गुरुवार, 9 मई 2013

'विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: लेखन और जीवन'


(एक फेसबुक बहस: 18 अप्रैल 2013 - 4 मई 2013)


इस बहस के बारे में दो शब्द


करीब एक पखवाड़े (18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक) की अवधि में फेसबुक पर एक (महा )बहस चली जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के 'समास' पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई कि मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिएऔर जो रचना और विचारधारा/जीवन के अंतर्संबंधों, साहित्य और कला के शक्ति संबंधों और समीकरणों और कला एवं जीवन की सामान्य नैतिकताओं पर एक बहस में बदल गयी. बहस की शुरुआत गिरिराज किराडू ने एक स्टेटस लिख कर की. बहस में एक तरफ थे अशोक कुमार पांडेय, गिरिराज किराडू, वीरेन्द्र यादव, मंगलेश डबराल और कई मित्र और दूसरी तरफ थे मुख्यतः जनसत्ता संपादक ओम थानवी, कुलदीप कुमार और उनके मित्र/ समर्थक. यह बहस यहाँ तिथिक्रमवार प्रस्तुत है . इसे आपके सामने प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि इस बहस को लेकर हो सकने वाले, शायद अभी से हो रहे दुष्प्रचार के बरक्स इच्छुक पाठक मूल पाठ पढ़ सकें. यहाँ पूरी बहस क्रमवार, तिथिवार है, अविकल नहीं. जो बातें बहस को दोनों में किसी भी तरफ आगे बढ़ा रही थीं उन्हें शामिल किया गया है. इसका शीर्षक हमने विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: जीवन और लेखन (एक फेसबुक बहस) रक्खा है जो इसमें शामिल चीज़ों का ठीक अनुमान देता है. यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फीयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदहारण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाईव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाईव लिखते हैं. हिंदी में लिखने के उपकरण ऐसे हैं कि रोमन में टाईप किया देवनागरी में रूपांतरित होता है तो वर्तनी के अनचाहे विचलन इस पाठ में हैं. उन अशुद्धियोंके साथ ही पाठक पढ़ें, इस बात का ध्यान हमने जानबूझकर रखा है.


गिरिराज किराडू - अशोक कुमार पाण्डेय  
------------------------------------------
बहस में शरीक

अख़लाक उस्मानी, अशोक कुमार पांडेय, आराधना चतुर्वेदी, आशुतोष कुमार, ओम थानवी, ओम निश्चल, कर्ण सिंह चौहान, के. सच्चिदानंदन, गिरिराज किराडू, जगदीश्वर चतुर्वेदी, दीपचंद साँखला, प्रकाश के रे, प्रभात रंजन, प्रियंकर पालीवाल, बटरोही, बोधिसत्व, मंगलेश डबराल, मोहन श्रोत्रिय, रामजी यादव, वीरेंद्र यादव, शिरीष कुमार मौर्य, संतोष कुमार पांडेय, सतीश चन्द्र सत्यार्थी, सत्यानंद निरूपम, हरे प्रकाश उपाध्याय

वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, मंगलेश डबराल, ओम थानवी 








गिरिराज किराडू की फेसबुक टाइमलाइनः 18 अप्रैल 2013





मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: “भंते, यह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौनसा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक के किया हुआ है”. 
(आगामी यू.जी.सी. जे.आर.एफ. नेट हिंदी के प्रश्न पत्र में आने की प्रबल संभावना) 

बहस

प्रभात रंजन: वे पुरुष नहीं महापुरुष हैं. क्या ज़माना आ गया है. एक दौर था कि उनके हाथ से पुरस्कृत होना वाम से विचलन माना जाता था, आज वाम-अति वाम सब उनके हाथों पुरस्कृत होकर धन्य हुए जा रहे हैं. यह साहित्य का प्रहसन काल है भंते!

आशुतोष दुबे:  अगर नेट मैंने दी होती, तो अज्ञान का खमियाज़ा फेल होकर चुकाना पड़ता.

गिरिराज किराडू: लगता है आप समास पत्रिका नहीं पढ़ते भाई, इस बयान का शोध सन्दर्भ वहीं है.

अशोक कुमार पांडेय: लीजिये बता देता हूँ मैं ही : कमलेश जी. कल महाकाव्यों पर व्याख्यान देंगे बनारस में. आप लोगों का हिंदी का मास्टर होना बेकार है. अंग्रेजी का एक मास्टर भारी पड़ा सब पर.

 (Prabhat Ranjan से )- प्रहसन काल या विलाप काल? वाम ने जिसे सेलीब्रेट किया वह घुटनों के बल अशोक वाटिका में चरने चला गया. अब आदरणीय विष्णु खरे अपने इन अंतर्राष्ट्रीय शिष्यों के सम्मान में क्या कहेंगे? वैसे अब इन्हें खरे की कोई ज़रुरत है ही नहीं..हमें तो खैर न खरे की ज़रुरत है न ही वाटिका के फल-फूल की.

हम पर बरसने वाले लोगों में से कोई रज़ा फाउन्डेशन से पौने दो लाख के रिसर्च प्रोजेक्ट के लाभार्थी प्रखर वामपंथी युवा कवि के महाकाव्यात्मक आयोजन में कमलेश जी के बुलाने के निहितार्थों, अभिधा-व्यंजना पर कुछ न बोलेगा. न जसम. न कोई और. आखिर अशोक जी के बिना किसी का काम नहीं चलता.



गिरिराज किराडू : शताब्दी वर्ष में तो उपलब्धि ही यह रही कि वाम आँगन अज्ञेयमय हो गया और उसका असल श्रेय Om Thanvi का है. अज्ञेय अपने अंतिम वर्षों में जिस तरह उपेक्षित किये गये उसके बरक्स उनके पुनरुत्थान का श्रेय ओम जी को जाना चाहिए.

ओम थानवी: (१) कमलेशजी की विचारधारा, यहाँ तक कि उनकी कविता के कथ्य से भी जब-तब असहमति अनुभव की जा सकती है,  लेकिन कवि वे उम्दा हैं. (२) मैं उनकी कविता पर बात कर सकता हूँ, बाकी चीजों की उनकी समझ से उनकी कविता पर कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए कवि के मामले में इस प्रश्न को अप्रासंगिक मानता हूँ. वे सीआइए के समर्थन में भी कविता लिख दें तो पहले यह देखूंगा कि कविता कैसी रची गई है. कविता अच्छी लगे तो कविता को अच्छा कहूँगा और उसमें व्यक्त विचारों से अपनी असहमति प्रकट करूंगा. (३) रज़ा फाउंडेशन का विरोध पढ़ने में आया. किसलिए, यह समझ नहीं पड़ रहा. एक कलाकार अपने चित्रों की कमाई से कला ही नहीं, साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ करे तो उसमें आपत्ति कैसी? महज इसलिए कि उसका काम अशोक वाजपेयी देख रहे हैं? वाजपेयीजी की दृष्टि कई परदानशीं मतवादी लेखकों से बहुत उदार है; आज ही कभी-कभार में ऋतुराज की कविताओं पर उनकी मुक्तकंठ प्रशंसा पढ़ी जा सकती है. हिंदी साहित्य में कट्टरपंथियों का तो हाल यह है कि मैनेजर पाण्डेय अज्ञेय जन्मशती पर शिरकत करें (नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेंद्र यादव से लेकर पंकज बिष्ट तक किस ने नहीं की; कुछ नहीं तो अज्ञेय पर व्याख्यान देकर या संस्मरण लिखकर ही?) या प्रणय कृष्ण अज्ञेय पर किताब लिखें तो अज्ञेयवादी कहकर पुकारे (दुत्कारे?) जाते हैं. साहित्य में तंग नजर का दौर चुक गया है, जो इस बात को समझने से कतराएंगे और वही लकीर पीटेंगे, वे शायद अपना ही नुकसान कर रहे होंगे. कोई दकियानूसी अज्ञेय को न पढ़े, या दूसरी तरफ का दकियानूसी नागार्जुन को न पढ़े, तो इससे अज्ञेय या नागार्जुन का क्या बिगड़ जाएगा?

अशोक कुमार पांडेय: माफ़ कीजिए ओम जी, सी आई ए के समर्थन और उस पर लिखी कविता में भी अच्छे तत्वों को ढूंढ निकालना सच में बड़ा 'महान समन्वयकारी' काम है, वह आप जैसे विद्वान ही कर सकते हैं. वैसे यहाँ कवि के रूप में उनका ज़िक्र कोई कर भी नहीं रहा. सवाल साफ़ था कि 'मानवता को सी आई ए का ऋणी होने' का उद्घोष करने वाला एक प्रखर वामपंथी के लिए इतना ग्राह्य कैसे हो गया? आपसे भी साफ़ सवाल था कि "सी आई ए को लेकर उनकी समझ के बारे में क्या कहेंगे?". इसमें कविता कहीं शामिल न थी. लेकिन उन रेशमी शब्दों में इस सवाल को छिपा देना बहुतों के लिए मुफीद रहा है और आपके लिए भी है. आपकी काल्पनिक असहमति भी 'अगर' की ढाल के पीछे आई. सी आई ए की यह स्वीकार्यता अद्भुत है.
अज्ञेय को लेकर आपका भाव और आपकी भक्ति दोनों से परिचित हूँ और आपसे कोई शिकायत करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं करता, हाँ यहाँ बात रजा फाउंडेशन या अशोक बाजपेयी के विरोध की थी ही नहीं, बात उनकी थी जिनके लिए कल तक अशोक वाजपेयी अस्पृश्य थे, कलावाद के प्रतीक थे और पिछले दिनों में अत्यंत प्रिय बन गए. सवाल उन वजूहात का था जिससे यह घटित हुआ कि भारत भवन का विरोध करने वाले, अशोक वाजपेयी को वहां का अल्शेशियन बताने वाले उनसे एक लाख का सम्मान लेने लगे, जन्म दिन पर विरुदावलियाँ पढने लगे. सवाल उन वजूहात का है जो घोषित अज्ञेय विरोधियों (व्यक्ति नहीं विचार) को उस खेमे में ले जाता है. सवाल उस समझ का है जो 'बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए' लिखने वाले को अज्ञेय स्तुति करवाता है. सवाल मैनेजर पाण्डेय से है कि अज्ञेय के खिलाफ लिखा लेख किसी किताब में शामिल करने से उन्हें कौन सी चीज़ रोकती है? सवाल उन समझौतों का था जो एक कवि को विष्णु खरे से अशोक बाजपेयी तक भटकाता है. क्या इनकी वजूहात शुद्ध साहित्यिक और समन्वय की किसी तलाश से निकली हैं? अज्ञेय पर पांच-पांच और नागार्जुन या केदार या शमशेर पर एक कार्यक्रम न करना भी एक तरह का कट्टरवाद है. आपकी अपनी पसंद है, दूसरों की क्यों न हो? सवाल हम आपसे नहीं उनसे पूछ रहे हैं जिन्हें 'अपना' समझते थे. इसीलिए वाम आँगन में अज्ञेय के प्रवेश का श्रेय मैंने आपको नहीं उन आंगनों को ही दिया था. वैसे कोई अहर्निश अज्ञेय की करताल बजाये तो उससे भी अज्ञेय का बन भी क्या जाएगा? 

"दुर्भाग्य" से सारे विपर्यय के बावजूद साहित्य के दौर अब भी आप नहीं तय करते..हम भी नहीं. इतिहास आज और यहीं ख़त्म नहीं हो रहा. समय इतिहास उनके भी लिखेगा जो तटस्थ रहे, उनके भी जिन्होंने यह या वह पक्ष चुना.

ओम थानवी: यह 'महान' काम मैंने विजयदेव नारायण साही से सीखा, जिन्होंने साफ़ लिखा था कि नीत्शे की कृति "जरथुस्त्र उवाच" विचारों के हिसाब से ऐसी समाज-विरोधी है कि जला देने के काबिल है; मगर साहित्य के नजरिये से महान रचना है जिसकी एक प्रति अपने पास रखता हूँ और एक आपको भी पास रखने की गुजारिश करता हूँ. स्मृति से लिख रहा हूँ; साही जी के उन शब्दों में मामूली फर्क हो सकता है, भाव ठीक-ठीक यही है जो मैंने लिखा. वैसे आपको पता हो न हो, फासीवाद के खुल्लमखुल्ला समर्थक एज़रा पाउंड को भी, समाज-विरोधी विचारधारा के बावजूद, संसार में 'महान' कवि माना जाता है.

अशोक कुमार पांडेय: आप साहित्यिक कृतियों की बात कर रहे हैं और मैं स्टैंड की. क्या किसी ने कमलेश के अच्छे या बुरे कवि होने की बात की? बात सी आइ ए पर उनके स्टैंड की है. जिसे आप कविता के आवरण में नज़रंदाज़ कर रहे हैं. क्या उस पर बोलना इतना मुश्किल है.

ओम थानवी : Ashok Kumar Pandey क्या आप समझते हैं अशोक वाजपेयी दक्षिणपंथी हैं? शायद आपको मालूम नहीं कि गुजरात के दंगों के खिलाफ दिल्ली के लेखकों (वाम लेखक भी शामिल, अगर लेखकों को जाति से पहचानने की गरज हो) को मंडी हाउस पर त्रिवेणी में एक अकेले अशोक वाजपेयी के आह्वान ने जमा किया था. वह आन्दोलन बहुत लम्बा चला, अशोक जी लेखकों को एक करने गुजरात भी गए. नरेन्द्र मोदी के नरसंहार के खिलाफ मंडी हाउस से राष्ट्रपति भवन की तरफ लेखकों का जुलूस निकला, यह अदना पत्रकार भी उसमें मौजूद था और कह सकता हूँ कि मैंने विभिन्न मत वाले लेखकों का उतना बड़ा सामूहिक विरोध पहले नहीं देखा. डॉ विनायक सेन की रिहाई में भी अशोक जी बहुत सक्रिय थे. जन्तर मंतर वाली सभा में जाकर बोले भी थे. डॉ सेन के समर्थन में सरकार विरोधी उग्र सभा उनकी लिखित अनुमति से ललित कला अकादमी के मैदान में हुई थी, जिसके अशोक जी अध्यक्ष थे. मान लेते हैं कि आप बड़े 'लेफ्टिस्ट' हैं, पर हर नापसंद लेखक को एंटीलेफ्ट मत घोषित कीजिए; साम्प्रदायिकता विरोधी हमारी जमात पहले ही फिरकों में बंटी है, आप इसी मतांधता में जकड़े रहे तो उसे और कमजोर करने का ही काम कर रहे होंगे (२) इसी मतान्धता ने पहले अज्ञेय जैसे लेखक को नाहक बदनाम करने अभियान चलाया और विफल हुए. अब अशोक वाजपेयी निशाने पर हैं. ये नहीं समझते कि अपनी ही दुनिया को और छोटा कर रहे हैं. अगर अज्ञेय एंटी-लेफ्ट होते तो चार सप्तकों में सब नॉन-लेफ्ट कवि न भरे होते? दिनमान आदि में प्रगति-पसंद लेखक क्यों जगह पाते? अशोक वाजपेयी ने पूर्वग्रह में अज्ञेय के जीते-जी उन पर कभी विशेषांक नहीं निकाला, नामवरजी पर निकाला. क्यों भला? ... मुश्किल यह है कि साहित्य में बड़े-बड़े फतवे देने का काम वे करते हैं जो साहित्य में विफल हो गए और मौके-बेमौके इसी तरह अपनी ओर ध्यान खींचने का जतन करते है. जैसे पुकार लगाते हों, कि हम भी पड़े हैं राहों में! ऐसी कराह के मेरी प्रति मैं सहानुभूति ही जाहिर कर सकता हूँ. (३) जहाँ तक मैं जानता हूँ कमलेशजी ने कोई रचना सीआइए के बारे में आज तक नहीं लिखी है. उनका यह कहना गलत नहीं कि एक दौर में सीआइए ने अनेक महान लेखकों को (प्रताड़ित रूसी लेखकों पास्तरनाक, सोल्जेनित्सीन, जोजेफ ब्रोड्स्की आदि के अनेक नाम तो जगजाहिर हैं) मदद की. और सीआइए ने दुनिया का महान साहित्य (नोबल रचनाओं सहित) भी सस्ती दरों पर दुनिया में उपलब्ध करवाया. मगर यह काम तो केजीबी भी तो करती थी. चेखव-तोल्स्तोय सस्ते में उपलब्ध कराते-कराते कौड़ियों के मोल स्तालिन के विचार भी सुन्दर जिल्दों में परोस दिए जाते थे! फिर भी अगर कोई आज कहे कि केजीबी की बदौलत ही सही, हमें महान रूसी साहित्य वक्त पर और सस्ते में सुलभ हो गया जो बहत अच्छा काम हुआ, तो क्या इसे केजीबी का समर्थन करना ठहरा देंगे? (४)  बहरहाल, मेरे इस बहस में पड़ने का एक ही सबब है कि कमलेशजी ने क्या कहा उस पर इतना कुढेंगे तो एक वक्त के बाद उनकी कविता का आनंद कभी नहीं ले पाएंगे जो सचमुच अच्छा काव्य है. एक रचनाकार के मामले में वही महत्त्वपूर्ण है. वे सीआइए की नौकरी करने लगें तब भी मैं यह बात इसी तरह कहूँगा.

