बुधवार, 27 अप्रैल 2011

अज्ञेय के दिलबरों की उछल-कूद

अज्ञेय के बारे में नीलाभ की विचारोत्तेजक टिप्पणी और हिन्दी जगत की असलियत का एक जायज़ा
(अज्ञेय पर जिस तरह जनसत्ता ने 'बहस' चलाई वह 'सम्पादकीय (अ) लोकतंत्र' की एक भयावह मिसाल है. यह लेख मैंने नीलाभ जी के ब्लॉग देशांतर से साभार लिया है, जो इस बहस में एक सार्थक हस्तक्षेप होने के बावजूद (या इसी कारण) जनसत्ता में जगह नहीं पा सका...)





(अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अखबार "जनसत्ता" ने बड़े जिहादी अन्दाज़ में अपने सारे दरवाज़े खोल कर हिन्दी के कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की प्रशस्तियां और कवि की जन्मशती के मौक़े पर तरह- तरह के लेख, टिप्पणियां इत्यादि छापने का सिलसिला शुरू किया था. यही नहीं, बल्कि "जनसत्ता" के स्तम्भकार और हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी भी जोश-ख़रोश से अज्ञेय को हिन्दी का महानतम कवि घोषित करने और मनवाने की मुहिम छेड़ बैठे थे. चूंकि अशोक जी के पीछे सत्ता भी है और सत्ता की ओर खिंच कर आने वाले जन भी, लिहाज़ा इस बैण्ड-बाजे में वे लोग भी जा शामिल हुए जो अब तक अज्ञेय को व्यक्तिवादी विचारों का पैरोकार कहते आये थे. हिन्दी में चल रहे इस प्रपंच को पाखण्ड-विडम्बन शैली में उजागर करते हुए कवि-पत्रकार और "जनसंस्कृति" पत्रिका के पूर्व सम्पादक अजय सिंह ने "समयान्तर" पत्रिका में कुछ सवाल उठाते हुए वामपन्थी सहित्यकारों और संगठनों को विवेक से काम लेने का आग्रह किया. इससे बौखला कर "जनसत्ता" अख़बार के सम्पादक ओम थानवी ने "अज्ञेय के दिलजले" शीर्षक से एक लम्बी "टीप" छाप कर अजय सिंह और अज्ञेय के आलोचकों को जली-कटी सुनाई. जब इतने से भी मन न भरा तो जापान में हिन्दी जगत से उपराम हो कर बैठे विद्वान लक्ष्मीधर मालवीय से एक और भी तीखी और भड़ास-भरी टिप्पणी लिखवा मंगाई और काफ़ी जगह दे कर छापी. इन दोनों टिप्पणियों और अजय सिंह के लेख के साथ अशोक वाजपेयी के कुछ कथनों को आधार बना कर मैंने एक टिप्पणी लिखी और अजय सिंह के कहने पर "जनसत्ता" को भेजी कि वे इसे अपने अखबार में जगह दें, हालांकि मुझे यक़ीन था कि ओम थानवी इस टिप्पणी को नहीं छापेंगे. बात अजय की नहीं, मेरी ही सही साबित हुई, थानवी ने बड़े सलीक़े से बहाना बनाते हुए उसे छापने से इनकार कर दिया. उन्होंने लिखा :

प्रिय नीलाभजी,

संपादक के अभिवादन और खेद सहित निवेदन है कि आपकी टिप्पणी प्रकाशित नहीं कर पाएंगे। वजह यह कि एक तो हमने अज्ञेय पर कोई बहस शुरू नहीं की है, जैसा कि आप समझ बैठे हैं। मैंने 'अनंतर ' में अज्ञेय के बेतुके विरोध पर एक टीप जरूर दी थी। उस पर -- आपकी तरह -- ढेर सारी उत्साही टिप्पणियां आ गईं; इनमें दो को छोड़कर बाकी सब अज्ञेय की तरफदारी करने वाली ही हैं। ये सब प्रकाशित करूंगा तो लगेगा कि अपनी अज्ञेय (अंध!) भक्ति के चलते अजय सिंह और वामपंथ के खिलाफ मुहिम छेड़ डाली है। जनसत्ता वाम-समथर्क है और अजयजी मेरे सद्भावी हैं। बहरहाल, उनकी लिखी टिप्पणी जरूर दे रहे हैं। (इतना उनका हक है), मगर और कुछ नहीं।

आशा है 'अन्यथा ' न लेंगे।

सानंद होंगे।

आपका,

ओम थानवी

यह मानते हुए कि ओम थानवी, जैसा कि ख़ुद कह रहे हैं, सम्पादकीय विवशताओं के घेरे में हैं और सचमुच न तो वाम-विरोधी हैं, न अज्ञेय के अन्ध भक्त, मैं यह टिप्पणी अपने साधनों से सब तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं. हम चाहते हैं कि हिन्दी साहित्य और उसके साहित्यकार सत्ता के आगे नतशिर होने और पूंछ हिलाने की प्रवृत्ति से पीछा छुड़ायें, और अज्ञेय ही का नहीं, हर रचनाकार का सन्तुलित विवेकसम्मत मूल्यांकन करें तभी हिन्दी और हिन्दी समाज का भला हो सकता है.)

अज्ञेय के दिलबरों की उछल-कूद


आजकल दो पुराने विवाद फिर चर्चा में हैं। पहला विवाद गाँधी पर केन्द्रित अमरीकी पत्रकार जोज़ेफ़ लेलिवेल्ड की ताज़ा किताब - ‘‘महान आत्मा गाँधी और भारत के साथ उनका संघर्ष’’ - को ले कर उठा है जिसमें गांधी की सम्भावित उभययौनता (bi-eroticism की चर्चा की गयी है। ज़ाहिरा तौर पर हिन्दुस्तान के परम्परागत रूप से दक़ियानूसी तबक़े ने अपनी आदत के मुताबिक़ (और अधिकतर लोगों ने तो किताब को पढ़े बग़ैर ही) इसे ले कर हाय-तौबा मचायी है। लेकिन जहाँ तक गाँधी के परिवार के लोगों और उनके सच्चे पैरोकारों का ताल्लुक़ है, उन्होंने इस किताब पर उठे विवाद को बेमानी करार देते हुए गाँधी के जीवन पर खुली दृष्टि से विचार करने की हिमायत की है और किताब पर पाबन्दी लगाने का विरोध किया है।

