शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

आन्दोलन का अन्तःपुर : अन्तःपुर का आन्दोलन


  • समर अनार्य 
क्रान्ति कहिये और बस: सिगार पी रहे चेग्वेरा, लाल झंडे के नीचे भाषण दे रहे लेनिन, चीन में आगे बढ़ रही पीपुल्स आर्मी, कितना कुछ गुजर जाता है ज़ेहन में. प्रतिरोध बोलिए और लीजिए साहब- खुली आँखों में यादों की रेलगाड़ी सी चल पड़ती है. सुनील जाना के कैमरे में दर्ज तेलंगाना की औरतें, आसाम राइफल्स के सामने निर्वस्त्र खड़ी मणिपुर की माँयें, थ्येन आनमन चौक पर टैंको को चुनौती देता वह अकेला अनाम शख्स, कितना तो कुछ आँखों में तिर जाता है. आन्दोलन हों या क्रांतियाँ, लोकप्रिय स्मृति में वह अक्सरहा तस्वीरों के रूप में ही दर्ज होती हैं. आप सहमत हों या असहमत, आंदोलन/क्रान्तियाँ अपनी प्रतिनिधि तस्वीरें खुद ही चुन लेता है.

पर फिर यह वाली तस्वीर बिलकुल अलग है. एक नजर में आँखे रोक दे इतनी अलहदा. आत्मविश्वास से भरे दो पुरुष और बहुत प्यार से सेवा कर रही उनकी बीबियाँ, यानी कि इस तस्वीर में वो सबकुछ है जो रईसी की दिशा में बढ़ रहे किसी मध्यवर्गीय परिवार की ख्वाहिशों की जद में आता है. भले ही साफ़ साफ़ पकड़ न आये, कुछ तो बात है इसमें. एक बहुत खुश परिवार या अरसे बाद मिल रहे पुराने दोस्तों की गर्मजोशी, या फिर जिंदगी की जद्दोजहद से भाग किसी पहाड़ पर लगाये कैम्प में मिलने वाले सुकून जैसा ही कुछ हो पर कुछ तो है इसमें.

पर आन्दोलनों की, इन्कलाब की बातों के बीच इस तस्वीर का जिक्र क्यों? इसलिए साहेबान कि यह तस्वीर न किसी भूले बिसरे से पारिवारिक एलबम से बरामद हुई है न इसे किसी ने चेहरों की उस किताब पर हालिया छुट्टियों की खुशी 'दोस्तों' से साझा करने को 'अपलोड' कर दिया था. अब अजीब चाहे जितना लगे पर सच यही है कि ये तस्वीर भी, ऊपर वाली तमाम तस्वीरों की तरह, एक 'आन्दोलन' की दस्तावेजी तस्वीर है. आंदोलन भी कोई ऐसा वैसा नहीं, वह वाला जो तीसरे गांधी के नेतृत्व में देश की चौथी आजादी की लड़ाई होने का दावा करते हैं.

पर क्या करें कि हर तस्वीर एक कहानी कहती है और यह वाली तो ऐसी कहानी कह रही है जो इस तस्वीर में दर्ज चेहरे कतई न चाहते होंगे कि कही जाए. तो सबसे पहले पेश है वह कहानी. यह तस्वीर कभी देश भर की गुलाम इच्छाओं के संघर्षों के ठिकाने रहे जन्तर मंतर के पिकनिक स्पॉट में बदलते जाने के दौर में ली गयी है. इस तस्वीर में मौजूद हैं नौकरशाह से रातोंरात अवाम का मसीहा बन गए अरविन्द केजरीवाल और कभी टीवी प्रोड्यूसर रहे मनीष सिसौदिया. अब तो आप समझ ही गए होंगे कि यह लोग केवल आत्मविश्वास से भरपूर दिख ही नहीं रहे बल्कि हैं भी. खैर, अब इनके आंदोलन के इतिहास भूगोल के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि वह कहानी फिर सही. अभी तो बस ये तस्वीर देखते हैं.