अशोक कुमार पांडेय: ओम जी क्या एक दक्षिणपन्थी को मैं आदरणीय प्रतिपक्ष कहूँगा? दिक्कत यह है कि आप अपने पूर्वाग्रहों के चलते प्रतिपक्षी होने को अनिवार्य रूप से बहिष्कार में तब्दील कर दे रहे हैं. यह तो लोकतंत्र का तकाज़ा है कि प्रतिपक्ष से लगातार सम्वाद चलाया जाए. आख़िर 'बूढा गिद्ध क्यों पन्ख फैलाये' लिखते हुए अशोक जी भी अग्येय से सम्वाद ही तो कर रहे थे न! मैंने कभी उनके बहिष्कार की बात नहीं की बल्कि कविता समय के अलावा भी कम से कम तीन आयोजनों में उनके साथ शिरक़त की है. सवाल आपसे, उनसे या रज़ा फाउंडेशन से नहीं उस अवसरवाद से है जिसका ज़िक्र मैंने पिछले कमेन्ट में किया है. लोकतंत्र का कोई अनुवाद अवसरवाद नहीं होता. जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं किसी मानवता को किसी गुप्तचर एजेंसी का ॠणी नहीं मानता. न सी आई ए, न के जी बी, न आई बी, न आई एस आई. (२) और ओम जी, सिर्फ कविता के आनन्द में ऐसे सबकुछ भुलाते रहे तो एक दिन सी आई ए के सौजन्य से बची कविताएँ ही पढ पायेंगे. यह निरपेक्ष आनंद कहीं का न छोड़ेगा.

ओम थानवी: मेरा तो इतना निवेदन ही था की कमलेश जी मूलतः कवि हैं, विचारक या दार्शनिक आदि नहीं. तो उनकी रचना से ही उन्हें नापा जाना चाहिए, विचारों से नहीं. किताबें एजेंसियां बँटवाती थीं, यह सच्चाई है. हम सब ने वे सस्ती किताबें- अच्छी और बुरी - देखी हैं, खरीदी हैं. अच्छी के लिए पढ़ाकू समाज ऋणी अनुभव करे इसमें मैं कोई पाप भरा वक्तव्य नहीं देखता हूँ. इस कशमकश में कवि का पाठ क्या करेंगे, यह दुविधा है. सयोग से मैं कमलेश की नया संग्रह 'बसाव' (वाणी) पढ़ रहा हूँ. कविताओं में भी असहमति के बिंदु निकल आ सकते हैं, पर कवि वे ऊँचे हैं. (२) यह कुछ लोगों के साथ मुश्किल है कि सब कुछ विचारधारा की छाया में देखते-सूंघते-तौलते हैं. कहीं सीआइए का जिक्र आया नहीं कि कान खड़े हो जाते हैं. अज्ञेय या निर्मल वर्मा का नाम सुन लें, पेट मरोड़ उठ पड़ती है. जो पसंद नहीं वह जैसे वर्ग-शत्रु है. उसका रचना-लोक गया भाड़ में. हम स्तालिनकालीन रूस में रह रहे हैं या भारत गणतंत्र में? कमलेशजी हिंदी के सबसे 'वेल रेड' कवियों में भी हैं, इसलिए मैं उनका और सम्मान करता हूँ. हालांकि मेरी किताब में सिन्धु घाटी मामले में भगवान सिंह आदि की आलोचना पढ़ कर वे खफा हुए थे, पर उससे क्या!

अशोक कुमार पांडेय: ओम थानवी जी : कौन किसका मित्र-शत्रु है, यह तय हो जाएगा. कुछ बातें साफ़ कर लेते हैं. 
आपने कहीं सफलता-असफलता की बात की थी इसी थ्रेड में उस पर बात कर लेते हैं. महान लोग या यों कहें कि सत्ता से नाभिनालबद्ध डोमाजी की बरात जिसके पीछे चले क्या उसे अपने आप महान होने का वह सर्टिफिकेट मिल जाता है कि उसके बाद किसी को बोलने का हक नहीं? क्या महाजने येन पथे गन्ता का सिद्धांत साहित्य में चलता है या उसे चलाने की कोशिश की जा रही है? नामवर जी तो एक पुलिस अधिकारी को मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़ा कवि बता चुके हैं तो क्या उसे स्वीकार कर लेना चाहिए? और बड़ा होना होता क्या है? सत्ता में होना? जे एन यू का प्रोफ़ेसर होना? पूर्व आई ए एस होना? एक मरणासन्न अखबार का धनी सम्पादक होना? जोड़-तोड़ से सारे पुरस्कारों की पीठ पर सवार होना? ये सफलताएं/असफलताएं एक लेखक का चयन भी होती हैं. ज़रूरी नहीं कि सब इन सफलताओं के पीछे भाग रहे हों. 

समयांतर में पंकज बिष्ट अज्ञेय की आलोचना करते हैं या मंगलेश उनकी कविताओं के सहारे उनके जनविरोधी रूप तक पहुँचते हैं या असद जैदी उनकी मूल प्रवृति का अवलोकन करते हैं या अजय सिंह अपने तरीके से अज्ञेय को लेकर जसम की आलोचना करते हैं...या ऐसे तमाम लोग उन समारोहों की करताल से निकलते भक्ति से ओत-प्रोत क्रंदन पर ताली बजाने से इनकार करते हैं तो यह अगर किसी को 'राह में पड़े लोगों' का विलाप लगता है तो किसी को अज्ञेय के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन कर उनकी अकुंठ माला जपना भी किसी का साहित्य में साहित्येतर और लेखनेतर तरीके से जगह बनाने और सफल होने का भ्रम पालने का प्रयत्न लग सकता है. कुछ की सफलता के पैमाने ऐसे ही होते हैं, ज़रूरी नहीं कि सबकी.

वाम मैं हूँ कि नहीं यह मेरे लिए चिंता का विषय नहीं. यह फैसला समय करेगा. हाँ 'वर्ग-संघर्ष' और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के स्वीकार के बिना कोई वाम हो सकता है कि नहीं यह कोई मुश्किल सवाल नहीं. अगर मैं अशोक  जी को अपना यानि वाम का सम्माननीय प्रतिपक्ष मान रहा हूँ तो यह आपके लिए अपमानजनक हो सकता है जो कि अज्ञेय जैसे घोषित वामविरोधी के प्रतिष्ठापन के लिए अंतत नामवर जी या फिर मैनेजर पाण्डेय या प्रणय कृष्ण जैसे 'घोषित' वामपंथियों का सर्टिफिकेट प्रस्तुत कर जंग को जीती हुई समझ कर हमेशा विजेता की मुद्रा में होने के भ्रम में होते हैं और इस सवाल पर कोई जवाब नहीं देते कि इन बदले हुए स्टैंड्स के बरक्स 'बूढ़े गिद्ध' के पंखों तले 'एकांत का वैभव' तलाश लेने की जो गैरवामपंथी कलाबाजी भी है क्या उसकी वजूहात सिर्फ साहित्यिक हैं? लेखक के लिए वर्तमान का वर्तमान बोध नहीं भविष्य का इतिहासबोध महत्त्वपूर्ण होता है. ऐसी तमाम फौरी 'जीतों' का हश्र हमने पहले भी देखा है. 

और सबके बाद ...हम 'असफल लोगों' को आपके महान लोकतंत्र में अपनी बात कहने का हक है कि नहीं? या हॉब्सबाम सही कहता है कि यह 'सफ़ल लोगों का लोकतंत्र है जिसमें असफल और हारे हुए लोगों के पास अपनी आवाज़ रखने की कोई जगह नहीं होती' (स्मृति के आधार पर, कहेंगे तो कोट कर दूंगा ओरिजिनल से, घर पहुँचने के बाद)

हरे प्रकाश उपाध्याय: बहुत बोर बहस है. अशोक जी कवि अच्छे हैं और रजा फाउंडेशन भी अच्छा है और व्योमेश तो बहुत प्यारे कवि हैं. कमलेश जी की कविता की किताब तो मैं हरदम आजकल साथ लेकर घूम रहा हूं...क्या दिक्कत है इसमें. कोई सीआईए का एजेंट है तो वह कविता नहीं लिखेगा क्या..मनुष्य की भावनाओं, व्यक्तिक सुख-दुख और प्रेम-अप्रेम पर उसके भी तो कुछ विचार होंगे...सुनना चाहिए. अभिव्यक्ति का अधिकार सबको है. न सुनना हो मत सुनिए. अशोक वाजपेयी, कमलेश या व्योमेश कहां आपको जबरन अपनी कविता पढ़ने, सराहने या स्वीकारने पर मजबूर कर रहे हैं. न वे कोई ऐसा सरकारी एजेंडा थोप रहे हैं जिसे मानने के लिए जनता बाध्य हो, फिर क्या दिक्कत है भाई..उन्हें बांटने दीजिए फेलोशिप, लिखने दीजिए अपने ढंग से अपनी किताबें..किताबों में जो लिखा जाएगा...उसकी समीक्षा आप लोग अपने ब्लॉगों पर लिखिए. किसी को कोई नहीं रोकेगा. अशोक जी, कमलेश जी और व्योमेश जी मेरे कोई रिश्तेदार नहीं हैं कि मैं उनका पक्ष ले रहा हूँ, बल्कि उन सबसे मेरे रिश्ते बहुत खराब हैं और मैं उसे सुधारना भी जरूरी नहीं समझता, पर उनकी अधिकांश कविताएं मुझे अच्छी लग रही हैं, तो लग रही हैं, कुछ वैसी कविताएं भी इधर मुझे अच्छी लग रही हैं जो पहले अच्छी नहीं लगती थीं. मुझे अपनी ही बहुत सारी कविताएं बहुत बेकार लग रही हैं जो छपने के पहले इतनी अच्छी लगती थीं कि उनकी कोई बुराई करता था तो मैं झगड़ा कर लेता था, पर वे बुरी कविताएं मेरी हैं तो हैं...मैं अब क्या कर सकता हूँ. वे कविताएं बाजाप्ता मेरी किताब में हैं और मेरी किताब का दूसरा संस्करण शायद कभी आये भी नहीं कि मैं उन्हें उस संस्करण में बाहर कर सकूँ और उनकी जगह कोई दूसरी कविताएं रख सकूँ. क्या पता मैं जिन कविताओं को रखने का विचार कर रहा होऊँ, वे और ज्यादा खराब हों. पर मैं क्या कर सकता हूँ. आप सब लोगों से निवेदन है कि आप सब लोग अपने-अपने ब्लॉगों पर खराब कविताओं की निंदा करें और फेसबुक पर निंदा प्रस्ताव पास करें. हां बुरी कविताओं के साथ भी यही सलूक करें. या जो मन चाहे सो करें. पर रजा फाउंडेशन को फेलोशिप आदि बांटने दें. वैसे ही हिन्दी लेखन के लिए फेलोशिपों का इतना अभाव है कि मैं खुद ही एक फेलोशिप शुरू करने की सोच रहा हूँ मगर दिक्कत यह है कि मेरे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं, वैसे सरकारों से निवेदन तो कर ही सकता हूँ कि हिन्दी के लेखकों को फेलोशिप दिया जाय. फेलोशिप के बदले पैसे की जगह जमीन दिया जाना ज्यादा श्रेयस्कर होगा ताकि उस जमीन पर लेखक खेती भी कर सकें. वैसे हिन्दी का लेखक बहुत काइंयां जीव होता है वह खेती की जमीन पर बंगला भी बना सकता है. मेरी मूल चिंता यही है आजकल और मजूरों के बारे में इधर महीनों से मैंने कुछ नहीं सोचा तो क्या मैं मार्क्सवादी नहीं हूं, मार्क्स जिंदा होते तो क्या इसकी सजा मुझे कविता लिखने के मेरे मौलिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाकर देते, आप बतायें कृपया...नहीं भी बताएंगे तो कोई बात नहीं, सबको बताने और नहीं बताने दोनों का हक है...आप मनमोहन सिंह तो हैं नहीं कि नहीं बताने पर मीडिया नाराज हो जाएगा...

मंगलेश डबराल: कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था और उत्तर छायावादी, रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया था. एक भाषाई सवर्णात्मकता , जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ, दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महा विचारक, इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता, हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली. (२) पोलिश कवि मिलोश के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम 'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेसीडेन्स आन अर्थ' --- रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं, तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर.

रामजी यादव : बड़े आश्चर्य की बात है वामपंथ को बुरा-भला कहनेवाले भी अपने जेनुइन कामों को वामपंथी ही समझते हैं . सेकुलरिज़्म ऐसा ही हथियार है . यह आसानी से अपने को सुर्खरू बनाने के काम आ जाता है . लेकिन वामपंथ से भी चमकदार सेकुलरिज़्म कांग्रेस का रहा है . वह दशकों से इसी की सत्ता पाती रही है . क्या इस नाते कांग्रेस को वामपंथ माना जा सकता है ?

ओम थानवी की टाइमलाइनः 22 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट: ओम थानवी: कलाकार सैयद हैदर रज़ा को राष्ट्रपति ने आज पद्मविभूषण से नवाजा. दूसरी तरफ फेसबुक पर आज ही किसी अन्य बहस में रज़ा फाउंडेशन का विरोध पढ़ने में आया. किसलिए, यह साफ समझ नहीं पड़ रहा. एक कलाकार अपने चित्रों की कमाई से कला ही नहीं, साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ करे तो उसमें आपत्ति कैसी? महज इसलिए कि उसका काम अशोक वाजपेयी देख रहे हैं? वाजपेयीजी की दृष्टि कई परदानशीं मतवादी लेखकों से बहुत उदार है; आज ही 'कभी-कभार' (जनसत्ता) में ऋतुराज की कविताओं पर उनकी मुक्तकंठ प्रशंसा पढ़ी जा सकती है. हिंदी साहित्य में कट्टरपंथियों का तो हाल यह है कि मैनेजर पाण्डेय अज्ञेय जन्मशती पर शिरकत करें (नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेंद्र यादव से लेकर पंकज बिष्ट तक किस ने नहीं की; कुछ नहीं तो अज्ञेय पर व्याख्यान देकर या संस्मरण लिखकर ही?) या प्रणय कृष्ण अज्ञेय पर किताब लिखें तो अज्ञेयवादी कहकर पुकारे (दुत्कारे?) जाते हैं. 

साहित्य में तंग नजर का दौर चुक गया है, जो इस बात को समझने से कतराएंगे और वही लकीर पीटेंगे, वे शायद अपना ही नुकसान कर रहे होंगे. कोई दकियानूसी अज्ञेय को न पढ़े, या दूसरी तरफ का दकियानूसी नागार्जुन को न पढ़े, तो इससे अज्ञेय या नागार्जुन का क्या बिगड़ जाएगा? अज्ञेय की किसी वक्त चौतरफा उपेक्षा होती थी, उससे भी अज्ञेय का कोई नुकसान नहीं हुआ, उनके पाठक और बढ़ते चले गए. इस बात को लगता है नामवर सिंह या मैनेजर पाण्डेय तो समझ गए. लेकिन कुछ हैं जो अब भी नहीं समझना चाहते और हवाई तलवारें भांज रहे हैं! कहना न होगा, रज़ा फाउंडेशन के बहाने लगता है हमला अशोक वाजपेयी पर है और यह भी वैसी ही संकीर्ण जमाते-मतवादी कारस्तानी है.

