रविवार, 1 मार्च 2015

चाहिए हमें मुक्त मन : हाँ हम अपने बांग्लादेशी साथियों के साथ हैं!



सुयश सुप्रभ ने लिखा था : ये रफ़ीदा हैं। इनके पति अविजित की हत्या की जा चुकी है। तस्वीर से मुँह मत फेरिए। इनके ख़ून के हर कतरे में उन तमाम लोगों का जुर्म दिख रहा है जो अपने धर्म को 'वैज्ञानिक जीवन शैली' बताते हुए उसके नाम पर किए जा रहे अपराधों पर चुप्पी साधे रहते हैं। जब लोग इस तरह मारे जा रहे हों तो हमें ऐसी तस्वीरें देखने के लिए अपने दिल को मज़बूत बनाना ही होगा। लिजलिजी धार्मिक नैतिकता ने जितने बेकसूरों का ख़ून बनाया है उनकी गिनती करनी ही होगी। भले ही ऐसा करते हुए हमारा गला भर आए या आँखें डबडबा जाएँ...

वह एक युवा था हमारी ही उम्र का. पढ़ा लिखा. संपन्न भी. सुन्दर भी. बस एक ग़लती कर दी उसने. मन को बाँध न सका हुक्मरानों के आदेशों की बेड़ियों में. "मुक्त-मन" था उसका. सामाजिक राजनीतिक विडम्बनाओं के ख़िलाफ़ लिखने से न डरने वाला. तो बांग्लादेश के मुस्लिम कट्टरपंथियों के हाथों मारा गया वह. उसका नाम जब सलमान तासीर था तो वह पाकिस्तान में मारा गया था, जब दाभोलकर और पानसरे हुआ तो हिन्दुस्तान में. गौर से देखता हूँ तो वह चेहरा अपने जैसा लगता है. कल ही आ सकती है हमारी बारी. जब तक नहीं आती हम चुप नहीं रहेंगे. मन जो मुक्त है, मुक्त रहेगा. कलम खामोश नहीं रहेगी.

आज सुजाता ने उसके पक्ष में कविता लिखी. 

हमें चाहिए मुक्त मन 

तुम्हें लौटना होगा ज़िंदा 
किसी पिता के लिए कहना ये शब्द अपने पुत्र से टूटने के ख़िलाफ़ साजिश है 
किसी पत्नी से कहना यह कि चले जाना उस नास्तिक का सब कुछ ख़त्म होना नहीं है 
हम हैं अभी साथ 
भले शोक में हैं 
- बयान है यह, इसे दर्ज कर लो।

वह पड़ा है औंधे मुँह मृत 
और उसके खून मे लथपथ नख-शिख वह ,हाथ उठाए मदद का 
सद्यस्नाता नायिका !
कौन सा भेद है यह शृंगार का ? 
लिखा है तुम्हारी किताबों में ?
पढा था कहीं - शृंगार का रंग होता है लाल !

कहीं से नही ला सकोगे तुम सुनो , वह जल
जिससे धोया जा सके उसका खून फुटपाथ पर से
मुझे रोकना है उसे जो कर रहा है ऐसी मूर्खता 
लेकिन कोई बात नही 
धर्म से टकराने वाले सिरफिरों का इतिहास किताबों से पोंछना ज़रूरी है 
उनके लिए
तब मायने ही क्या हैं 
और यहाँ जलानी होंगी मोमबत्तियाँ भी तो 
इसलिए धुला दो सड़क ...धुला दो मन भी ...डर से सने...
चाहिए हमें मुक्त-मन !

आज नही मुस्कुराऊंगी तुम्हारी प्रेम पगी आंखों में देखकर
आज किसी उत्सव मे मातम की तरह बजने का मन है
पढाऊंगी दर्शन अविश्वास का जिसे लिख रहे थे वे प्रेमी ।
मैं कहूंगी - 'उनपर संदेह करो जो सबसे पवित्र हैं वे ही
घिनौने हैं सबसे'
मैं लिखना चाहती हूँ नायिका का यह भी भेद 
मैं लिखना नही चाहती थी कविता 
मुझे चिल्लाना था ज़ोर से ...!
मुझे कहना था ...कि हर बार कुछ बचा रह जाना इतना भी अच्छा नही 
जो है उससे बेहतर है कुछ ना होना !.

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एक और कविता संजीव कौशल ने लिखी




अविजित रॉय और गोविंद पानसरे के लिये

चीखों से उबल रहे हैं मेरे कान
हजारों सालों से
सुकरात के पहले
सुकरात के बाद
कोई न कोई कोना 
रिसता रहता है दिल का मेरे
और दहाडें मारती रहती हैं मेरी आँखें

लोग आते हैं
लोग देखते हैं
लोग चले जाते हैं
दरवाजों दीवारों दिलों के पीछे
सिमट के रह जाते हैं मुट्ठियों के दायरे
और पड़ी रह जाती है 
एक और लाश
हमारी आँखों में सिमटे 
सपनों के लिए लड़ते हुए 

न जाने कब से लग रही है खाद
इंसानी खून की ज़मीन में
मगर फसल है 
कि उगती ही नहीं
बढ़ती ही नहीं

और जो पक जाते हैं दरख्त
देने लगते हैं फूल और बीज
आंधियों से लड़ते हुए
काटकर फेंक दिया जाता है उन्हें सड़कों पे
ताकि सनद रहे हमें हमारे हश्र की
बस कुछ मोमबत्तियाँ रह जाती हैं हमारे हाथों में
हमारी ही तरह जलती पिघलती हुईं
नाजुक होंठों पे
घवरायी लौ संभालतीं!

