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रविवार, 1 अगस्त 2010

यह कौन सी भाषा है विभूति जी?

(पिछले दिनों नया ज्ञानोदय का महाबेवफाई विशेषांक आया…अब इस 'नये' ज्ञानोदय के दौर में साहित्य को इन विशेषांको की बाज़ारु जुगुप्सा मेंरिड्यूस कर देने के प्रयासों का हिस्सा हो या पुलिस-प्रगतिशीलता के बीच के द्वंद्व में पुलिसिया भाषा की जीत, वर्तमान साहित्य के पूर्व संपादक, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति और अधिकारी साहित्यकारों की अग्रज पीढ़ी के सदस्य विभूति नारायण राय की जबान ऐसे फिसली कि लेखिकाओं को छिनाल कह डाला। जनपक्ष इसकी तीखी भर्त्सना करता है। यहां प्रस्तुत है जनज्वार से साभार ली गयी जनसत्ता की रपट)

विभूति नारायण राय की नज़र में लेखिकायें छिनाल
  • आशुतोष भारद्वाज

नई दिल्ली, 31 जुलाई। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति और भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी वीएन राय ने हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा है कि हिंदी लेखिकाओं में एक वर्ग ऐसा है जो अपने आप को बड़ा ‘छिनाल’साबित करने में लगा हुआ है। उनके इस बयान की हिंदी की कई प्रमुख लेखिकाओं ने आलोचना करते हुए उनके इस्तीफे की मांग की है।

भारतीय ज्ञानपीठ की साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’को दिए साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है,‘नारीवाद का विमर्श अब बेवफाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।’भारतीय पुलिस सेवा 1975बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी वीएन राय को 2008 में हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया था। इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना केंद्र सरकार ने हिंदी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए की थी।

हिंदी की कुछ प्रमुख लेखिकाओं ने वीएन राय को सत्ता के मद में चूर बताते हुए उन्हें बर्खास्त करने की मांग की है। मशहूर लेखक कृण्णा सोबती ने कहा,‘अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो,यह न केवल महिलाओं का अपमान है बल्कि हमारे संविधान का उल्लंघन भी है। सरकार को उन्हें तत्काल बर्खास्त करना चाहिए।’

‘नया ज्ञानोदय’ को दिए साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है,‘लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है...यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। एक लेखिका की आत्मकथा,जिसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं,का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय कहते हैं,‘मुझे लगता है इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’।’

वीएन राय से जब यह पूछा गया कि उनका इशारा किस लेखिका की ओर है तो उन्होंने हंसते हुए अपनी पूरी बात दोहराई और कहा,‘यहां किसी का नाम लेना उचित नहीं है लेकिन आप सबसे बड़ी छिनाल साबित करने की प्रवृत्ति को देख सकते हैं। यह प्रवृत्ति लेखिकाओं में तेजी से बढ़ रही है। ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’का संदर्भ आप उनके काम में देख सकते हैं।’

वीएन राय के इस बयान पर हिंदी की मशहूर लेखिका और कई पुरस्कारों से सम्मानित मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं,‘राय का बयान पुरुषों की उस मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है जो पहले नई लेखिकाओं का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं और नाकाम रहने पर उन्हें बदनाम करते हैं।’ वे कहती हैं, ‘ये वे लोग हैं जो अपनी पवित्रता की दुहाई देते हुए नहीं थकते हैं।’पुष्पा कहती हैं,‘क्या वे अपनी छात्रा के लिए इसी विशेषण का इस्तेमाल कर सकते हैं?राय की पत्नी खुद एक लेखिका हैं। क्या वह उनके बारे में भी ऐसा ही कहेंगे।’पुष्पा,वीएन राय जैसे लोगों को लाइलाज बताते हुए कहती हैं कि सरकार को उनपर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगाना चाहिए।


महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति के इस बयान को ‘घोर आपराधिक’करार देते हुए ‘शलाका सम्मान’ से सम्मानित मन्नू भंडारी कहती हैं,‘वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। एक पूर्व आईपीएस अधिकारी एक सिपाही की तरह व्यवहार कर रहा है।’वे कहती हैं कि वे एक कुलपति से वे इस तरह के बयान की उम्मीद नहीं कर सकती हैं। भंडारी कहती हैं,‘हम महिला लेखकों को नारायण जैसे लोगों से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है.'

