गुरुवार, 17 मार्च 2011

अज्ञेय पर पुनर्विचार


रामप्रकाश अनंत 

यह अज्ञेय की जन्म शताब्दी वर्ष है इसलिए उनके बारे में संस्मरण, लेख व आयोजनों का दौर चल रहा है। समयांतर के जून अंक में पंकट बिष्ट का संस्मरण ‘अज्ञेय: छवि और प्रतिछवि’ और अगस्त अंक में प्रदीप पंत का पत्र व सुरेश पंडित का लेख ‘शताब्दी में अज्ञेय : तीन नजरिए’ पढ़ा। इस लेख से ही पता चला कि अज्ञेय पर ओम थानवी एवं रामशरण जोशी ने भी संस्मरण लिखे हैं। अज्ञेय पर जो लेखन हुआ है उसमें सामान्यत: उनके अहंवादी या व्यक्तिवादी होने या न होने तथा उनकी विचारधारा से संबंधित मुद्दों पर ही चर्चा हुई है।
हर लेखक की अपनी विचारधारा होती है। कोई भी लेखक माक्र्सवाद, गांधीवाद, पूंजीवाद, हिंदुत्व यानी कोई भी विचारधारा मानने के लिए स्वतंत्र है। लेखक या उसके समर्थकों में अपनी विचारधारा को स्वीकार करने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए। लेखन, विचार पर ही आधारित होता है और वह विचार किसी न किसी सामाजिक व राजनीतिक विचारधारा का समर्थन या विरोध कर रहा होता है। अगर वह सीधे ही विचारधारा से संबद्ध न हो और किसी स्थिति-परिस्थिति या न्याय-अन्याय के बारे में हो, तब भी अंतत: वह किसी विचारधारा के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होता है। तमाम लेखक हैं जो अपनी विचारधारा को छिपाते नहीं हैं।
किसी लेखक के अहंवादी या अहंकारी या बद्मिजाज होने का संबंध उसके समकालीन लेखकों या समाज के उस हिस्से से है जिससे उसका सीधा संबंध रहा है। एक दिवंगत लेखक के बारे में इस तरह की बहसों का कोई सार्थक अर्थ नहीं निकलता है। इनका अगर कोई अर्थ है तो लेखक की जीवनी या संस्मरणों में ही है जिनमें कुछ लोग उन्हें विनम्र और दूसरे अहंमवादी सिद्ध करते रहेंगे।
पंकज बिष्ट के संस्मरण के संदर्भ में मैं अपने कुछ विचार अज्ञेय के बारे में रखना चाहता हूं। जैसा कि मैंने कुछ संस्मरणों में पढ़ा है कि अज्ञेय माक्र्सवादी नहीं थे लेकिन माक्र्सवाद विरोधी नहीं थे। ओम थानवी ने भी अपने संस्मरण में लिखा है, ”अज्ञेय वास्तव में किसी विचारधारा से बंधे हुए नहीं थे। उन्हें किसी का पिछलग्गू होना पसंद नहीं था।’’
अज्ञेय माक्र्सवाद विरोधी थे या न थे यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि अज्ञेय स्वयं क्या थे। इला डालमिया के संदर्भ से पंकज बिष्ट ने जो सवाल उठाए हैं उन पर विस्तार से बहस होनी आवश्यक है। अज्ञेय हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में बम बनाते हुए पकड़े गए। अंगे्रजों की इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया जेनकिंस की सिफारिश पर वह न सिर्फ छूटे बल्कि उन्हें आल इंडिया रेडियो की नौकरी भी जेनकिंस की सिफारिश पर मिली (यह इला डालमिया ने लिखा है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता उनके ऊपर किसी माक्र्सवादी ने कीचड़ उछाली है।) उसके बाद वह सेना में भर्ती भी उसी की सिफारिश पर हुए। अपनी सिफारिश में उसने कहा—यह युवक चरित्रवान है। विश्वसनीय है। रिपब्लिकन आर्मी में भगत सिंह से लेकर तमाम क्रांतिकारी चरित्रवान और विश्वसनीय (देश की जनता के प्रति) थे और अंगे्रजों ने उन्हें चुन-चुनकर फांसी पर चढ़ा दिया। आई.