बहस

ओम निश्चल:  अज्ञेय अब जो भी हैं वे सब के सामने हैं. जो विरोध करते हैं वे भी जानते हैं कि किसका विरोध किसलिए कर रहे हैं. उन्‍हें यह अधिकार है कि वे किसे चाहें या न चाहें या बिना चाहे भी जो चाहे वे करें. हिंदी विवेक तमाम कारणों से लामबंद होता है. वे अक्‍सर बहुत संकीर्ण वजहें होती हैं. अशोक वाजपेयी का रास्‍ता कुछ कुछ अज्ञेय की रुचियों कार्यो से मेल खाता है. साहित्‍य में सांगठनिक उत्‍तरदायित्‍व निभाने वाले कम हैं. जो भी इस रास्‍ते पर आगे चलेगा वह कुछ की निदा या प्रशंसा का पात्र होगा. पर यह सुविदित है कि अज्ञेय का कद उनका काम उनका लेखन उनकी साहित्‍यिक चिंताऍं बड़ी हैं वे ओछी रणनीतियों से प्रेरित नही रही हैं.

आखिरकार अशोक वाजपेयी भी किसी रणनीति के तहत नही, अपने भीतर के साहित्‍यिक अनुराग के चलते ही दीगर विचारधाराओं के कवियों लेखकों कलाकारों के अच्‍छे कामों की तारीफ करते हैं. यही उनकी विशेषता है. यह बात कभी नरेश सक्‍सेना जी के घर हुई एक आत्‍मीय बैठक में मैंने ज्ञानरंजन जी से कही और यह बात उन्‍होंने स्‍वीकार की. ऐसा कोई अन्‍य उदाहरण मैंने नही देखा . लोग कम से कम अशोक जी के साहित्‍यिक अवदान की नहीं, तो उनके इस औदात्‍य और समावेशी चित्‍त की ही सराहना करें. वरना उनकी कविताओं या आलोचना में बहुत कुछ ऐसा है जिसने साहित्‍य के बुनियादी चरित्र पर असर डाला है. वह असर आज के अनेक युवा लेखकों में दीखता है. भाषा को आधुनिक और नुकीला बनाने में उन्‍होंने किसी बढ़ई से कम काम नही किया हे जो रंदा दे दे कर लकड़ी को एक उपयोगी सामान में बदलता है. अशोक वाजपेयी बेशक अपने मत पर टिके रहने वाले इंसान हैं, इस मायने में कम से कम, विरोधों में भी वे अपनी बात से नहीं डिगते. उनका अंत:करण इस अर्थ में विशाल है. इसीलिए प्रगतिशील धारा के अच्‍छे कवियों की कविताओं के गुणसूत्र पर वे खुलेपन से बतियाते रहे हैं. बेशक प्रगतिशीलों को इतने निर्बंध भाव से अपने से अलग विचारधारा के कवियों लेखकों की सराहना करते मैंने विरल ही सुना है. वे होंगे पर हैं विरल ही. 

रही बात फाउंडेशन के रज़ा साहब की, तो उन्‍होंने तो अपना संपूर्ण जीवन ही कला और साहित्‍य को समर्पित कर दिया है. अशोक वाजपेयी के इस विज़न पर शायद ही कोई संशय खड़ा किया जा सके कि किससे क्‍या काम बेहतर ढंग से कराया जा सकता है. साहित्‍य में वे जिस सख्‍य भाव से काम कर रहे हैं उसका घेरा निश्‍चय ही उत्‍तरोत्‍तर बड़ा होगा,ऐसी आशा है. इन विरोधों से भी उन्‍हें कोई खिन्‍न नही कर सकता. वे अपना रथ उसी धुन से जोते रहने वाले इंसानों में हैं.

अफसोस होता है कि खेमेबंदियों ओर संपर्कवाद के तंग घेरों से हम तनिक भी बाहर नही निकल पाते जब कि हम लगातार बड़ी से बड़ी बातें करते रहते हैं.

कर्ण सिंह चौहान: यह कहना उचित नहीं है कि अज्ञेय या नागार्जुन की उपेक्षा हुई . दोनों ही हमेशा से साहित्य में प्रतिष्ठित रहे हैं और हिंदी पाठकों के विशाल समूह के प्रिय रहे हैं . इनका साहित्य विचारों के आरपार पढ़ा जाता रहा है.

जहां तक मूल्यांकन का और उसके आधारों का सवाल है, वह बड़ा सौंदर्यशास्त्रीय या कहें सैद्धांतिक-दार्शनिक सवाल है और उसे चलताऊ अखबारी तर्कों से निपटाया नहीं जा सकता . दोनों तरफ . वे सवाल जीवन, जगत, वर्तमान-अतीत और भविष्य, रचना के वस्तु और रूप, विचार और दर्शन, व्यक्तित्व और कृतित्व आदि के न जाने कितने धरातलों को अपने में समेटे होते हैं . इनसे टकराए बिना कोई भी मूल्यांकन अधूरा, इकतरफा, भावावेगपूर्ण और सतही ही होगा.

विचारों और विचारधारा से शून्य व्यक्ति या समाज नहीं होता है . कला और समाज को लेकर अज्ञेय के अपने 
ठोस विचार रहे हैं . ऐसा जमाना रहा है जब दुनिया में शीतयुद्ध और हिंदी में कलावादी आग्रहों का जोर रहा और उसमें अज्ञेय समेत उन तमाम लेखकों को अतिरिक्त वाहवाही मिली जिनसे यह पक्ष मजबूत होता था . ऐसा जमाना रहा जिसमें समाजवाद एक प्रमुख एजेंडा था और साहित्य में नागार्जुन और वैसी रचनाशीलता को अतिरिक्त प्रशंसा मिली . आज का हमारा जमाना वैचारिक महागाथाओं का जमाना नहीं है . यह स्वायत्त अस्मिताओं के उभार और वर्चस्व का जमाना है . इसलिए जब हम हर तरह की कट्टरता से मुक्ति और हृदय की मुक्तावस्था की गुहार लगाते हैं तो वह आज के इस समय की संगति में होता है . 

यह पहले की कट्टरताओं की तरह ही एक नई कट्टरता है, कोई सर्वमान्य और सार्वभौम स्थिति नहीं . इसलिए इस स्थिति को आज ज्यादा समर्थन मिल रहा है. बस इतनी सी बात है . अंत में एक बात और . सार्त्र को मार्क्सवादी लेखक तो दुनिया में किसी ने नहीं माना. हां सार्त्र की अनेक प्रतिक्रियाओं का उपयोग मार्क्सवादी या उनके विरोधी समय-समय पर करते रहे हैं .
प्रभात रंजन, शिरीष कुमार मौर्य, बटरोही, आराधना चतुर्वेदी 


गिरिराज किराडू की टाइमलाइनः २२ अप्रैल 2013  

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: अवसरवाद के विरोध को रजा फाउन्डेशन का विरोध बना दिया गया. अति-वाम अभियानात्मकता से शुरू करने वाले जल्द ही अपना स्वर और रुख बदल लेते हैं तो लगता है उनके लिए सब कुछ करियर है :वाम भी करियर, गैर-वाम भी करियर (एडवर्ड सईद ने किसी को उद्धृत किया है: ईस्ट इज अ करियर). अशोक वाजपेयी का विरोध भी एक तथाकथित वाम विरासत है और उनके साथ रहना भी. भारत भवन के बहिष्कार से लेकर उनके साथ संवाद करने वालों को लांछित करने को हिंदी का कॉमन सेन्स बनाने की कोशिश करने वाले ही जाने यह सब. हम तो अशोक जी और उनके फाउन्डेशन का समर्थन करने के लिए भी विरोध झेल चुके हैं और अब तथाकथित विरोध करने के लिए भी. जिस चीज़ का विरोध कर रहे हैं वह है अवसरवादिता और करियरिज्म. और रही बात सी. आइ. ए. को मानव कल्याणकारी मानने की तो एक वरिष्ठ हिंदी कवि के इतिहासबोध पर दुःख ही व्यक्त किया जा सकता है.

बहस

बोधिसत्व: हम पर तो अशोक जी का पक्षधर होने का आरोप सतत लगता रहा है. लेकिन उनके जैसा सक्रिय हिंदी वाला कौन है. और वाम के लोग उनके यहाँ सबसे अधिक आम खाते रहे हैं. एक पूरा इतिहास है. जाने दीजिए. लोगों के पास लंबी सी जबान है. चलाते रहेंगे.

हरेप्रकाश उपाध्याय:  मार्क्स ने कहा था कि वाम साहित्यकार आम जरूर खाएं...आम खाने से अच्छी कविता बनती है. आम खाकर कविता लिखने से कर्मकांड और प्रगतिशीलता दोनों का पुण्य प्राप्त होता है. फेलोशिप आदि तो मिल ही जाती हैं, एकता कपूर का प्यार भी मिलता है...अब क्या करेंगे कि आम के बगीचे सब अशोक  वाजपेयी के एकाधिकार में हैं...एकाधिकारवाद मुर्दाबाद कहेंगे आप और जो आम खा रहे हैं, हो सकता है आम खाने के बाद कभी आपके साथ भी यही नारे लगाने आ जाएं और सफाई में बस इतना कहें कि यार आम बहुत खट्टे थे, पता नहीं किस कार्बाइड से पकाया था...

मोहन श्रोत्रिय : "और रही बात सी. आइ. ए. को मानव कल्याणकारी मानने की तो एक वरिष्ठ हिंदी कवि के इतिहासबोध पर दुःख ही व्यक्त किया जा सकता है."

(इस बिंदु पर मूल इंटरव्यू की मांग की गयी, और उसे गिरिराज किराडू ने स्कैन  रूप में अपने यहाँ पोस्ट किया, जिस पर आगे की बहस है. पाठक वह स्कैन यहाँ क्लिक करके डाउनलोड कर सकते हैं) 

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 22 अप्रैल 2013 

मूल पोस्ट: कमलेश के साक्षात्कार का स्कैन: ओम थानवी के सौजन्य से

ओम थानवी : मैं समझता हूं सीआइए और केजीबी दोनों की कारगुजारियों से ऐसी-ऐसी जानकारियां और किताबें समाज में वितरित हुई हैं कि समाज दोनों के प्रति ऋणी हो सकता है; वरना हम एक ही दुष्प्रचार के शिकार होकर रह जाते।


आशुतोष कुमार : कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सी आइ ए के ऋणी हैं , अच्छा होता कि पिछली सदियों में , एशिया -अफ्रीका से ले कर - लातीनी अमरीका में -- दुनिया भर में-- लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने , नेताओं और लेखकों को खरीदने , उनकी हत्या कराने , से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां /जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते . सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है . सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है . सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती . उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं , जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूत थी . वो चाहे जहां से मिले , जैसी मिले . वे जो यों तो किसी विचार के 'पश्चिमी' होने मात्र से आशंकित हो जाते हैं , और भारत पर उस का प्रभाव पड़ते देख पीड़ित , लेकिन हर उस पश्चिमी लेखक के मुरीद हो जाते हैं , जो कम्युनिस्ट विरोधी हो . इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं , बल्कि कम्युनिस्ट -विरोध के कारण है . उन्हें अपनी कृतज्ञता जाहिर करने से कौन रोक सकता है , लेकिन उसे '' मानवजाति की कृतज्ञता '' के रूप में स्थापित करने की कोशिश पाखंडपूर्ण तो है ही , हास्यास्पद भी है .


ओम थानवी : Ashutosh Kumar, रसूल हमज़ातोव ने आलोचना करने वालों को 'मेरा दाग़िस्तान' में उत्तम सलाह दी है कि जो लिखा गया है उसकी बात करो, जो नहीं लिखा गया है उसकी नहीं। रामायण लिखने वाले से पूछेंगे कि महाभारत क्यों नहीं लिखा और महाभारत वाले से रामायण का गिला करेंगे! कोई बात हुई? खैर, मुझे भरोसा है हमज़ातोव की सलाह आपको नहीं जंचेगी।

आशुतोष कुमार : Om Thanvi, जी , हमजातोव की सलाह तो नेक और कीमती है , लेकिन काश ये फर्क रामायण- महाभारत जैसा होता ! यहाँ तो ये है कि कोई रावण की उसकी शिव -भक्ति के लिए डूब कर इतनी सराहना करे कि उनके दूसरे कथित अपराधों की तरफ सुनने वालों का ध्यान ही न जाये ! 'कथित' इसलिए कि कह रहा हूँ कि इस बात को उदाहरण के रूप में ही लिया जाए . रावण के बारे में मेरा मूल्यांकन न समझा जाए .-:)


आशुतोष कुमार : ..और सुनने वाला यह भी भूल जाए कि शिव भक्ति के पीछे रावण का इरादा असल में था क्या . मुझे नहीं लगता कि यह सब छोड़ कर रावण की शिव भक्ति को भी ठीक ठीक समझा जा सकता है ..


ओम थानवी ---- Ashutosh Kumar, वही समझिए जो समझना चाहते हैं।
अशोक कुमार पांडेय : देखने को सती प्रथा में भी पत्नी का अगाध प्रेम और समर्पण, परंपरा का अप्रश्नेय निर्वाह देखा जा सकता है, बल्कि देखा गया है. नज़र की ज़रुरत को बार-बार यों ही रेखांकित नहीं किया गया है. पंक्तियों के बीच का लिखा पढ़ना अखबारों में चाहे गैरज़रूरी हो, साहित्य में एक बेहद ज़रूरी चीज़ है.

साक्षात्कार पढ़ कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि सी आई ए के प्रति यह श्रद्धा सिर्फ और सिर्फ कम्युनिज्म विरोध के चलते छलक रही है, और इस श्रद्धा में अमेरिका और सी आई ए के नरसंहारों, तख्तापलटो की ज़रुरत किसे थी? मजेदार बात यह है कि इसे ढंकने के लिए कमलेश की कविताओं का सहारा लिया जा रहा था, उनके 'अच्छे' कवि होने का, जबकि चर्चा में शुरू से आखिर तक किसी ने उनकी कविताओं का ज़िक्र भी नहीं किया, कवि रूप की बात भी नहीं की. लोकतंत्र की दुहाई सिर्फ तब दी जाती है जब कम्युनिस्टों पर निशाना साधना हो.



(इसके बाद गिरिराज किराडू ने यह स्टेट्स लगाया जो ज़ाहिर तौर पर ओम थानवी के उस आभिजात्य पर टिप्पणी थी , जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य में विचारधार की दस दस  थडियां लगाए बैठे असफल साहित्यकारों जैसी भाषा में व्यंग्य किया था )

गिरिराज किराडू की टाइमलाइनः 22 अप्रैल 2013 

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: “जो किसी सरकार के साहेब हैं या जिनके पास साधन और ताकत है जैसे कि किसी सेठ का अखबार या पत्रिका उनके आगे पीछे घूमने वालों और उनकी खूबियाँ तो जाने दीजिये मूर्खताओं की भी तारीफ़ करने वाले अगर बहुत हैं तो किम् आश्चर्यम? लेकिन याद रहे, "वे हर तरह के इस्टैब्लिशमेंट से अपने लिए जगह ले लेंगे, छीन लेंगे. क्यूंकि वह लड़का/लड़की जो आपका बैग उठा रहा है, आपके लिए शाम का इंतजाम कर रहा है, चार ऐसे 'फैन' साथ जुटा रहा है जो आपको इतनी बार सर सर करेंगे कि आप थोडा और स्थापित हो जायेंगे, जो आपको स्टेशन तक छोड़ के आएगा और आपके सब तरह के संस्मरणों पर भी खूब प्रभावित हो रहा है ऐसा दिखायेगा वह यकीन मानिए आपका उतना सम्मान नहीं करता जितना वह दिखा रहा है -- आप उससे बच के रहिये वह आपकी जगह ही खा जायेगा." 
(संवैधानिक चेतावनीः हिन्दी साहित्य थड़ियों का जनपद है शोरूम वाले, मॉल वाले और उनके कृपाकांक्षी बच के) 


बहस



Prakash K Ray:  Why it is so that the most of the discourses in Hindi is centered around targeting individuals, calling names, giving fatwas, tagging them with adjectives?

Giriraj Kiradoo: I must say you must be exposed more to know what 'most' of the 'discourse' is like. Facebook banters and battles are not all that happens in Hindi.