इस मुद्दे पर वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की प्रतिक्रिया देखिये यहां

32 टिप्‍पणियां:

  1. yah bhayanak hai.apni harkato ke liye kukhyat yah shakhsha madandhta aur shatirpane ki ajib misal de raha hai.yah sochte hain ki ye vngeivad inki harkato ko dhak de

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  2. निहायत ही अशोभनीय भाषा..................

    हैरानी इस बात की है कि यह राजधानी के किसी छुटभैय्ये नेता ने नहीं, एक साहित्यिक बिरादरी के सम्‍मानित व्‍यक्ति ने कहा है...

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  3. हद है ! मैं तो इनको एक ठीक-ठाक आदमी समझती थी. यूनिवर्सिटी के दिनों में एक-आध सेमीनार में इनकी स्पीचेज भी सुनी थीं, खासकर गुजरात कांड से सम्बंधित. ये भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. बताइये किस पर विश्वास किया जाए?
    ऐसे ही किसी से हंसकर बात करने में डर लगता है, कि कहीं कोई ऐसी-वैसी बात ना बना दे. और जब इतने महत्त्वपूर्ण पद पर बैठे लोग ऐसी बातें करेंगे तो औरतें कैसे घर से बाहर निकलेंगी?
    इनको तो तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए.

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  4. खुल गयी पोल 'जनपक्षी' 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के समझ की।

    ये दोगलापन क्यों?

    याद कीजिये, भारतद्रोही हुसैन की नंगई को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के नाम पर कम्युनिस्टों ने कितना 'हुआँ-हुँआ' किया था।

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  5. यह निन्दनीय है । पता नहीं इस तर्ह की भाषा का प्रयोग कर यह साबित करना चाहत है } जनज्वार से आपने विवरण उद्ध्र्त किया वह तो ठीक है लेकिन वह चित्र उद्धरत करना मुझे ठीक नही लगा । आखिर वह चित्र क्या साबित करता है ?

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  6. बेहद शर्मनाक ! क्या वर्षों तक इसी भाषा के विकास के लिए कलम घिस रहे थे राय साहब ?

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  7. nihayat aapattijanak bayan hai yah,naya gyanodaya ke is tarah ke gyanoday ke khilaf humlog pahle bhi abhiyan chala chuke hain

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  8. शर्मनाक ..निंदनीय ...और क्या कहा जाय ...?

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  9. शिरीष कुमार मौर्य1 अगस्त 2010 को 8:05 pm बजे

    हिंदी साहित्य में उत्थान और पतन, दोनों बहुत जल्द होते हैं. नया ज्ञानोदय एक उदाहरण भर है. जिस विशेषांक का नाम ही "सुपर बेवफाई" हो, उसे मैं पढना नहीं चाहता. २००५ के युवा विशेषांक की स्मृतियाँ भर रह गई हैं....हमारी ये प्रिय पत्रिका बहुत जल्दी बदल गई.....

    आदरणीय विभूति जी से ऐसी भाषा की उम्मीद मैं नहीं करता. यदि उन्होंने ऐसा कहा है तो उन्हें तुरत अपना पक्ष और खेद प्रकट करना चाहिए.

    इतनी शर्म का बोझ हिंदी ज़्यादा दिन उठा नहीं पायेगी.

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  10. वी एन राय की इस भाषा को सुन कर ऐसा लगता है जैसे कोई कलई उतर गई हो और एक भद्दी सी शक्ल आई हो. आखिरकार अन्दर का पुलिसिया मर्द बाहर आ ही गया. वैसे मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. वी एन राय का तो नहीं पता लेकिन कभी देखना हो तमाम पुरोधाओं को तो उनकी मित्र मंडली में शराब के चौथे पैग के बाद देखिये. तब इनका अन्दर का सूअर खुल के बाहर आ जाता है.... किस किस को अपने ख्यालों में बिस्तर पर ला रहे होते हैं. तब ये लिजलिजाते से कोई जीव होते हैं... अगर कोई औरत अपने जीवन में पारदर्शी बनने की कोशिश करे तो ये भरसक उसे शीशे की तरह चटखा देंगे. मै मुक्ति की बात से सहमत हूँ इन लोगों से हंस कर बात करने में भी डरना चाहिए. बस इत्ते सुधार के बाद की बात करने से भी डरना चाहिए.