बी. के मुखिया जेनकिंस ने अज्ञेय को चरित्रवान और विश्वसनीय (अंगे्रजों के प्रति) बताया और उन्हें फौज में नौकरी दिलवाई।
कुछ समय पहले ही गुंटर ग्रास की जीवनी पूरी दुनिया में चर्चा का विषय रही। गुंटर ग्रास को उनके उपन्यास टिन ड्रम पर नोबुल पुरस्कार मिला है। उन्होंने अपनी जीवनी में इस बात का उल्लेख किया था कि वह हिटलर की सेना में खाना परोसते थे। यद्यपि उस समय उनकी उम्र 14 वर्ष थी फिर भी पूरी दुनिया में यह बहस खड़ी हो गई कि जो व्यक्ति हिटलर की सेना में रहा है उससे नोबुल पुरस्कार वापस ले लेना चाहिए कि नहीं? यहां तक कि नोबुल पुरस्कार समिति भी पुरस्कार वापस लेने पर विचार करने लगी।
अज्ञेय, सीआईए के पैसे से निकलने वाली पत्रिका क्वेस्ट के संपादन मंडल में रहे (कुछ लोग इसलिए उन्हें सीआईए का एजेंट मानते हैं।) अंगे्रजों के इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख जेनकिंस ने उन्हें विश्वसनीय कहा और ऑल इंडिया रेडियो व फौज में नौकरी दिलवाई। ये सब बातें सार्वजनिक होने के बाद भी यदि अज्ञेय के व्यक्तित्व पर चर्चा नहीं होती है तो यह साहित्य व समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
मैक्सिम गोर्की एवं प्लेखोनेव (जो लेनिन के राजनीतिक गुरु थे) ने माक्र्सवाद के हित में बेहद प्रशंसनीय काम किया है। रूसी क्रांति के समय वे मेंसेविक हो गए थे। आज सभी माक्र्सवादी उनके राजनीतिक भटकाव को स्वीकार करते हैं। परंतु उनके महत्वपूर्ण लेखन को पूरी दुनिया के माक्र्सवादी पढ़ते हैं। अज्ञेय ने यदि कुछ महत्वपूर्ण लिखा है तो उसे स्वीकार किया जाना चाहिए और यदि वह जुगाड़ से प्रचारित किया गया है तो उस पर भी चर्चा की जानी चाहिए। परंतु अज्ञेय का क्वेस्ट से जुड़ा होना (सीआईए किसी पत्रिका को क्यों पैसे देगी, यह तो एक स्पष्ट बात है) एवं जेनकिंस की सिफारिश पर जेल से छूटने, रेडियो व फौज में नौकरी दिलाने के जो संदेहास्पद मुद्दे हैं, उन पर न सिर्फ बहस होनी चाहिए बल्कि सच्चाई को सामने लाने के लिए उसकी पूरी छानबीन होनी चाहिए।
ओम थानवी को भी अपने इस कथन पर पुनर्विचार करना चाहिए कि अज्ञेय किसी विचारधारा से बंधे हुए नहीं थे। उन्हें किसी का पिछलग्गू होना पसंद नहीं था। क्वेस्ट के अलावा अज्ञेय एवरी मैन्स के संपादक रहे जिसके जय प्रकाश नारायण प्रधान संपादक थे और जो संपूर्ण क्रांति आंदोलन का मुख पत्र था। किसी समाचारपत्र या किसी व्यवसायिक पत्रिका या किसी साहित्यिक पत्रिका के संपादक के बचाव की भी गुंजाइश होती है कि संपादक का उसकी विचारधारा से कुछ लेना-देना नहीं है (यद्यपि यह बात पूरी तरह सही नहीं है)। तथापि ये पत्रिकाएं तो ऐसी नहीं थीं कि आप कह दें कि अज्ञेय का उनके विचारों से कुछ लेना-देना नहीं था वे तो शौक के लिए या जीवन यापन की मजबूरी में इनसे जुड़ गए थे।
