बुधवार, 30 मई 2012

मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत - २


मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत नाम से जिस लेख श्रृंखला की शुरुआत की थी, वह युवा संवाद पत्रिका में कालम के रूप में छप रही है. इसीलिए यह कड़ी पत्रिका में छपने के बाद ही. पहली कड़ी पर आप लोगों की प्रतिक्रिया हिम्मत देने वाली थी. आगे भी यही उम्मीद है. 



दर्शन क्या है : भाववाद बनाम भौतिकवाद

मार्क्सवाद एक सकर्मक दर्शन है. अक्सर दुहराई जाने वाली मार्क्स के कब्र पर लिखी उक्ति अब तक के दार्शनिकों ने सिर्फ दुनिया की व्याख्या की है, सवाल दुनिया को बदलने का है, मार्क्सवाद के दर्शन को अपने पूर्ववर्ती दर्शनों से जोड़ती भी है और एक स्पष्ट प्रस्थान बिंदु भी तय करती है. मार्क्सवाद पर कोई भी बात करने से पहले हमें इसके दर्शन के साथ-साथ उन दार्शनिक पद्धतियों को समझना होगा जिनसे आगे बढ़कर मार्क्स ने अपना दर्शन गढा था.   

लेकिन सबसे पहले यह कि आखिर दर्शन है क्या? आम समझ में इसे कोई बेहद जटिल चीज माना जाता है जो एक खास तरह के, बल्कि कहें कि असामान्य से लोगों के ही बीच की चीज़ है. फिलासफर शब्द उतना सम्मान के लिए प्रयोग नहीं होता जितना मजाक के लिए. कोई जब बहुत ज्यादा बेसिरपैर की बकवास करने लगता है तो कहा जाता है काहें फिलासफर बन रहे हैं. ढंग से बात कीजिये. देखा जाय तो इसकी वजह यह है कि आमतौर पर दर्शन की बहसें इस कदर अमूर्त होती हैं और उसकी भाषा इस कदर उलझाव भरी होती है कि सामान्य पाठक के लिए उसे समझ पाना आसान नहीं होता, दूसरी बात दर्शन की तमाम बहसें जीवन से इस कदर कटी हुई होती हैं कि किसी भी आम इंसान को वह अपने लिए कोई ज़रूरी चीज़ नहीं लगती. लेकिन क्या सचमुच मनुष्य के जीवन से मुक्त कोई दर्शन है? या फिर किसी मनुष्य का जीवन दर्शन से मुक्त होता है मेरा जवाब है नहीं!

जैसे मान लीजिए आप किसी कष्ट में हैं और आप जानते हैं कि इसका जिम्मेदार कोई व्यक्ति है या कोई व्यवस्था है. जैसे आप किसी फैक्ट्री में हैं और तालाबंदी के बाद बेकार हैं. आपकी इस कष्ट की स्थिति में एक व्यक्ति आपसे कहता है कि पूर्व जन्म के किसी पाप का नतीजा है यह, चिंता न करो ईश्वर सब ठीक करेगा और दूसरा कहता है जब तक मजदूर एक होकर अपने हक के लिए नहीं लड़ेगा, मालिक ऐसे ही अत्याचार करते रहेंगे, तो यह दरअसल दोनों व्यक्तियों के दार्शनिक विश्वासों से जन्मी बातें हैं. संभव है वे इन दर्शनों की गूढ़ बातों के बारे में कुछ न जानते हों, उन्होंने कोई किताब न पढ़ी हो, किसी दाढ़ी वाले दार्शनिक से बहस न की हो, लेकिन उनकी पूरी चिंतन प्रक्रिया दो अलग-अलग दर्शनों से संचालित हो रही है. उनका यह नजरिया उनका दर्शन है. दर्शनशास्त्र से हमारा तात्पर्य दुनिया में प्रकृति के बारे में और इसमें मानवता के स्थान और भविष्य के बारे में एक आम धारणा बनाना है यानि दुनिया को समझने का दृष्टिकोण[i]. लेकिन नजरिया अपने आप में कोई सम्पूर्ण चीज़ नहीं है. होता यह है कि उस नजरिये को जीवन पर लागू किया जाता है और इससे कुछ परिणाम प्राप्त होते हैं. एक खास तरह की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था निर्मित होती है. इस तरह वह नजरिया एक सम्पूर्ण दर्शन में तब्दील हो जाता है. जाहिर है कि यह कोई विशुद्ध बौद्धिक कार्यवाही नहीं है, अपितु अविभाज्य रूप से जीवन से जुड़ी होती है तथा इसकी एक पक्षधरता होती है. जैसे पूर्वजन्म के सिद्धांतों से जुड़ा दर्शन वर्ण व्यवस्था सहित अनेक उत्पीडक सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखने में मदद ही नहीं करता, बल्कि उसमें जो वर्चस्वशाली वर्ग होता है उसके शोषण के खिलाफ किसी प्रत्यक्ष संघर्ष को भी टालने का भरपूर प्रयास करता है पहला तो यह कि आपकी दुर्गति के लिए कोई और नहीं खुद आपका पूर्वजन्म का आचरण जिम्मेवार है, और दूसरा यह कि जो होना है वह ईश्वर करेगा, आप अपना कर्म करते जाइए, अगले जन्म में आपको अपने आप सुख मिल जाएगा. इस रूप में आप देखें तो साहित्य, कला और ऐसी तमाम दूसरी गतिविधियाँ वस्तुतः इस या उस दर्शन की वकालत करती और उसे आगे बढ़ाती नजर आती हैं. अगर तुलसी कहते हैं कि होइहें सोई जो राम रच राखा- तो वह भाग्यवाद के दर्शन का प्रचार कर रहे होते हैं, अगर कबीर कहते हैं एक बूँद, एकै मल-मूतर, एक चाम, एक गूदा/ एक रकत से सबहिं बने हैं, को बाभन को सूदा तो वह वर्ण व्यवस्था को प्रश्रय देने वाले नस्लवादी दर्शन पर सवाल उठा रहे हैं.