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  11. aur jis university kae yae kulpati haen us jagah hamarey blogger samaelan hotey haen

    disgusting

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  12. आज शाम को स्टार न्यूज़ पर इसी मुद्दे पर हो रही परिचर्चा देखी थोड़ी देर . थोड़ी देर इसलिए कि विभूति नारायण राय , राजेंद्र यादव, भारत भारद्वाज और मैत्रेयी पुष्पा के प्रतिभाग वाली परिचर्चा इतनी बेशर्म और स्तरहीन थी कि देखा नहीं गया. नेशनल चैनल पर बैठकर भारत भारद्वाज मैत्रेयी पुष्पा से कह रहे थे -- मैं साधना अग्रवाल का गाडफादर हूँ , आप स्वीकार करिये कि राजेंद्र यादव आपके गाडफादर हैं.
    विभूति नारायण राय मुस्कुरा रहे थे और राजेंद्र यादव इस बात से खीझ रहे थे कि उनकी कोई सुन क्यों नहीं रहा.
    बोलने को लेकर सब उतावले इस तरह हो रहे थे कि जैसे तीसरी कक्षा के बच्चे हों .
    शर्मनाक .

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  13. बहुत रोका कि इस मुद्दे पर कमेन्ट न करूं मगर शायद यह भागना होगा . सार्वजनिक जीवन की शुचिता के लिहाज से ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से बचना चाहिए .-जो समाज में निन्दित हैं -मैं छिनाल शब्द की समग्र अर्थवत्ता से तो परिचित नहीं हूँ मगर यह नारी के बुरे रूप को चित्रित करता है -
    अब वी एन राय जी अपने वामपंथी विचारों के कारण लेखक लेखिकाओं के एक वर्ग में पहले से ही बहुश्रुत /ज्ञात रहे हैं -कई कालजयी रचनाएं उन्होंने लोकार्पित की हैं ...अन्य अधिकारी रचनाकारों से उनका एक अलग व्यक्तित्व रहा है ....और अब एक सम्मानित विश्वविद्यालय के कुलपति भी है ....उनका वक्तव्य एक वामपथी विचारक के बोली वाणी और शब्दकोष से अलग क्यूं देखा जाय-कभी किसी ने आर एस एस के प्रवक्ताओं को को ऐसे शब्द कहना सुना है ? भारतीय वामपंथ और नारीवाद के कुछ अंतर्सबंध भी हैं -क्या वे दरक से रहे हैं ?
    मैं कोई बेलौस टिप्पणी नहीं करना चाहता -यह गौर करने की बात है कि वी एन राय ने कुछ महिला लेखिकाओं की बात की है और उनके साहित्य को 'कितने बिस्तर में कितनी बार ' से लेबल क्या है -समग्र नारी समुदाय के लिए यह बात नहीं कही गयी है ....अब जैसे पुरुषों में भी कुछ छिनाल के काउंटर पार्ट होते ही हैं ,वी एन राय के अपने निजी अनुभव ऐसे किस्म के होंगे ....और इसे वर्धा में होने वाले ब्लॉगर सम्मलेन से जोड़ना भी किस तरह की मानसिकता ही है ....
    मुक्ति जी आपने आवेश में उन्हें तत्काल बर्खास्त करने तक की मांग कर डाली है -यह उचित नहीं लगता यद्यपि आपके नारी अस्मिता के सरोकारों से जुडी संवेदनशीलता का मैं सम्मान करता हूँ ....उन्होंने सभी नारी लेखिकाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा है ...हाँ यह जरूर है उन्हें लोक निन्दित शब्दों से बचना चाहिए था ....

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  14. मै इस मुद्दे पर अरविन्द मिश्र जी से पूरी तरह से सहमत हूँ, यहाँ राय जी ने जो कुछ भी कहा यह उनका वक्तिगत अनुभव भी हो सकता है, उन्होंने इस शब्द के प्रयोग सारी महिलाओं के लिए नहीं किया है, तो इसपर इतना हो हल्ला क्यूँ ...

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  15. राय साहब ने काफ़ी नाम कमाया है हिंदी साहित्य की सेवा में, कितने भी तर्क हो उनके पास इसे स्थापित करने के लिये कि छिनाल शब्द जायज है..ये स्वीकार्य नही है..न भाषा को, न सभ्य समाज को और साहित्य को. कभी कभी कुछ वाक्य आपके चरित्र को उधेड़ देने में सक्षम होते है, पर्दाफ़ाश कर देते हैं और साफ़ दिखा देते है मेमने की खाल ओढे एक भेडिया बैठा है..कुछ यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है..वक्त अब सब हिसाब मांग लेगा..खबरदार, राय साहब और उनकी राह पर चलने वाले दूसरे ठेकेदारों...!!! ये विकिट एक लंबी पारी के बाद गिर चुका है..!!

