू-द-पॉइन्ट, सचेत-सधा हुआ और गहरा अनुशासित गद्य जिसकी सतह खुरचने पर आपको जाने कौन कौन से लेखकों, अनुभवों से पाया गया ठोस यक़ीन नज़र आएगा.

हिन्दी का कौन कवि-लेखक गया बस्तर-छत्तीसगढ़?  किस महान युवा हिन्दी कवि ने कोशिश भी की कश्मीर को समझने  की? और किस ... ख़ैर छोड़िये, गाली निकल जाएगी हिन्दी के महान युवाओं के लिए. अरुंधती ने यह सब करने के अलावा बाकायदा इन व्हिच एनी गिव्ज़  इट दोज़ वन्स जैसी शानदार फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा. अरुंधती अब भी युवा हैं और महान भी. मेरी उनसे मुलाकात मैसी साहब की शूटिंग के दौरान एक बार हुई थी कोई बीसेक साल पहले. उस फ़िल्म में उन्होंने एक आदिवासी युवती का रोल किया था. मुझे वे एक बेमिसाल व्यक्तित्व लगीं जैसी वे थीं ही. आज उनका जन्मदिन है. वे उनचास साल पूरे कर रही हैं. कबाड़खाना उन्हें बधाई देता है और भाई शिवप्रसाद जोशी को थैंक्यू कहता है - अशोक पाण्डे

आज अरूंधति रॉय का जन्मदिन है 

शिवप्रसाद जोशी

अरूंधति रॉय ने कई साल पहले कह दिया था कि वो विश्व नागरिक हैं. वो एक ऐसे वक़्त में अपनी अटूट ज़िद के साथ सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी भूमिका निभा रही हैं जब पूरी दुनिया में विभिन्न किस्मों का कोलाहल जारी है, एक अश्लील और बर्बर मुक्त बाज़ार है और एक चमचमाता तंबू तना हुआ है जिसके नीचे अंतरराष्ट्रीय ताक़तें दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने की नई चालाकियों पर काम कर रही हैं.

24 नवंबर अरूंधति रॉय का जन्मदिन है.

वो हेरॉल्ड पिंटर, हॉवर्ड ज़िन, खोसे सारामागो, एडुवार्डो गेलियानो, नॉम चोमस्की जैसे चिंतकों एक्टिविस्टों की जमात से हैं जो अर्थ, समाज, राजनीति और कूटनीति की वैश्विक अराजकता के बीच मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने की लड़ाई में अग्रणी रहे हैं.

अरूंधति रॉय जब बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित हुई थी तो वो बीबीसी के दिल्ली दफ़्तर में आई थीं. शालिनी उस समय हिंदी सेवा में थीं. शालिनी का अनुभव कुछ यूं था कि उसका ज़िक्र हम लोग कई बार आपस में करते रहे हैं, आज अरूंधति के जन्मदिन पर उनकी उस छवि को आप लोगों से शेयर करते हैं. वो एक छोटी सी सकुचाई हुई, तीखे नाक नक्श वाली, आंखों में एक विराट गहराई और एक न जाने कौन से सिनेमा की न जाने कौन सी अज्ञात फ़िल्म की न जाने से कौन सी नायिका. कुछ ऐसे कि बस वो थीं. अरूंधति ने जींस और टॉप पहना था और शालिनी के मुताबिक उन्हें देखकर नहीं लगता था कि उनमें कोई मैदान मार लेने वाला जैसा गदगद भाव रहा होगा.

अरूंधति ने गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स शायद लिखा ही इसलिए था कि वो आने वाले दिनों के लिए अपनी भूमिका तै कर चुकी थीं. उस उपन्यास में जैसी चोटें, वेदनाएं, प्रताड़नाएं, प्रेम विह्वलताएं, द्वंद्व, लड़ाइयां और सरोकार थे, अरूंधति ने अपने आगे के जीवन के लिए जैसे उन्हीं शब्दों की सामर्थ्य से खुद को लैस कर लिया था.

वो उपन्यास 21वीं सदी की शुरुआत से चंद साल पहले सम्मानित हुआ था. मस्जिद नब्बे के दशक की शुरुआत में गिरा दी गई थी. भूमंडलीकरण का टेंट भारत की जर्जरता के ऊपर ताना जा रहा था. और आतंकित कर देने वाली नव-अमीरी बड़े शहरों में अपने चक्कर काट कर छोटे शहरों और क़स्बों का रुख़ कर चुकी थीं. घात वाले ऐसे उस दौर में अरूंधति ने बुकर लिया, उपन्यास लिखना स्थगित किया और एक ऐसी लड़ाई में उतर आईं जो न दिखती थीं और जिसमें हारजीत के नतीजे भी धुंधले से दिखाई देने वाले थे.

अरूंधति ने इस लडा़ई में हार का पक्ष लिया. वो उस तबके उस आम हिंदुस्तानी उस आम विश्व नागरिक की शाश्वत और अवश्यंभावी घोषित कर दी गई हार के साथ जा खड़ी हुई और वहां से उन्होंने रचना और नाफ़रमानी का एक नया रास्ता खोल दिया.

इस रास्ते पर जाने का साहस बहुत कम लोग कर पाते हैं. इस रास्ते पर जाने का विवेक बड़े जोखिम की मांग करता है. इसमें दर्द और टीस है. ये कुछ वैसा ही है जैसा अरूंधति के प्रिय लेखक अर्जेटीना के एडुआर्डो गेलियानो की किताब ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका में दर्ज लोगों की ज़ख़्मी नसों की उछाड़ पछाड़ है.

हमारे समय की समस्त बैचेनियां हमारे समय की कविता कहानी या उपन्यास में न आती हों तो न सही, अरुंधति, गेलियानो, चॉमस्की और उन जैसों की ज़िंदगियों, विचारों और उधेड़बुनों के ज़रिए तो आ ही रही हैं. एक किताब से बड़ा आखिरकार एक जीवन ही है. मामूली ही सही पर 24 नवंबर के मौके पर अरूंधति रॉय के हवाले से ये बात और पुख़्ता होती है

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