मंगलवार, 11 जून 2013

मुद्दा विचारधारा विरोध है - वीरेन्द्र यादव


फेसबुक पर सी आई की भूमिका को लेकर जो बहस चली थी उसे आप जनपक्ष पर पढ़ चुके हैं. सी आई ए के ऋणी कवि कमलेश के उत्कट समर्थक और इन दिनों वाम विरोधी तथा सी आई ए द्वारा कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम की 'विचाधाराहीनता' वाले मूल्यों के सबसे वाचाल और उत्कट समर्थक जनसत्ता संपादक ओम थानवी इस बहस को नितांत एकपक्षीय तरीके से अपने अखबार में ले गए थे और तर्कों पर बात करने की जगह उन्होंने निजी आरोप लगाने, कीचड़ उछालने तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कुत्सा प्रचार वाली जानी मानी राह चुनी. गोएबल की तरह शायद उन्हें भी भरोसा है कि वह लगातार झूठ बोलकर उसे विश्वसनीय बना सकते हैं. कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के साम्राज्यवादी तथा षड्यंत्रकारी रवैये से उनकी कितनी समानता है यह इस तथ्य से जानी जा सकती है कि उन्हें अपने इस भयावह मिथ्या कथन का प्रतिवाद छापने का भी साहस नहीं ठीक वैसे जैसे सी सी ऍफ़ की पत्रिका ने अपने ही एक पूर्व सम्पादक माइक डोनाल्ड का लेख सिर्फ़ इसलिए छापने से इनकार कर दिया था कि वह अमेरिका के रवैये पर सवाल उठाता था. मेरे भेजे गए प्रतिवाद को उन्होंने 'चार सौ शब्दों' में भेजने को ही नहीं कहा बल्कि उसके 'सम्पादन' का अधिकार भी जताया. वह यह भूल गए कि जिस बहस में वह खुद प्रतिपक्ष हैं उसमें उन्हें सम्पादन का अधिकार कैसे हो सकता है और जिस झूठ को उन्होंने तीन चौथाई पन्ने में पसारा है उसका प्रतिवाद चार सौ शब्दों में कैसे हो सकता है? 

जाने-माने आलोचक वीरेन्द्र यादव के ११०० शब्दों के प्रतिवाद को उन्हें दो-चार लाइनों का बना कर 'सम्पादक के नाम पत्र (चौपाल) में छापा. हम उनके इस कुत्सा प्रचार की गोएबेलियन नीति, अखबार को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जागीर की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति और प्रतिवाद न छापने की भयावह अलोकतांत्रिक पद्धति की कठोर आलोचना करते हैं. पाठकों तक दूसरा पक्ष पहुंचाने के लिए हम वीरेन्द्र जी का प्रतिवाद यहाँ दे रहे हैं.

----------------------------------------------------------------
 मुद्दा विचारधारा विरोध है                          

                 

यह वास्तव में दिलचस्प है कि जब न सोवियत संघ रहा और न शीतयुद्ध की बहसें तब 'साहित्य में फिर सी
आई ए ' की गढ़ंत की जा रही है .जाहिर है इस गढ़ंत में तथ्यों और तर्कों का क्या औचित्य ! वामपंथ विरोध के इस 'महायज्ञ' में मेरी आहुति देते हुए ओम थानवी जी ने स्वयं को मिले एक पुरस्कार का उल्लेख करते हुए लिखा  है कि ,"..कुछ कट्टर मार्क्सवादियों को मेरा चयन खल गया .इनमें एक वीरेन्द्र यादव कार्यक्रम में तो नहीं बोले, पर घर लौटकर फेसबुक पर शमशेर सम्मान के संस्थापक प्रतापराव कदम को उन्होंने इस तरह कोसा "..क्या कोई साझा मंच साम्प्रदायिकों और सी आई ए के समर्थकों का भी बनाना चाहिए ?" अब इस 'सादगी ' पर कौन न मर जाय या खुदा ! सच यह है कि १२ मई को लखनऊ में आयोजित शमशेर सम्मान के इस आयोजन की स्वागत समिति का मैं सदस्य था ,निमंत्रणपत्र पर मेरा नाम घोषित वक्ताओं की सूची में था .आयोजन में  मैं थानवी जी के साथ मंच पर था . मुझे कवि नरेश सक्सेना के बारे में वक्तव्य देना था उन्हें भी इस सम्मान से सम्मानित किया गया था .नरेश सक्सेना पर बोलने के पूर्व अपने वक्तव्य में मैंने मंच से सार्वजानिक रूप से ओम थानवी को सम्मान हेतु बधाई दी.समारोह के पहले भी मेरी उनसे अन्य लेखक मित्रों के साथ मुलाकात हुयी और मंच पर भी अन्य लोगों के साथ बैठे हम दोनों के बीच सहज संवाद  हुआ .लेकिन इस सब पर उन्होंने धूल डालकर यह कह दिया कि मैं वहां तो चुप रहा लेकिन 'घर लौटकर' सम्मान के संस्थापक को कोसा .अब घर तो मैं उसी दिन लौटा था लेकिन प्रताप राव कदम से ओम थानवी को सम्मान दिए जाने के बाबत उस दिन से लेकर आज तक न तो फेसबुक पर कोई चर्चा हुयी और न ही फोन पर .