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  16. अरविन्द का नारी विरोधी होना तो ब्लॉग जाहिर हो चुका हैं और इनके मित्र सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी जो विभूति नारायण के घोर समर्थक हैं और वही से जीविका के लिये पैसा पाते हैं और अपनी किताब के लिये ग्रांट वो भी अभी आते होगे । ब्लॉग जगत मे जितना विष अरविन्द मिश्र और सिदार्थ ने घोला हैं उसको उनके ब्लॉग पर जा कर पढ़ा जा सकता हैं वैसे लगता हैं बुद्धिजीवी बनने के लिये ये सब किया जाता हैं । किसी के भगवान् पिता बनो और किसी को छिनाल कहो । अरविन्द का भविष्य उज्व्वल हैं

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  17. अति शर्मनाक और निंदनीय है यह

    इस तरह के शब्दों का प्रयोग , किसी भी महिला के लिए किए गए हों कभी स्वीकार्य नहीं हो सकते...चाहे उस से गहरे मतभेद ही क्यूँ ना हों....इसलिए कुछ लोगों का यह तर्क कि
    समस्त नारी-जगत को तो नहीं कहा गया....सही नहीं है.

    उनकी इस्तीफे की मांग मुक्ति ने भावावेश में नहीं की ....जिन महाशय को सार्वजनिक रूप से दिए गए व्यक्तव्य पर ,अपनी भाषा पर संयम नहीं है...उन्हें इतने उच्च क्या किसी भी पद पर बने रहने का कोई हक़ नहीं है.

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  18. यहाँ जो कमेन्ट आ रहे हैं बस हुआँ हुआँ सरीखा इसलिए हैं कि इनमें से किसी ने भी पूरा साक्षात्कार नहीं पढ़ा है -बस एक और से हुआँ की आवाज क्या आयी सब शुरू हो लिए -यह बौद्धिकता का तकाजा नहीं है -वक्तव्य को पूरे परिप्रेक्ष्य में पढ़ना होगा -
    इसे भी पढ़िए तब राय कायम कीजिये -रेखांकित अंश के बाद वे क्या कहते हैं -
    http://2.bp.blogspot.com/_kvO9G5Zbtuo/TFUTUpHEfrI/AAAAAAAABAE/h5z8t9TlkPQ/s1600/Vibhuti-Narayan-Rai-Statement.jpg
    "...औरतें भी वही गलतियाँ कर रही हैं जो पुरुषों ने कीं। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियाँ भी आस्था, प्रेम और आकर्षण के खूबसूरत सम्बन्ध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस सम्भावना को बाधित कर रही हैं जिसके त...हत देह से परे भी ऐसा बहुत कुछ घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।"

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  19. अरविन्द जी आप शायद इस ग़लतफ़हमी के शिक़ार हैं कि हम ब्लाग से बाहर कुछ नहीं पढ़ते। कितनी भी महान बातें क्या उस वाक्यांश और उस गाली को जस्टीफाई कर सकती हैं?

    आप जो कर रहे हैं वह कुक्कुर विलाप में स्वर देने जैसा ही है…

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  20. विभूति के बयान पर जसम
    जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म. गा हिं. वि. वि. के कुलपति श्री विभूति राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिंदी रत्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निंदा करता है. यह साक्षात्कार उन्होंने नया ज्ञानोदय पत्रिका को दिया था. हमारी समझ से यह बयान न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है , बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक हैं. इतना ही नहीं बल्कि बयान हिंदी के स्त्रीलेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है. आश्चार्य है की पूरे साक्षात्कार में यह बयान पैबंद की तरह अलग से दीखता है क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कॊई सम्बन्ध् भी नहीं है. अच्छा हो कि श्री राय अपने बयान पर सफाई देने की जगह उसे वापस लें और लेखिकाओं से माफ़ी मांगें. नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींद्र कालिया अगर चाहते तो इस बयान को अपने सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन के लिए, चर्चा के लिए उपयोगी समझा. आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई सम्पादक , लेखक बेचैन हैं. इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्रकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएँ हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री-अस्तित्व. रवींद्र कालिया को भी इसके लिए माफी माँगना चाहिए. जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते. साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री-विरोधी, अराजक भाषा की ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन संभव है और न विमर्श. जसम हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धनजन कॆ साथ है जिन्हॊनॆ इस बयान पर अपना रॊष‌ व्यक्त किया है.
    -प्रणय कृष्ण, महासचिव जसम