अत: यह कहा जा सकता है कि अज्ञेय शुरू से अंत तक किसी एक विचारधारा के पिछलग्गू नहीं रहे थे परंतु अपनी सुविधानुसार अलग-अलग समयों पर अलग-अलग विचारधाराओं के पिछलग्गू रहे थे।
अज्ञेय के बारे में मैं जो अंतिम बात कहना चाहता हूं और जिस पर विचार किया जाना चाहिए वह है—अज्ञेय की लेखकीय बेईमानी। अज्ञेय माक्र्सवाद के प्रति बेहद विद्वेषपूर्ण भावना रखते थे। वह अपनी कहानी-कविताओं में माक्र्सवाद का विरोध करते हैं और वह भी बेहद सतही तरीके से। लेकिन वह तर्कपूर्ण तरीकों से सीधे माक्र्सवाद का विरोध नहीं करते। शेखर एक जीवनी में शशि की मृत्यु के बाद शेखर को तीन किताबें देने जो व्यक्ति आता है वह कम्युनिस्टों में कार्यशैली की भौंडी आलोचना है और सभी जानते हैं बुर्जुआ माक्र्सवाद की आलोचना के लिए इसी तरह की निकृष्ट आलोचनाओं का सहारा लेता है। अज्ञेय कैसे इतने बड़े लेखक थे जो मामूली साक्षात्कार का सामना करने से डरते थे। आजकल में जो कुसुम कुमार के नाम से साक्षात्कार छपा था वह उनकी लेखकीय बेईमानी का उदाहरण नहीं है तो और क्या है? यशपाल पर कीचड़ उछालने के लिए अज्ञेय दिनमान में पूरी शृंखला चला सकते हैं परंतु उनके स्पष्टीकरण के लिए दिनमान में पृष्ठ नहीं हैं (देखें, समयांतर अगस्त अंक में प्रदीप पंत का पत्र) जबकि यशपाल अपने लेखन व विचारधारा के प्रति पूरी तरह ईमानदार थे। जैसे कि वह माक्र्सवादी विचारधारा को स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं और गांधीवाद से असहमत थे तो उन्होंने स्पष्ट रूप से अपने विचार गांधीवाद की शव यात्रा में रखे हैं।
वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह में मैंने अज्ञेय की चीन पर दो कहानियां पढ़ी हैं। एक कहानी की कथावस्तु यह है कि चीन में जो गुरिल्ला युद्ध चल रहा था उसमें गुरिल्ला सेना का कमांडर एक स्त्री सैनिक व एक पुरुष सैनिक को एक पत्र लेकर भेजता है। वे बेहद संघर्ष करके वह पत्र एक स्त्री तक पहुंचाते हैं और वह उसे खोलकर पढ़ती है जो एक पे्रम पत्र होता है। सभी जानते हैं कि चीन में माओवादियों ने सामंतवाद के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी उसमें लाखों लोगों ने किस तरह कुर्बानियां दीं। खुद माओ की पत्नी को इसलिए मार दिया गया कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी पार्टी की आलोचना करने से इंकार कर दिया था। अज्ञेय की यह कहानी किस लेखकीय समझ और ईमानदारी का उदाहरण है जो चीन के बारे में भारत में बैठ कर लिखता है? यानी कहानी गढ़ता है?
समयांतर से साभार

