- -- शीबा असलम फ़हमी
जिस तरह हम स्टॉक-एक्सचेंज, मुद्रा-बाज़ार या सटोरिया बाज़ार पर नैतिकता का बोझ डाले बग़ैर उन्हें आत्मसात कर चुके हैं, अगर उसी तरह समाचार-मीडिया को भी हम आत्मसात कर लें तो बहुत से ऐसे कष्टों से बचा जा सकता है जो हमारी अंतरात्मा पर भारी पड़ते हैं. यक़ीन मानिये की मीडिया भी इस मुक्ति के लिए छटपटा रहा है. वो नैतिकता के दबाव में न खुद खुल के मुनाफ़ा-उन्मुख हो पा रहा है न अपने उपभोक्ता को अपना असली हुनर दिखा पा रहा है. फिर भी अहिस्ता-अहिस्ता मीडिया खुद ही भार-मुक्त हो रहा है. नेपाल-भूकंप, केदार-नाथ-बाढ़ से ले कर ख़ुदकुशी और फांसी की लाइव रिपोर्टिंग तक मीडिया अपनी उत्सव-धर्मिता का परिचय दे चुका है. मीडिया हर कष्टकारी-सवाल और कष्टकारी-घटना में मनोरंजन फेंट के अपने उपभोक्ता के दुखों को कम करना चाहता है. लेकिन हमारा आदर्शवाद है की उससे समाज की बिमारियों का इलाज करवाना चाहता है, निर्मम सर्जरी करवाना चाहता है. भारत ग़रीबों का देश है, वंचितों का देश है, अन्याय की पीड़ा में तड़पती नस्लों का देश है. काश मीडिया इन्ही के हाथों में भी होता. (लेकिन ये ग़रीबी, पीड़ा और बेदखली दी किसने है? जिसके हाथों में मीडिया है उसने .) तो ये तो मुमकिन नहीं, ऐसे में मीडिया जैसा महंगा शौक़, ग़रीबी, अन्याय, महरूमी को भी बेचने लायक़ कमोडिटी न बना दे तो क्या करे? कुछ जुनूनियों को छोड़ दें तो मुख्यधारा का मीडिया वैश्विक कॉर्पोरेट-लूट से ध्यान हटाने, या उसको सही-ठहराने, उसका महिमा मंडान करने, और उसके अवरोधों को औकात बताने का औजार भर है.
लेकिन ऐसा करते हुए उसे स्वीकार्यता भी चाहिए जिसके लिए वो शहरी प्रभुत्व-वर्ग के अहम्, दंभ, आदर्श और नैतिकता को महिमा-मंडित करता रहता है. प्रभुत्व-वर्ग का धर्म, आस्था, भाषा, तीज-त्यौहार, मूल्य-मान्यताएं, मनोरंजन और भय, का प्रतिपादन विशेषांकों और पेज-३ के कंटेंट से सुनिश्चिंत करता रहता है. क्यूंकि जब तक ये वर्ग सधा रहेगा, तब तक नेता-कॉर्पोरेट की जुगलबंदी निर्बाध चलती रहेगी.
मुख्यधारा के मीडिया पर सबसे पहले एक स्थापना: भारत राष्ट्र-राज्य जो की अपनी काया में एक ‘सवर्ण-हिन्दू-पुरुष’ है का सबसे बेहतरीन तराशा हुआ हथियार भारतीय मीडिया है. एक सवर्ण हिन्दू पुरुष का महिलाओं के प्रति, दलितों के प्रति, अल्पसंख्यकों के प्रति, हाशिया ग्रस्त के प्रति, विदेश निति के प्रति, राष्ट्रीय सीमाओं के प्रति, राष्ट्रीय संसाधनों के प्रति और ‘सुरक्षा’ के प्रति जो मालिकाना रवैय्या है, भारतीय मीडिया उसका दर्पण है. बस दिक्क़त ये है की माडिया ने हमें बड़ी होशियारी से इस भ्रम में मुब्तिला रखा की वो समाज को प्रगतिशील बनाने का काम कर रहा है और इस प्रक्रिया में वो खुद एक आधुनिक प्रहरी की भूमिका में है. और ये वो भ्रम ही है जिसके चलते हम बार-बार नैतिक सवालों के आधार पर मीडिया को परखने बैठ जाते हैं. उस पर विशेषांक निकलते हैं, उस पर रेडियो-टीवी में विशेष चर्चा होती हैं. और पाठक-दर्शक वर्ग को भी गुमराह करते हैं की मीडिया कोई हवन-कुंड है जिसके ज़रिये बुराई ख़त्म होनी है.