लेकिन ऐसा नज़रिया दूसरे विवाद के सिलसिले में नहीं बरता गया है जो हिन्दी साहित्यकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को ले कर उठा है जिनकी जन्म शताब्दी लगभग प्रतिशोधपरक दुराग्रह और उन्माद के साथ मनायी जा रही है। "प्रतिशोधपरक दुराग्रह" जैसे शब्दों का इस्तेमाल मैंने इसलिए किया कि वर्ष 2010-11 के दौरान अनेक हिन्दी-उर्दू साहित्यकारों की जन्म-शताब्दियां पड़ रही हैं -- अश्क और फ़ैज़ से ले कर शमशेर, अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, गोपाल सिंह नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, रामविलास शर्मा और भगवत शरण उपाध्याय तक। लेकिन सरकारी, अर्धसरकारी और स्वायत्त संस्थाओं द्वारा अज्ञेय ही को सबसे ज़्यादा तरजीह दी जा रही है. और इनकी देखा-देखी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं और संगठनों में भी अज्ञेय की जन्मशती मनाने की होड़-सी लग गयी है। चूंकि सहित्य का मामला प्रकाशन तन्त्र से भी जुड़ा है लिहाज़ा अज्ञेय पर पुस्तकों का तड़-फड़ प्रकाशन हो रहा है, जबकि शमशेर ही नहीं और भी कई साहित्यकार ऐसी तवज्जो से महरूम हैं। यही नहीं, बहुतों की तो सारी कृतियां भी उपलब्ध नहीं हैं, उन पर पुस्तकों की क्या कहिये। ग़ैर-सरकारी संस्थाओं और संगठनों के बारे में तो कुछ कहना व्यर्थ है, लेकिन सरकारी, अर्धसरकारी और स्वायत्त संस्थाओं /संगठनों से एक विवेकपूर्ण सन्तुलन की उम्मीद ज़रूर रखी जानी चाहिये थी, रखी जानी चाहिये भी, जो पूरी होती नज़र नहीं आती।

बहरहाल, अज्ञेय पर उठे विवाद की बात करें तो इसकी शुरूआत ‘‘समयान्तर’’ पत्रिका में हिन्दी कवि-पत्रकार अजय सिंह की एक टिप्पणी से हुई है जिसमें अजय सिंह ने, यह कहते हुए कि किसी भी वाम प्रगतिशील साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन को अज्ञेय की जन्मशती नहीं मनानी चाहिए, कुछ सवाल सामने रखे हैं। वे कहते हैं -

‘‘अज्ञेय के बारे में ये चार सवाल जरूर पूछे जाने चाहिएँ - ख़ासकर तब, जबकि कुछ लोग उनकी जन्मशती मनाने की तैयारी कर रहे हैं। ये हैं: (1) जब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था, तब क्या अज्ञेय - 1943 से 1946 के बीच - अंग्रेजों के जासूस थे? अज्ञेय की सहजीवी साथी (लिव-इन-पार्टनर) इला डालमिया ने उनके बारे में जो संस्मरण लिखा है, उससे उनकी यह छवि उभरती है, और अज्ञेय ख़ासे सन्देहास्पद व्यक्ति नजर आते हैं। अज्ञेय के बारे में आम तौर पर यह धारणा रही है कि उस दौर में वे अंग्रेज़ों के जासूस थे। (2) देश के आज़ाद होने के बाद क्या अज्ञेय अमरीकी साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्ठान से बहुत गहराई से जुड़ गये थे? क्या वे अमरीकी ख़ुफिया एजेंसी सी.आई.ए. द्वारा प्रवर्तित व वित्त-पोषित वाम-विरोधी, कम्युनिस्ट-विरोधी और समाजवाद-विरोधी सांस्कृतिक अभियान ‘कांग्रेस फ़ार कल्चरल फ्रीडम’ के अगुवा लोगों में थे? क्या 1947 के बाद उनका लेखन, विचार व सक्रियता इसी चीज़ से संचालित होती रही? क्या यह सही नहीं है कि अज्ञेय ‘क्वेस्ट/न्यू क्वेस्ट’ नाम से जो अंग्रेजी पत्रिका निकालते थे, उसे सी.आई.ए. से पैसा मिलता था? यह जानना दिलचस्प होगा कि अज्ञेय कितनी बाद विदेश गए - और उसमें कितनी बार अमरीका व जापान, और क्यों? इन ख़र्चीली विदेश यात्राओं के लिए धन कहाँ से मिलता था? (3) देश के बड़े पूँजी घराने अज्ञेय पर इतने मेहरबान क्यों थे? हिन्दी में नामी-गिरामी लेखक/कवि और भी थे, फिर भी बड़ी पूँजी अज्ञेय पर ही इतनी मेहरबान क्यों रही? बड़ी पूँजी द्वारा स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए वर्ष 1978 में अज्ञेय का ही क्यों चुनाव किया गया, शमशेर या नागार्जुन का क्यों नहीं ? (4) 1980 के आस-पास अज्ञेय ने अपने प्रतिक्रियावादी चेले-चपाटों के साथ मिल कर ‘जय जानकी यात्रा’ निकाली थी। इस यात्रा का मकसद क्या था, यह क्यों निकाली गयी थी, और इसे लिए धन कहाँ से और कैसे जुटा? क्या इस यात्रा का तार आगे चल कर फषसीवादी ‘राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन’ से जुड़ा?’’

"समयान्तर" में इस टिप्पणी का छपना था कि जो लोग अज्ञेय की जन्मशती, जैसा कि मैंने ऊपर कहा लगभग प्रतिशोधपरक दुराग्रह के साथ मना रहे थे, वे एकबारगी हरकत में आ गये और तरह-तरह से अज्ञेय को इस प्रकार बचाने में जुट गये, मानो अगर इन प्रश्नों पर बात होगी तो अज्ञेय की जो शुभ्र धवल, निष्पाप छवि वे निर्मित कर रहें हैं उसमें कोई कलंक लग जायेगा।

