बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

'मर्द' बनाते विज्ञापनों की एक गंभीर पड़ताल


उपभोक्ता संस्कृति की पुरुषवादी संस्कार प्रक्रिया

  • मनोज पाण्डेय  



    
अब यह पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि टीवी हमारे जीवन को हर तरह से प्रभावित कर रहा है.समाज और समय से काट देने के बाद टीवी अपने तय ढंग से व्यक्ति को ‘समाज और समय’ से जोड़ता है. टीवी समय के विस्तार को लगातार आभासी प्रसार दे रहा है.दिन के चौबीस घंटे टीवी चैनलों के हिसाब से बढ़ता जा रहा है. टीवी चैनलों की दुनिया के ताने बाने पर थोडा सा भी ध्यान देने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि यह किसी भी रूप में जनता के हिस्से या हक वाली चीज नहीं है.जबकि भ्रम इसी बात का बनाया गया है.दुनिया भर में टीवी और तमाम सूचना और मनोरंजन माध्यमो पर मुनाफा और सत्ता के भूखमरों का कब्जा है. मुनाफा और सत्ता के भूखमरों की यह जमात पुरुषवादी मानसिकता का हरावल दस्ता भी है.

मुनाफे की निरन्तरता के लिए यह जमात दुनिया भर में ‘उपभोक्ता संस्कृति’ बनाने और विकसित करने में हर जुगत आजमाता है और हर कोशिश में सफल भी हो जाता दिख रहा है.जरूरतों के कितने अनिवार्य आयाम हो सकते है,यह व्यक्ति इन माध्यमो के सबसे प्रभावी हिस्से यानि ‘विज्ञापनों’ को देखने के बाद ही जान पाता है.बढ़ते बच्चे के लिए दूध में मिलाये जाने वाले जरूरी विशेष ब्रांडो से लेकर स्कूली परीक्षा के समय दिमाग को तेज कर देने वाले चमत्कारी पेय का विज्ञापनों से आम सरल नागरिक ही नहीं अच्छे खासे पढ़े समझदार लोग भी चक्कर में आ जाते है.विज्ञापन प्रभावित मात्र नहीं करते बल्कि उससे कही आगे जाकर अपने पक्ष की मानसिकता का विकास भी करते है.इस प्रक्रिया को हम उपभोक्ता संस्कृति की संस्कार प्रक्रिया कह सकते है.यह बिंदु इस दुनिया का एक आयाम भर है.यहाँ बात इससे आगे और अलग दृष्टिबोध की पहचान की कोशिश करने की होनी चाहिए.

संस्कार-प्रक्रिया को संचालित और प्रभावित करने का दमखम अन्य सभी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनितिक स्थितियों की भांति ताकतवर जमात के पास ही है. टीवी चैनलों की दुनिया पर पुरुषवादी मानसिकता से आपादमस्तक डूबे इन ताकतवर जमातों के लिए ‘स्त्री’ और ‘स्त्रीदेह’ सबसे फायदेमंद टूल दिखाई देता है.वह इस टूल का बर्बरता की हद तक इस्तेमाल करता है.इसके साथ ही साथ ही वह यह भी जानता है कि इस टूल का व्यक्तिव भी है ब्रेख्त से शब्द लेकर कहे तो ‘उसमे एक नुस्ख है कि वह एक आदमी भी’ होती है.किसी भी व्यक्ति को अपना गुलाम बना लेने की सबसे मजबूत और सरल तरीका है;उसकी सोचने समझने की प्रक्रिया को अपने हिसाब से विकसित कर देना.उपभोक्तावादी दुनिया के स्वामी अपने इस ‘टूल’ को हर संभव असंभव तरीके से अपने कब्जे में रखे रहना चाहता है.यहाँ यह मान लेने में गुरेज नहीं है कि ऐसा करने में वह पूरी तरह सफल भी है.

स्त्रियों की मानसिकता को पुरुषवादी घेरे के भीतर ही बनाने और विकसित करने की सूक्ष्म एवं प्रभावी काम  टीवी चैनलों सहित तमाम मनोरंजन-सूचना माध्यमो द्वारा किया जा रहा है.कई बार यह काम स्त्री-स्वतंत्रता और मुक्ति के नाम पर किया जाता है.जीवविज्ञान और रोजाना होने  नये विदेशी अनुसन्धानो को आधार बना कर स्त्री की सामान्य दैनिक आवश्यकताओं को अलगाया जाता है.जिन विज्ञापनों में स्त्री और स्त्री-देह को टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है उन्ही के माध्यम से स्त्री मन को संस्कारित करते रहने की प्रक्रिया भी संचालित करता है.यहाँ ‘संस्कार’ का सकारात्मक अर्थ लेना सबसे बड़ी भूल होगी.यह संस्कार पूरी तरह पुरूषवादी चाशनी में डुबोया रहता है.इसको उदाहरणों से सिद्द करने में आपको ज्यादा नहीं किसी भी समय टीवी या दूसरे माध्यमों के विज्ञापनों की ओर देखना होगा.