भारत में समाचार-मीडिया उस वक़्त जन्मा जिस वक़्त देश एक विदेशी सत्ता से आज़ाद होने के संघर्ष में मुब्तिला था. राजनैतिक फ़िज़ा हर प्रकार के विद्रोह, अवज्ञा और आन्दोलन का, देश की आवाज़ के तौर पर स्वागत कर रही थी. भारतीयता का महिमामंडन चरम पर था. विदेशी शासक नीच, लालची और षड्यंत्रकारी शोषक था तो हम सीधे-सादे पीड़ित. ऐसे समय में जनमानस के बीच समाचार-पत्र आज़ादी के संघर्ष को जन जन तक पहुंचा रहे थे. तिलक, गाँधी, नेहरु, पटेल एक तरफ, तो कुटिल अंग्रेजी सरकार और पाकिस्तान का ख्वाब देखने वाले विधर्मी जिन्ना दूसरी तरफ़. लेहाज़ा राजनीती और समाज के चिंतन में ये दो फाड़ ही चिंतन का मुख्या आधार बन गए. यानी उसी समय राजनैतिक-सामाजिक तौर पर अगले सौ सालों का मुख्य-विमर्श तय हो गया की हम साम्प्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता और इसमें विदेशी क्षडयन्त्र के त्रिकोण में ही उलझे रहने वाले हैं.
भारत का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन जिस तरह शिक्षित, संभ्रांत, कुलीन, शहरी हिन्दू मर्दों के हाथ में था, समाचार पत्रों का सञ्चालन भी इसी वर्ग के हाथ में था. इसलिए कोई ताजुब नहीं की बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर के जाती-विरोधी आन्दोलन को कभी भी राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन नहीं माना गया. महिलाओं की छतपटाहट और आजादी के अजेंडे को कभी भी राष्ट्रीय अजेंडा का दर्जा नहीं मिला. कोढ़ में खाज ये हुआ की पाकिस्तान-तहरीक ने तीसरा ‘राष्ट्रवादी’ कोण दे कर बहुजन के अजेंडे को हाशिये से बाहर कर दिया.
इस माहौल की पैदाइश और परवरिश पाया मीडिया सवर्ण-हिन्दू-पुरुष की काया से निकल कर कैसे दलित-नारी-अल्पसंख्यक काया में प्रवेश करे? खबरनवीसी वाली मीडिया से दलित, महिला, पिछड़ा, और अल्पसंख्यक खामखाँ की उम्मीद पाले बैठा है.
इक्कीसवीं सदी के भारत के अख़बारों में जब ये खबर सुर्ख़ियों में छपती है की ‘युवती प्रेमी संग भागी’ या ‘प्रेमी ने तेज़ाब फेंका’,या ‘प्रेम-संबंधों के चलते पत्नी की हत्या’, तो अहसास होता है की रिपोर्टर से ले कर संपादक तक खाप पंचायत के नज़रिये से लैस हैं. लड़की कैसे अपने जीवन का एक फैसला ले सकती है? अगर एक प्रेमी-जोड़ा पैत्रक परिवार से बहार आया है तो बस ये लड़की के बहकाने का मामला हो सकता है, लड़का बेचारा मासूम है और नारी नरक का द्वार है, तेजाब भी लड़की की नाफ़रमानी की ही वजह से फेंकना पड़ता है, और ‘रखैल-दूसरी पत्नी’ की मान्यतावाले समाज में पत्नी का प्रेम सम्बन्ध उसकी हत्या पर न ख़त्म हो तो और क्या हो? इन सभी सुर्ख़ियों में आप महिला के अपराध को पहचान पा रहे हैं ना?
