बुधवार, 12 सितंबर 2012

अकेली औरतों के घर की आवाज़ें : मधु बी. जोशी की कविता में स्‍त्री चेतना के स्‍वर - सीमा मौर्य


हिन्‍दी अकादमी दिल्‍ली के सहयोग से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कवि-अनुवादिका मधु बी. जोशी का संग्रह अकेली औरतों के घर ऐसा महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह है, जिस पर अधिक चर्चा नहीं हुई। इस संग्रह पर हिंदी कविता में स्‍त्री के विमर्शकारों की भी निगाह नहीं गई।

अधिकांशत: स्‍त्री संसार के एकान्तिक जीवन और ऊब-चूभ की कविताओं से बना से यह संग्रह कई अर्थों में स्‍वयं को खोलता है। इन कविताओं की स्‍त्री के संसार में प्रेम एक जटिल और अनिवार्य सम्‍बन्‍ध बल्कि नियति बन कर खुलता है

वह बाघ है
दबे पांव पीछे-पीछे आता है
अंधेरों में अंगारे-सी आंखें दहकाता
कब तक बचा जा सकता है उससे

वह बुखार है
गुनगुनाहट की तरह शिराओं में सरसराता
यकायक दावानल बन जाता है
कैसे बचा सकता है उससे

वह नियति है
वर्जनाओं को फलांगकर
औचक गलबहियां डाल देती है
कब तक बचोगी प्रेम से 
                                 (प्रेम)

संग्रह में कई कविताएं बूढ़ी होती या बूढ़ी हो चुकी स्त्रियों के बारे में हैं। उनके एकाकी और दैन्‍य जीवनस्थितियों को कवयित्री ने बहुत बारीकी से उकेरा है –

सतियों की वंशज
एथ्निक ड्रेसेज़ एक्‍सपोर्ट करती है
मंदिर की सीढ़ी पर
फूल बेचती
उम्र से दोहरी हुई
बूढ़ी
                   (यात्रा)
 
सृष्टि वैचारिक दृष्टि से इस संग्रह की अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण कविता है, जिसमें ईश्‍वर की अलौकिकता और सावित्री के मिथक को सांसारिक विडम्‍बना और विसंगति के रूपक में ढाल दिया गया है। यहां ईश्‍वर अपनी गरिमा से गिरकर पुरुषसत्‍ता का प्रतीक बन जाता है और सावित्री उसकी संगिनी। यह संगिनी किस तरह अपने संगी सर्जक साथ देती है –

एक दौर में
जब ईश्‍वर वनों की बात करने लगा था
सावित्री ने बोनसाई का कोर्स कर डाला
स्‍वस्‍थ पौधों की
जड़ें काटकर
शाखें छांटकर
छिछली तश्‍तरियों में रोप-रोप कर
बरामदे में खड़ा कर दिया उसने
बौने वृक्षों का
एक बन
रात को

और ईश्‍वर कुछ इस तरह आश्‍वस्‍त होता है -

अपनी सृष्टि का जायज़ा लेकर
ईश्‍वर सावित्री से एक फूहड़ मज़ाक करता है
एक अघाई डकार
कुछ बुदबुदाता
करवट बदल कर
खो जाता है
विज्ञापन-जनित अप्‍सराओं के नाच में

सब ठीक है
ईश्‍वर की सृष्टि में
दुनिया अभी बहुत दिन चलेगी
                                     (सृष्टि)

मधु बी.जोशी का कविता संसार स्त्रियों की तीन पीढि़यों का संसार है। मां, क‍वयित्री और बेटी...निजी अनुभवों से यह विस्‍तार पाता है और सभी भारतीय स्त्रियों का संसार बन जाता है। बेटी के लिए उनकी एक कविता मैं पूरी उद्धृत कर रही हूं, क्‍योंकि उसे टुकड़ों में नहीं समझा जा सकता, जैसे कि समकालीन स्‍त्री संसार को।

सच बोलने की की जिद पर अड़ी
ये बेटी
कितनी परेशानी का सबब है

एक दिन(छोटी-सी ही थी ये तब)
बोली राजा नंगा है

बच्‍चे के मुंह से भगवान बोलते हैं
सच जाहिर होकर रहता है
वगैरह कहकर
बचा लिया लोगों ने राजा से
पर बाप ने जड़े थे तमाचे इसे

और कुछ बरस बीते
तो बाप से ही बोली
तुम कब सुनना चाहते हो सच
तब तो मैंने ही किया था इसका मुंह लाल
और ब्‍याह दिया था झटपट

अब यह पति की बांहों में
सुबकती है
मर गए कवि के लिए
न जाने किस दिन
दौरा पड़ जाए सच का
इस पर

प्रभु, वह दिन आने न देना
                               (मेरी बेटी)

देखिए सच बोलने की साधारण-सी इच्‍छा कितनी असाधारण हो जाती है हमारे सामाजिक ताने-बाने में। राज्‍यसत्‍ता से बचा ली गई बच्‍ची घर में पिता की पुरुषसत्‍तासे न बच सकी। वह किसी मर गए कवि के लिए सुबकती है, पति के प्रेम के बीच भी उसे याद करती है। यह बहुत भयावह सच साबित हो सकता है उसकी जिन्‍दगी का। मां घबराई हुई प्रार्थना करती है कि उसे फिर सच का दौरा न पड़ जाए। भारतीय स्‍त्री का जीवन विमर्श में बहुत प्रचलित है पर उसे बेहतर बनाने के लिए इससे कहीं आगे एक सामाजिक चेतना और संघर्ष की आवश्‍यकता है।

मधु बी.जोशी की कविता में स्‍त्री चेतना के स्‍वर आश्‍वस्‍त करते हैं कि समाज में भी हलचल है और देर से सही एक दिन समाज स्त्रियों के प्रति अपना रवैया बदलेगा। यदि यह बदलाव नहीं आया तो भारतीय समाज का दिनों-दिन पतन की गर्त में गिरते जाना तय है।
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सीमा मौर्य, शोधार्थी-हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर, कु.वि.वि. नैनीताल(उत्‍तराखंड) 263 002
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कविता संग्रह- अकेली औरतों के घर
कवयित्री-      मधु बी. जोशी
मूल्‍य -          125
पहला संस्‍करण 2005
प्रकाशक-       राजकमल प्रकाशन, 1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्‍ली-02 



                                             

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