                      
 ओम थानवी जी ने जिस आधे वाक्य को मेरे द्वारा स्वयं को'कोसने' के लिए उधृत किया है वह  समारोह के १३ दिन बाद २५ मार्च की फेसबुक की  उस बहस का हिस्सा है जिसका प्रसंग मनसे के पदाधिकारी की संस्था में अशोक वाजपेयी के काव्यपाठ से सम्बद्ध है .हुआ यह कि जब कुछ लोगों द्वारा साम्प्रदायिक लोगों के मंच से अशोक वाजपेयी के काव्यपाठ को प्रश्नांकित किया गया तो प्रताप राव कदम ने साझा मंच पर 'अपनी बात ' कहने की दलील दी थी. इस पर मेरी टिप्पणी थी कि ,".साझा मंचों पर अक्सर शालीनता की दरकार होती है जैसा की आपके मंच पर लखनऊ में मैंने स्वयं महसूस किया .था. जरा सोचिये कि जब आप अपने मंच पर ओम थानवी का सम्मान कर रहे थे और जब वे मंच से अपने पिता जी का हवाला देकर स्वयं को वाम मित्र बता रहे थे और जब हमारे मित्र रमेश दीक्षित थानवी जी की जनतांत्रिकता की पताका लहरा रहे थे ,तब यदि मैं उसी मंच का सहभागी होने के कारण 'अपनी बात ' कहते हुए उनकी जनतांत्रिकता की धज्जियां उड़ा देता ,तो क्या होता आपके कार्यक्रम का ? मैं यह कर सकता था क्योंकि वे वहां सोसल मीडिया पर अपनी आलोचना की चर्चा कर रहे थे .और उसके पहले ही अज्ञेय पर बहस के चलते मुझे ब्लाक कर चुके थे .इसलिए यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए की साझा मंचों की अपनी सीमाएं हैं .फिर क्या कोई साझा मंच सम्प्रदयिकों और सी आई ए के समर्थकों से भी बनाना चाहिए ?" यहाँ ओम थानवी की चर्चा उनके  उन  'जनतांत्रिक '  दावों को लेकर थी जो उन्होंने उस आयोजन में किये थे ,वह भी  इस कारण कि इसके पूर्व  अज्ञेय पर हुयी बहस के कारण वे मुझे फेसबुक पर ब्लाक कर चुके थे  . यहाँ साम्प्रदायिक से तात्पर्य मनसे के कार्यकर्ता से था और ओम थानवी का सम्मान प्रसंग इस बहस में कहीं भी  लक्षित नहीं था लेकिन  उन्होंने  यह गढ़ंत पेश कर दी, जैसे कि मेरी यह टिप्पणी उनके इस पुरस्कार के चयन से सम्बद्ध  थी .इसके  साथ उन्होंने यह अनैतिकता भी बरती कि जिसे वे फेसबुक पर ब्लाक कर चुके थे उसकी  फेसबुक  टिप्पणी को अपने लेख में प्रसंग से काटकर पेश कर रहे थे .

दरअसल जब सब कुछ काले उजले में बांटकर देखा जाता है तब ऐसा ही होता है . आखिर 'कट्टर मार्क्सवाद ' और 'जनतांत्रिक आवाजाही ' के  एक साथ संभव होने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ! मार्क्सवादी यदि किसी कार्यक्रम में न जाएँ तो यह उनकी संकीर्ण गोलबंदी और यदि जाएँ तो उसके मनमाना  भाष्य ,शायद यही अब जनतांत्रिकता का तकाजा शेष है .खैर ,यह तो अपनी अपनी जनतांत्रिकता है ,इसका क्या गिला !वैसे इस समूची बहस में यह शिकायत सही है कि कवि कमलेश का वह बहुचर्चित वाक्य ठीक से उधृत नहीं किया गया क्योंकि ऋणी सिर्फ सी आई ए का ही नहीं बल्कि अमेरिका के भी होने की बात कही गयी थी .पूरा वाक्य इस प्रकार था ,"...शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे धीरे उपलब्द्ध होने लगा .यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमरीका और  सी आई ए ने उपलब्द्ध कराया ,इसके लिए मानव जाति अमरीका और सी आई ए की ऋणी है ." 
              