Ashok Kumar Pandey:  दुष्यंत का शेर सुनिए प्रकाश भाई:
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

Giriraj Kiradoo: And it's a battle like anywhere else: are we going to let the powerful rule the literary space just as we have allowed everything else to be ruled by politicians, bureaucrats, capitalist and their staff?

Prakash K Ray: Giriraj Ji, yes, I share your views, but the bitterness at such a level can be fatal. The arrival of parallel publishers, sharing of thoughts, small events (certainly not Lit Fests) etc. are great steps in asserting the space. Regarding your earlier point, I concede that I may not be aware of Most of the debates, but let me tell you I assert that Hindi writers and journalists complaint too much, and mostly it is against individuals. I consider the activities on social media a serious sample in this regard.
Ashok Bhai, I am reminded of a quote from Cioran that goes like this: Criticism is a misconception: we must read not to understand others but to understand ourselves.

Giriraj Kiradoo: Trust me, Prakashji, there is no bitterness. We are doing what we have been doing. And my friends from English tell me the English circles are perhaps worse.
Read this piece by Akshay Pathak.

Ashok Kumar Pandey:  Prakash K Ray: An English quote is not necessarily better than a Hindi one! I just don't agree with Cioran (by the way, rightist of every language, creed and nation speak similar things in similar tone) and shall always like to call a spade a spade. its not about tagging a label, its dare to tell the truth, when most of the others prefer silence.

गिरिराज किराडू की टाइम लाइनः 27 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: मंगलेशजी फेसबुक पर हैं लेकिन उतने सक्रिय नहीं रहते है. कमलेशजी वाले स्टेटस पर उन्होंने देर से, कल, रोमन हिंदी में जो लिखा उसका देवनागरी रूपः 

"कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था उत्तर छायावादी रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया. एक भाषाई सवर्णात्मकता जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महाविचारक, इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता. हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित ब्राह्मणवादी जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली.

पोलिश कवि मिलोष के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम
'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेजीडेन्स आन अर्थ' - रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं. तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर." 

बहस

शिरीष कुमार मौर्य: समास के बाद से ही उनकी कविता से परिचित होने के बावजूद मैं भी पूछना चाहता हूं कि यं कमलेश कौन हैं.... या शायद होते कौन हैं ... किस देशकाल में रहते हैं ..... हमारे देश, हमारी राजनीति, हमारे समाज के बारे में इतना अनर्गल मैंने कभी कुछ नहीं पढ़ा..... हमारे पहाड़ में ऐसे लोगों से कहते हैं ऐल हिटौ....

अशोक कुमार पांडेय : ने भी पढ़ा यहाँ-वहाँ ढूंढ के. और कतई यह अफ़सोस नहीं हुआ की कभी गौर से नहीं पढ़ा था उन्हें. कितने 'वेल रेड' हैं यह तो भगवान् सिंह वाली किताब पर उनकी बहस के दौरान जवाब देने में विफलता से उपजी मिमियाहट से ही पता चल गया था. लगता है आजकल 'एंटी' 'वेल' का पर्याय हो गया है.

शिरीष कुमार मौर्य: अशोक वाजपेयी से वैचारिक मतभिन्‍नता हर पीढ़ी के कवियों को रही है....हमारी भी है, खूब है पर उनके लिए एक सम्‍मान भी है....वे एक प्रतिपक्ष हैं, हमारी जिरह उन तक पहुंचती है....हम उन्‍हें प्रश्‍नांकित करते रह सकते हैं....वे भी 'हिरना समझबूझ बन चरना' को हमेशा ध्‍यान में रखते हैं, गरिमा में बने रहते हैं......पर कमलेश प्रसंग में ही मैं पूछना ये भी चाहता हूं कि ये उदयन वाजपेयी कौन हैं....



अशोक कुमार पांडेय: इसीलिए मैं उन्हें "सम्माननीय प्रतिपक्ष" कहता हूँ. सम्मान करता हूँ.



शिरीष कुमार मौर्य: कमलेश का जिक्र चला तो पिपरिया वासी एक घोर लोहियावादी....लोहिया-साहित्‍य-विद् से पुष्टि की....तुम किस नदी के हो....यह वाक्‍य लोहिया का है....वे अकसर लोगों से पूछ बैठते थे....जैसे मुक्तिबोध पालिटिक्‍स पूछते थे....अब पालिटिक्‍स पीछे छूट गई....नदी आगे आ गई....वैसे मैं क्‍या कहूं.... मैं तो उत्‍तराखंड में एक छोटे पहाड़ी झरने का हूं, जो मौसम के हिसाब से जीता मरता रहता है....मंगलेश जी इस बारे में बेहतर जानते हैं..... कोई रेगिस्‍तान का है....कोई समुद्र का है....क्‍या फर्क पड़ता है..... अशोक कुमार पांडेय  के शब्‍दों में ही कहूं तो हमारे लिए लोहिया भी सम्‍माननीय प्रतिपक्ष ही थे, जिनकी संताने बाद में फासिस्‍टों की गोद में खेलती पलती बढ़ती रहीं हैं.... अब कोई समझाए कि हम समझाएं क्‍या...

गिरिराज किराडू: क्या प्यारे भूल गये उदयन वाजपेयी हिन्दी के 'अप्रतिम कवि' हैं और वह भी 'निराला की परंपरा' के! ये दोनों बयान 'कब' 'किसने' दिये थे यह शोध करने पर और भी रौशन होगी यह बहस. कोई भी भविष्यवक्ता हो जाय सहज सम्भाव्य है को समझने के लिये यह शोध आप भी कर डालिये,Avinash Mishra. (२) वे कुछ को Well-read मानते हैं और कुछ को सिर्फ़ Red वाला चुटकुला चला दिया जाये, अशोक कुमार पांडेय ?

अशोक कुमार पांडेय: भैये. सीधी बात है कि अब वाम होना मलाई खाने के लिए मुफीद कलाबाजी नहीं रह गयी. जब थी तो तमाम लोग जीभ लपलपाते इधर चले आये थे, संगठन वगैरह बना लिया था, कुछ नहीं तो चुप मार के बैठ गए थे. अब 'रहिमन विपदा हूँ भली' के दिन आये हैं तो कोशिशें ज़ारी रहें कि अच्छे दिन फिर आयेंगे. वैसे जब भी आयेंगे, हें-हें करते यही प्रसाद की लाइन में फिर सबसे आगे होंगे.

वीरेन्द्र यादव: इन दिनों जब हिन्दी के एक कवि-बुद्धिजीवी सी आई ए और अमेरिका की सेवाओं के प्रति समूची मानव जाति को ऋणी करार दे रहे हैं तब न्यूयार्क टाईम्स के पत्रकार Mark Mazzetti का यह कहना ध्यान देने योग्य है कि : "The CIA is no longer a traditional espionage service, devoted to stealing the secrets of foreign governments. The CIA has become a killing machine, an organization consumed with man-hunting ".मार्क मज़ेटी ने अपने यह निष्कर्ष अपनी नयी पुस्तक "The way of the knife" में व्यक्त किये हैं . सचमुच यह स्तब्द्ध्कारी है की जब समूची मानवता सी आई ए की मनुष्यविरोधी भूमिका पर क्रुद्ध है तब हिन्दी का एक कवि -बुद्धिजीवी समूची मानव जाति को सी आई ए का ऋणी बता रहा है . सी आई ए और अमेरिका के प्रति इस कवि की प्रतिबद्धता सचमुच अद्वितीय है .मुक्तिबोध ने सही ही यह सवाल पूछा था कि " पार्टनर ,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ?"

(वीरेन्द्र यादव की इस टिप्पणी को अशोक कुमार पांडेय  कुमार पाण्डेय ने स्टेटस बनाया और उस पर चली बहस इसी क्रम में)

अशोक कुमार पांडेय  की टाइम लाइनः  30 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट: अशोक कुमार पांडेय : वीरेंद्र यादव की उपरोक्त टिप्पणी

बहस

शिरीष कुमार मौर्य: क्‍यों उन्‍हे बार-बार कवि'बुद्धिजीवी कहा जा रहा है........ मानवजाति को सी आई ए का ऋ़णी बताने वाला मेरे लेखे न कवि हो सकता है, न बुद्धिजीवी....बल्कि ऐसी धारणा रखते हुए वह तो मनुष्‍य भी नहीं हो सकता....खुफिया ऐजेंसिया चाहे जहां की हों अपने कृत्‍यों में मनूष्‍यता से गिरती हैं, उनमें साहित्‍य की भलाई के स्‍त्रोत खोजना विक्षिप्‍तता की निशानी है.....मुझे अपने कठोर शब्‍दों के लिए खेद है पर मामला हत्‍यारी संस्‍थाओं का हो तो ये शब्‍द जरूरी हो जाते हैं.

गिरिराज किराडू: हम सोचते थे सी आई ए को मानव कल्याणकारी मानने की ट्रेनिंग सी आई ए में ही मिलती है. एक जमाने में कुछ हिन्दी लेखकों पर सी आई ए से संबंध का जो आरोप लगता था उसे कमलेशजी के इस बयान के बाद नया बल मिला है.

वीरेन्द्र यादव: यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कमलेश उन जार्ज फर्नांडीज के सचिव थे जिनके बारे में विकीलीक्स ने पिछले दिनों खुलासा किया था की उन्होंने सी आई ए से आपत्काल के दौरान सरकार उखड फेंकने के लिए मदद मांगी थी .

गिरिराज किराडू (स्वतंत्र स्टेट्स में ) : न्यूयार्क टाईम्स का यह लेख कहता है पूरे संसार में खरी खरी कहने वाले लेखकों कलाकरों को शांति भंग करने वालो की तरह देखने, उन पर संदेह करने की नयी प्रवृति पनप रही है. भारत से भी हुसैन प्रसंगादि का जिक्र है. अपना हिन्दी साहित्य कहाँ पीछे, यहाँ कोई कु़छ भी करे आप बस लाईक का बटन दबाते रहिये. और चुप रहिये वर्ना वही 'माहौल ख़राब हो रहा है' यानि अपने लेखन और विचारों को एक बिकाऊ कमोडिटी में बदल देना सत्तावान के आगे पीछे घूमना उसके हर खरे खोटे के साथ होना सब ठीक बस उस पर कुछ कहना गलत, बढिया है! 

(दफ़्तर में ईमानदार कर्मचारी का मज़ाक उड़ाने वाले, यह कहने वाले कि सब चोर हैं कौन होते हैं इसका पता लगाने के लिये किसी फैलोशिप की जरूरत नहीं है, भंते)


ओम थानवी की फेसबुक टाइमलाइनः 1 मई 2013

मूल पोस्ट: ओम थानवी:  आपके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते तो आप जो सोचते हैं, वह कूड़ा है; आप कविता लिखते हैं तो वह चोरी की है; आपकी भाषा खराब है; आप अपने आपको प्रगतिशील या सेकुलर दिखाने का स्वांग करते हैं जबकि अमेरिकी एजेंट हैं; आप कलावादी हैं, जो सांप्रदायिक होता है ...
अपने से अलग मत रखने वाले के प्रति इस तरह का संकीर्ण या अतिवादी रवैया आजकल फिर देखने में आने लगा है. यह एक तरह का निपट जातिवाद है. आप मेरी जाति के नहीं इसलिए आपसे बात नहीं; आपकी बेटी मेरे घर में नहीं आएगी; अगर कोशिश की तो 'ऑनर किलिंग' होगी. साहित्य में होगा चरित्र हनन. आपकी रचना हमारी बिरादरी में नहीं पढ़ी जाएगी, न समझी जाएगी. आप अपनी रचना अपने यहाँ पढ़वाइए. हम अपनी अपने यहाँ पढ़वाएंगे ...
इस सिलसिले में कवि और समाजवादी मजदूर नेता विजयदेवनारायण साही के ये अनमोल विचार मुझे हिंदी साहित्य के जातिवादी दौर में अक्सर याद आते हैं:

"शेली महान् क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता. बाबा तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वे संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा. नीत्शे का 'जरदुस्त्र उवाच' सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान् कृतियों में से एक है. उसकी एक प्रति अपने पास रखता हूं और आपसे भी सिफारिश करता हूं."
रचना और विचार में भेद करने का कितना उदात्त और सुलझा हुआ नजरिया है.


बहस 



ओम निश्चल:  इसे कहते है: समावेशिता. इसीलिए आज कविता के मर्मज्ञ कम होते गए हैं, विचारों के आधार पर अपनी सरणि अलग कर लेने वालों की खेमेबंदियॉं जितना मजबूत हुई हैं, उतना ही साहित्‍य जनता से दूर हुआ है. आज प्रगतिशीलों में भी एका नहीं है, महत्‍वाकांक्षा ने एक एक घर में चार चूल्‍हे कर दिये हैं. हमने गत शताब्‍दी समारोहों में देखा कि अज्ञेय इस पार्टी के हैं नागार्जुन उस पार्टी के. ऐसी स्‍थिति में साही का उक्‍त मंतव्‍य ग्राह्य है. यही वजह है कि पिछले दिनों बनारस में पीडब्‍लूए के काव्‍यपाठ में जहां नरेश सक्‍सेना और अष्‍टभुजा शुक्‍ल थे, काशीनाथ सिंह भी, चौथीराम यादव भी, एक कवि प्रकट हुए ओर ओजपूर्ण शैली में कहा यहॉं श्रोता कौन है कोई नहीं, हाल में जो बीस पचीस लोग हैं वे सब कवि हैं . एक दूसरे की सुनने नहीं अपनी सुनाने आए हैं. यह विडंबना चाहे सुनने में बुरी लगी हो पर है तो यथार्थ ही. हम इस संकीर्ण घेर को तोड़ कर जब तक भॉंति भॉंति के कवियों को सरस्‍वती के आंगन की शोभा नहीं समझेंगे, अपने से अलग मत रखने वाला कवि-कथाकार-उपन्‍यासकार हमारे लिए हमेंशा त्‍याज्‍य रहेगा. 
यह अस्‍पृश्‍यता वास्‍तव में उसी सामंती सोच का शिकार है, जिसके अहेरी दलित वंचित जनता को अब तक अछूत समझते आए हैं. जब सामाजिक यथार्थ की दृष्‍टि से जला देने लायक रचना होने के बावजूद दर जरथुष्‍ट्र स्‍पोक कविता की लिहाज से संग्रहणीय हो सकती है तो मतभेद के बावजूद हमारे कवि लेखक अपने क्‍यों नहीं हो सकते. यह संकीर्णतावादी अलगाववादी रवैया है जो भारत की सामासिक संस्‍कृति के विपरीत पल्‍लवित और पुष्‍पित हुई है.

अखलाक उस्मानी: लानत भेजिए ऐसे लोगों पर. ओम थानवी को नहीं साबित करना है कि वो किसी मिट्टी के हैं. अपनी कमज़ोरियों और गुनाहों की फ़हरिस्त बनने से डरने वाले पहले ही अपने हाथ आपके कुर्ते पर पोंछकर निकल जाने के जुगाड़ में रहते हैं. सेकुलरवादियों में भी मैंने एक तरह की साम्प्रदायिकता देखी है. आप बेफ़िक्र मस्त रहिए सर. इस गर्मी के मौसम में दिमाग़ तर रखने को कोई शरबती उपाय हो तो बताइये सर. प्यास बहुत लग रही है.

गिरिराज किराडू की टाइम लाइनः 1 मई 2013

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: अपनी आलोचना करने वाले एक लेख से नाराज हो कर सालों एक सार्वजनिक संस्था का बहिष्कार करने वाले अज्ञेय से क्या सहिष्णुता, औदात्य और खुलापन सीखने पडेंगे? सप्तक में वामपंथी एक मजबूरी थी क्यूंकि 'उत्कृष्ट' लिखने वाले प्रायः वामपंथी थे. उनके प्रशंसकों का संसार कितना विस्तृत है यह इसी से स्पष्ट है कि उनका अधिकांश समय अज्ञेय सुमिरन में ही बीतता है. पर अब अज्ञेय पर सचमुच दया आने लगी है, खुद उन्हें यह ख़राब ही लगता कि एक लेखक की महानता को इतनी कोशिश करके, मरणोपरांत, लगभग रोज, एक पत्रकार को साबित करना पड़ रहा है. जिसे इतना साबित करना करवाना पड़े उसमे कोई तो लोचा होगा ना भंते!