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और यहाँ उनकी बिटिया का बयान...

बयान 


हम इस पर दो मिनट के मौन के साथ हस्ताक्षर करते हैं.
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इसके पहले हमने "हिंसा के ख़िलाफ़ कला" की ओर से एक बयान ज़ारी किया था जिसे फेसबुक पर सैकड़ों लोगों ने शेयर किया है. वह यहाँ भी. 


हिंसा के खिलाफ कला' मंच बांग्लादेश की राजधानी ढाका में 'मुक्तो-मोना (मुक्त मन)' ब्लॉग के सह-संचालक ,धर्मान्धता व कठमुल्लावाद के कट्टर विरोधी और नास्तिक लेखक अविजित रॉय की जमात-ए-इस्लामी के वहाबी गुंडों द्वारा की गयी निर्मम हत्या की कड़ी निंदा करता है. इस कायरतापूर्ण हमले में रॉय की पत्नी राफिदा अहमद की एक अंगुली भी कट गयी और वे बुरी तरह घायल हुई हैं. इन्टरनेट पर शेयर की गयी अविजित के शरीर के बगल में खून से लतपथ खड़ीं राफिदा की हमले के फ़ौरन बाद ली गयी तसवीर हृदय विदारक है. हम सब की संवेदना विश्वभर के प्रगतिशील और जनवादी स्वरों में शामिल है.

अविजित रॉय बांग्लादेश में प्रगतिशील ब्लॉग लेखकों के एक सदस्य के रूप में धार्मिक उन्माद और कट्टरता के खिलाफ खुलकर लिखते रहे हैं. कई धमकियों और साथी ब्लॉगरों की हत्याएं भी उन्हें झुका न सकीं. अंततः नफरत और हिंसा की विचारधारा को अपना आखिरी हथियार इस्तेमाल करना पड़ा. अविजित के पिता अजय रॉय एक वैज्ञानिक होने के साथ ही बंगलादेश में प्रगतिशील आन्दोलनों और में खासा सक्रिय रहे हैं.

मजेदार बात है कि जिस अमेरिका ने 1971 में बांग्लादेश में पाकिस्तानी फ़ौज और इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा किये जा रहे व्यापक नरसंहार और बर्बर यौन हिंसा का खुलेआम समर्थन किया था, वही अविजित की मौत पर अफ़सोस जता रहा है और अविजित के परिवार को मदद की बात कर रहा है (अविजित व राफिदा अमेरिका में रहते रहे हैं). बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और धार्मिक कट्टरता एक बड़ी समस्या है और ऐसे प्रगतिशील जनांदोलनों के वहां मज़बूत किये जाने की बहुत ज़रूरत है.

बहरहाल, सुकरात से लेकर दाभोलकर, सलमान तासीर और पानसरे की लम्बी परंपरा में एक और नाम जुड़ गया है. धर्म हमेशा से इंसानियत का दुश्मन रहा है और रहेगा. पर जैसा कि अफ्रीका के बड़े मार्क्सवादी क्रांतिकारी नेता व बुर्किना फासो के पूर्व राष्ट्रपति थॉमस संकारा ने कहा था:

"क्रांतिकारियों को व्यक्तिगत रूप से मारा जा भी सकता है पर विचारों की हत्या करना नामुमकिन है."

हर तरह की हिंसा और नफरत की विचारधाराओं के विरुद्ध में खड़े रहने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं और इस पागलपन, अत्यचार और बर्बरता के खिलाफ एक व्यापक संघर्ष छेड़ने की ज़रूरत महसूस करते हैं जिसमें हमारे विचार, हमारे गीत और हमारी कवितायेँ एक महत्त्वपूर्णभूमिका अदा करती हैं.
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हाँ हम डा अविजित राय के साथ हैं. हाँ हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हुए हर हमले के खिलाफ हैं. हाँ हम हर अमानवीय निज़ाम के ख़िलाफ़ हैं..जो भी मानी हो..मानी हो न हो.."जनपक्ष" अपने सभी लेखकों, पाठकों और हमराहों के साथ उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाता है!
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आख़िर में अहमद फराज़ की यह नज़्म






3 टिप्‍पणियां:

  1. इन वक्तों में .....
    जो मुक्त मन है
    अभियुक्त मन है
    मुट्ठियाँ बांधो
    उठाओ हाथ
    समय का अभिकथन है ......

    (पंकज मिश्र, फेसबुक पर)

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