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  21. आप जो कर रहे हैं वह कुक्कुर विलाप में स्वर देने जैसा ही है… waah

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  22. शिरीष कुमार मौर्य2 अगस्त 2010 को 4:59 pm बजे

    @ek ziddi dhun

    प्यारे धीरेश भाई मेरे लिए भाषा एक खेल नहीं है. आपने मेरे आदरणीय और जी पर सुन्दर कटाक्ष किया....यूँ जी अशोक का भी है. ...यह उस पर भी है. आप बताइये क्या सिर्फ़ विभूति कहने से विरोध या भर्त्सना और तीखी हो जाएगी. फिर उनका तो नाम ही विभूति है, जिसका अर्थ सब जानते हैं.....उसे भी बदलना पड़ेगा....क्यूंकि सिर्फ़ उसका इस्तेमाल करने पर भी आदर प्रकट हो जायेगा. विभूति जी ने या और कई लोगों ने भाषा में अपने न्यूनतम आदर्श छोड़ दिए हों पर मैं नहीं छोड़ पा रहा हूँ. इन दो शब्दों के प्रयोग में एक समवर्ती व्यंग्य भी था, जिसे पकड़ पाना शायद इतना आसान नहीं, यहाँ मैं असफल रहा.

    इस प्रसंग पर मैंने और भी कुछ ज़रूरी फैसले लिए हैं, जिन पर वीरेन जी और दूसरे अग्रजों से बात भी की है, मगर, जिन्हें यहाँ लिख कर निरर्थक प्रचार उनका या अपना नहीं करना चाहता...कभी फोन पर बात करेंगे.

    सिर्फ़ भाषा से विरोध करना हो तो फिर सीधे उसी भाषा का इस्तेमाल किया जाये, जिसका विभूति जी ने किया... और ख़ुश हुआ जाये कि लो हमने मुंहतोड़ जवाब दे दिया.

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  23. ठीक है अशोक जी ,एक और गीदड़ हुंआस तो दूसरी ओर कथित कुक्कुर विलाप और बौद्धिक जुगाली करते प्रगतिशील -जब किसी को कुछ सुनना ही नहीं है तो !

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  24. नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक मे साक्षातकार के दौरान बी एन राय साहब ने जो कुछ अपने पूर्वाग्रहों या दुराग्रहों के वशीभूत होकर कहा उसपर कुछ कहने से पहले मै उस पत्रिका के संपादक रवीद्र कालिया जी से पूछना चाहती हूँ कि- संपादन का मतलब क्या होता है ? नया ज्ञानोदय पत्रिका की मै नियमित पाठिका हूँ और उस पत्रिका के मंच से यदि विभूति नारायण राय जी ने 'लेखिकाओं'को लेकर इतनी अशोभनीय भाषा का प्रयोग किया तो उसको पत्रिका मे जगह देने का औचित्य ही क्या था ? विभूति जी का 'शहर मे कर्फ्यू ' , 'तबादला',और ' घर ' मैंने भी पढ़ा है और उस आधार पर मै उनसे ऐसी उम्मीद नहीं रखती थी ,अब यदि ऐसा उन्होने कहा है तो इसकी जवाबदेही भी उनकी है ,और उनको इससे बजाय मुँह चुराने के ,अपनी बात रखनी चाहिए । सभी सम्मानित बड़ी लेखिकाओं से मेरा अनुरोध है कि बी एन राय के अशोभनीय वक्तव्य के जवाब मे पदमा राय जी और ममता कालिया जी का नाम लेकर कुछ सवाल -जवाब करना बेहद शर्मनाक है और हिन्दी साहित्य की गरिमा को मिट्टी मे मिलाने जैसा है । 'हंस' की वार्षिक गोष्ठी मे ऐसे अनर्गल और अशोभनीय बातों का उठना हम सभी हिन्दी भाषी लोगो के लिए तकलीफदेह और शर्म से चुल्लू भर पानी मे डूब मरने जैसी स्थिति है ।