बहस

प्रियंकर पालीवाल: पंडित ! काहे पीछे पड़े हो अज्ञेय जी के और ज्ञेय जी के. बेचारे अपने मिशन में लगे हैं . आपका क्या बिगाड़ रहे हैं . सहमत नहीं हैं तो न होइये पर कम से कम उस हनुमान-भाव का तो सम्मान करिये जो राम के लिए एकनिष्ठ है.

अशोक कुमार पांडेय: ओम थानवी जब भी बहस में नहीं टिक पाते हैं तो सहिष्णुता और लोकतंत्र सिखाने लगते हैं. आज कुलदीप कुमार का बेहद हड़बड़ी में लिखा कमलेश की किताब का एक अखबारी रिव्यू ले आये. 

यह 'सहिष्णुता' वह किसे सिखा रहे हैं? हिंदी में हमेशा से विभिन्न विचारों के लेखकों के बीच संवाद रहा है. विवाद भी रहे हैं. होने भी चाहिए. सर्वसहमति जैसी कोई शाश्वत अवधारणा केवल तानाशाही में संभव है. क्या रघुवीर सहाय, धूमिल, विजयदेव नारायण साही जैसे तमाम गैर वामपंथी कवि वामपंथी आलोचकों द्वारा सेलीब्रेट नहीं किये गए? कौन सी ऐसी साहित्यिक पत्रिका है जिसने सिर्फ वामपंथियों को छापा? इन सब के बीच बहिष्कार भी होते रहे. जब जनसत्ता ने सती प्रथा के समर्थन में छापा तो कई लेखकों ने बहिष्कार किया. कई लेखकों ने भारत भवन का बहिष्कार किया. कुलपति:ज्ञानोदय प्रकरण ज्ञानपीठ तथा हिंदी विवि का बहिष्कार किया गया. इन सबके साथ अज्ञेय द्वारा भारत भवन के बहिष्कार का तथ्य है ही. (जिसकी जड़ में शुद्ध वैयक्तिक कारण थे कि अशोक  जी ने उनकी आलोचना कर दी थी, कुछ ज्यादा ही कड़ी)

किसी भी पढ़े लिखे भिन्न विचार वाले समाज में आलोचना, बहिष्कार, बहस और खेमे बनना तय है. जब लेखक बनने को आतुर एक पत्रकार अज्ञेय पर आयोजनों की झड़ी लगाता है और उनके अलावा किसी पर एक आयोजन नहीं करता तो यह भी एक खेमे का चयन ही है, असहिष्णुता ही है. 

क्या आलोचना असहिष्णुता होती है? सी आई ए को मानवता पर उपकार करने वाला क्या वह सिर्फ किताबें उपलब्ध कराने के लिए मान रहे हैं? और यह कुख्यात गुप्तचर एजेंसी अगर बुक वेंडर का काम कर रही थी तो क्या उसके उद्देश्य नहीं थे? मानवता पर यह एहसान क्या निरपेक्ष था? अगर नहीं तो उसकी प्रसंशा जार्ज फर्नांडीज का यह पूर्व सचिव यों ही नहीं कर रहा. अगर उसका कम्युनिस्ट विरोध इस कुत्सा की हद तक है कि वह मानवता के शत्रु और हत्यारी संस्था की वंदना करे तो उसकी कठोर से कठोर आलोचना करने का हक हमें क्यों नहीं है? उसकी मानवता के प्रति इस असहिष्णुता की तुलना उस व्यक्ति के प्रति हमारी असहिष्णुता से करिए और देखिये कि कौन अधिक घातक है.
कमलेश की कविता पर हमने बात नहीं की थी. मंगलेश जी ने बात की थी और एक वरिष्ठ कवि तथा गंभीर अध्येता (Red भी और Well Read भी) होने के नाते उन्हें किसी पत्रकार या प्रोफ़ेसर के बरक्स कहीं अधिक अधिकार है कि वह किसी कवि को अपनी तरह से मूल्यांकित करें. उनसे सहमत-असहमत होना एक बात है. मैंने जितना कमलेश को पढ़ा है, मैं मंगलेश जी से पूरी तरह सहमत हूँ. अगर कोई सम्पादक सोचता है कि उसने जिसे महान बता दिया उस पर किसी और की आलोचना असहिष्णुता है, तो यह उसकी खुशफहमी है और हमें उसकी खुशफहमियां बनाए रखने की कलाबाजियां करने की कोई मजबूरी नहीं है. जिनकी है, वे गुलाटियां दिखाते रहें.

(ओम थानवी ने अपने एक स्टेट्स में , जिसका अभी इस बहस के बाद ज़िक्र होगा, अशोक कुमार पांडेय  की इस टिप्पणी को हटा लेने का आरोप लगाया. जबकि यह कभी और कहीं से नहीं हटाया गया था. इसमें एडिट भी कुछ किया गया है. क्यों और कैसे, वह थोडा रूककर)

संतोष कुमार पाण्डेय: Giriraj Kiradoo आप पाठक की हैसियत से अज्ञेय की डेस्टिनी को कैसा समझते हैं?

गिरिराज किराडू: मुझे उनका लिखा निजी रूप से तो कभी पसंद नहीं आया. अज्ञेय थोड़े पुराने पड़ चुके लेखक हैं, उनके लिखे में अब नये लोगों की दिलचस्पी बहुत मुश्किल है. अब वे एक अपठित महानता की तरफ जा रहे हैं, वैसे ही जैसे कोई स्कूली बच्चा कह देता है शेक्सपियर महान लेखक थे, बिना पढ़े वैसी ही कुछ. वैसे यह स्थिति एक मरहले के बाद के बाद बहुत सारे लेखकों की नियति है, निराला को आज तीस से कम उम्र के कितने लोग पढ़ रहे हैं अपनी प्रेरणा से कहना मुश्किल है.

वीरेन्द्र यादव: ओम थानवी दूसरों को अज्ञेय से सहिष्णुता की जिस सीख का पाठ पढ़ाना चाहते हैं .काश खुद भी उन्होंने उससे कुछ सीखा होता .अज्ञेय के 'शिविर शिष्य 'होने के नाते वे उनके व्यक्तित्व व् कृतित्व को लेकर कभी कोई तार्किक बहस नहीं करते ,उनकी मनमाफिक छवि गढ़ते हैं .इस छवि को तनिक भी धूमिल होते देख वे अपना संतुलन खो देते हैं .वामपंथ उनके लिए वैसा ही है जैसा सांड के लिए लाल कपड़ा .लेकिन दिलचस्प यह है की यदि कोई वामपंथी ज्ञात-अज्ञात कारणों से अज्ञेय के प्रति कोई सकारात्मक टिप्पड़ी कर देता है तो वह उनके लिए QUOTABLE QUOTE हो जाता है .यदि किसी को टैगोर के बाद अज्ञेय ही प्रासंगिक लगते हैं तो यह उनके लिए ब्रेकिंग न्यूज हो जता है लेकिन यदि उनको यह याद दिला दिया जाए कि एक हिन्दी पत्रिका के सर्वेक्षण कि "प्रेमचंद के बाद सबसे बड़ा लेखक कौन ?" के जवाब में यशपाल ,मुक्तिबोध ,रेणु, नागार्जुन ,परसाई आदि के नाम तो लिए गए लेकिन अज्ञेय का नाम किसी ने नहीं लिया तो उनकी बौखलाहट देखी जा सकती है .उन्हें इस बात की शिकायत है की लोग अज्ञेय को अभिजात लेखक क्यों कहते हैं ? आप उन्हें याद दिला दीजिये की अज्ञेय ने तो खुद ही लिखा था कि "मेरी तबियत रईसी है ,लेकिन यह रईसी ब्राह्मण की रईसी है , बनिया की नहीं " तो वे अपना आपा खो देंगें . इस तरह के जाने कितने मुद्दों पर मैंने उन्हें तार्किक जवाब सवाल किये . लेकिन वही हुआ जो वो कर सकते थे .अज्ञेय की उनकी मनमानी छवि खंडित न हो और दूसरों की नजरों में वे अज्ञेय के अंधभक्त न सिद्ध हो जाएँ इसलिए उन्होंने संवाद का सिलसिला समाप्त कर दिया यानि वे अन्फ्रेंड हो गए और पेज को भी ब्लाक कर लिया .जो तर्कों से इतना भयभीत हो वो सहिष्णुता का पाठ पढाये .सचमुच Devil quoting the scriptures..

ओम थानवी की फेसबुक टाइम लाइनः 1 मई 2013
जगदीश्वर चतुर्वेदी, के सच्चिदानंदन, रामजी यादव, प्रकाश के रे 


मूल पोस्ट: ओम थानवी: “कमलेशजी ने इतिहास और सभ्यता की ऊटपटांग व्याख्या करने वाले डा. भगवान सिंह की किताब 'कोशंबी' की 'जनसत्ता' में प्रशंसा की. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार ने 'द हिंदू' में कमलेश को मार्क्सवादी इतिहासकार की संकीर्ण व्याख्या के लिए कोसा. फिर 'जनसत्ता' में बहस चली. कमलेशजी ने कुलदीप कुमार के कथन को "मार्क्सवादी पैंतरेबाजी" कहा तो कुलदीपजी ने अपने जवाब में कमलेशजी के विवेचन को "ब्राह्मणवादी पैंतरेबाजी" बताया. 

कुलदीप कुमार ने गए रविवार कमलेश के नए कविता संग्रह "बसाव" की समीक्षा 'नेशनल दुनिया' में की है. उसका लिंक देता हूं. कुलदीपजी के हाथ अच्छा मौका था, लेकिन उस कटु संवाद के बावजूद उन्होंने कमलेशजी की कविता की प्रशंसा (वह जितनी भी हो) कर सम्यक दृष्टि की एक मिसाल कायम की है. एक चरम असहिष्णु दौर में. अपनी साम्यवाद-विरोधी प्रचार-सामग्री को ओट देने के लिए अमेरिका और सीआइए ने चालाकी में जो उच्च कोटि का साहित्य भी किसी जमाने में उपलब्ध करवा दिया, उसके लिए पढ़ाकू कमलेशजी ने एक लम्बे इंटरव्यू के बीच अत्यंत कृतज्ञ भाव जाहिर किया था. श्रेष्ठ रूसी साहित्य भी हमें ऐसे भी उपलब्ध हुआ था. बहरहाल, उसके बाद कमलेशजी को "कवि नहीं, बुद्धिजीवी नहीं, मनुष्य भी नहीं" प्रमाण-पत्र दे दिया गया है. मंगलेश डबराल सत्तर के दशक में साप्ताहिक प्रतिपक्ष में थे, तब कमलेश उनके संपादक थे. कमलेश-वध के उन्माद के बीच मंगलेशजी का अचानक उठ खड़े होना भले आश्चर्यजनक घटना हो, कुछ के लिए जैसे वह अतिरिक्त नैतिक बल का संचार साबित हुई है. एक मार्क्सवादी लेखक ने लिखा है कि जैसे करज़ई ने अमेरिका से पैसे लेने की बात स्वीकार की, कमलेशजी को भी स्वीकारनी चाहिए, वे किताबों का बहाना क्यों कर रहे हैं?

ऐसे माहौल में मार्क्सवादी कुलदीप कुमार की यह समीक्षा साहीजी के उस आदर्श की याद दिलाती है, जिसका हवाला मैंने कल दिया था. कुलदीपजी ने कमलेश को प्रचलित मुहावरे या फैशन से हटकर लिखने वाला "अनूठा और उत्कृष्ट" कवि बताया है. मेरी समझ में यह ईमानदारी से की गई समीक्षा है, संतुलन साधने की कवायद नहीं."


ओम थानवी की टाइम लाइन 2 मई 2013

मूल पोस्ट: ओम थानवीः कल ही मैंने लिखा था, हाल यह हो गया है कि किसी से असहमत होने पर अब उसे खराब लेखक, अमेरिकी एजेंट, कम्युनल कुछ भी कहा जा सकता है. कल ही मैंने एक अलग और अच्छे उदाहरण के बतौर मार्क्सवादी कुलदीप कुमार की लिखी समीक्षा का जिक्र भी किया था, जो उन्होंने मार्क्सवाद-विरोधी कवि कमलेश के कविता-संग्रह पर नेशनल दुनिया नामक अखबार में लिखी.

इस पर एक नए बड़बोले कथित मार्क्सवादी ने लिखा है कि अज्ञेय जो करते थे अब क्या उससे हम सहिष्णुता, उदारता और खुलापन सीखेंगे? वाह, क्या बचाव है. क्या मैंने कल कहीं अज्ञेय का जिक्र किया था? और अज्ञेय जो करते थे, उसके लिए मेरी क्या जवाबदेही बनती है? अज्ञेय मेरे गुरु थे, बस इसलिए सोच लिया गया कि उन पर हमला करें तो मुझ पर चोट गिरेगी. पर मुझे जवाब देने के लिए अज्ञेय जैसे कृती साहित्यकार पर कीचड़-उछाल? जो स्वयं सहिष्णुता और विनयशीलता के लिए प्रसिद्ध थे! (इसके लिए पढ़ें 'अपने अपने अज्ञेय' में रेणु, केदारनाथ सिंह, जानकीवल्लभ शास्त्री, रघुवीर सहाय, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजयमोहन सिंह, गंगाप्रसाद विमल, राजेश जोशी, रामशरण जोशी आदि के अज्ञेय पर लिखे संस्मरण). कहना न होगा कुछ मार्क्सवादियों के लिए अज्ञेय उस लाल कपड़े के समान हैं जिसे देखते ही सांड (हमारे बीकानेर में कहते हैं 'गोधा') बिफर उठता है!

और दूसरी प्रतिक्रिया तो और विचित्र है. ग्वालियर के एक वाचाल मार्क्सवादी कहते हैं कि कुलदीप कुमार से वह समीक्षा (पराए अखबार में!) मैंने कोई 'सौदा' कर लिखवाई है. अपनी ही बिरादरी के एक वरिष्ठ कवि और पत्रकार की लिखी एक नापसंद समीक्षा के लिए उन पर भी कीचड़-उछाल? इतना ही नहीं यह भी लिखा है कि रघुवीर सहाय, धूमिल और साही वामपंथी कवि ही नहीं थे. ये नए-नए फतवे कैसे?

लगता है आजकल के कुछ स्वयंभू मार्क्सवादी अब उनको ही वामपंथी मानते हैं जो किसी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुयायी हों. मार्क्सवाद, साम्यवाद, वामपंथ उनके लिए जैसे पर्यायवाची शब्द बन गए हैं. जबकि हम तो अब तक जातिवाद-साम्प्रदायिकता और पीड़ितों-वंचितों की फिक्र करने वाले गाँधी, मार्क्स, अम्बेडकर को ही नहीं, आचार्य नरेन्द्र देव, लोहिया, जयप्रकाश, मधु लिमये आदि को भी वामपंथी ही मानते आए थे, (इसलिए अपने आप को भी!) उनके सबके तरीके जुदा होंगे, लेकिन प्रगतिशील सरोकार तो हरगिज नहीं.

(यहाँ  पहला रिफरेन्स गिरिराज किराड़ू के लिये का और दूसरा अशोक कुमार पांडेय के लिए है. ज़ाहिर है ऐसी चीजों का जवाब कोई क्यों दे? लेकिन इसी बीच उन्होंने आरोप लगाया कि अशोक कुमार पांडेय ने वह कमेन्ट हटा लिया है. इसका जवाब दिया गया)

बहस

कुलदीप कुमारः इस बहस में यह मेरी अंतिम टिप्पणी है. श्री गिरिराज किराडू और श्री अशोक कुमार पाण्डेय की जानकारी के लिए लिख रहा हूँ. साप्ताहिक पत्र 'प्रतिपक्ष' में, जिसके प्रधान संपादक जॉर्ज फर्नांडीस और संपादक कमलेश थे और जिसके संपादकीय विभाग में गिरधर राठी और मंगलेश डबराल थे, कुछ उपन्यासों और संभवतः कुछ कविता संग्रहों की मेरी लिखी समीक्षाएं वर्ष 1973-1975 में प्रकाशित हुई थीं. इसी दौर में सव्यसाची द्वारा संपादित 'उत्तररार्ध' (और बाद में नए नाम से निकली 'उत्तरगाथा') में मेरी कविताएं भी प्रकाशित हुईं. 1976 में नामवर सिंह द्वारा संपादित पत्रिका 'आलोचना' में मेरी कविताएं छपी थीं. उसके बाद 'पहल' के समकालीन कविता विशेषांक, 'साक्षात्कार', 'वाम', 'नवभारत टाइम्स' और 'जनसत्ता' में भी कविताएं प्रकाशित हुईं. फिर भी मैं मानने को तैयार हूँ कि श्री किराडू और श्री पाण्डेय जैसी साहित्यिक समझ मेरी नहीं है और मैंने कविता पर लिखकर अनधिकार चेष्टा की है. नैतिकता के मामले में भी मैं तो खाई में गिरा पड़ा हूँ जबकि वे नैतिकता के माउंट एवरेस्ट पर हैं. खैर, जब उन्हें 'सौदे' का पता ही है, तो सबको यह तो बता दें कि इसकी शर्तें क्या थीं और मुझे क्या हासिल होने वाला है? बहरहाल, मैं अब इस बहस में वापस नहीं आऊँगा. जिसको जो कहना हो कहे, जो मानना हो माने. सभी बंधुओं को नमस्कार.