27 मार्च 2011 को "जनसत्ता" में ‘अनन्तर’ के तहत सम्पादक ओम थानवी ने ‘अज्ञेय के दिलजले’ शीर्षक से अजय सिंह के लेख का जवाब देते हुए कुछ विपदा प्रबन्धन की कोशिश की है और एक लम्बी फ़ेहरिस्त गिनायी कि अज्ञेय पर लिखे संस्मरणों के प्रस्तावित संकलन में कितने लोगों ने अज्ञेय को याद किया है। पहली बात तो यह है कि अगर कोई तुल ही जाये कि अज्ञेय पर संस्मरण लिखाने हैं तो 100 क्या 500 लेख भी इकट्ठे किये जा सकते हैं। इसलिए अज्ञेय का मूल्यांकन उन पर लिखे संस्मरणों से करना बेमानी है। चूँकि अज्ञेय की जन्मशती का मौक़ा है, चुनांचे बहुत-से लेखक तो बहती गंगा में हाथ धोने के लिए संस्मरण, लेख, टिपपणी आदि कुछ भी लिख मारेंगे। यकीन न हो तो "जनसत्ता" में छपा वह हास्यास्पद संस्मरण देख लीजिए जो राजेश जोशी ने लिखा है जिसमें अज्ञेय से अपनी भेंट न होने का संस्मरण है। यह कैसा संस्मरण है भाई, जिसमें हम यही गिनाते चले जायें कि किन-किन मौक़ों पर अज्ञेय से हमारी मुलाकात नहीं हो पायी। इसलिए यह अज्ञेय की महानता का कोई पैमाना नहीं है।

इसके अलावा ओम थानवी ने नामवर जी और कुछ अन्य वामपन्थी साहित्यकारों का जिक्र किया है जिन्होंने अज्ञेय के योगदान को भूरि-भूरि सराहा है। लेकिन क्या यह भी कोई पैमाना हो सकता है कि अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर राजेन्द्र यादव या नामवर सिंह अज्ञेय के बारे में किस तरह के फ़तवे देते हैं। फ़तवे शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि राजेन्द्र यादव की तरह यह कहना कि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के बाद अज्ञेय भारतीय साहित्य में बड़ी हस्ती हैं। या नामवर जी की तरह अज्ञेय को ‘अमृत पुत्र’ कहना अथवा उनकी कविताओं का संकलन ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के लिए तैयार करना या फिर ‘शेखर एक जीवनी’ को हिन्दी के पाँच महान उपन्यासों में से एक घोषित करना किसी विवेकपूर्ण वैज्ञानिक आलोचना दृष्टि का नहीं, बल्कि हिन्दी की उस अन्ध भक्तिपरक भावुकता की निशानी है जिसके तहत किसी विशेष अवसर पर अपना नाम दर्ज कराने के लिए कोई कुछ भी कह सकता है।

रही बात वामपन्थी साहित्यकारों - मैनेजर पाण्डे और राजेश जोशी - द्वारा ‘शरणार्थी’ की कविताओं पर अहो-अहो करने की बात तो इस पर जरूर सवाल उठाया जाना चाहिए कि यह काम इन कथित वामपन्थी साहित्यकारों ने अज्ञेय जन्मशती कार्यक्रम से पहले क्यों नहीं किया। सैकड़ों ऐसे मौक़े आये होंगे जब मैनेजर पाण्डे और राजेश जोशी और अन्य कथित वामपन्थी साहित्यकार, जो एक लम्बे समय तक अज्ञेय को व्यक्तिपरक चिन्तन का पुरोधा कहते आये थे, अपने पाप का परिमार्जन कर सकते थे। लेकिन वे इस संशोधनवादी धारा में शामिल होने के लिए अज्ञेय जन्मशती तक क्यों रुके? अज्ञेय पर आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम में उदय प्रकाश ने कहा कि - अज्ञेय अन्त तक वामपन्थी थे। यह वामपन्थ तभी से निर्मित होना शुरू हुआ जब से वे सक्रिय हुए, उन्होंने कहा कि नागरिक अधिकारों के साथ जुड़ा व्यक्ति, खदानों की खुदाई का विरोध करने वाला व्यक्ति क्या वामपन्थी नहीं है।

इस सिलसिले में पहली बात यह है कि वामपन्थी होने का मतलब है मार्क्सवाद में विश्वास। सवाल यह है कि क्या अज्ञेय मार्क्सवादी थे? वामपन्थी होने का आधार खदानों की खुदाई के विरोध से या नागरिक अधिकारों से जुड़ाव से तय नहीं होगा, बल्कि इस बात से होगा कि क्या वह व्यक्ति समाज के वर्ग विभाजित होने और इस विभाजन को दूर करने के लिए वर्ग संघर्ष से प्रतिबद्ध है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उदय प्रकाश अज्ञेय के जन्मशती समारोह का फ़ायदा उठा कर अपनी कलंकित छवि को दुरुस्त करने के फ़िराक़ में हों, क्योंकि अभी लोग इस बात को भूले नहीं हैं कि उन्होंने गोरखपुर के कट्टर साम्प्रदायिक महन्त अवैद्यनाथ के हाथों उसी व्यक्ति द्वारा प्रायोजित पुरस्कार ले कर अपनी प्रतिबद्धता की असलियत खोल दी थी।

उदय प्रकाश ने जिस असंगत और हठधर्मी रवैये से काम लेते हुए अज्ञेय को वामपन्थी घोषित करने की कोशिश की है उससे कई बातें उभरती हैं। पहली तो यह कि आज वामपन्थ को और (कथित या वास्तविक) वामपन्थी रचनाकारों को चाहे जितना बुरा-भला कहा जाये यह स्थिति तो बन ही गयी है कि वामपन्थी होना एक सकारात्मक मूल्य बन चुका है, वरना अज्ञेय को, जो सारी उमर मार्क्सवाद का विरोध करते रहे, वामपन्थी घोषित करने की ऐसी ज़रूरत उदय प्रकाश को महसूस न होती। दूसरी बात यह कि क्या महत्वपूर्ण लेखक होने के लिए वामपन्थी होना ज़रूरी है ? क्या बिना वामपन्थी हुए कोई साहित्यकार महत्वपूर्ण नहीं हो सकता? यह घालमेल अज्ञेय को अविवेकपूर्ण ढंग से सामने रखने की असन्तुलित दृष्टि के कारण हुआ है।

मज़े की बात यह कि इसी रोज़ वरिष्ठ आलोचक और जसम के अध्यक्ष मैनेजर पाण्डे ने कहा कि अज्ञेय ‘विशेष के सर्जक’ हैं। विशेष का अर्थ है जो शेष में न हो। इसके बाद अज्ञेय की "शरणार्थी" शीर्षक से लिखी किताब में संकलित कहानियों और कविताओं पर विचार करते हुए उन्होंने अज्ञेय के बारे में यह कहा कि उनकी महत्ता को समझने के लिए ये रचनाएँ इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि किसी भी लेखक कलाकार की महत्ता को समझने का एक बिन्दु यह भी होता है कि उसका अपने समय और समाज से रिश्ता क्या है? उन्होंने छायावाद के दो बड़े हस्ताक्षरों से ले कर अज्ञेय के दौर के तमाम कवियों का नाम ले कर कहा कि उन्होंने विभाजन की त्रासदी पर कोई कविता नहीं लिखी, जबकि अज्ञेय ने 11 कविताएँ विभाजन पर लिखीं साथ ही विभाजन की त्रासदी पर कहानियाँ भी लिखीं।