कुछ और सुर्खियाँ देखिये - ‘दलित महिला को नंगा कर घुमाया’, दलित महिला से गैंग-रेप कर हत्या’, ‘खैरलांजी में दलित महिलाओं की हत्या’, ‘दलित दुल्हे के घोड़ी चढ़ने पर बवाल’ आदि सुर्खियाँ इसलिए नहीं होती हैं की पूरा भारतीय समाज उद्वेलित हो सके, बल्कि इसलिए होती हैं की ये ऍफ़.आई.आर हो ही गयी है इसलिए क्राइम-रिपोर्ट बनती है, लेकिन है ये दलित समाज का मसला, दलित-नेता-कार्यकर्ता और सरकार इसे देख लेंगे. बृहत-समाज अपना कीमती समय न बर्बाद करे. लेकिन जब ‘पिछड़ा’ या ‘दलित’ लगाये बग़ैर सुर्खियाँ छपने की चूक हो जाती है तो १६ दिसंबर का बलात्कार डेल्ही-रेप-काण्ड आन्दोलन में तब्दील हो जाता है और सरकार-प्रशासन-न्यायपालिका की चूलें हिल जाती हैं. आखिर एक ग़ैर-दलित हिन्दू महिला का गैंग-रेप दिल्ली कैसे बर्दाश्त करती? इस घटना से उत्साहित हो कर १६ दसंबर के बाद होनेवाले गैंग-रेप+हत्या की १०० घटनाओं की फेहरिस्त दलित-कार्यकर्ताओं ने हर मीडिया में भेजी, लेकिन ये दुर्दांत अपराध की रिपोर्टिंग हुई क्या? कोई आन्दोलन हुआ क्या?
सुर्ख़ियों को समझने के इसी सूत्र के सहारे आप उन ख़बरों को भी याद कर लें जिनमे गिरफ़्तारी होते ही तय हो जाता है की एनकाउंटर में ढेर हुआ या गिरफ्तार हुआ पुरुष ‘आतंकवादी’ ही है, वो लश्कर-इ-तैयाबा का मेम्बर है और पि.एम्., सी. ऍम. को मारने के लिए घूम रहा था. भारत के नार्थ-ईस्ट राज्यों, कश्मीर और छतीसगढ़ आदि में तैनात पुलिस, सुरक्षा बल, आदि को मिलनेवाले मैडल के पीछे की कहानियों को मीडिया में खंगाल के देखिये.
न्याय-प्रिय समाज ये बकते-बकते थक गया की मीडिया ट्रायल बंद हो, मीडिया लेबिल चिपकाना बंद करे, मीडिया मुलजिम और मुजरिम के बीच के भारी फर्क को नज़रंदाज़ न करे. लेकिन नहीं, मीडिया तो पुलिस-नेता-न्यायाधीश-ज्योतिषाचार्य का ऐसा जानलेवा मिश्रण है की जो इसकी ज़द में आया, गया.