ये तस्वीर जंतरमंतर पर चल रहे इनके अनशन के लिए विशेष तौर पर बनाये गए इनके निजी कक्ष में ली गयी है. चौंक गए न, आंदोलन के बीच निजी कक्ष की बात सुन कर? कोई भी चौंक जाएगा साहब. प्रतिरोधों की गौरवशाली परंपरा वाले इस देश में संघर्षों के बीच निजी कक्षों का कोई इतिहास तो रहा नहीं है. प्रतिरोध का मतलब ही होता रहा है अपनी जनता, अपने लोगों के सपनों ही नहीं बल्कि उनकी जिंदगियों को भी साझा करना. बिसलेरी की बोतलें लेकर पानी की कमी के खिलाफ लड़ने वाले यहाँ हमेशा ही खारिज कर दिए गए हैं. कमाल यह, कि संघर्षों में सिद्धांत और व्यवहार की एकता इस मुल्क में सिर्फ वामपंथियों ने नहीं बल्कि लोकतान्त्रिक लड़ाइयों और विचारों के साथ खड़े हर व्यक्ति/हर संगठन ने दिखाई है. सहमतियाँ असहमतियाँ अपनी जगह, बी टी रणदिवे हों या चारु मजूमदार; किशन पटनायक हों या शंकर गुहा नियोगी, किसी का नाम लें और सर उनकी कुर्बानियों की स्मृति में, सम्मान में झुक जाता है. ये सब अलग अलग वर्गों से आये थे पर अवाम के हक में खड़े हो जाने के बाद उन्होंने अवाम जैसी ही नहीं, अवाम की ही जिंदगियां जीं.

गलती से भी यह लगे कि ये लोग किसी और दौर के लोग हैं तो अभी के गैरवामपंथी जियालों को भी याद कर लें. (सिर्फ गैरवामपंथियों का जिक्र इसलिए कि उन्होंने राजनैतिक सहमतियों-असहमतियों के बाद भी ये सम्मान कमाया है.) मेधा पाटकर के हफ़्तों चलने वाले अनशनों(कई तो इसी जंतरमंतर पर) के बारे में तो हम सबने सुना है, पर क्या किसी को कभी उनका 'निजी कक्ष' भी याद है? न, वह तो उन्ही दरियों पे सोती हैं जिनपर उनके साथी सोते हैं, वही खाती हैं जो उनके साथी खाते हैं. अरुणा रॉय? वह तो न केवल नौकरशाह रही हैं बल्कि केजरीवाल से खासी ऊपर की सेवा यानी कि आईएएस रही हैं. किसी को बीच संघर्ष उनका अपने 'कमरे' में चले जाना याद है? न. ठीक उलट वह तो निर्णय-प्रक्रिया पर भी कब्ज़ा नहीं करतीं. बहुत करीब से देखा है मजदूर किसान शक्ति संगठन को और स्मृतियों में दर्ज है कि वहां वे सारे साथी जो जीने के लिए रेहड़ी लगाते रहे हैं, फेरीवाले रहे हैं निर्णय प्रक्रिया में उसी हक और हुकूक से मौजूद होते हैं जितनी अरुणा खुद. विषयान्तर होगा पर याद आया कि यह वही लोग हैं जिन्हें अन्ना एक बोतल दारू और 100 रुपये पर बिक जाने वाला मानते हैं.

एक बात और भी कि यह सिर्फ जाने-पहचाने, सुर्ख़ियों में रहने वालों का सच नहीं है. इनमे उन तमाम साथियों को जोड़ लें जो इस मुल्क के भूले-बिसरे से कोनों में अखबारों के लिए अनजानी लड़ाईयां लड़ रहे हैं. बस चंद नाम याद करूँ तो केसला, मध्यप्रदेश के सुनील भाई, बस्तर में हिमांशु कुमार, बड़वानी में माधवी बेन, ओंकारेश्वर में सिल्वी.. लिखता रहूँ तो जगह कम पड़ जाए. कभी नहीं देखा इनको आंदोलनों के बीच निजी कक्षों में जाते. यह जरूर देखा है कि इन सबके निजी कक्ष (अगर उन्हें निजी कह सकें तो) धीरे धीरे कब सार्वजनिक हो गए पता ही नहीं चला.