इस सिलसिले में पहली बात यह है कि विभाजन पर लिखने वालों में अज्ञेय अकेले नहीं है। ढूँढने पर अनेक रचनाएँ मिल जायेंगी जो विभाजन की त्रासदी पर लिखी गयी हैं। हो सकता है, वे कविताएँ न हों, कहानियाँ या उपन्यास हों। दूसरी बात कि अभी तक मैनेजर पाण्डे ने यह तथ्य सामने क्यों नहीं रखा था? तीसरी बात यह कि क्या महज़ 11 कविताओं के बल पर किसी कवि के पूरे काव्य-रिक्थ का मूल्यांकन करना उचित है? अन्तिम बात यह कि कुछ ही हफ़्ते पहले २२ जनवरी को मैनेजर पाण्डे ने शमशेर पर आयोजित जसम के कार्यक्रम में अज्ञेय के एक लेख को उद्धृत करते हुए उनकी संकीर्ण दृष्टि की घोर निन्दा की थी जिसमें अज्ञेय ने शमशेर पर यह आरोप लगाया था कि वे तो हिन्दी के कवि हैं ही नहीं, वे तो उर्दू के कवि हैं। लेकिन अज्ञेय की बहार है तो काहे का जसम और काहे का वामपन्थ।

अब अगर ओम थानवी के लेख पर लौटें तो कवि-पत्रकार अजय सिंह की (जिन पर अपनी ओर से घटिया क़िस्म की चोट करने के लिए ओम थानवी ने उन्हें ‘मार्क्सवादी लेनिनवादी संस्था के कार्यकर्ता’ कह कर उद्धृत किया है) जिन दूसरी बातों पर थानवी साहब को एतराज़ है, वे अजय सिंह के वे सवाल हैं जो अंग्रेज़ों की सेना में अज्ञेय के भर्ती होने, वहाँ निभायी गयी उनकी भूमिका, देश के आज़ाद होने के बाद अमरीकी साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्ठान से अज्ञेय के जुड़ने और अज्ञेय द्वारा स्थापित वत्सल निधि की जय-जानकी यात्रा को ले कर हैं। पहली बात तो यह है कि ओम थानवी कहते हैं कि फासिस्ट विरोधी जज़्बे ने अज्ञेय को अंग्रेज़ों की फ़ौज में शामिल होने के लिए मजबूर किया और सफ़ाई देते हैं कि फ़ौज तो हिन्दुस्तान की थी। हमारा सवाल यह है कि अव्वल तो फासीवाद विरोध के और बहुत-से तरीक़े थे। उसके लिए अंग्रेज़ों की फ़ौज में शामिल होना न तो ज़रूरी था, न एक बेहतर विकल्प। फ़ौज तो अंग्रेज़ों की ही थी, वैसे ही जैसे सरकारी नौकरियाँ भी अंग्रेज़ों की ही थीं, जिनसे बाहर आने के लिए गाँधी ने आवाहन किया था। वरना गाँधी कह सकते थे कि अरे भाई, यह भी तो हिन्दुस्तान की प्रशासनिक सेवा है, सो लगे रहो। लिहाज़ा यह तर्क बहुत काम नहीं देगा। दूसरी बात यह कि अज्ञेय सीधे कप्तान की हैसियत से कैसे शामिल हुए? फ़ौज में भर्ती और ओहदों का एक क़ायदा होता है। या तो आप सिपाही होते हैं या नान कमीशण्ड अफ़सर (जैसे हवलदार, आदि) या फिर कमीशण्ड अफ़सर (जैसे सेकेण्ड लेफ़्टिनेंट, लेफ़्टिनेंट, कैप्टन, आदि)। कप्तान बनने के लिए पहले सेकेण्ड लेफ़्टिनेंट और लेफ़्टिनेंट होना जरूरी होता है। अंग्रेज़ों ने अगर इस श्रेणीबद्धता को नज़रअन्दाज़ करने का फ़ैसला किया होगा तो अपने फ़ायदे-नुकसान के हिसाब से किया होगा, और यही अज्ञेय के निर्णय को सन्दिग्ध बना देता है। यहाँ याद करा दें कि फासीवाद विरोध के जज़्बे के चलते इंग्लैण्ड और अमरीका के अनेक बड़े साहित्यकार स्वेच्छा से स्पेनी गृह युद्ध और दूसरे महायुद्ध के दौरान सेना में भर्ती हुए थे। उनमें क्रिस्टोफ़र काडवेल जैसे मार्क्सवादी आलोचक भी थे और स्टीफ़न क्रेन और हेंमिग्वे जैसे अमरीकी ग़ैर-मार्क्सवादी साहित्यकार भी। लेकिन वे फ़ौजियों की हैसियत से शामिल हुए थे, अफ़सरों के हैसियत से नहीं।

रहा सवाल अज्ञेय के उन संस्थाओं से जुड़े होने का जो या तो अमरीकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. द्वारा प्रवर्तित या फिर वित्त-पोषित थीं, यह कोई छिपी बात नहीं है कि ‘‘कान्ग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ और ‘‘इण्डियन असोसिएशन फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ जैसी संस्थाएँ और ‘‘क्वेस्ट’’ और ‘‘न्यू क्वेस्ट’’ और ऐसी ही दसियों दूसरी पत्रिकाएँ सी.आई.ए. ने अपनी नवसाम्राज्यवादी और कम्यूनिस्ट विरोधी नीति के तहत स्थापित करवायी थीं और उन्हें धन उपलब्ध कराया था। यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि अज्ञेय इन संस्थाओं से किसी-न-किसी रूप में जुड़े रहे थे। सी.आई.ए. ने तो फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के माध्यम से भी अपनी सांस्कृतिक घुस-पैठ जारी रखी थी। जो लोग भोलेपन से ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ और ‘‘इण्डियन असोसिएशन फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ जैसी संस्थाओं को सांस्कृतिक संस्थाएँ मान बैठते हैं, उन्हें इण्टर्नेट पर जा कर यह ज़रूर जान लेना चाहिए कि इन संस्थाओं की फितरत कितनी साजिशी थी। तीसरी दुनिया के देशों में अव्यवस्था फैला कर उन्हें अमरीकी जुए में जोतना और एक नस्लवादी नवफ़ासिस्ट प्रवृत्ति को पोषित करना उनके उद्देश्यों में शामिल था और अब भी है। इनकी जड़ें शासन तन्त्र के लगभग हर विभाग में उतरी हुई थीं और हैं। यह अकारण नहीं है कि १९६४ में गठित शिक्षा आयोग ने जब १९६६ में अपनी रिपोर्ट पेश की तो ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ ने १६-१७ सितम्बर १९६६ को उस पर नयी दिल्ली में एक सेमिनार कराया।