कुछ विज्ञापनों का जिक्र और उन पर पर चर्चा करते हुए इस साजिश की परतों को उघाडा जा सकता है.पहले बच्चो के लिए ‘निर्धारित’ चैनलों की बात करे. एक विज्ञापन में डब्ल्यू.डब्ल्यू.ऍफ़ के सितारों वाले प्लेइंग कार्ड का प्रभाव दिखाया जाता है.मियां-बीबी और बेटा-बेटी वाले इस आधुनिक परिवार में पिता-पुत्र की जोड़ी नये सितारों की उपलब्धियों वाला कार्ड पा टीवी देखना झोड़ ‘पुरुषोचित’ खेल के आभासी मजे लेने लगते है.बेटी अपनी माँ के साथ टीवी सीरियलों वाली सास-बहू और साजिश के लिए प्रशिक्षित होने लगती है.वैसे मुझे नही लगता कि बच्चों के लिए कार्टून सीरियल बनाते समय गर्ल-चाइल्ड को भी ध्यान में रखा जाता है.खास कर हिंदी में प्रसारित होने वाले सीरियलों के बारे में तो यह दावे के साथ कहां जा सकता है.पोषण देने वाले तथाकथित पूरक आहारों का किन-किन विज्ञापनों में आपने किसी ‘बढती बच्ची’ की चिंता देखी है.जोर डालने पर शायद एकाध की धुधली याद आये.हमारा ध्यान इस बात की ओर भी जाना चाहिए कि इन हस्ट-पुष्ट करने वाले विज्ञापनों को बच्चियां भी गाहे बगाहे ही सही ,देखती तो जरूर होंगी.इन विज्ञापनों में अपना चेहरा ना पा कर उसकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा.उसके मन के किसी कोने में हीनता का एहसास जन्म न ले,या अपने छोटे-बड़े भाई के कुछ विशेष होने का आभास न मिले, ऐसा कतई माना जा सकता.जिस समाज में बच्चियों को जन्म लेने से पहले ही हमेशा के लिए विदा कर दिया जाता है.वहा बच्चियों के ‘पोषण’ को बेच कर मुनाफा नहीं कमाया जा सकता है.मुनाफा भले ही ना कमाया जा सके पर उन्ही बच्चियों को माँ की तरह लिपस्टिक पोतते दिखा कर भविष्य के बाजार के कई पहलू तैयार किया जा सकता है.

अब थोड़ी बड़ी बच्चियों के बारे में चर्चा भी जरूरी हो जाता है.इनके लिए विज्ञापन की दुनिया में  अनंत विस्तार वाले जाल को लगातार बुना जा रहा है.इसका एक उदाहरण हमे इत्र या डीयो या फ्रेगरेन्स के विज्ञापनों के रूप में मिलता है.अधिकाँश विज्ञापनों की भोंडी और अश्लील प्रस्तुति चर्चा के साथ कभी-कभी विरोध का केंद्र बनता है.फिर भी मामला जस का तस हो जाता है.इन विज्ञापनों में सारा जोर इस बात पर होता है कि  इत्र या डीयो या फ्रेगरेन्स के प्रभाव में स्त्रियाँ सारी हदें तोड़ देती है.जिस पुरुष ने नैनो ग्राम में भी इनको लगाया वह चाहे न चाहे परियाँ तक उसके लिए अपना परीपना तक छोड़ देने में क्षणभर की देरी नहीं करती है.इसके महिमा और आगे बढ़ कर वर्ग-भेद तक को ख़त्म कर देती है. इत्र की महक मिलने भर की देर नहीं कि अपने बॉय फ्रेंड से मिल कर निकली लडकी सडक किनारे बैठे बेसहारे आदमी से चिपटने लगती है.इसके लिए उसे साम्यवादी-समाजवादी  होने की जरूरत नहीं होती. इत्र उसे चिंतन और विचार स्तर को इतना सपाट और निष्क्रिय कर देता है कि वह कामुक जीव मात्र रह जाती है.एक विज्ञापन में आगे की हद ‘बम चिका बमबम’ के नारे के साथ दिखाई देती है.नायक अपनी मित्र को अपने बॉस से पहली बार मिलवाता है.वाशरूम में गया बॉस गलती से नायक के इत्र की डिबिया से एक स्प्रे ले लेता है.आगे जो होता है उसमे  गलती उसकी नहीं निकाल सकते है.उसके कर्मचारी की महिला-मित्र उसी इत्र के प्रभाव में ‘वल्गर’ ढंग से उसके कपड़े उतार देती है.