बहुत खोजें तो सिर्फ एक कमरा याद आएगा जिसका रिश्ता किसी आंदोलन से सीधे जुड़ सके. वह कमरा जिसमे इस मुल्क की आत्मा पर अपराधबोध के नश्तर सी चुभती इरोम शर्मीला कैद हैं. वह इरोम जो टीमअन्ना के एक हफ्ते के बरअक्स एक दशक से भी ज्यादा समय से अनशन पर हैं. वह इरोम जिन्होंने अपना 'निजी कक्ष' चुना नहीं था. उनकी न्यायोचित मांग न पूरी करने की जिद पर अड़ी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर, उनकी नाक में ट्यूब डाल उन्हें इस कमरे में ला पटका था. तब से हर रोज उन्होंने खुद को जिन्दा रखने वाली वह ट्यूब अपनी नाक से निकाल फेंकने की कोशिश की है. तब से हर रोज उन्होंने इस कमरे से निकल भागने की कोशिश की है. सीधे इसी जंतरमंतर पर पंहुची थीं उस एक बार जब वो सफल हो पायी थीं. तब से उनके कमरे में पुलिसियों की संख्या और बढ़ गयी है, उनका कमरा थोड़ा और सार्वजनिक हो गया है. हाँ इस सबके बावजूद अब तक इरोम या उनके समर्थकों ने कोई कातर पुकार नहीं जारी की. दशक भर उन्हें हुआ और एक हफ्ते में 'डूब' टीम अन्ना रही है.

यहाँ से देखें तो टीम अन्ना के केजरीवाल और सिसोदिया का यह निजी कक्ष भारतीय राजनीति की प्रतिरोध की गौरवशाली परम्पराओं का एक नया अन्तःपुर पर्व है. एक ऐसा कक्ष जो नेताओं को उन्ही लोगों से अलग करता है जिनके 'इकलौते' प्रतिनिधि होने का दवा वे करते हैं. उन लोगों को हटाकर साफ़ और सुरक्षित कर लिया गया अन्तःकक्ष  जो उनकी हार और जीत दोनों से सीधे प्रभावित होंगे. एक ऐसा अन्तःकक्ष जो आम अवाम से उतना ही दूर है जितनी वह सरकार जिसका धुरविरोधी होने का दावा इन अन्तःकक्ष के सिपहसालार करते हैं.

पर फिर, तस्वीर पर एक नजर और फिर लगता है कि सिर्फ अन्तःकक्ष की उपस्थिति भर नहीं, यहाँ कुछ और भी बहुत बेचैन, बेहद असहज करने वाला है. यह तस्वीर पहली बार उस आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति दर्ज करवाती है जो अब तक महिलाओं की अनुपस्थिति और नेताओं के स्त्रीद्वेषी (मिसोजायनिस्ट) बयानों के लिए जाना जाता रहा अहि. (बेशक किरण बेदी वहां रही हैं, पर न उनकी टॉमबॉयिश छवि न उनका व्यव्हार किसी भी नारीवादी अवधारणा के करीब पंहुचता है).  
ठीक यहीं खतरा और बढ़ जाता है. इस तस्वीर की औरतें आधुनिक भारत के सपनों की आजादख्याल, साहसिक और स्वतंत्र महिलाओं सी सामने नहीं आतीं. उनके व्यवहार में, उनके खड़े होने के अंदाज से ही लगता है कि वे अपने पतियों के साथ नहीं बल्कि पीछे खड़ी हैं, या कमसेकम उनके पतियों ने उन्हें पीछे खड़ा कर रखा है. इस तस्वीर के मालिक मर्द हैं, सब कुछ उनका है. सपने, दृष्टि, रणनीति, आंदोलन, वही सबकुछ के स्वामी हैं. वे इस कमरे के मालिक हैं. और इस कमरे में खड़ी औरतों के भी.

अपने आपको भारत के नागरिकों का इकलौता प्रतिनधि समझने वाले, अपनी राय को और तमाम रायों से बेहतर ही मानने का दावा करने वाले आंदोलन से ऐसी उम्मीद कोई शायद ही करे. पर फिर, कमसेकम इस मामले में उनका कोई दोष नहीं है. उन्होंने तो कभी नारीवादी होने का दावा किया ही नहीं था. उन्होंने तो दलितों, बहुजनों, स्त्रियों और सभी उत्पीड़ित अस्मिताओं को खारिज ही किया था. खारिज ही नहीं, इस आंदोलन के शीर्ष नेता तो जबतब इन अस्मिताओं को गाली भी देते रहे हैं- कभी संसद को 'बाँझ औरत' बताकर स्त्री अस्मिता का अपमान करते हुए तो कभी विरोधी मंत्रियों को 'चांडाल चौकड़ी' बता दलित अस्मिता को आहत करते हुए.  