4 टिप्‍पणियां:

  1. १. अज्ञेय पर अंग्रेजों और सी आई ए की दलाली के आरोपों की प्रमाणिक जांच होनी चाजिये. इस से अपने सांस्क्रतिक इतिहास को समझाने में मदद मिलेगी.
    २ अज्ञेय का लिखित साहित्य पर्याप्त प्रमाण मुहैया करता है की उन्होंने मार्क्सवाद के विरुद्ध और अमरीकी साम्रज्यवाद के पक्ष में सांस्कृतिक और वैचारिक माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
    ३ फिर भी यह सवाल रह्जाता है अज्ञेय के साहित्य का हम क्या करें?--क्या यह समूचा साहित्य उपेक्ष्नीय है ?क्या अज्ञेय की सारी कवितायें, शेखर जैसा उपन्यास और तमाम कहानियाँ रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाएँ ?क्या उनकी आलोचना और निबंध को कूड़ा करार दे कर परे कर दिया जाए?
    ४ यह समझना महत्वपूर्ण है की अज्ञेय की रचनाएँ , मार्क्सवादी नज़रिए के प्रतिपक्ष में लिखी गयीं सब से उन्नत साहित्यिक और वैचारिक सामग्री है.अगर इस सामग्री की गंभीर आलोचना और विवेचना न की गयी , तो वह आने वाली peedhiyon के liye मार्क्सवादी vichaar के samaksh एक गंभीर kalaatmak chunauti banee rahegee.
    5. saahiytik rachanaaon में vichaar और samvedanaa के antarvirodh के sandarbh में मार्क्सवादी drishti को हम अज्ञेय पर kaise laagoo karate hain ?kaamaayanee के sandarbh में muktibodh की आलोचना paddhati क्या अज्ञेय के sandarbh में yaad karane की cheej naheen है.aap एक lekhak की rachanaatmak upalbdhiyon को binaa sweekaar kiye us के वैचारिक galatee yaa aparaadh को kaise और kyon rekhaankit karenge?
    ६ एक लेखक जिस यथाथ का सामना करता है , वह उस की कामना और कल्पना से स्वतंत्र होता है, इस लिए कई बार उस के अनचाहे भी मार्मिक सत्य उस की कलम से फूट पड़ते हैं, ऐसा मुक्तिबोध मानते थे. लेनिन भी मानते थे. swatantrataa और swatantrataa -viheenataa , vaiyaktikataa और saamaajikataa -के vikat dwandw, vibhaajan jaise amaanaveey aitihaasik niyati के विरुद्ध एक rachanaakaar की chhatpataahat , aapaatkaalen satta dwaaraa bauddhik के istemaal की anchaahee paristhiti में nihit yaatanaa --ye kuchh aise prasang हैं , jin के लिए agey की रचनाएँ saahtyik drishti से aaj भी kuchh न mahtwa j.aroor rakahtee हैं.
    7 angrezee अमरीकी दलाली पर khoj jaaree rahe , यह jarooree है , lekin वह अज्ञेय के लेखनी गहन , रचनात्मक , वैचारिक - सौन्दर्यात्मक आलोचना का विकल्प नहीं है.

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  2. किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व सिर्फ इतना है की वो मार्क्सवादी है या नहीं है ...

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  3. कोई व्यक्ति महज इसलिए बुरा नहीं हो जाता कि मार्क्सवादी है या नहीं अथवा उसने मार्क्सवाद का विरोध किया।

    मेरी समझ से वामपंथ की सबसे बड़ी कमजोरी यही है िकवह आज भी अपने को सर्वश्रेष्ठ मानते है जबकि बदलती दुनिया ने उनका सच भी देखा है।

    खास कर अज्ञेय हों या कोई और व्यक्ति का अपना अस्तित्व होता है। और रोज रोज वह उससे संधर्ष करता है कभी हारता है कभी जीतता है बस।

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  4. marxvad kya kisi bhi vad ki is tarah ki tathyahin ninda galat hai. Agar aap ki asahamati hai to use seedhe vicharatm gadya me vyakt kijiye. Mangadant kavita kahaniyo ki oat lekar dushprachaar karana to galat hai na.

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