गुरुवार, 10 मई 2012

राम बनवास से लौट कर जब घर में आये

आज कैफी आजमी की पुण्य तिथि है. उन्हें याद करता हूँ तो कभी राष्ट्रीय सहारा साप्ताहिक संस्करण में पढ़े उनके साक्षात्कार का शीर्षक याद आता है - "मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आजाद हिन्दुस्तान में जिया और समाजवादी हिन्दुस्तान में मरना चाहता हूँ"..उनकी यह इच्छा तो पूरी नहीं हुई, लेकिन हमें यह रोज उस इन्कलाब की याद दिलाता रहता है, जो अब तक उधार है हम पर. आज बाबरी मस्जिद की शहादत के दौर में लिखी उनकी इस नज्म की याद हरिओम राजोरिया ने दिलाई तो सोचा आप सब तक इसे पहुंचाऊं. साथ में एक और नज्म "उठ मेरी जान" जो मुझे स्त्री विमर्श की पूर्वपीठिका सी लगती है.

आखिरी बनवास

राम बनवास से लौट कर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए

जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये

धर्म क्या उनका है क्या जात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आये

पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नजर आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे

राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे

उठ मेरी जान
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

9 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut Achchi Nazm Hai. Kaifi Sab Ko Pdhna Urdu Aur Hindi K Shandaar Sammnway ko Smajhne Jaisa Hai. Kaifi Zindabaad.

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  2. कैफी साहब की यह अच्छी नज़्म कई बार सुनी पढी है और हर बार अच्छी लगती है।

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  3. शानदार नज़्में हैं कैफी साहब की ! उन्हें सामने बैठ के सुना है मैंने ! उनकी याद हमेशा ताज़ा रहेगी ! सलाम कैफी साहब !

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  4. आज की रात बड़ी सर्द हवा चलती है
    आज की रात न फूटपाथ पे नींद आएगी
    हम उठें तुम उठो , आओ सभी मिलके उठे
    कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

    बेहतरीन ...क्या लिखा है कैफ़ी साहब ने ...इस जनवादी शायर को हमारा लाल सलाम ...

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  5. कैफ़ी आज़मी साहब की ऊपर वाली नज़्म कई बार पढ़ी है ..और हर बार वो उतना ही उदास करती है ... हर बार सोंचता हूँ राम को तो दुखी ना करते हम ..और आज भी किये जा रहे हैं ..

    दूसरी नज़्म माशा अल्लाह

    क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
    तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं
    तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
    तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
    पहली बार पढ़ा मैंने अपने सही ही कहा है ये स्त्री विमर्श की पूर्वपीठिका ही है !!

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  6. बेहतरीन...बेहतरीन....मेरी जान वाली भी यदि पूरी होती तो और भी अच्छा लगता....शुक्रिया....

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  7. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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