एक खास किस्म की बाईक पर सवार होने पर राह चलती अनजानी लडकियां अकुंठ भाव से ‘बैकसीटपर बैठने के लिए आतुर दिखाई देती है.बर्तनों या किचन से जुडी चीजों के विज्ञापनो महिलायों को ही केंद्र में रखा जाता है.यदि आधुनिक कपड़े में सजी लडकी बिंदास और खरीदारी की मानसिकता से प्रभावित होती है तो घरेलू महिलाओं को दुनियादार स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है.सौन्दर्य-साधनों के विज्ञापन में विशेष किस्म पुरुषसापेक्ष स्त्री बनने  की मानसिकता को उभारा ही नहीं जाता बल्कि हर संभव तरीके से उसे विकसित करने का और स्थापित करने का निर्द्वन्द्व प्रयास किया जाता है. लिए   इसी तरह के तमाम विज्ञापन क्षण दर क्षण हमारें और हमारे परिवारों के आखों के आगे चाहे अनचाहे फ्लेश हो रहा है. इन्हें छोटी छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी बूढी सब देख रही है.जब घर की बड़ी बूढी भी इन विज्ञापनों के गहरी मार से बच नहीं पा रही है.वैसे में छोटी और किशोर होती बच्चियों की कौन सी बिसात.टीवी देखने में चेतना और समझदारी की बात उठाई जा सकती है.यहाँ ध्यान दिलाते चले की ‘चेतना और समझदारी’ के विकास के लिए जिस स्वतंत्र स्पेस की आवश्यकता होती है उसके लिए ये माध्यम कोई गुंजाइश छोड़ रहे है क्या? विज्ञापनो में भूमिका निभा रही स्त्री का बार बार एक ही रस्ते पर जाते हुए देखने के बाद बहुत सी किशोरियों उपभोक्तावादी जीवन के लिये संस्कार सम्पन्न हो जाने में कोई दुविधा नहीं है. वह अगर तेजी से बाजार के हिसाब से ढलती है तो बाजार को नियंत्रित करने वाली ताकतों की ‘पुरूषवादी साजिश’ सफल हो जाती है आगे चल कर पुरुष होने वाले बच्चों और किशोरों भी यह अच्छी तरह जान लेते है कि लडकियाँ तो ऐसी ही होती है.टूल की तरह इस्तेमाल कर रहा बाजार अपने टूल को भविष्य के लिए भी तैयार करता रहता है.

एकाध विज्ञापनों में इस तरह का प्रस्तुतिकरण होता तो शायद ज्यादा चिंतित होने की जरूरत न पडती.यहाँ हर कुएं में भांग ही नहीं दूसरी तमाम नशीली चीजे जम कर घोली जा रही है.बाजार में इन उत्पादों की बढती मांग भी विज्ञापनों की ताकत सिद्द कर रही है. हिंदी सिनेमा का बादशाह का यह कहनालडकियों वाली क्रीम लडके तो मानते ही होंगे,साथ ही लडकियां भी सचेत होती होंगी कि उनका गोरा होना जरूरी है,क्योकि लडके भी छुप-छुप के गोरे होने के लिए ‘बादशाह’ की बात मान रहे है. के   यहाँ चिंता का मामला यह है कि टीवी देखते समय हमेशा सजग बने रहना कठिन है.इन विज्ञापनों को केवल सजग और चिन्तनशील जमात ही नहीं देखता.विज्ञापनों सहित सभी पुरुषवादी सत्ता प्रतिष्ठानों का प्रयास भी यही होता है कि सजग और चिंतनशील जमात किसी भी रूप में विकसित न होने पाए.अगर हो भी तो उन्ही के तय दायरे में.इतना होने के बाद भी चेतना का अंकुर फूट ही पड़ते है और उनके फूटते ही इन ‘संस्कारों की कड़ियों को एक झटके में तोड़ देती है..

अचानक 
कहता है मर्द 
"देखो
मैं इश्वर हूँ
औरत देखती है उसे 
और 
ईश्वर को खो देने की पीड़ा से बिलबिलाकर 
फेर लेती है 
अपना मुँह
**(ज्योत्स्ना मिलन)


8 टिप्‍पणियां:

  1. सेक्स पावर बढ़ाने की दवाई से लेकर बाडी स्प्रे , गोरा होने का क्रीम ..और इन सबका प्रचार करे शाह रुख खान , बनियान से लेकर एक खास ब्रांड की चड्डी पहनने से ही हम असली मर्द बनते हैं ...और मुझे याद आ रहे है गाँधी जी जिन्होंने एक धोती और चप्पल में ही पूरी जिंदगी गुजार दी और अंग्रेजी शासन को ललकारा . बहुत सार्थक आलेख . आभार .

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  2. इत्र की महक मिलने भर की देर नहीं कि अपने बॉय फ्रेंड से मिल कर निकली लडकी सडक किनारे बैठे बेसहारे आदमी से चिपटने लगती है.इसके लिए उसे साम्यवादी-समाजवादी होने की जरूरत नहीं होती.