यह संस्था कैसी थी इसका अन्दाज़ा हमें प्रसिद्ध मराठी कवि दिलीप चित्रो के उस संस्मरण से होता है जिसमें उन्होंने ‘‘न्यू क्वेस्ट’’ के सम्पादक ए.बी. शाह को याद करते हुए लिखा है :

"द इण्डियन कमेटी फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम" शीत युद्ध के दौरान अस्तित्व में आयी थी। उसके संस्थापकों में मीनू मसानी और जयप्रकाश नारायण थे जो स्वाधीनता संग्राम के आख़िरी दौर में इण्डियन नैशनल कांग्रेस पार्टी के समाजवादी गुट के सदस्य थे।

"द इण्डियन कमेटी फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम" ने विभिन्न लोगों को इकट्ठा किया जो क़ायल थे कि फासीवाद की पराजय के बाद लोकतन्त्र के आदर्शों के लिए कम्यूनिस्ट राष्ट्र सबसे बड़ा खतरा थे। अमरीकी विदेश नीति शीत युद्ध की रणनीति के तहत ऐसी सभी सोवियत विरोधी संस्थाओं का समर्थन करती थी और उन्हें धन भी उपलब्ध कराती थी। ऐसा सन्दिग्ध और लुके-छिपे स्रोतों से किया जाता था जिनकी जानकारी "द इण्डियन कमेटी फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम" जैसी संस्थाओं के बहुत-से सदस्यों को भी नहीं होती थी। "द इण्डियन कमेटी फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम" के सदस्यों को यह पता नहीं था कि उनकी संस्था को पैसे देने वाली संस्था ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ ख़ुद गोपनीय तौर पर सी.आई.ए. द्वारा वित्त पोषित थी....

"न्यू क्वेस्ट" की पूर्ववर्ती पत्रिका "क्वेस्ट" १९५0 के दशक के मध्य में शुरू हुई थी। किन्ही अर्थों में वह तब ’एनकाउण्टर’ पत्रिका से मिलती-जुलती थी जो लन्दन से प्रकाशित होती थी और उसी संस्था ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ से पैसे पाती थी। उसके शुरुआती सम्पादकों में कवि निस्सीम एज़ेकियल, अर्थशास्त्री अम्लान दत्त और बांग्ला के साहित्यकार अबू सैयद अयूब थे।

1960 के दशक में जब यह भण्डाफोड़ हुआ था कि ‘‘एनकाउण्टर’’ पत्रिका के पीछे सी.आई.ए. का हाथ था तो यह साहित्य जगत का सबसे बड़ा विस्फोट था। ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ पर ‘‘एक्ज़ेक्यूटिव इण्टेलिजेन्स रिव्यू’’ में स्टीवन मायर और जेफ़्री श्टाइनबर्ग ने लिखा है --

‘नात्सीकरण-विरोध’’ से बिलकुल अलग ‘‘कांग्रेस (फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम)’’ और इससे सम्बद्ध ‘‘सांस्कृतिक युद्ध’’ (कल्चरकैकैम्फ़) के मोर्चों का प्रयास यूरोपीय क्लासिकी संस्कृति के आख़िरी अवशेषों को नष्ट करने और उनकी जगह विकृत, पाशविक और निराशावादी संस्कृति को स्थापित करने का था। ऐसा ‘‘निरीश्वरवादी कम्यूनिज़्म से लड़ने’’ और दूसरे क़िस्मों की ‘‘निरंकुशता’’ का विरोध करने के बेतुके मुखौटे के पीछे से किया गया।
वास्तव में, "कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम" का अभियान दुनिया को एक बार फिर वैसे आधुनिक राष्ट्र-राज्य तन्त्र के ख़िलाफ़ इजारेदारी-परस्त हमले के लिए तैयार करना था जैसे तन्त्र की हिमायत अभी हाल में और सफलता के साथ अमरीका में फ़्रैन्कलिन डिलैनो रूजवेल्ट ने की थी जिन्होंने बीसवीं सदी के मध्य में दुनिया के और किसी भी व्यक्तित्व से बढ़ कर हिटलर के नेतृत्व वाले विश्वव्यापी इजारेदारी-परस्त साम्राज्य को पराजित करने का प्रयास किया था। अप्रैल १९४५ में फ़्रैन्कलिन की अकाल मृत्यु ने सब कुछ बदल दिया था।

कहना न होगा कि यहीं से शीत-युद्ध की और सी.आई.ए. तथा उसके द्वारा समर्थित तमाम प्रतिक्रियावादी, जनविराधी सांस्कृतिक हमले की शुरुआत हुई। अमरीका के भीतर जनरल मैकार्थी तथा हाउस अनमेरिकन ऐक्टिविटीज़ कमेटी ने एफ़.बी.आई. के साथ और बाहर जान फ़ौस्टर डलेस ने सी.आई.ए. के साथ मिल कर ऐयारी, घुसपैठ और ख़ुफ़िया तोड़-फोड़ का जो क़हर बरपा किया वह छिपा नहीं है।

1957 में ‘‘परिमल’’ ने इलाहाबाद में जो लेखक सम्मेलन कराया था, उसके पीछे भी कैसे कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम ही की भूमिका थी इसका पता इस बात से चला था कि धन्यवाद-ज्ञापन ‘‘कांग्रेस फ़ौर कल्चरल फ़्रीडम’’ के पदाधिकारी प्रभाकर पाध्ये ने किया था। यह प्रसंग मैं अपने संस्मरण ‘‘अधूरी लड़ाइयों के पार’’ में विस्तार से लिख चुका हूं, जो लोग देखना चाहें वहाँ देख लें और साथ-साथ ‘‘कहानी’’ पत्रिका के जुलाई और नवम्बर १९५७ के अंकों में अमृत राय की टिप्पणियाँ पढ़ लें।