गिरिराज किराडूः कुलदीपजीः मैंने ना तो 'सौदेबाजी' कहा है ना आपकी समझ पर कोई संदेह व्यक्त किया है। हमारे मित्र अशोक ने एक जगह किया है। उसी रेफरेंस में बहस की पारदर्शिता के लिये आपसे गुजारिश की थी। आपने जवाब दिया इसके लिये आपका बेहद शुक्रिया। आप समीक्षा के क्षेत्र में 38 बरस बाद लौटे हैं, आपका स्वागत है। कविताओं के लिंक के लिये जगदीशजी का शु्क्रिया। आपने कमलेशजी से जो प्रेरक बहस की है इस समीक्षा से ठीक पहले, उसके बाद आपके रचनाकार पक्ष से परिचित होना बहुत अच्छा लगेगा।

अशोक कुमार पांडेय: स्वतन्त्र स्टेट्स

दिल्ली के एक मरणासन्न अखबार के सम्पादक इन दिनों बहुत बेचैन हैं. बेचैनी में जाने क्या-क्या बक रहे हैं. कह गए धूमिल, रघुवीर सहाय आदि को वह वामपंथी मानते हैं! उनका क्या है वह तो खुद को भी 'वामपंथी' मानते हैं! 
यह वामपंथ न तो किसी पार्टी का ग़ुलाम है, न किसी अखबार का. यह कोई सडक किनारे का मंदिर भी नहीं है. कबीर कहते थे न ..खाला का घर नाहीं ..तो जनाब वामपंथी होने का अर्थ है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर विश्वास. अगर हिंदी का इतिहास नहीं जानते तो उसका सार्वजनिक हास्यास्पद प्रदर्शन करने से कौन रोक सकता है? हमारा इतिहास वैचारिक विरोधियों के बीच तीखे मगर सहिष्णु संघर्ष और बहस का रहा है. जिसमें रघुवीर सहाय या धूमिल जैसे घोषित लोहियावादी समाजवादी भी रहे हैं और भैरव प्रसाद गुप्त, रामविलास शर्मा जैसे घोषित वामपंथी भी. 
और हम पर तो आप स्टालिन के भी दोष मढना चाहते हैं, खुद अपने "गुरु" की जिम्मेवारी लेने से भी ऐसी पतली गली ढूँढने की कोशिश! 

और लिखे हुए को हटाना मेरी फितरत नहीं है. जो जहां था वहीँ हैआप न देख पायें तो खता आपकी है हुज़ूर. (इसी से मिलता जुलता कमेन्ट भी ओम थानवी के स्टेट्स पर किया गया)

बटरोहीः ओम थानवी जी, कुलदीप कुमार जी और जगदीश्वर चतुर्वेदी जी! मैंने यह बहस आधे से शुरू की थी, इसलिए सन्दर्भ नहीं पकड़ पाया था. अभी पूरी बहस को एक घंटा खर्च करके नए सिरे से पढ़ा. पूरी बहस को पढने के बाद जितने विनीत, जनतांत्रिक और तर्कपूर्ण अशोक कुमार पाण्डेय और गिरिराज किराडू की बातें लगीं, आप लोगों की नहीं. पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं व्यक्तिगत रूप से न अशोक पाण्डेय को जानता, न गिरिराज को. विचार और लेखन की बातें शेयर करने के लिए यह जरूरी भी नहीं मानता. थानवी जी को पढ़ते हुए सातवें दशक के धर्मवीर भारती याद आये, जिनके साथ उनके विचारों से विरोधी लेखक का मिल पाना असम्भव था. जगदीश्वर जी का एक सूत्री कार्यक्रम था, अपने मित्र कुलदीप कुमार का कवच बनना. वैचारिक बहस में इस बात से किसी को क्या मतलब है कि फलां मेरा जूनियर था या बढ़िया भाषण देता था. और कुलदीप जी तो सिर्फ अपना स्पष्टीकरण ही देते रह गए. सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि बहस के अंत में मानो थानवी जी द्वारा दूध पीने के लिए भेजे गए दो-तीन लठैत अशोक और गिरिराज को ढूंढते हुए अखाड़े में वापस आए मगर यह देखकर निराश हो गए कि वहां समझौता हो गया था. फिर भी वे रणक्षेत्र के कोने में भुनभुना ही रहे हैं.

कुलदीप कुमारः एक बात और....'द हिन्दू' में विगत 1 मार्च से मेरा एक पाक्षिक कॉलम शुरू हुआ है 'हिंदीबेल्ट'। पहले कॉलम में ही मैंने कमलेश की कविताओं की तारीफ की है। जिसे इच्छा हो, पढ़ सकता है। डी डी कोसंबी पर भगवान सिंह की किताब की कमलेश द्वारा की गई समीक्षा 10 मार्च को जनसत्ता में छपी। इस पर 'द हिन्दू' में अपने अगले कॉलम में, जो 15 मार्च को छपा, मैंने कमलेश की समीक्षा और कोसंबी संबंधी विचारों की तीखी आलोचना की। कमलेश से विवाद शुरू होने से काफी पहले, 1 मार्च को अपने 'द हिन्दू' के कॉलम में मैं कमलेश की कविता की तारीफ कर चुका था। वह कौन सा बैलेंस साधने के लिए थी? तब तो मेरा उनसे विवाद शुरू भी नहीं हुआ था।

नोट : कुलदीप कुमार जिस कालम की बात कर रहे हैं, वह यहाँ  पढ़ा जा सकता है.

[दरअसल, अशोक कुमार पांडेय ने मूल पोस्ट पर यह आरोप लगाया था कि कुलदीप कुमार की कमलेश की किताब पर लिखी समीक्षा (जो उनके द्वारा किसी कविता संकलन की अडतीस साल बाद लिखी पहली समीक्षा है) मैनेज की हुई है. इस पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने कहा – “अशोक कुमार पांडेय जी, आप समझदार वामपंथी हैं,आप वाम विचारधारा के पक्ष में लगातार लिखते रहे हैं,हम सब आपके लेखन की कद्र करते हैं. कुछ बातें हैं जो कुलदीप कुमार के संदर्भ में जो जाननी जरूरी हैं. वे मेरे वरिष्ठ रहे हैं जेएनयू में और सालों उन्होंने एसएफआई के सदस्य के तौरपर काम किया है. साहित्य के वे बेहतरीन विद्यार्थी रहे हैं और उनकी साहित्यिकमेधा का लोहा छात्रजीवन में नामवर सिंह भी मानते थे.यह ठीक है उन्होंने साहित्य समीक्षाएं कम लिखी हैं.लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.वे आज भी साहित्य के सवालों पर आपस में जब भी बोलते हैं तो निर्भीकभाव से बोलते हैं. मेरी जानकारी में वे अकेले पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारिता की लेखकीय पेशेवर निष्ठा को अपने माकपा के साथ कमिटमेंट के सामने भी झुकने नहीं दिया और किसी भी किस्म के दबाब को नहीं माना. संडे ऑब्जर्वर,टेलीग्राफ,हिन्दू,इकोनॉमिक टाइम्स,जनसत्ता,अमरउजाला आदि तमाम दैनिकों में विगत तीन दशक सेलिख रहे हैं. निजीतौर पर हमारे मित्र हैं,हम साथ पढ़ें और करीब से उनको जानते हैं. इस प्रसंग में किसी भी किस्म का सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए. और यह कि “अशोक कुमार पांडेय जी, आपने कमलेशजी की सही जगह आलोचना की है. लेकिन कुलदीप के बारे में मूल्य निर्णय करना सही नहीं है. मैं स्वयं ओम थानवी की अनेक मर्तबा आलोचना कर चुका हूँ. मैं ओम थानवी की साहित्य संबंधी आलोचना को गौण मानता हूँ. वे बुनियादी तौर पर पत्रकार हैं और उसी रूप में उनको देखता हूँ.उनकी भाषा उत्तेजित करने वाली होती है .“ इस पर उनकी सलाह मानते हुए मैंने वह आरोप वापस ले लिया, अब आगे]

गिरिराज किराडू : अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है ओम थानवी हिंदी में स्वतन्त्र आवाजों के 'वध' में लगे हैं. हर ताकतवर की तरह वे अपनी या अपने आराध्यों की हर आलोचना को 'प्रतिष्ठा' (ऑनर) का प्रश्न बना लेते हैं इसलिए उन्हें वह आलोचना ऑनर-किलिंग लगती है. वे ऑनर किलिंग जैसा संवेदनशील पद इस्तेमाल करने से इसलिए नहीं चूकते क्यूंकि उन्हें इसकी जटिल हिंसक सामाजिकी से कोई मतलब नहीं (आखिर सती समर्थक अखबार में जो हैं). बस हिसाब बराबर हो जाए किसी तरह. उनसे ज़्यादा असहिष्णु कौन होगा जो अपनी आलोचना को 'ऑनर किलिंग' कहे.

(गिरिराज किराड़ू ने इसे स्वतन्त्र स्टेट्स - गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 3 मई 2013  भी बनाया, उस पर आयी टिप्पणियाँ संगति के लिये यहीं शामिल)

ओम थानवी : मैंने अपनी आलोचना को 'ऑनर किलिंग' कहा है? वाह! जो चाहें अर्थ निकालें, आपका विवेक है. मैंने पूरे हिंदी साहित्य जगत में होने वाले चरित्र हनन को 'ऑनर किलिंग' से जोड़ा है. उसकी हिंदी में लम्बी 'परंपरा' है. मैं तो साहित्यकार हूँ भी नहीं; पर साहित्य चरित्र हत्या आपको क्या कम 'संवेदनशील' मामला लगता है?
शायद न लगता हो. तभी तो एक पत्रिका के संपादक होकर भी आप किसी समीक्षक को भ्रष्ट (सौदे में लिखने वाला) बताने की तरफदारी ही नहीं कर रहे, उससे उसकी लिखने की योग्यता के प्रमाण मांग रहे हैं. अगर किसी ने पहले कोई समीक्षा न भी लिखी हो तो इसका क्या यह मतलब निकालेंगे कि पहली समीक्षा अनिवार्यतः "सौदेबाजी" में लिखी गई है? सौदेबाजी जैसे संगीन लांछन का प्रमाण पहले आप लोग क्यों नहीं देते? मामला समीक्षा की गुणवत्ता का नहीं था, उन पर (साथ में मुझ पर भी) लगाए गए आरोप का था. पाण्डेयजी मुझे कहते हैं उनका सौदेबाजी वाला कमेन्ट अपनी जगह पर मौजूद है, इसलिए मैं माफी मांग लूँ! क्या सीनाजोरी है! हम माफी मांग लें और आप किसी वरिष्ठ कवि और समीक्षक:पत्रकार और संपादक को एक अदद समीक्षा के भ्रष्टाचार में लिप्त बता कर इतराते रहें. 
और मैं अकिंचन अब वध करने वाला भी. यानी हत्यारा. वध तो बड़ा संवेदनशील शब्द होता होगा जो आपको प्रिय हुआ?


गिरिराज किराडू : इस बहस में 'ऑनर किलिंग' जैसा पद लाने का गैर-जिम्मेवार काम उन्हीं का है जिनकी वाल पर हम बात कर रहे हैं. मैं उन्हें उद्धृत करता हूँ : "आपके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते तो आप जो सोचते हैं, वह कूड़ा है; आप कविता लिखते हैं तो वह चोरी की है; आपकी भाषा खराब है; आप अपने आपको प्रगतिशील या सेकुलर दिखाने का स्वांग करते हैं जबकि अमेरिकी एजेंट हैं; आप कलावादी हैं, जो सांप्रदायिक होता है...

अपने से अलग मत रखने वाले के प्रति इस तरह का संकीर्ण या अतिवादी रवैया आजकल फिर देखने में आने लगा है. यह एक तरह का निपट जातिवाद है. आप मेरी जाति के नहीं इसलिए आपसे बात नहीं; आपकी बेटी मेरे घर में नहीं आएगी; अगर कोशिश की तो 'ऑनर किलिंग' होगी. साहित्य में होगा चरित्र हनन. आपकी रचना हमारी बिरादरी में नहीं पढ़ी जाएगी, न समझी जाएगी. आप अपनी रचना अपने यहाँ पढ़वाइए. हम अपनी अपने यहाँ पढ़वाएंगे .." मेरी बात में इसी स्टेटस का संदर्भ है. और पूरी बहस का संदर्भ यह है कि श्री कमलेश जो वरिष्ठ हिन्दी लेखक हैं उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि पूरी मानवता को अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी आई ए का कर्जदार होना चाहिये. ओमजी से बहस इतनी है कि यह मानने वाले और इसके साथ इतिहास से लेकर साहित्य में दक्षिणपंथी, ब्राहम्णवादी रूझान रखने वाले लेखक को 'महान या उत्कृष्ट कवि' मानना हमें ठीक नहीं लगता जो ओमजी को लगता है.

ओम थानवी : मुझे हैरानी है कि विजयमोहन सिंह से लेकर मंगलेश डबराल तक लम्बी और अन्तरंग दोस्ती निभाने वाले कुलदीपजी, जो कल ही भगवान सिंह की किताब पर कोशम्बी के हक़ में कमलेशजी से मोर्चा लिए बैठे थे और मार्क्सवादी समुदाय की प्रशंसा पा रहे थे, अचानक दो कथित मार्क्सवादी युवक उन्हें कमलेश की कविता पर कुछ अच्छा (सारा नहीं) लिखने के लिए अचानक सौदेबाज अर्थात भ्रष्ट बता रहे हैं और ललकार रहे हैं कि बताओ आपकी दूसरी समीक्षा कहाँ है; हमें बताओ, यहीं बताओ और फिर हमसे अपनी रिहाई का प्रमाण-पत्र ले जाओ. साहित्य की दुनिया में कैसे-कैसे लोग सामने आने लगे हैं. हम भाषा की संवेदनशीलता की बात करें तो फतवा देते हैं कि ये भाषा के दरोगा हैं, सम्यक आलोचना का पक्ष लें तो सौदेबाज और षड्यंत्रकारी, साहित्यकारों की चरित्र-हत्या की बात करें तो हमीं हत्यारे. इन्हीं को क्यों इतना कष्ट हो रहा है, यह समझ नहीं पड़ता. क्या सारे मार्क्सवाद का बोझ इन्हीं के सिर पर आ पड़ा है?

जगदीश्वर चतुर्वेदी: गिरिराज जी, हम मन से आपको पढ़ते हैं और अशोक कुमार पांडेय  को भी.पसंद भी करते हैं,लेकिन इस पूरे प्रसंग में आप जान लें कि मैं ओम थानवी जी की बेहद तीखी आलोचना करता रहा हूँ और उनके बाण भी झेलता रहा हूँ,इसके बावजूद मैं उनके साथ कभी आरोप की भाषा में नहीं बोलता, हम यह भी जानते हैं कि कमलेशजी इन दिनों भगवान की उपासना में मगन हैं, लेकिन जब किसी कृति पर बातें हो तो कृति पर ही केन्द्रित हों तो बेहतर होता है. कुलदीप ने अपने तरीके से यह काम किया है. हिन्दी आलोचना की मुश्किल यह है कि वहां कृति पर बातें कम और कृति से इतर चीजों पर बातें ज्यादा होती हैं.


अशोक कुमार पांडेय: Jagadishwar Chaturvedi : आदरणीय साथी, यह बताइये कि कमलेश जी के इस कथन से आप सहमत हैं कि "मानवता को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए"?