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  25. इस विवाद में ’नया ग्यानोदय’के बेवफ़ाई विशेषांक पर भी बहस होनी चाहिए. संपादक रविन्द्र कालिया की अधकचरी साहित्यिक और संपादकीय समझ के हवाले से एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी उठा है क्या साठ के दशक के लेखकों का नर -नारी संबंधों को देखने का नज़रिया मूलत: लुच्चई और लफ़ंगई से ही भरा हुआ हैं ?उस पीढी के ज़्यादातर कहानीकार भयावह रूप से पुरुषवादी मनसिकता से ग्रस्त रहे हैं.
    . कालिया जब इस अंक को ’बेवफ़ाई अंक नाम देते हैं तो इसी में नारी -पुरुष सम्बन्धों को लेकर उनकी परम्परावादी नैतिकता और साहित्य की सतही सोच उजागर हो जाती है. नर - नारी समबन्धों की जटिलताओं में जाने की कूवत यदि उनमें होती तो क्या वे पत्रिका के पाठकों को अपना माल बेचने वाले एक निर्लज्ज ’सेल्समैन ’ की तरह साहित्य में बेवफ़ाई खोजने निकल पड़ते ?कालिया यह बतायें कि क्या वे मदाम बोवेरी या अन्ना कैरेनिना को बेवफ़ा कहने की हिकमत कर सकते है?पता नहीं उन्होंने इन उपन्यासों को पढा भी है या नही .चलिए उनसे यही पूछ लिया जाय कि टैगौर के ’ घरे बाहरे ’, जैनेन्द्र के ’त्यागपत्र ’, भगवती बाबू के ’ रेखा ’या विमल मित्र के ’ साहिब बीबी और गुलाम ’ की नायिकाएं क्या बेवफ़ा कही जायेंगी ?यह अचरज़ की बात नहीं कि जब कालिया इन औरतों को ’बेवफ़ा ’ कहता है तो उसका परम मित्र विभूति महिला कथाकारों को ’ " छिनाल " कह देने में संकोच नहीं करता .यह उसी घटिया मानसिकता का आगे का विस्तार है. और अचानक ही ये लोग ’ एक्सपोज़ ’ हो गये हैं.मेरा सुझाव यह है कि
    महिलाएं विभूति से त्यागपत्र आदि तो बाद में मांगें पहले जाकर इन दोनों महानुभावों की जमकर धुलाई कर दें .हिन्दी की एक पाठिका के रूप में
    मैं इस पुनीत कार्य मे आगे बढकर हिस्सा लेने को तैयार हूं.
    -वैशाली मेहरोत्रा

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  26. जो लोग संघ का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए की कई "सेना" वाले गलियां नही देते सीधे खदेड़ पर पिटते हैं और मित्रता दिवश पर लड़के- लड़कियों पर हथियार लेकर हमले करते हैं

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  27. शिरीष भाई, बेवफाई अंक आप पढ़ना नहीं चाहते, ठीक है। लेकिन कालिया का यह लुंपनिज्म अचानक नहीं है। यह तो युवा महाविशेषांकों में भी छलक ही रहा था। और उससे पहले भी कभी छिपा नहीं।...

    और मैं आपसे तो क्या किसी से भी नहीं चाहूंगा कि वह उस भाषा का इस्तेमाल करे जोविभूति कर रहे हैं। शायद मैं भी आदरणीय और जी के बजाय कुछ ज्यादा कहना चाहता था, पर सफल नहीं रहा। इतना जरूर लगता है कि हमारे प्यारे कवि-लेखक कभी कुछ मुद्दों पर थोड़ा रिस्क भी लें, कुछ जरा साफ भी बोलें. आपके समवर्ती व्यंग्य कोसमझ नहीं सका, मेरी सीमा है।
    अब जो लिख रहा हूं उसे आप अपने लिए न लें पर यह बड़े पैमाने पर हो रहा है कि लेखक उन मुद्दों पर भी जो वीरेन डंगवाल जी और उनके समकालीन कई (सब में नहीं) लेखकों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न होते थे, नेताओं जैसा व्यवहार कर रहे हैं। सब को साधे रखों, हर लिस्ट की संभावना बरकरार रखो और `पालिटिकली करेक्ट` भी बने रहो।

    माफ कीजिए कि हम और हमारे आदरणीयों और जीओं यानी महापुरुषों की जेंडर सेसिटीविटी का स्तर ऐतिहासिक रूप से ज़ीरो रहता आया है।

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…