यह स्वीकार करना होगा कि मार्क्सवादी हों या मार्क्सवाद विरोधी हिन्दी में  अब पढने -पढ़ाने की परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है .वरना बहस इस बात पर भी होनी चाहिए थी कि जिन कमलेश ने मानव जाति को अमरीका और सी आई ए  का ऋणी होने की बात कही है उन्होंने ही यह भी  क्यों कहा कि हिटलर के दार्शनिक गुरु हाइडेगर नाजीवादी पार्टी के सदस्य तो थे लेकिन   ' ...वैचारिक स्तर पर उनका चिंतन नात्सी विचारधारा से अलग ही नहीं था ,बल्कि उसका गंभीर प्रत्याख्यान भी था .' यह सचमुच दिलचस्प है कि जिन दिनों  हाइडेगर के नाजी संबंधों को  लेकर सायेमन हेफर की   'हिटलर'र्ज सुपरमैन 'और इमनेल फाई की पुस्तक 'हाइडेगर -दि इंट्रोडक्सन आफ नाजिज्म इन्टू फिलासफी ' सरीखी पुस्तकें   समूचे विश्व के बुद्धिजीवियों के बीच गंभीर चर्चा के केंद्र में हों तब हिन्दी का एक विचारक बुद्धिजीवी कवि हाइडेगर की औचित्यसिद्धि कर रहा हो . यह महज संयोग नहीं है कि उनके ये विचार भी 'समास 'पत्रिका के ही अंक ६ में प्रकाशित हैं . ध्यान देने की बात है कि 'समास ' के प्रकाशक रजा फाऊंडेशन के न्यासी अशोक वाजपेयी हैं और उसके संपादक उदयन वाजपेयी हैं .

              
अशोक वाजपेयी ने यह याद दिलाकर कि वे 'विचारधारा विरोधी' हैं इस समूची बहस को सार्थकता प्रदान कर दी है .कमलेश जी को भी   लगता है कि अमरीका और सी आई ए द्वारा  इतना साहित्य उपलब्द्ध होने के बाद भी यदि 'लोग कम्युनिस्ट हो  सकते हैं तो यह भारतवर्ष में फैले हुए अज्ञान के घोर अँधेरे में ही संभव है '. ओम थानवी जी भी भोपाल के वनमाली समरोह 
में यह कह ही  चुके  हैं कि 'साहित्य को विचारधारा से मुक्त रखना होगा '. अतः मसला' विचारधारा बनाम विचारधारा विरोध' का विचारधारा द्वारा फैलाये गए 'घोर अँधेरे 'को मिटाने का है   . विचारधारा के विरोधी अपनी मुहीम में एकजुट हैं लेकिन जो विचारधारा के पक्षधर हैं वे साम्प्रदायिकता विरोध की चोरगली से अभी भी 'आवाजाही ' के नाम पर कुछ भ्रम बनाये हुए हैं .जरूरत है आत्मावलोकन की ,क्योंकि  बकौल  धूमिल यह कब तक संभव है कि " मुठ्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे !"

  
वीरेन्द्र यादव , सी  855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016.  मो. 09415371872.  

4 टिप्‍पणियां:

  1. इन साहित्यिक धंधेबाजों के पास न तो सत्यनिष्ठा है और न नैतिकता । । देवतालेजी की तर्ज पर कहा जाये तो ये साहित्यिक बाबा लोग हैं ...ऊपर से लेकर नीचे तक सिर्फ फ्राड ।

    जवाब देंहटाएं
  2. In the dark times
    Will there also be singing?
    Yes, there will also be singing.
    About the dark times

    बर्तोल्‍द ब्रेख्‍़त की ये पंक्तियां ही हमारी राह हैं वीरेन्‍द्र जी. साहित्‍य में विचारधारा को कोसने वाले ज़मीनी हक़ीक़त से बहुत दूर हैं.

    इसी मसअले पर गिरिराज का यह पत्र भी आज अनुनाद पर लगा है...

    http://anunaad.blogspot.in/2013/06/blog-post_11.html

    जवाब देंहटाएं
  3. Very good and logical piece. Congratulations.
    What Om Thanvi has written is nothing but 'vitandavad'.

    जवाब देंहटाएं
  4. मार्क्सवाद से दर तो पूंजीवाद को ही रहा है। और सोवियत संघ के विघटन को मार्कस्वाद की विफलता के रूप में लोगों को बताकर भ्रम फैलाने का काम भी पूंजीवाद ने ही किया-कराया है। विचारों का अंत और इतिहास का अंत का दावा भी उसी का हिस्सा था। आखिर शोषितों की मुक्ति की विचारधारा, चाहे वह मार्क्सवाद हो या फिर कोई दूसरी, उससे आखिर किसको दर हो सकता है?

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…