इसीलिए प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक के दामोदरन कहते हैं कि दार्शनिक प्रणालियों और सिद्धांतों को तभी ठीक तरह समझा जा सकता है जब उनका अध्ययन उनकी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में किया जाय.[ii] प्रोफ़ेसर वाल्टर रूबेन  कहते हैं कि अन्य देशों की भांति भारत में भी दर्शन का विकास समाज के विकास के साथ जुड़ा है[iii] फायरबाख को दिए अपने जवाब में मार्क्स कहते हैं यह प्रश्न, कि क्या वस्तुनिष्ठ सत्य को मानवीय चिंतन का सहज गुण माना जा सकता है, सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक प्रश्न है। व्यवहार में मनुष्य को अपने चिंतन की सत्यताए याने यथार्थता एवं शक्ति, उसकी इहपक्षता को प्रमाणित करना पड़ता है। व्यवहार से पृथक रूप में चिंतन की यथार्थता अथवा यथार्थता सम्बन्धी विवाद कोरा पंडिताऊ (scholistic) प्रश्न है.[iv]

अतः, मार्क्स द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दर्शन तक पहुँचने के पहले हम पश्चिमी दर्शन की तत्कालीन बहसों के साथ-साथ भारतीय दर्शन परम्परा का भी एक परिचयात्मक अध्ययन करने का प्रयास करेंगे और उन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भी जिनसे इनका अन्योन्याश्रित संबंध है. अभी यह ज़रूरी है दर्शन की उन दो पद्धतियों पर थोड़ा विचार कर लें, जो अलग-अलग रूपों में पूरब और पश्चिम दोनों जगह उपस्थित रही हैं. मोटे तौर पर इन्हें भाववादी या आध्यात्मवादी दर्शन और भौतिकवादी दर्शन कहा जा सकता है.

आमतौर पर हमारे समाज में ऐसी समझ बनाई जाती है कि जैसे आध्यात्म तो कोई बेहद पवित्र चीज़ हो और भौतिकवादी होने का अर्थ पतित होना हो. दुनिया बहुत भौतिकवादी हो गयी है इसीलिए इतने संकट बढते जा रहे हैं या क्या कहियेगा, भौतिकवाद फ़ैल गया है सारी दुनिया में, इंसानियत रही ही नहीं जैसे आप्त वचन कहीं भी सुने जा सकते हैं. इसी के साथ यह भी कहा जाता है कि भारतीय दर्शन आध्यात्मिक है और पश्चिमी दर्शन भौतिकवादी. असल में ये दोनों तरह की बातें न केवल सैद्धांतिक रूप से गलत हैं बल्कि जान बूझकर फैलाए गए भ्रम हैं. यहाँ हम पहले सवाल पर विचार करेंगे.

