सोमवार, 9 सितंबर 2013

हम अपनी खामोशियों के गुनाहगार रहे/ वे जूनून बन के सब के सर पे सवार रहे.



(मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक अपील)




लहू का आदिम खेल फिर ज़ारी है. फिर ज़ारी है अफवाहों का वलवला और पतित राजनीति के षड्यंत्रों का सिलसिला. धरम के नाम पर फिर हथियार निकल गए हैं और इंसानी लाशों की पहचान उनके धार्मिक निशानों की बिना पर कर उन पर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने का कारोबार ज़ारी है. गोरख लिख गए थे - इस साल दंगे बहुत हुए हैं/ ख़ूब हुई है खून की बारिश/ अगले साल अच्छी होगी/ फ़सल मतदान की - तो २०१४ से ठीक पहले यह होना दुखी भले करे, चिंता में भले डाले, गुस्से से भले भर दे लेकिन आश्चर्यचकित तो नहीं ही कर रहा है. 

मुजफ्फरपुर में क्या हुआ...कैसे हुआ..पहले हिन्दू मरा कि मुसलमान. मेरे लिए यह सब कोई मानी नहीं रखता. मानी इस बात का है कि दंगे हो रहे थे और प्रशासन अनुपस्थित रहा. जनता के पैसों से चलने वाला शासन जनता के लहू को बेभाव बहने से रोकता नज़र नहीं आया. सत्ता की अदम्य लालसा से पूरा संघ गिरोह किसी भी हाल में दिल्ली का तख़्त-ओ-ताज़ हासिल करने पर लगा है. उसकी ये हरक़तें लाज़िम हैं. लेकिन खुद को सेकुलर कहे जाने वाली ताक़तें अगर उसकी हरक़तों पर बंदिश नहीं लगा पातीं तो यह गुनाह में शामिल होना क्यों न माना जाय? आखिर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण दुधारी तलवार है जो दोनों मज़हबों को ध्रुवीकृत कर जनता के असली मुद्दों को कूड़ेदान में डालने का काम करता है. 

इतनी मंहगाई, इतनी बदहाली और देखते देखते एक एक करके जनता के सारे मुस्तक़बिल को बाज़ार के हवाले कर दिए जाने का कोई विरोध संभव नहीं होता. ज़िन्दगी भर के श्रम के बाद हासिल पेंशन हमारे सामने सामने पूंजीपतियों के जूए के लिए मूलधन बन गयी और हम सब ख़ामोश! लेकिन धर्म के नाम पर सबके हाथों में तलवारें आ जाती हैं. हर कोई पत्रकार, हर कोई रिपोर्टर, हर कोई नेता और हर कोई योद्धा! 

तो सोचना तो हमें भी होगा कि यह मज़हबी जूनून हमारी इतनी कमज़ोर नस कैसे बनता चला जाता है कि हमारे गले पर जकड़ी हथेलियाँ इसे धीरे से दबाती हैं और हम उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं?आज से लेकर अगले चुनावों तक यह मसअला बार-बार सामने आना है. सोचना हमें है कि हमें क्या करना है? क्या हम इस मज़हबी जूनून की बीमारी के इतने एडिक्ट हो चुके हैं कि अब कोई इलाज़ नहीं? क्या लहू हमारे नेताओं के साथ साथ हमारे भी मुंह लग गया है...या कभी हम हाथ में हाथ डालकर इसके खिलाफ़ आवाज़ भी लगायेंगे? 

बकौल पाश 

आदमी के ख़त्म होने का फैसला वक़्त नहीं करता 
हालात नहीं करता वह खुद करता है 
हमला और बचाव 
दोनों आदमी ख़ुद करता है 

1 टिप्पणी:

  1. गिरिराज किराडू

    अब हम दंगों की बाहरी मशीनरी तो समझते हैं उसके लिये विश्वसनीय अध्ययन हैं पर हमारे अंदर जो यह असुरक्षा है, नस्ली नफ़रत है उसे समझने के लिये सही उपकरण हमारे पास नहीं है। हम उसे 'वक्ती जुनून' 'पाश्विकता' 'हैवानियत' आदि से समझते हैं जो पर्याप्त नहीं है। बाईबिल में आता है कि संसार की पहली हत्या ही भ्रातृ-हत्या थी। केन ने जब आबेल की हत्या की थी तो समूची पृथ्वी थी और महज चार लोग रहते थे. यही कहानी कुरआन में भी है।

    (फेसबुक से)

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