तीसरी बात यह है कि जिस समय जय-जानकी यात्रा शुरू की गयी थी, उस समय हमारे देश की साम्प्रदायिक फ़िज़ा ऐसी थी कि वह यात्रा प्रच्छन्न रूप से हिन्दू साम्प्रदायिकता को ही पुष्ट करने का काम करती, जो उसने किया भी। आध्यात्मिक चिन्ता और किसी बड़े मूल्य की तलाश के लिए दूसरे भी तरीक़े थे, लेकिन अज्ञेय ने वही तरीक़ा अपनाया जो उनके प्रतिगामी रूझान के नजदीक था।

ओम थानवी को शायद लगा हो कि उनके सम्पादकीय का बहुत असर नहीं पड़ेगा लिहाज़ा उन्होंने दशकों से जापान में बसे हिन्दी विद्वान लक्ष्मीधर मालवीय की लम्बी प्रतिक्रिया मँगा कर 3 अप्रैल 2011 के "जनसत्ता" के अंक में छापी है और शीर्षक दिया है ‘‘विष कहाँ पाया।’’ मालवीय अपनी चिढ़ और खीझ-भरी अभिव्यक्तियों के लिए जाने जाते हैं। वे इस बात की घोषणा करते हुए नहीं थकते कि हिन्दी का साहित्यिक समाज किस प्रकार और कितना सड़ा और पिछड़ा हुआ है और वे अपने गुरु के आदेश पर जापान में बैठ कर ‘देव ग्रन्थावली’ पर काम कर रहे हैं। "जनसत्ता" के आधे पेज पर अपने लेख में मालवीय ने अजय सिंह को जली-कटी सुनाते हुए जो उछल-कूद मचायी है, उसमें दो बातें स्पष्ट हैं कि जासूस होना बुरी बात नहीं है। इसके लिए उन्होंने रिहार्द जोर्गे नामक किसी जासूस की प्रशस्ति गायी है जिसने कथित रूप से दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापानियों की जासूसी करके रूसियों की मदद की और पकड़े जाने पर जिसे जापानियों ने फाँसी पर चढ़ा दिया। लेकिन पहली बात तो यह है कि न तो जापान और न ही सोवियत संघ उपनिवेश थे। एक औपनिवेशिक शासन से सहयोग चाहे वह कितने ही ऊँचे आदर्शों के लिए किया जा रहा हो सन्देह पैदा करता है ख़ास तौर पर लेखकों के सिलसिले में। वरना स्टीफ़न स्पेण्डर को यह पता चलने पर कि "एनकाउण्टर" पत्रिका को सी.आई.ए. से पैसा मिलता है, पत्रिका से इस्तीफ़ा देने की ज़रूरत न पड़ती. दूसरी बात मालवीय ने यह कही है यह कि अगर अज्ञेय को ले कर यह विवाद उठा तो यशपाल पर उठे विवाद को नया जीवन मिलेगा। और अन्त में उन्होंने कहा है ‘‘मरणान्तानि वैराणि’’ यानि अब तो अज्ञेय रहे नहीं, उनकी सारी बुराइयाँ उनके साथ चली गयीं। अब तो वक़्त है उनके अच्छे कामों को याद करने का। मैं यह कहना चाहता हूँ कि कई बार मनुष्य के बुरे काम उसके मरने के बाद भी ज़हर घोलते रहते हैं। योरोप में हिटलर के परास्त होने और मरने के बाद नवफ़ासीवाद का उदय इसी तरफ़ संकेत करता है।

लेकिन अगर हम इतना कड़ा रुख़ न भी अपनायें तो भी अज्ञेय के सारे मूल्यांकन के साथ अगर इन पुराने आरोपों पर भी विचार हो जाय तो क्या हर्ज है? अज्ञेय के समर्थक इतना घबरा क्यों रहे हैं? लक्ष्मीधर जी को इस तरह जामे से बाहर आ कर तर्क छोड़, अजय को जली-कटी सुनाने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अजय ने सही नाड़ी पर उँगली रख दी है?

जहाँ तक अजय सिंह की मूल चिन्ता की बात है कि अज्ञेय की जन्मशती वाम संगठनों को नहीं मनानी चाहिए तो उस सिलसिले में हमारे मित्र अशोक वाजपेयी ने भी अपनी कई टिप्पणियों में यह बताया है कि कैसे वामपन्थी साहित्यकार अज्ञेय का पुर्नमूल्यांकन करते हुए उन्हें महान घोषित कर रहे हैं।

"जनसत्ता" के अपने रविवारी स्तम्भ ‘‘कभी-कभार’’ में अशोक वाजपेयी ने ‘बड़े लेखक’ शीर्षक से यह बताने की कोशिश की कि अज्ञेय अन्य लोगों से किस प्रकार बड़े हैं। हालाँकि उन्होंने इस टिप्पणी में अज्ञेय के साथ शमशेर और नागार्जुन का भी नाम लिया लेकिन यह साफ़ है कि उनका यह सारा प्रयत्न अज्ञेय की पक्षधरता का ही था। वरना अज्ञेय पर रज़ा फ़ाउण्डेशन और साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित तीन दिन के कार्यक्रम में पूरी सक्रियता दिखाने और अज्ञेय पर आयोजित अनेक कार्यक्रमों में शिरकत और अध्यक्षता करने और अज्ञेय पर अनेक टिप्पणियाँ लिखने के साथ-साथ उन्होंने ऐसा उत्साह और पहलक़दमी औरों को तो छोड़िये, बाकी जो दो नाम उन्होंने लिये उनके सिलसिले में भी नहीं दिखायी है।

खैर, इस पर हम बाद में आते हैं पहले हम उनके लेख को ही लें। अशोक वाजपेयी ने लेख के पहले ही वाक्य से यह खेद प्रकट करना शुरू कर दिया है कि ‘‘इन दिनों कुछ लेखकों की जन्मशतियों के मनाने की होड़ सी लग गयी है।’’ इसके बाद वे यह सवाल उठाते हैं कि ‘‘क्या कोई लेखक मात्र इसलिए बड़ा मान लिया जाये कि उसे हुए 100 वर्ष हो गये और उसकी ओर कुछ अतिरिक्त उदारता से सलूक करना चाहिए।’’ और यह स्पष्ट नहीं करते कि ऐसा कौन लेखक है जो मात्र इसलिए जन्मशती का पात्र है कि उसे हुए 100 वर्ष हो गये। जाहिर है, इससे दाल में कुछ काला लगता है, लगता है अशोक जी किसी विशेष साहित्यकार की प्रच्छन्न पक्षधरता में यह सवाल उठा रहे हैं। कारण यह है कि जिस झड़ी का उन्होंने किया है उसमें अज्ञेय ही सबसे ज़्यादा भींज रहे हैं।