अगर आसान शब्दों में कहा जाय तो जहाँ भाववादी दर्शन आत्मा को प्रकृति से ऊपर मानते हैं वहीं भौतिकवादी दर्शन प्रकृति को प्राथमिक मानते हैं. भाववादी दर्शन मोटे तौर पर यह मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ होता है वह सब पूर्वनिर्धारित होता है, उनका जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं होता. जैसा कि शुरुआत में दिए गए उदाहरण में जब कष्ट में पड़े आदमी से हम यह कहते हैं कि सब पिछले जन्मों का फल है और ईश्वर ही सब ठीक करेगा, तो दरअसल हम उसके कष्टों के कारण और फिर उनके निवारण दोनों को वास्तविक दुनिया से बाहर के किसी कारक के हवाले कर रहे होते हैं. यह कह रहे होते हैं कि ऐसा किस्मत के किसी खेल के कारण हुआ है और इसके कारण लौकिक नहीं पारलौकिक हैं, और इसका हल भी कोई पारलौकिक शक्ति, यहाँ ईश्वर ही करेगा. ऐसा कहते हुए हम इस तथ्य पर बिलकुल गौर नहीं कर रहे होते हैं कि फैक्ट्री का काम-काज, उससे होने वाली लाभ-हानि एक विशुद्ध लौकिक प्रक्रिया है. एक निजी सम्पति के अधिकार वाले देश में पूंजी लगाकर कोई पूंजीपति एक लौकिक उद्देश्य लाभ के लिए लगाता है, मजदूर अपना हाड़तोड़ श्रम करके उससे अपनी रोजी कमाता है. उसकी इस मेहनत के बावजूद उसका जीवन स्तर कुछ खास नहीं बन पाता. चाहे वह मानसिक श्रम करने वाले मैनेजर, क्लर्क, सुपरवाइजर हों या फिर शारीरिक श्रम करने वाले कर्मचारी, सभी दरअसल, वहाँ अपना श्रम बेचकर बदले में अपनी आजीविका ही कमा रहे होते हैं. मालिक की नज़र में फैक्ट्री जब लाभदायक नहीं रह जाती है, या उसकी तकनीक पुरानी पड़ जाने पर मालिक वहाँ नई तकनीक लागू करने की जगह उसे बेचकर जमीन की बढ़ी हुई कीमतें वसूल कर किसी सस्ती या सब्सीडी वाली जगह पर नई फैक्ट्री डालने के लिए या फिर कोई दूसरा अधिक लाभदायक धंधा अपनाने के लिए फैक्ट्री बंद कर देता है, तो वे सभी सड़क पर आ जाते हैं, और उनके लौकिक कष्ट शुरू हो जाते हैं, जिनका ज़ाहिर तौर पर कारण भी लौकिक ही है. जब हम उसके कष्टों के कारण को इस तरह वास्तविक जगत के कारणों के आधार पर समझने की कोशिश करते हैं तो, असल में, हम भौतिकवादी नजरिये से चीजों को व्याख्यायित कर रहे होते हैं, और चूंकि इस तरह हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंचते हैं कि जो समस्याएँ वास्तविक जीवन के कारणों से पैदा हुई हैं उनका हल भी वास्तविक संसार में हस्तक्षेप से ही संभव है. इसके बरक्स होइहें सोई जो राम रचि राखा जैसी पंक्ति स्थापित कर रही होती है कि मनुष्य के जीवन में जो कुछ होना है वह सब पहले से तय है, इसलिए वास्तविक जगत में हस्तक्षेप कर इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता. यह जीवन की भाववादी व्याख्या है.  अपने मूल में भाववाद धर्म, ईश्वरीय मीमांसा है. लेनिन ने लिखा है भाववाद पुरोहितवाद है. हर तरह के भाववाद ने समस्याओं के प्रति धार्मिक रुझान को बरकरार रखा है. हालांकि कुछ भाववादी सिद्धांतों ने अपनी धार्मिक केंचुली त्याग दी है.[v] ज़्यादातर धर्मों के भाववादी दर्शनों में वास्तविक संसार के बरक्स एक काल्पनिक अलौकिक संसार का निर्माण किया जाता है. स्वर्ग या जन्नत या हैवन (जाहिर है इनके साथ ही नर्क, जहन्नुम और हेल भी हैं). इस काल्पनिक संसार को वास्तविक संसार की तुलना में श्रेष्ठ और चमत्कारी बताया जाता है. यही वह संसार होता है जो वास्तविक संसार के लिए न केवल नियम निर्धारित करता है बल्कि अच्छे-बुरे कामों के लिए इनाम और सजा भी मुकर्रर करता है. यह वास्तविक संसार की व्याख्या करने की जगह उसे एक अज्ञेय बना देता है.