सारा मामला यह है कि "हमने कमलेश जी नामक कवि के इस कथन की आलोचना की कि "मानवता को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए". इस पर जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी जी ने कमलेश जी को महान कवि बताते हुए लम्बी बहस की और कहा कि सी आई ए ने किताबें उपलब्ध कराईं इसलिए ऋणी होना चाहिए. फिर मंगलेश जी ने कमलेश जी की कविताओं की आलोचना की तो ओम जी ने हम सबको असहिष्णु वगैरह कहते हुए साही जी को कोट किया. मैंने लिखा कि हिंदी में वाम-गैर वाम के बीच हमेशा से संवाद रहा है. इसी क्रम में उदाहरण दिया कि धूमिल या सहाय बाबू वामपंथी नहीं थे, लेकिन उन्हें वामपंथी आलोचकों ने भरपूर सेलीब्रेट किया. तो अब वह यह वितंडा फैला रहे हैं कि हम 'धूमिल, सहाय जी आदि को वामपंथी न होने का फतवा दे रहे हैं."

जगदीश्वर चतुर्वेदी: अशोक कुमार पांडेय जी, आपने कमलेशजी की सही जगह आलोचना की है. लेकिन कुलदीप के बारे में मूल्य निर्णय करना सही नहीं है. मैं स्वयं ओम थानवी की अनेक मर्तबा आलोचना कर चुका हूँ. मैं ओम थानवी की साहित्य संबंधी आलोचना को गौण मानता हूँ. वे बुनियादी तौर पर पत्रकार हैं और उसी रूप में उनको देखता हूँ.उनकी भाषा उत्तेजित करने वाली होती है .

अशोक कुमार पांडेय: वामपंथ के मसले पर एक सवाल :

यह थानवी जी ने ही कहा है गिरिराज किराडू के एक स्टेट्स पर 

अगर अज्ञेय एंटी-लेफ्ट होते तो चार सप्तकों में सब नॉन-लेफ्ट कवि न भरे होते? दिनमान आदि में प्रगति-पसंद लेखक क्यों जगह पाते?

यानी सप्तकों कुछ 'लेफ्ट' थे कुछ 'नान लेफ्ट'. इसका आधार क्या है? क्या यहाँ जो नान लेफ्ट हैं वे 'राइटिस्ट' हैं? क्या ठीक उसी आधार पर हम रघुवीर सहाय आदि को "नान लेफ्ट", सोशलिस्ट कह रहे हैं ..लेकिन अपनी तानाशाही से उन्होंने बना दिया फार्मूला की जिसे हम लेफ्ट नहीं मानते उसे राईट मानते हैं!

और बकौल Ramji Yadav (कमलेश संबंधी विवाद शुरू करने वाली पोस्ट पर उनका कमेन्ट)

बड़े आश्चर्य की बात है वामपंथ को बुरा-भला कहनेवाले भी अपने जेनुइन कामों को वामपंथी ही समझते हैं . सेकुलरिज़्म ऐसा ही हथियार है . यह आसानी से अपने को सुर्खरू बनाने के काम आ जाता है . लेकिन वामपंथ से भी चमकदार सेकुलरिज़्म कांग्रेस का रहा है . वह दशकों से इसी की सत्ता पाती रही है . क्या इस नाते कांग्रेस को वामपंथ माना जा सकता है ?

मोहन श्रोत्रिय : पिछले दिनों उनके द्वारा शुरू की गई तमाम बहसों में विमति के अस्वीकार का ही नहीं, बल्कि उसके तिरस्कार का स्वर भारी से और अधिक भारी होता चला गया है. मामला चाहे वीरेंद्र यादव का हो या आशुतोष कुमार का, यह वृत्ति एक परिघटना का रूप धारण करती जा रही है. प्रचंड के स्वागत-संबंधी दोनों स्टेटसों में उकसाने-भडकाने की ध्वनियाँ साफ़ थीं. मार्क्सवादियों का उल्लेख जिस तरह होने लगा है, वह स्वस्थ बहस के लिहाज़ से इतना नकारात्मक है कि कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता. जिन्हें उन्होंने अपना विरोधी मान लिया है, उनपर वह जो व्यंग्य करते हैं, वह तत्वतः खुन्नस से उपजा बयान होता है. असहिष्णुता बरत कर सहिष्णुता कैसे पैदा की जा सकती है? फ़ेसबुक को यदि सद्भाव को बढ़ाने वाले मंच के रूप में विकसित करने में हम सहयोग नहीं कर सकते, तो उसे तोड़ने का माध्यम क्यों बनाएं? कोई मन की सी बात करे तो कहा जाए कि "उन्हें समझ आ गई है", अपने आप में बहुत कुछ कह देता है. साहित्य के मसले संख्या-बल से तय नहीं होते, मेरी अल्प समझ तो यह है.



आराधना चतुर्वेदी : मैंने पूरी बहस पढ़ी थी. एक-एक टिप्पणी भी. मुझे लगता है कि बात बहुत सीधे-साधे तरीके से एक रचनाकार के 'राजनीतिक स्टैंड' से शुरू हुयी थी. उनकी रचनाधर्मिता पर बहस बिल्कुल नहीं थी. अगर ये समझा जाता है कि किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मिता उसके राजनीतिक स्टैंड से बिल्कुल अलग होती है, तो आप ज़रूर कह सकते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि अमुक कवि का राजनीतिक स्टैंड क्या है, उसकी कविताएँ तो अच्छी होती हैं. 

जिस कवि के राजनीतिक विचारों की आलोचना से बहस शुरू हुयी थी, उनकी रचनाओं को मैंने नहीं पढ़ा और न कविता की इतनी अधिक समझ मुझमें है, लेकिन उनके राजनीतिक विचारों से यह बिल्कुल स्पष्ट हो रहा था कि उन्होंने सी.आई.ए. के पक्ष में एकतरफा बयान जारी किया था और वामपंथ को सिर्फ इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि सोवियत संघ में वामपंथ विरोधियों पर कठोर अत्याचार हुए थे. उनका कहना था कि वामपंथ ने अपने विरोधी अनेक साहित्यकारों की रचनाओं को बाहर नहीं आने दिया, जिसे शीतयुद्ध काल में बाहर लाकर सी.आई.ए. ने मानवता का बड़ा उपकार किया.

प्रश्न यही है कि क्या वास्तव में सी.आई.ए. ने ऐसा कोई महान कार्य किया और मान लीजिए कि कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को वह सामने लाई, तो क्या बिना किसी स्वार्थ के. सभी लोग सी.आई.ए. के खूनी इतिहास को जानते हैं. और वही क्यों, कोई भी जासूसी की संस्था नैतिक आधारों पर नहीं चलती. उसके लिए "राष्ट्रहित" सर्वोपरि होता है. बातें भले बड़ी-बड़ी करते हों, लेकिन उनका मानवता से कुछ लेना-देना नहीं होता.

बात यहीं से शुरू हुयी थी कि ये माना गया कि कवि महोदय ने किस आधार पर सी.आई.ए. को मानवता के लिए महान कार्य करने वाला घोषित कर दिया? क्या इस आधार पर उनकी आलोचना करना किसी भी तरह की दादागिरी है? क्या ये उन कवि महोदय की साहित्यिक हत्या है? सहिष्णुता का क्या ये मतलब है कि वैचारिक मतभेद हों ही न? 
माना कि ये ज़रूरी नहीं कि कवि को किसी राजनीतिज्ञ की भांति किसी एक विचारधारा का समर्थक होना ही चाहिए, लेकिन क्या रचनाकर्म का सरोकारों से सच में कोई मतलब नहीं

अशोक कुमार पांडेय : मज़ेदार बात यह है कि जब कोई मार्क्सवादी आलोचना करता है तो वह "आनर किलिंग" हो जाती है ...और जब कोई मार्क्सवादी प्रकारांतर से भी कुछ अनुकूल कह देता है तो उसे दस जगह आप्त वचन की तरह चिपकाया जाता है!

वीरेन्द्र यादव : Ashok Kumar Pandey आप ठीक कह रहे हैं .पिछले दिनों इन्ही "शिविर शिष्य "संपादक को फेसबुक की मेरी एक टिप्पणी इतनी भा गयी की उन्होंने अपने अखबार में प्रकाशित अपने एक लेख में उससे सहमति जताई और बोल्ड टाईप में हाईलाईट किया क्योंकि उसमें मैंने कुछ ऐसा आत्मालोचनात्मक भाव अपनाया था जिसका इस्तेमाल वे अपने पक्ष में कर सकते थे. बाद में वही मैं इतना गर्हित की संवाद का सिलसिला ही समाप्त हो गया ...

सतीश चन्द्र सत्यार्थी : ये वाद-पंथ वगैरह का तो नहीं पता पर अभी कुछ दिन पहले मैंने भाषा से जुडी एक बहस में भाषाविज्ञान के विद्यार्थी के नाते बड़े शालीन शब्दों में अपनी असहमति रखी.. और आदरणीय थानवी जी ने पांच मिनट के अन्दर न सिर्फ मेरी टिप्पणी को डिलीट कर दिया बल्कि मुझे ब्लॉक ही कर दिया  इतने विद्वान लोग भी ऐसी असहिष्णुता दिखाएँगे तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद की जायेगी..

अशोक कुमार पांडेय: यह सहिष्णुता बेहद सीमित दायरे में है. अगर आप वामपंथी हैं और अज्ञेय स्तुति के यग्य में समिधा देते हैं,तो आप सहिष्णु. अगर आप आलोचना करते हैं, तो असहिष्णु!

वीरेन्द्र यादव : इतना ही नहीं यदि आप उनके द्वारा झाड़ पोछकर बनाई गयी अज्ञेय की मनमाफिक मूरत को अज्ञेय के ही कथन -उद्धरण से प्रश्नांकित करते हैं तो भी आप असहिष्णु .सच तो यह है कि अज्ञेय को स्वयं भी अपने "शिविर शिष्य "द्वारा कल्पित इस "वाम सहिष्णु " छवि पर खीज ही होती क्योंकि वाम और धर्मनिपेक्षता जैसे मूल्यों और विचारों के प्रति उनकी अपनी सुनिश्चित सोच और शंका थी .

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन  2 मई 2013

कुलदीप कुमार, ओम निश्चल, सत्यानन्द निरुपम, संतोष कुमार पाण्डेय 


गिरिराज किराडूः मूल पोस्टः लाखों लोगों की हत्याओं का समर्थन करना अगर महान या उत्कृष्ट लेखक समझ लिये जाने को बाधित नहीं करता तो तैयार रहिये एक नये लेखक का 'मूल्यांकन' करने के लिये. यह जनसंहारों का सिर्फ समर्थन नहीं करता, इस पर जनसंहार करने का आरोप है. कल गुजरात यूनिवर्सिटी के पुस्तक मेले में नरेंद्र मोदी की गुजराती कविताएँ रिलीज हुई हैं. तीन और किताबें रिलीज हुई हैं (कुल मिलाकर दसेक किताबें गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी में) जो 'विद्वानों' ने सम्पादित की है और उनमें डॉ डी एम भादरेसरिया द्वारा सम्पादित 'वार्तासर्जक नरेंद्र मोदी' भी शामिल है. पुस्तकें, अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है खूब बिकीं, बिकेंगी. आयोजन स्थल पर स्टार लेखक के कटआऊट पाये गये थे.
बहस

मोहन श्रोत्रिय : हत्यारा कवि बन जाएगा, और लोग यह कहकर उसे बड़ा कवि घोषित कर देंगे कि एक बुरा आदमी भी बड़ा कवि तो हो ही सकता है. यह नई कसौटियों को लोकप्रिय बनाने का काल है.



ओम थानवी : Mohan Shrotriya मोदी फूटी कौड़ी के कवि नहीं. लेकिन एज़रा पाउंड हत्यारों के समर्थक कवि थे और ज्यां जेने संगीन अपराधी, मगर (पुरानी कसौटियों में भी) दोनों की लेखकीय प्रतिष्ठा में उनके अपराध आड़े नहीं आए. मार्क्सवादी ज्यां पॉल सार्त्र ने तो जेने की रिहाई के लिए मुहिम चलाई, जेने पर किताब (जीवनी) लिखी और उसका नाम रखा -- 'संत जेने'. सो साहित्य की उदात्त कसौटियां अपनी जगह रहेंगी और गुनहगारों के गुनाह अपनी जगह. मोदी कविता में क्या खाकर जगह पाएंगे जो अपने पर कई किताबें लिखवाकर वाजपेयी भी नहीं हथिया सके.

गिरिराज किराडू : एक फासिस्ट को महत्वपूर्ण लेखक कौन और कैसे मानता है, मनवाता है इसे समझे बिना, एजरा पाउंड को एक बड़ा लेखक न मानने की लम्बी अकादमिक और वैचारिक परंपरा को समझे बिना (पाउंड के फासिज्म पर अब तक लगातार अध्ययन हो रहे है और उनके जितना पहले समझा जाता था उससे कहीं ज्यादा संगीन फासिस्ट और रेसिस्ट - एंटी-सेमेटिक, यहूदी-विद्वेषी - होने के प्रमाण सामने आये हैं, उनकी बेटी अभी दो साल पहले यह लड़ाई लड़ रही थी कि पाउंड के नाम से ही एक नवफासीवादी समूह ने अपना नाम रख लिया है) एक नजीर की तरह उनके मामले को उद्धृत करना जानकारी व अध्य्यन की कमी के साथ समझ का भी कुछ पता देता है. ज्यां जने जिनके अपराधों में चोरी, बदलचलनी, हेराफेरी के साथ साथ समलैंगिकता भी शामिल थी को सार्त्र द्वारा कैननाईज (दोनों अर्थों में) करने का मामला पाउंड के मामले से अलग है और दोनों को मिलाना एक गैर-डायलेक्टिकल समझ का ही प्रमाण है . जेल से छुड़ा लिये जाने के बाद जने कभी अपराध की तरफ नहीं गये. डाकू से लेखक बनना स्वीकार्य है अपने यहाँ भी. और पत्रकार से लेखक बनना भी.

मोहन श्रोत्रिय : भारत मे एज़रा पाउंड के समर्थकों की संख्या खुद उनके गढ़ की तुलना में कहीं ज़्यादा है, पर किस वर्ग में? ये वही लोग हैं जो रचना और विचार में फांक के पक्षधर हैं. यहां तो इलियट को भी बीसवीं सदी का सबसे बड़ा कवि मानने वालों की कमी नहीं है. यह अलग बात है कि खुद इलियट के समकालीन बड़े आलोचक उन्हें "major poet among minor poets" कहने में भी कोई संकोच नहीं बरतते थे. उन्नीस सौ तीस के दशक के इंग्लैंड के बौद्धिक-रचनात्मक माहौल पर व्यवस्थित दृष्टिपात जिन्होंने किया है, वे बेहतर जानते हैं. उस पर नज़र डाल लेंगे तो फ़तवेबाज़ी से बचना बेहतर लगने लगेगा. Om Thanvi

ओम थानवी: @Mohan Shrotriya: हमारा फतवा फतवा आपका दास कैपिटल!

मंगलेश डबराल – हिंदी में आलोचना एक लगभग असंभव शब्द है, हालांकि आलोचक बहुतेरे हैं.कमलेश जी के बारे में ऐसा कहा जा रहा है जैसे यही उनका एकमात्र और अनन्तिम संग्रह हो.सवाल यह है कि क्या एक कवि के विकास को देखा जाय या नहीं. एक कवि के जीवन को उसके सबसे नयें संग्रह में विसर्जित कर दिया जाय? हिन्दी में स्मृति-क्षरण एक भयानक दुर्घटना है, जिससे हर कोई आँख या कलम चुरा रहा है. मैंने कमलेश जी के बारे में इसी नज़रिए से कुछ कहा था. एक समय सम्मोहक कविता लिखने वाले कवि अगर इतनी ख़राब कविता- जिसके संकेत कुलदीप ने दिए भी है, कुछ डरते हुए ही सही- लिखने लगे तो क्या यह कहना किसी के वध में शामिल होना है...और आज तो हर कोई वाम है, दक्षिणपंथी भी खुद को वाम कहता है. यह ऐसा ही समय है. so, back to ideology.