संयोग से 2010-11 के ये वर्ष अनेक साहित्यकारों के जन्मशताब्दी वर्ष हैं जिनमें अश्क, फ़ैज़, शमशेर, अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मजाज़, भुवनेश्वर, भगवतशरण उपाध्याय, गोपाल सिंह नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह और रामविलास शर्मा जैसे साहित्यकार शामिल हैं। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित सबसे ज्यादा जन्मशती समारोह अज्ञेय के ही हुए हैं। ज़ाहिर है सत्ता प्रतिष्ठान अज्ञेय को अन्य लोगों की तुलना में बड़ा लेखक मानता होगा। वैसे, बड़े लेखक की पहचान अपनी टिप्पणी में अशोक जी ने भी करायी है। यानी ऐसे लेखक की जिसमें यह पात्रता हो कि उसकी जन्मशती मनायी जाये। वे लिखते हैं कि

‘‘पहली बात तो यह पूछना होगा कि क्या कोई पूर्वज, अपनी जन्मशती के बावजूद, हमसे आज बोलता है? क्या हम उससे किसी सार्थक संवाद की स्थिति में अपने को पाते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या वह अपने समय को लाँघ कर हमारे समय में हमारा सहचर हो सकता है? क्या उसके पास ऐसा कुछ है, जो आज हमारे काम आ सकता है? अगर वह अपने समय में इतना रसा-बिंधा है कि उसमें समयातीत होने की या उसे छू सकने की कोई सम्भावना नहीं बची तो ऐसा लेखक ऐतिहासिक महत्व का तो होगा आज हमारे किसी मसरफ़ का नहीं। अगर अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन आदि बड़े हैं तो इसलिए कि वे आज भी हमसे बोलते हैं, अपने समय के पार बोलते हैं और हमें स्मरणीय ढंग से किसी भी समय मानवीय स्थिति, उसकी विडंबनाओं और सुख-दुख, उसके अंतर्विरोध और उत्सुकताओं आदि से रूबरू कराते हैं। यह तोड़-मरोड़ कर किसी तरह की प्रासंगिकता में पिफट करने जैसा नहीं है। बल्कि एक अर्थ में ये लेखक बड़े इसलिए हैं कि ये हमें नितान्त समसामयिकता की जकड़बन्दी से मुक्त करते हैं। इस पहचान की ओर ले जाते हैं कि पहले भी संकट थे ओर उनमें से हरेक ने अपने ढंग से राह खोजी और समय को पार किया। वह समय पार करना समय की अनदेखी या अनसुनी नहीं है। यह उसी में बँध कर न रह जाना भर है।’’

अशोक जी ने टिप्पणी में आगे भी इसी तरह की अमूर्त वायवी बातें की हैं जो किसी सुस्पष्ट कसौटी का निर्माण नहीं करती। अशोक जी की कसौटी से कोई भी लेखक बड़ा या छोटा साबित किया जा सकता है. कारण यह कि परख का जो पहला आधार वे पेश करते हैं - ‘‘क्या कोई पूर्वज, अपनी जन्मशती के बावजूद, हमसे आज बोलता है? क्या हम उससे किसी सार्थक संवाद की स्थिति में अपने को पाते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या वह अपने समय को लाँघ कर हमारे समय में हमारा सहचर हो सकता है? क्या उसके पास ऐसा कुछ है, जो आज हमारे काम आ सकता है?’’ - इस पर अलग-अलग लेखक अलग-अलग लोगों के लिए काम लायक़ या बेकार सिद्ध किये जा सकते हैं। एक वर्ग विभाजित साम्प्रदायिक समाज में जो लेखक दलितों को भायेगा, वह यकीनन वर्णनाश्रम धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों को नहीं भायेगा। जो शोषित वर्गों के पक्ष में होगा, वह लामुहाला उन लोगों के प्रतिकूल बैठेगा जो शासक वर्ग के पक्षधर होंगे. इसलिए अलग-अलग साहित्यकार अलग-अलग लोगों के सहचर साबित होंगे. लेकिन ऊपर मैंने जो कारण बताये हैं उनके चलते यह सीमा धुंधली हो गयी है और बहुत से लोग जिन्हें अज्ञेय कल तक पसन्द नहीं थे आज अचानक भाने लगे हैं यह भी हो सकता है कि जीवन स्थितियों के बदलने के साथ ही साहित्यकारों की मान्यताओं में भी फ़र्क़ आया हो, पर चूंकि यह अन्तर प्रकट अजॅय के शताब्दी वर्ष में हुआ है इसलिए शक पैदा करता है और हिन्दी सहित्य जगत के मौजूदा माहौल पर सोचने के लिए भी विवश करता है।

अन्त में अशोक वाजपेयी की ही तरह हम भी अपनी कसौटियों का ज़िक्र करना चाहेंगे जिन पर कसे जा कर ही कोई लेखक बड़ा कहा जा सकता है। जब तक 1951 में हिन्दी राजभाषा और राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर नहीं बैठी थी तब तक वह वंचितों की वाणी और पीड़ितों की भाषा थी। अपने आदि काल से ले कर 1947 तक हिन्दी ने सदैव सत्ता का विरोध किया और दलितों और पीडि़तों के पक्ष में आवाज़ बुलन्द की। यह उसकी मूल प्रकृति थी, जो हिन्दी के राष्ट्रभाषा और राज भाषा बनने के बाद क्षरित हुई है। यही कारण है कि हिन्दी के सभी जनपक्षधर साहित्यकारों को हिन्दी की बुनियादी प्रतिज्ञाओं को फिर से सामने रखने की ज़रूरत महसूस होती रही है, क्योंकि यही बुनियादी प्रतिज्ञाएँ हमारी कसौटी का आधार हैं। ये प्रतिज्ञाएँ क्या थीं? सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दमन और उत्पीड़न के विरूद्ध मनुष्य के अथक संघर्ष में उसका साथ देना। यथास्थिति से कभी समझौता न करना, सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी करना और वास्तविकता और उसे अभिव्यक्त करने के संघर्ष में हिस्सा लेना। हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी साहित्यकार की रचनाओं में उसके समय की झाँई नज़र आती है, भले ही अशोक जी यह मानते हों कि बड़ा लेखक हमें नितान्त समसामयिकता की जकड़बन्दी से मुक्त करता है। लेकिन सच तो यह है कि वह निराला के शब्दों में कहें तो ‘‘देश काल के शर से बिंध’’ कर ही बड़ा लेखक बनता है। ऐसी हालत में हम समझते हैं कि अज्ञेय की रचनाओं की तहक़ीक़ात ऊपर दिये गये आधार पर की जानी चाहिए और उनके सम्पूर्ण साहित्य को सामने रख कर नतीजे निकाले जाने चाहिएँ, चन्द कविताओं और कुछ कहानियों के बल पर नहीं।