यहाँ मैं एक और बात का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूँगा. अक्सर यह कहा जाता है कि बड़ा से बड़ा वैज्ञानिक दुनिया के सारे रहस्य नहीं जान सकता. हमारे अपने जीवन में कई बार ऐसे अनुभव होते हैं जो उपलब्ध ज्ञान के आधार पर व्याख्यायित नहीं किये जा सकते. ऐसे में ऐसी चीजों को किसी ईश्वरीय लीला की तरह मानने पर जोर देते हुए कहा जाता है कि विज्ञान की सीमा है, ईश्वर उसके पार है. यहाँ दो बातें कहना चाहूँगा. पहला तो यह कि विज्ञान की निश्चित तौर पर एक सीमा होगी. हमेशा रही है. एक वक़्त में हम यह नहीं जानते थे कि वर्षा कैसे होती है? कबीलाई युग के आरम्भ में हम यह भी नहीं जानते थे कि बच्चे कैसे पैदा हो जाते हैं? हम समुद्र की गहराई छोड़िये, चौड़ाई भी नहीं जानते थे. हम बड़ी बीमारियाँ तो क्या बुखार तक की न तो वज़ह जानते थे और न ही ईलाज. ये सब उस दौर के विज्ञान की सीमाएं थीं. और इन सब को ईश्वरीय चमत्कार माना गया था. लेकिन मनुष्य ने अपनी अनंत जीजिविषा और विज्ञान के सहारे इन सब रहस्यों को सुलझाया और उसने इन वास्तविक समस्याओं का सामना वास्तविक औजारों से किया और आज बुखार होने पर बड़े से बड़े आध्यात्मिक दार्शनिक या धर्मगुरु मंदिर नहीं अस्पताल की ओर जाते हैं, समंदर पार करने के लिए आराधना नहीं करते हवाई जहाज या जलपोत का टिकट कटाते हैं. सवाल बस यह है कि रहस्य के हल हो जाने तक आप उसे ‘ईश्वरीय परिघटना’ मानकर प्रपंच करते हैं या फिर उसे मानवता के समक्ष उपस्थित एक और प्रश्न मानकर उसकी वैज्ञानिक गवेषणा कर उसे सुलझाने की कोशिश. एक भाववादी और भौतिकवादी के नजरिये में यही फर्क होता है  दूसरी बात यह कि विज्ञानं को अपनी हर बात सिद्ध करनी होती है. वह अगर यह प्रस्थापना देगा कि एक यंत्र आसमान में उड़ सकता है, तो वह तब तक नहीं माना जाएगा जब तक कोई राईट ब्रदर्स सच में एक जहाज को उड़ा कर दिखा नहीं देंगे. बल्कि इसके बावजूद हर असफलता का भरपूर मजाक उड़ाया जाएगा, लेकिन एक भाववादी के लिए इतना लिख भर देना काफी होगा कि देवता आकाश में पैदल चलते हैं, उनके पास चमत्कारिक अस्त्र-शस्त्र होते हैं, वे जब चाहें उड़ के कहीं भी जा सकते हैं. ऐसे में ज़ाहिर है कि विज्ञान की सीमा होगी और कल्पना निस्सीम. अगले अध्यायों में भारतीय दर्शन परम्परा तथा पश्चिम की दार्शनिक बहसों के बारे में थोड़ा विस्तार से चर्चा करते हुए हम देखेंगे कि किस तरह भाववादी दर्शन प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा आमजन के बीच अपने शोषण को न्यायसंगत ठहराने में सहायक सिद्ध होता है. भौतिकवादी दर्शन के सबसे उन्नत रूप में मार्क्सवाद का दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पूंजीवादी समाज के शोषण के पूरे तंत्र को तार-तार कर सर्वहारा के अनन्य शासन के पक्ष में दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया.   