हाँ, इन सबके बीच स्टील के ग्लासों की कहानी तो मैं भूल ही गया था. स्टील ग्लास- अपारदर्शी, अपवर्जी, विभाजक यानी कि उस सबका प्रतीक हैं जिनका विरोधी होने का टीम अन्ना दावा करती है. वो सारे घर याद करिये जहाँ 'ऊँची' जातियों के अतिथियों को स्टील ग्लास में पानी पेश किया जाता रहा है और दलित-बहुजन साथियों को 'चिकनी मिट्टी' के ग्लासों में. यह बर्तन घर के बाहर रखे होते थे इसको तो खैर छोड़ ही दें. याद करें छोटे छोटे चौराहों पर मौजूद वह छोटी छोटी चाय की दुकानें जहाँ चाय कांच के गिलास में ही मिलती थी/है. यहाँ से देखें तो स्टील/कांच का यह विभाजन हमारे समाज के ढांचे के अंदर घुन की तरह मौजूद जातिव्यवस्था का, ऊंचनीच के अमानवीय विभाजनों के सबसे मुखर प्रतीकों में से एक रहे हैं. यह भी कि कोई आंदोलन याद करिये जहाँ आपने स्टील के ग्लास देखें हो. हममें से तमाम लोगों ने कैशोर्य के बाद की तमाम जिंदगी आन्दोलनों में लगायी है और धरने, प्रदर्शनों, सभाओं के बीच सड़क किनारे बिस्किट/फैन/रस्क के साथ कांच के ग्लासों में पी गयी चाय के वह अंतहीन दौर. बस बेहतर है कि यह मर्द न केवल आंदोलन के बीच अपना अन्तःकक्ष ले आये हैं बल्कि उस अन्तःकक्ष में अपनी मर्दवादी/जातिवादी मानसिकता के सारे प्रतीक भी ले के आये हैं. इससे और कुछ हो न हो, हमें उनकी विश्वदृष्टि समझने का एक रास्ता तो मिलता ही है.

सो अब मामला आईने की तरह साफ़ है. इतना साफ़ कि ये लोग सिर्फ अपने मालिकों की नौकरी बजा रहे हैं. उन मालिकों की जो इन्हें पैसे देते हैं, इन्हें प्रायोजित करते हैं. उन मालिकों की जिनके नाम जिंदल और बजाज जैसे होते हैं. यह भी कि इनका पूरा फलसफा ही प्रतिरोध की, मुखालफत की रवायतों के खिलाफ खड़ा है. यह श्रेणीबद्धता के विरोधी नहीं, समर्थक हैं. और इनकी कुल जमा कोशिश है उसे हमारे समाज की प्रतिरोध परंपरा का भी हिस्सा बना दें.

पर घबराने की कोई बात इसलिए नहीं है कि वह कर पाना इनके बस के बाहर की बात है. इसलिए नहीं कि इनके दिमागों में इस काम के लिए जरूरी धूर्तता की कमी है पर इसलिए कि इनके पास वह भी इतनी नहीं है जितनी चाहिए. अफ़सोस, कि वह धूर्तता ये अपने समर्थकों से भी उधार नहीं ले सकते क्योंकि आप उन समर्थकों से क्या उम्मीद कर सकते हैं जो दूसरी आजादी की तीसरी लड़ाई आरक्षण-विरोध के नारे से शुरू कर अरविन्द केजरीवाल के यूउथ फॉर इकुवालिटी के मुख्य वक्ता होने के पीछे के बहानों को बेपर्दा कर दें. उन समर्थकों से जो महिला पत्रकारों से इसलिए बदसलूकी करनी शुरू कर दें कि आखिर को मीडिया को यह सच कि अन्ना के साथ इस बार कोई भीड़ नहीं है बोलने पर मजबूर होना पड़ा है.