इसलिए सवाल यह है कि बीसवीं सदी के जिस हिस्से में अज्ञेय सक्रिय थे उस हिस्से का कैसा और कितना साक्ष्य उनके साहित्य में नज़र आता है? 1930 से ले कर 1987 तक, यानी बीस साल की उमर से ले कर अपने निधन तक की अवधि में अज्ञेय "सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दमन और उत्पीड़न के विरूद्ध मनुष्य के अथक संघर्ष में" किस हद तक और किस रूप में शामिल रहे ? यथास्थिति से उनके रिश्ते का स्वरूप क्या था और कैसा ? "सत्ता और उसके प्रलोभनों से" अज्ञेय ने क्या किनाराकशी की या नहीं ? और अपने समय की वास्तविकता का कैसा अक्स उनकी रचनाओं में हमें दिखायी देता है ? जनता के मुक्तिकामी संघर्षों मे अज्ञेय किस रूप में और कितनी दूर तक शामिल रहे? इसी आधार पर अज्ञेय के कृतित्व का सही मूल्यांकन हो सकता है और इस सवाल का जवाब भी मिल सकता है कि उनका रचनात्मक स्वरूप किन कारणों से वैसा है जैसा कि वह है ?

अज्ञेय से महज छः बरस छोटे कवि गजानन्द माधव मुक्तिबोध अकसर किसी से भी मिलने पर यह पूछते थे - पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? हम समझते हैं यह सवाल आज और भी प्रांसगिक हो उठा है और इसे महज़ अशोक वाजपेयी और ओम थानवी जैसे अज्ञेय के प्रबल पक्षधरों से ही नहीं, बल्कि नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डे और अन्यान्य साहित्यकारों से भी पूछा जाना चाहिए।

{और अन्त में एक पुछल्ला। हिन्दी विद्वान लक्ष्मीधर मालवीय औरों के साथ "समयान्तर" पत्रिका की खिल्ली उड़ाते हुए लिखते हैं -- "’समयान्तर’ पता नहीं क्या चीज़ है, जबकि मैं इस शब्द का अर्थ ही नहीं बूझ पाता।" हमें विश्वास है कि वे विषयान्तर, प्रकारान्तर, समानान्तर जैसे शब्दों से भी परिचित होंगे और लीक पर चलने के इतने हामी नहीं होंगे कि नये शब्द गढ़ने की प्रक्रिया पर सेन्सर लगाने की सोचें. वैसे भी जापानियों और जर्मनों के पिछले रिकार्ड को देख कर डर लगता है.}

5 टिप्‍पणियां:

  1. ओम थानवी की यह बात ठीक है कि उन्होंने अज्ञेय पर कोई बहस नहीं चलाई.क्योंकि बहस में तो दोनो पक्षो को बोलने का अधिकार होता है.दर अस्ल ओम थानवी अज्ञेय के महिमा मंडन में जुटे हैं या कहो अज्ञेय पर जो सवाल उठाए जा रहे हैं उनका बचाव करने में जुटे हैं. पहले जनसत्ता में लेख लिखा फ़िर उसे ऐसी जगह चिपका दिया जहाँ बहस नहीं गाली गलौज होती है. उसी दिन उन्होंने एक वक्तव्य फ़ेसबुक पर डाल दिया ''हम अपने महापुरुषों के प्रति इतने नाशुक्रे क्यों हो जाते हैं'' वे कह रहे हैं अज्ञेय के पक्ष में बहुत सारे पत्र आये हैं . फ़ेसबुक पर भी बहुत सारे कमेंट उनके पक्ष में आए होंगे पर देखना यह होता है कि वे आपके पक्ष में क्या तर्क दे रहे हैं. ओम थानवी को लगा होगा जापान से पत्र लेख लिखवाने से कुछ ज़्यादा वजन बढ़ जाएगा. लेखक कोई ठोस तर्क देने के बजाय बार- बार कहता है मैं तो हिंदी भूल चुका हूँ मैं आपसे कभी मिला भी नहीं आप मुझे यह सब क्यों भेज देते हैं. इसलिए ओम थानवी ठीक कहते हैं कि उन्होंने कोई बहस नहीं छेड़ी है बस अज्ञेय के महिमा मंडन में एक अभियान चलाया है.

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  2. नीलाभ जी से निन्याबे प्रतिशत सहमत.....

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  3. नीलाभ जी से निन्याबे प्रतिशत सहमत.....
    - शिरीष कुमार मौर्य

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  4. जब कोई साफ-साफ चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में अपनी बात एक ठसक के साथ रखे तो एक उम्मीद कौंधती है, लेकिन काजल की कोठरी में उज्ज्वल-धवल पाक-साफ बात करते व्यक्ति के इस विरोध का उद्देश्य नहीं समझ आता. मानो मन यह जानने
    को व्याकुल हो-पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?
    लेकिन जैसा मैंने पढ़ा अगर उसका एक ही अर्थ है तो यह हमारी प्रकृति के बहुत करीब है.जानकर अच्छा लगा कि इन बिल्लियों के गले में घंटी बाँधनेवाले और भी हैं. मेरी दृष्टि में हिंदी प्रतिरोध की ही भाषा है इससे चरण चंपी करवाएँगे तो इसकी हत्या ही होगी....
    साफगोई के साहस के लिए साधुवाद.

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  5. जब कोई साफ-साफ चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में अपनी बात एक ठसक के साथ रखे तो एक उम्मीद कौंधती है, लेकिन काजल की कोठरी में उज्ज्वल-धवल पाक-साफ बात करते व्यक्ति के इस विरोध का उद्देश्य नहीं समझ आता. मानो मन यह जानने
    को व्याकुल हो-पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?
    लेकिन जैसा मैंने पढ़ा अगर उसका एक ही अर्थ है तो यह हमारी प्रकृति के बहुत करीब है.जानकर अच्छा लगा कि इन बिल्लियों के गले में घंटी बाँधनेवाले और भी हैं. मेरी दृष्टि में हिंदी प्रतिरोध की ही भाषा है इससे चरण चंपी करवाएँगे तो इसकी हत्या ही होगी....
    साफगोई के साहस के लिए साधुवाद.

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