अध्याय -१ यहाँ  क्लिक करके पढ़ें.  






[i] देखें, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, मारिस कोनफोर्थ, समानांतर प्रकाशन, रोहतक, 1996, पेज-1
[ii] देखें, भारतीय चिंतन परम्परा, के दामोदरन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली, 2001, पेज-3
[iii] देखें, भारतीय दर्शन : सरल परिचय, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय का प्राक्कथन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1968, पेज-11
[iv] देखें, फायरबाख पर निबंध, कार्ल मार्क्स
[v] देखें, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, मारिस कोनफोर्थ, समानांतर प्रकाशन, रोहतक, 1996, पेज-18

12 टिप्‍पणियां:

  1. अशोक जी,
    इस शानदार आरंभ के लिए आप को बधाई! आज से हम भी कक्षा में शामिल हो गए हैं।

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  2. बहुत बढ़िया | मैं गहरी बातो को इतनी सरलता से समझा पाना इन लेख श्रृंखला की सबसे बड़ी खूबी मानता हूँ | इनका किताबी प्रकाशन जरुरी है ...

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  3. मार्क्सवाद को सरल शब्दों और उदाहरणों से समझने की इस कोशिश को लाल सलाम ...

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  4. बहुत ही अच्छी जा रही है यह लेखमाला ! सरल भाषा और शैली ने इसे सुग्राह्य और संप्रेषणीय बना दिया है ! समझते हुए बात कहने का ढंग बहुत अच्छा लगा ! बधाई कामरेड !

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  5. भाई, बहुत ही प्रशंसनीय पहल है आपकी... युवा साथियों के लिए अत्‍यंत उपयोगी... इसे पढ़ते हुए लगा कि मुझे भी 'पूंजी का पुनर्पाठ' पर काम फिर से शुरु कर देना चाहिये... आपको धन्‍यवाद शुभकामनाएं।

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  6. बहुत बहुत बधाई अशोक, इन्हें सामने आना ही चाहिए.....बहुत ही मानीखेज और जानकारीपरक आलेख है, आपको पढना बहुत तसल्ली देता है, ....अनंत शुभकामनायें.....

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  7. ब्लागर की सेटिंग से टिप्पणी बाक्स इसी पन्ने पर कर देंगे तो टिप्पणी करना आसान हो जाएगा... एक क्लिक पर कुछ भी टिप्पणी की जा सकेगी...

    हाँ, समय ने http://main-samay-hoon.blogspot.in/2009/08/blog-post_29.html दर्शन क्या है पर लिखा है, वहाँ भी अच्छी शृंखला चली थी परिचयात्मक रूप में...

    पढ रहे हैं, ठीक लग रहा है...

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  8. naye logoN me marxvaad ki samjh banane me yah lekh shrankhala mahtvpoorn he, padhkar achcha laga. dhanyvaad bhai.

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  9. " रीयल इंडिया के लिए एक ज़रूरी आई ओपनर , जो बकौल आप ही के , आज भी मध्ययुगीन मानसिकता के अँधेरों मे जी रहा है , ( चाहे पहनता ओढ़ता बहुत बहुत लेटेस्ट हो ) . यह लेख फिलॉसोफर के टोन मे नही बल्कि उस आम आदमी के टोन मे बात कहने का प्रयास कर रहा है , जिस ने अभी वास्तविक *उजाले* का स्वाद ही नही चखा है . इस लिए बहुत महत्वपूर्ण है . मैं उम्मीद करता हूँ कि आगामी किसी अध्याय मे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के उद्भव और योरप मे उस के विकास का ऐतिहासिक लेखा जोखा भी पढ़ने को मिलेगा . ताकि तत्कालील योरोपीय राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक परिस्थितियों और शासन और चिंतन की विभिन्न व्यवस्थाओं और धाराओं के मद्दे नज़र हम आज की विकासशील दुनिया के लिए मार्क्सवाद की अहमियत जान सकें

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  10. सरल भाषा में मार्क्सवाद को समझाने की उत्तम कोशिश है

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  11. पिय्र अशोक, यह बेहद जरूरी काम तुम कर रहे हो, इसका एक महत्‍व है जो धीरे धीरे और प्रकट होता जाएगा। शुभकामनाएं।

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