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    ये वो विडम्बना है अशोक भाई जो कमोबेश पूरे समाज को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से पता भी है लेकिन हमारी ज़बान ही शायद बाज़ारू मानसिकता का मुकाबला नहीं कर रही है। बहरहाल..., एक सार्थक आलेख

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  3. दुखद है यह सब देखना मगर विवशता भी है साथ में ..विवशता विरोध न कर पाने की ..विरोध के स्वर तो दिन ब दिन कोने में धकेले जा रहे हैं या फिर समझौता करने को विवश हैं

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  4. आम तौर पर हम बाज़ार में अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने जाते हैं| समस्या तब उत्पन्न होती है जब बाजार हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के स्थान पर हमारी आवश्यकताओं को पैदा करने लगता है| क्योंकि बाज़ार में यदि किसी चीज़ का मूल्य है तो वह है केवल पैसा! बाज़ार को ना तो किसी समाज से कोई सरोकार है और ना ही किसी सामाजिक मूल्य से|वह तो समाज में चल रहे रिवाज़ या फैशन को अपना टूल बना लेता है|

    कभी यह टूल स्त्री-परतंत्रता के रूप में सामने आता है तो कभी स्त्री-स्वतंत्रता के रूप में|

    और रही स्वंतत्रता की बात, तो हर व्यक्ति कहीं न कहीं एक मानसिक स्तर की गुलामी के दौर से गुजर रहा है| चाहे वह स्त्री हो या पुरुष| यदि हम ध्यान से देखें तो कहीं न कहीं तथाकथित तौर पर स्त्री-स्वतंत्रता की मिसाल कहे जाने वाले "आधुनिक" चिह्न एवं पोशाकें भी स्त्री को स्वतंत्र कम, एक सजावट की वस्तु के रूप में अधिक पेश करते हैं| टी.वी. एवं विज्ञापनों की दुनिया और कुछ नहीं करती, बस हमारी इसी मानसकिता का दोहन करती है|

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  5. आम तौर पर हम बाज़ार में अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने जाते हैं| समस्या तब उत्पन्न होती है जब बाजार हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के स्थान पर हमारी आवश्यकताओं को पैदा करने लगता है| क्योंकि बाज़ार में यदि किसी चीज़ का मूल्य है तो वह है केवल पैसा! बाज़ार को ना तो किसी समाज से कोई सरोकार है और ना ही किसी सामाजिक मूल्य से|वह तो समाज में चल रहे रिवाज़ या फैशन को अपना टूल बना लेता है|

    कभी यह टूल स्त्री-परतंत्रता के रूप में सामने आता है तो कभी स्त्री-स्वतंत्रता के रूप में|

    और रही स्वंतत्रता की बात, तो हर व्यक्ति कहीं न कहीं एक मानसिक स्तर की गुलामी के दौर से गुजर रहा है| चाहे वह स्त्री हो या पुरुष| यदि हम ध्यान से देखें तो कहीं न कहीं तथाकथित तौर पर स्त्री-स्वतंत्रता की मिसाल कहे जाने वाले "आधुनिक" चिह्न एवं पोशाकें भी स्त्री को स्वतंत्र कम, एक सजावट की वस्तु के रूप में अधिक पेश करते हैं| टी.वी. एवं विज्ञापनों की दुनिया और कुछ नहीं करती, बस हमारी इसी मानसकिता का दोहन करती है|

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  6. हम बाज़ार में अपनी ज़रूरतों को पूरा करने जाते हैं| लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब बाज़ार हमारी ज़रूरतों को पूरा करने की जगह हमारी ज़रूरतों को पैदा करना शुरू कर देता है| बाज़ार को न तो किसी समाज से मतलब हैं न ही किसी सामाजिक सरोकार से| उसे मतलब है तो केवल धन से|

    बाज़ार को जहाँ से धन की आस होती है वह वहीँ से उगाही करने में लग जाता है| चाहे वह स्त्री की "पारंपरिक मर्यादा" हो, या "आधुनिक नारी-स्वतंत्रता"| बाजार दोनों में ही अपना हित साधने के तरीके निकाल लेता है| असल में बाज़ार आदि काल से ही हमारे समाज के मूल्यों के निर्धारण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है| अंतर सिर्फ यह है की अब टी.वी. के माध्यम से बाजार हमारे घर के अंदर तक घुस आया है| एक प्रकार से यह एक संक्रमण काल है| देखें बाजार और समाज की यह जुगलबंदी क्या गुल खिलाती है!

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  7. यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है | गंभीर और शोधपरक आलेख |

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  8. चिंतनीय स्थिति ।अच्‍छा लिखा गया है ।बधाई मनोज जी ।

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…