ये तो वो है जो मीडिया करता है, और ये छोटा हिस्सा है उसके चरित्र का, समझिये उसको जो वो नहीं करता है. वो कभी भी राष्ट्र की ‘सुरक्षा-निति’ पर सवाल नहीं करता. रक्षा मंत्रालय का बजट जो की हमेशा स्वास्थ्य और शिक्षा बजट से लूटकर बढाया जाता है पर मीडिया हाय-तौबा करता है क्या? रक्षा संस्थानों में भ्रष्टाचार, अस्त्र-शास्त्र की खरीद फरोख्त, यौन-उत्पीडन, कश्मीर-नार्थ-ईस्ट-छत्तीसगढ़ में हो रहे हत्या-बलात्कार-लूट पर बात करता है क्या? युद्ध या प्रॉक्सी-वॉर पर कोई सवालिया निशान लगाता है क्या? युद्ध–उन्माद, शस्त्रों की होड़, सीमा पर तनाव का उत्सव नहीं मनाता क्या? विदेश दौरे के दौरान कई सौ करोड़ जो बाप-का-माल समझ कर बांटे गए उन पैसों की बर्बादी पर किसी भी समाचार-मीडिया ने सवाल उठाया क्या? विदेश नीति की नाकामयों जिसके चलते चारो तरफ से पड़ोसियों से खतरा बना रहता है पर मीडिया सख्त सवाल पूछता है क्या? परमाणु शस्त्र और मिसाइलों की होड़ पर मीडिया सवाल उठाता है क्या? प्रधानमंत्री के विदेश दौरों से किस कॉर्पोरेट समूह को व्यवसायिक लाभ मिल रहा है, इस पर किसी ने चूं भी की क्या? राज्य जो भी स्याह-सफ़ेद करे वो सब सही मान पचा जाने वाला मीडिया तंत्र शासक वर्ग को संकट में नहीं डालता बल्कि उनकी हरकतों पर या तो पर्दा डालता है या उन्हें सही ठहराने में जुट जाता है.
29 और 30 जुलाई 2015 की रात जब सर्वोच्च न्यायलय में याक़ूब मेमन की फांसी रोकने की अंतिम कोशिश का स्वांग चल रहा था, तब मीडिया का जमावड़ा कोर्ट के बाहर लाइव रिपोर्ट कर रहा था. इसी रिपोर्टिंग पर कमेन्ट करते हुए किसी फेसबुक मित्र ने पोस्ट लिखी थी की ‘एनडीटीवी इंडिया के एक सीनियर रिपोर्टर इस समय की रिपोर्टिंग को एक एडवेंचर की तरह रिपोर्ट करते हुए इसकी तुलना पिछली ऐसी ही रोमांचक रिपोर्टिंगों से कर रहे हैं’. उनका आशय था की इस सीनियर रिपोर्टर के लिए आधी रात की अदालत की ये रिपोर्टिंग महज़ एक एडवेंचर है, ये किसी की जिंदगी-मौत का सवाल नहीं है, न ही राष्ट्र के सामने खड़ा एक नैतिक भार से दबा वो क्षण जिसमे राष्ट्र के चरित्र का फैसला होना है. (यहाँ मैं उन पत्रकारों की बात नहीं कर रही जिन्होंने फांसी की सज़ा के बने रहने पर एक दूसरे को बधाई दी थी, उनसे तो कोई उम्मीद ही नहीं). आप यकीन करें मीडिया हर ऐसी घटना को मनोरंजन में बदल सकता है, उसे ज़रा आप दर्शक-पाठक अपनी नैतिक आकांक्षाओं से मुक्त तो कीजिये.
देखिये देश को सवर्ण-हिन्दू-पुरुष चला रहे हैं, उद्योग, कारोबार, न्यायपालिका और मीडिया भी वही चला रहे हैं. कहीं कोई दिक्क़त है ही नहीं. भारत का आजाद मार्किट में तब्दील हो जाना और तथाकथित आज़ाद मीडिया का पैदा होना एक ही घटना के दो सिरे हैं. पूंजीवाद के इस निबार्ध, निर्लज्ज दौर में मीडिया रोड़ा नहीं है, बल्कि वो जादूगर है जो भारत में चल रही संसाधनों की लूट को, उनके खिलाफ जनांदोलनो को, दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक विस्थापन को, राज्य-समर्थित नस्लकुशी को आपकी नज़रों से ओझल रखता है. लेकिन उन इमानदार बुद्धिजीवियों, आर्थिक-राजनैतिक विशेषज्ञों और इंसाफ़पसंदों का क्या करें जो इस खेल को समझते हैं? उन को खपाने के लिए ‘एनडीटीवी-रवीश कुमार’ जैसे कुछ केलकुलेटेड-रिस्क हैं ना. हालाँकि सवाल ये है कि और कितने दिन?
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दिल्ली में रहने वाली शीबा
जानी मानी पत्रकार, स्तम्भ लेखक
और एक्टिविस्ट हैं।
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