खैर, शुक्र है कि गैंग अन्ना को वास्तविकता समझ में आनी शुरू हो गयी है. इस कदर कि अब वे उसी बाबा के पीछे भीड़ लाने के लिए घूम रहे हैं जिसका कल तक उनका मुख्य मसखरा कुमार विश्वास सुबह अकबर रात जोधाबाई कहकर मजाक उड़ाता था. ये बाबा भी समझदार आदमी है. धीरे से बदला लेता है, ऐसे कि गैंग अनाना की ३०० लोगों की भीड़ में अपने 5000 लोगों के साथ पंहुचता है, फिर उन्हें वापस ले जाता है और अगली सुबह नरेन्द्र मोदी नाम के हत्यारे के साथ गलबहियां करने लगता है. और बस. नरेन्द्र मोदी का नाम आते ही गैंग अन्ना को समझ आ जाता है कि अगर उनकी कोई विश्वसनीयता बची भी थी, तो वह गयी.

यह सही वक्त है कि वह अपनी खुद की ही चीत्कारें सुनें और अपने खुद के लिए नीम्बूपानी का जुगाड कर अनशन थोड़ें क्योंकि और कोई तो यह करने से रहा. याद है न कि जब इतिहास खुद को दोहराता है तो प्रहसन हो जाता है. पर फिर, तिहराने के बाद क्या होता है यह कोई नहीं जानता.  

सो. श्रद्धांजलि गैंग अन्ना. 

18 टिप्‍पणियां:

  1. सही बात। आंदोलन के जिस कक्ष और जिन तौरतरीकों की ओर अनार्य ध्यान दिला रहे हैं, वही तरीके तो आरक्षण विरोधी डॉक्टरों के धरनों के थे और जितने क्रूर वे थे, उतने ही ये भी रहे। लेकिन मुझे तरस उन पर आ रहा है जो क्रांति की मशाल थामने का दावा करते हैं और इस भीड़ के लिए जेनुइन तर्क जुटाने की कोशिश करते हुए सोचते हैं कि वे ऐसा भ्रम पैदा कर रहे हैं जैसे उन्होंने क्रांति पैदा कर दी हो। इस बार संघ के स्वयंसेवक नहीं थे तो उन्हें अपनी `जनता` यहां भेजनी चाहिए थी।

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    1. and I think psychologist is a better option for you as well as GANG anna :)

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    3. we have written alot sirji

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    6. मुकुंद के शर्मा..
      बाकी बातें बाद में सर, पर हिन्दी में लिखे लेख पर अंगरेजी में, वह भी गलत अंगरेजी में टिप्पणी करने का क्या मतलब है? एक भी वाक्य ऐसा नही लिख पाए हैं आप जो वैयाकरणिक दृष्टि से अशुद्ध न हो piles patient वाला छोड़ के (पर लगता है कि वह आपके व्यक्तिगत अनुभव से उपजे दर्द के कारण सही हो गया है सो खैर)..
      रही बात विदेशों में रखे काले धन की, तो उसे न ला पाएंगे आप. मतलब पैसा हो तो आ जाए, बाबा रामदेव टाइपों ने जो द्वीप खरीदे हैं उनका क्या करेंगे? कैसे लायेंगे? मंत्र वंत्र से?
      सो उसे छोड़िये, यहाँ के मंदिरों वाला काला धन ही निकाल लाइए देश ठीक हो जाएगा.

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    7. 8 articles in about 5 minutes!

      well thanks for making your intentions clear. :)

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  3. अलहदा, अलग प्रेक्षण है ,सोच है -हकीकत बयानी भी है -मगर कथित अन्तःपुर के अंत के बाद के उपजे बियाँबा से मन दुखी भी -अब कौन थामेगा भ्रष्टाचार का परचम -हम और आप -कोई जानता भी है हमें ?
    क्या जमीन पर दरी पर लेटना ....गरीब गुरुबों के घर जाकर उनका ही दान दक्षिणा ले लेना और कुल्हड़ की चाय पीना ही क्रांतियों का वाटर मार्क प्रतीक है? हमें लगता है अन्ना आन्दोलन का फ्लाप होना एक बहुत ही त्रासद घटना है और देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध बन रहे वातावरण का खात्मा भी .. ...जय भ्रष्टाचार ......

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    1. हमें तो नई आर्थिक नीतियों की कोख से उपजे दैन्य, मंहगाई, बेरोजगारी, अराजकता आदि के खिलाफ़ उमड़ रहे गुस्से का 'भ्रष्टाचार' के नाम पर इस तरह उपयोग कर एक नकली आंदोलन खड़ा हो जाना ही त्रासद लगता है भाई साहब.

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…