मंगलेश डबराल – इन तमाम तथाकथित आलोचकों-समीक्षकों को यह समझना चाहिए कि वे सिर्फ जनसंपर्क का काम कर रहे हैं और हिंदी के एक अनिर्मित बाज़ार की सेवा में उपस्थित हैं. कविता अपने को सबसे बचा लेगी, अगर उसमें कोई सच्चाई हुई तो, वरना वह भी इस स्मृति विहीनता के व्यापक रोग का शिकार हो जायेगी. वह चर्चा में भले ही रहे, स्मृति में नहीं रहेगी.

मंगलेश डबराल – हिंदी में जो तथाकथित आलोचकों का जो आतंक है, या साहित्य को कंट्रोल करने की जो क्षुद्र महात्वाकांक्षा दिखती है, वे भारत और विश्व की किसी और भाषा में नहीं है. हम कवि लोग विश्व की भाषाओं के साथ हैं.

मोहन श्रोत्रिय : मैंने आपसे आग्रह किया कि देखें दुनिया भर में आज, और उनके समकालीनों के बीच एज़रा पाउंड का क्या मूल्यांकन रहा है. आप नहीं देखना चाहते, न देखें. ऐसा तो नहीं ही हो सकता कि वस्तु जगत से कोई वास्ता न रखते हुए जो मूल्यांकन आप प्रस्तुत करें, उसे सारी दुनिया वैध मान ले. जिन चीज़ों का कहीं उल्लेख नहीं होता, वे बहुत नागवार लग जाती हैं आपको, जैसे यहां दास केपिटल का उल्लेख. "फतवे" के अलावा जो कुछ भी कहा है मैंने अपनी टीप में, उस पर ध्यान देने से बात बढ़ सकती थी. पर वैसा होना नहीं था. Om Thanvi

ओम थानवी : एज़रा पाउंड ने मुसोलिनी के फासीवाद का खुला समर्थन किया था, हिटलर के भी समर्थक थे. ये तथ्य तो अपनी जगह ऐसे ही रहेंगे. फिर भी उनकी कविता अच्छी मानी जाती है. मेरा निवेदन बस इतना सर.

मंगलेश डबराल: एजरा पाउंड ने करीब ७० वर्ष पहले मुसोलिनी के रेडिओ से प्रसारण किये थे. क्या हम इतिहास के अँधेरे से कुछ नहीं सीख पाए, जो आज मानवता के शत्रुओं के “ऋणी’ हो रहे हैं ? पाउंड के कुकृत्य के कारण भी परिचित हैं - एक, अर्थशास्त्री डगलस के विचारों का प्रभाव जो सूदखोरी और वित्तीय पूँजी को अपराध की जड़ मानता था. पाउंड बैंक्स के विरोधी थे और मानते थे कि इंग्लैण्ड की डेमोक्रेसी बैंक और सूदखोरी पर प्रभुत्व रखने वाले ज्यूज के हाथ में है. लेकिन क्या हम भूल जाते हैं कि पाउंड के 'anti-antisemitism' का कितना तीखा, उग्र विरोध हुआ, पाउंड खुद पागल होकर जेल, हास्पीटल में वर्षों तक रहे और अंत में भयानक पश्चाताप में गले. उनके कुछ जाने-माने वाक्य हैं --'i was stupid, suburban anti-semaiic,.. i spoiled everything i touched.. i've always blundered..i was not a lunatic, but a moron." इस विलाप को देखते हुए पाउंड के काम को आज के किसी वक्तव्य को उचित ठहराने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? जब पाउंड जैसी प्रतिभा की निंदा हुई तो कमलेश जी की थोड़ी सी आलोचना उनका वध करार दी जायेगी? किस तर्क से?we have let people like modi and others to make a room for their hatred and monstrous presence in the society, without any checks.

मंगलेश डबराल : history repeats itself. first time as a tragedy, second time as a farce(marx). .we live in second time.!

K. Satchidanandan: Hitler was a painter too. Brecht used to call him 'the house painter'.Several Gujarati writers are vocal or silent supporters of Modi. Immediately after the genocide, I went there with Mahaswetadevi. We asked the writers to resist. The response was one of fear or collusion. Some were busy writing poems for eternity. What a shame!

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 4 मई 2013

गिरिराज किराडूः मूल पोस्टः और भी गहरे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है ओम थानवी अपने स्टैंड की आलोचना करने वाले अपने से आधी उम्र के लोगों का चरित्र हनन कर रहे हैं, उन्हें हत्यारे और ऑनर किलर बता रहे हैं. और जिनके चरित्र का वे बचाव कर रहे हैं उनके और इन युवा लोगों के चरित्र का साधारण परीक्षोपयोगी तुलनात्मक अध्ययन भी कर लेते तो पत्रकार महोदय इस शर्मनाक प्रकरण से बच जाते. मेरे पास वेतनभोगी सहायक नहीं फेसबुक पर आत्मप्रचार और दूसरों का चरित्र हनन करने के लिए, छुट्टी लेकर बेटे की तीमारदारी कर रहा हूँ. पर आप के जैसे लोगों से हिंदी का चरित्र हम बचा के रहेंगे. 
(आक्यूपाई हिंदी पट्टी, जोर से लगे यह नारा भंते)

सत्यानंद निरुपमः कभी-कभी किसी रचनाकार के कुकृत्यों पर उसकी किसी रचना का सुविचार भारी जरुर पड़ जाता है, लेकिन यह सामान्य बात नहीं है. बड़ी रचना बड़े जीवन और व्यापक जीवन-दृष्टि से ही संभव मानी गई है. वाल्मीकि ने रामायण लिख दिया, इसलिए लोग यह नहीं कहते कि वाल्मीकि मुनि ने कभी कोई चोरी नहीं की, बल्कि यही कहा जाता है कि पहले वे चोर थे, फिर मुनि और कवि बने. कमलेश जी के कवि-व्यक्तित्व की आलोचना उनकी कविता के आधार पर ही हो, यह मांग वाजिब है, लेकिन वो मानवता को सीआईए का ऋणी होने के लिए कहें और कोई उनकी इस बात के लिए आलोचना न करे, यह मांग ज्यादती है.

(इस बिंदुके बाद ओम थानवी समूचे प्रसंग को कमलेश, कुलदीप कुमार और स्वयं का ‘चरित्र हनन’ करने का प्रयास बताते रहे जिसमें बौद्धिक बहस के लिये कोई गुंजाईश नहीं थे. अब भी जगह-जगह इस तरह का शोर मचाते हुए, जिसका मूल उद्देश्य सी आई ए और रचना तथा जीवन के बीच के अंतर्संबंध के सवाल पर धूल-गर्द डालना ही था. ऐसी निजी छींटाकशी वाली किसी बहस से हमारा कोई लेना-देना नहीं)



---------------------------------------

पूरी बहस की पी डी ऍफ़ यहाँ से डाउनलोड की जा सकती है.

15 टिप्‍पणियां:

  1. इब्ने इन्शा की कुछ रचनाओं का संपादन पद्मा सचदेव ने किया है- 'दरवाजा खुला रखना' शीर्षक से. इसमें सी आई ए की कारस्तानियों का खुलासा किया है इंशा जी ने. एक अंश देखिये.

    "बेऐब ज़ात तो खुदा की है, लेकिन अफसानातराजी कोई हमारे मगरबी मुसन्निफों से सीखे. चीन के मुतल्लिक अकेले अमरीका में इतनी किताबें छप चुकी हैं कि ऊपर-तले रखें तो पहाड़ बन जाए. लेकिन अक्सर उनमें से वासिंगटन और न्यू यार्क में बैठ कर लिखी गयी हैं. वहाँ ऐसे रिसर्च के अदारे हैं, ज्यादातर सी.आई.ऐ. के ख्वाने-नेमत से खोशा चीनी करनेवाले जो आपकी तरफ से वाहिद मुतकल्लिम में चश्मदीद हालात लिखकर देने को तैयार हैं. आप फकत इस पर अपना नाम दे दीजिए. बाज़ पब्लिशिंग हाउस (मसलन प्रायगर) तो चलते ही सी.आई.ए. के पैसे से हैं. मशहूर रिसाला एनकाउण्टर भी इन्हीं इदारों से सांठ-गाँठ रखता है. कीमत इसकी ढाई-तीन रूपए है लेकिन कराची के बुकस्टालों पर एक रुपए में मिल जाता है. मालूम हुआ कि पाकिस्तान में इल्म का नूर फ़ैलाने के लिए इसकी कीमत खास तौर पर रखी गयी है. हम चाहते हैं कि चीजें सस्ती हों लेकिन ऐसा भी नहीं कि कलकलाँ अफीम सस्ती हो जाए तो खाना शुरू कर दें और जहर की कीमत चौथाई रह जाए तो मौका से फायदा उठाकर ख़ुदकुशी कर लें. आठ-आठ दस-दस आने की किताबों का सैलाब भी आया और बराबर आ रहा है. जिनको स्टूडेंट एडिशन का नाम दिया जाता है. प्रोपेगंडे की किताबों में चंद किताबें बेजरर किस्म की भी डाल दी जाती हैं कि देखिये हमारा मकसद तो फकत इसाअते तालीम है."

    जवाब देंहटाएं
  2. Commendable effort.plz note that anerror has occured in presenting my comments.parts of my comments r attributed to om thanvi .while another part is ommited.

    जवाब देंहटाएं
  3. हमन से सम्बंधित टुकड़ा यों है -

    Om Thanvi---- मैं समझता हूं सीआइए और केजीबी दोनों की कारगुजारियों से ऐसी-ऐसी जानकारियां और किताबें समाज में वितरित हुई हैं कि समाज दोनों के प्रति ऋणी हो सकता है; वरना हम एक ही दुष्प्रचार के शिकार होकर रह जाते।
    See Translation
    April 22 at 12:48pm · Like · 1

    Ashutosh Kumar---- कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सी आइ ए के ऋणी हैं , अच्छा होता कि पिछली सदियों में , एशिया -अफ्रीका से ले कर - लातीनी अमरीका में -- दुनिया भर में-- लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने , नेताओं और लेखकों को खरीदने , उनकी हत्या कराने , से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां /जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते . सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है . सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है . सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती . उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं , जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूत थी . वो चाहे जहां से मिले , जैसी मिले . वे जो यों तो किसी विचार के 'पश्चिमी' होने मात्र से आशंकित हो जाते हैं , और भारत पर उस का प्रभाव पड़ते देख पीड़ित , लेकिन हर उस पश्चिमी लेखक के मुरीद हो जाते हैं , जो कम्युनिस्ट विरोधी हो . इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं , बल्कि कम्युनिस्ट -विरोध के कारण है . उन्हें अपनी कृतज्ञता जाहिर करने से कौन रोक सकता है , लेकिन उसे '' मानवजाति की कृतज्ञता '' के रूप में स्थापित करने की कोशिश पाखंडपूर्ण तो है ही , हास्यास्पद भी है .
    April 23 at 6:40am · Like · 6

    Om Thanvi--- Ashutosh Kumar, रसूल हमज़ातोव ने आलोचना करने वालों को 'मेरा दाग़िस्तान' में उत्तम सलाह दी है कि जो लिखा गया है उसकी बात करो, जो नहीं लिखा गया है उसकी नहीं। रामायण लिखने वाले से पूछेंगे कि महाभारत क्यों नहीं लिखा और महाभारत वाले से रामायण का गिला करेंगे! कोई बात हुई? खैर, मुझे भरोसा है हमज़ातोव की सलाह आपको नहीं जंचेगी।
    See Translation
    April 23 at 8:07am · Like

    Ashutosh Kumar---- Om Thanvi, जी , हमजातोव की सलाह तो नेक और कीमती है , लेकिन काश ये फर्क रामायण- महाभारत जैसा होता ! यहाँ तो ये है कि कोई रावण की उसकी शिव -भक्ति के लिए डूब कर इतनी सराहना करे कि उनके दूसरे कथित अपराधों की तरफ सुनने वालों का ध्यान ही न जाये ! 'कथित' इसलिए कि कह रहा हूँ कि इस बात को उदाहरण के रूप में ही लिया जाए . रावण के बारे में मेरा मूल्यांकन न समझा जाए .-:)
    April 23 at 9:45am · Like · 1

    Ashutosh Kumar ----...और सुनने वाला यह भी भूल जाए कि शिव भक्ति के पीछे रावण का इरादा असल में था क्या . मुझे नहीं लगता कि यह सब छोड़ कर रावण की शिव भक्ति को भी ठीक ठीक समझा जा सकता है ..
    April 23 at 9:48am · Like · 2

    Om Thanvi---- Ashutosh Kumar, वही समझिए जो समझना चाहते हैं।
    See Translation
    April 23 at 10:13am · Like

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यथेष्ट परिवर्तन कर दिया गया है आशुतोष भाई

      हटाएं
  4. जनपक्ष के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए | इस मह्त्वपूर्ण बहस को आपने इतनी संजीदगी से एकत्रित किया | बधाई मित्र ...

    जवाब देंहटाएं
  5. नए लोगों को पक्ष चुनने में इस बोरिंग बहस से आसानी (ढमुश्किल)होगी. कोई अंधा और अविवेकशील ही ओम थानवी और उनकी बातों को न समझने की भूल कर सकता है.

    जवाब देंहटाएं
  6. कमलेश जी की बातों से असहमति होना अलग बात है उनके प्रसंग में अशोक जी पर बेहूदा लांछन और ओम थानवी जी के मार्फ़त अज्ञेय
    पर प्रहार करना तंग नज़रिये का है मामला है , ओम निश्चल जी सही कह रहे , अशोक जी की नेक मंशा और सक्रियता जैसा दूसरा उदाहरण तो बताइये जनाब

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बताइए कहाँ अशोक वाजपेई पर हमला है? और सक्रियता से ही सब तय होगा क्या?

      हटाएं
  7. फेसबुक से अनुपस्थित होने का खामियाजा इस बहस से अनभिज्ञ रह कर और शिरकत करने का मौका गंवा कर चुकाना पड़ा. वरना साहित्य-समाज के इन अवसरवादियों और यथास्थितिवादियों को एक धकका मेरा भी होतां. साहित्य और समाज को उन बूढ़े और घाघ गिद्धों से बचाने का हमारा संघर्ष जारी रहेगा।

    जवाब देंहटाएं
  8. फेसबुक से अनुपस्थित होने का खामियाजा इस बहस से अनभिज्ञ रह कर और शिरकत करने का मौका गंवा कर चुकाना पड़ा. वरना साहित्य-समाज के इन अवसरवादियों और यथास्थितिवादियों को एक धकका मेरा भी होतां. साहित्य और समाज को उन बूढ़े और घाघ गिद्धों से बचाने का हमारा संघर्ष जारी रहेगा।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत अच्छा प्रयास है आपका. इसी विषय पर एक अच्छा लेख http://kritisansar.noblogs.org/ पर है. एक बार जरूर देखे.
    राधा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत मानीखेज लिखा है आपने. लेख शेयर किया है. धन्यवाद

      हटाएं
  10. मैंने पूरी बहस पढ़ी? सोया नही सुबह के पाँच बजने वाले हैं। खैर!
    पहली बात तो यह कि कमलेश जी को यह अधिकार किसने दिया कि वह पूरी मानवता की ओर से सीआईए के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करें।
    दूसरी बात यह कि ॐ थानवी जी की पूरी बहस भटकाऊ रही है। मूल राजनीतिक प्रश्न को वे 'साहित्यिक कलावाद'मे उलझाते हुये नज़र आते हैं (गोकि मैं कला और राजनीति के सम्बन्धों को भूल नहीं रहा हूँ।)
    तीसरी और अंतिम बात कबीर के हवाले से है कि, 'सुवरन कलश सुरा भरा साधू निंदा सोय।'

    जवाब देंहटाएं
  11. मैंने पूरी बहस पढ़ी? सोया नही सुबह के पाँच बजने वाले हैं। खैर!
    पहली बात तो यह कि कमलेश जी को यह अधिकार किसने दिया कि वह पूरी मानवता की ओर से सीआईए के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करें।
    दूसरी बात यह कि ॐ थानवी जी की पूरी बहस भटकाऊ रही है। मूल राजनीतिक प्रश्न को वे 'साहित्यिक कलावाद'मे उलझाते हुये नज़र आते हैं (गोकि मैं कला और राजनीति के सम्बन्धों को भूल नहीं रहा हूँ।)
    तीसरी और अंतिम बात कबीर के हवाले से है कि, 'सुवरन कलश सुरा भरा साधू निंदा सोय।'

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…