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रविवार, 3 अप्रैल 2011

किताब के बहाने - ब्राहमणवाद और जनविमर्श

डा सेवा सिंह की बेहद ज़रूरी किताब -'ब्राहमणवाद और जनविमर्श' की एक गहन समीक्षा भाई कुमार मुकुल द्वारा )

डॉ सेवा सिंह के लिये ब्राहमणवाद जातिसूचक संज्ञान नहीं एक विचारधारा है, वचर्स्वी वर्गों के प्रभुत्व को आधार प्रदान करने वाली एक सत्तामूलक विचारधारा। बौदध और लोकायत लंबे समय तक इसे चुनौती देते रहे पर छठी शताब्दी के बाद लोकायतों के विघटन और बौदधों के पतन के बाद से यह विचारधारा जनसामान्य की मनोचेतना को विधि ग्रंथों,स्मृतियों,शास्त्रों के दैवी आतंक और महाकाव्यों व पुराणों की भक्तिपरक कथावर्ताओं के माध्यम से लगातार अनुकूलित करती रही है। विदवानों के अनुसार बौदधों के पतन के साथ भारत का भी पतन होता है, इसके मूल में आप ब्राहमणवादी विचारधारा के विस्तार को देख सकते हैं, जिसके अनुसार ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। फिर यह भारत देश भी इसी जगत में है तो उसके शासकों का आना जाना भी मिथ्या हुआ। ब्राह्मणवाद के पुरोधा दलित,ब्राह्मण कवि तुलसी इसे कोउ नृप होंही हमें का हानी कहकर इसे स्थापित भी करते हैं। दर्शन के नाम पर वेदांत और भक्ति को यह विचारधारा अपना आधार बनाती रही है, यह विडंबना ही है कि इसी विचारधारा के चर्चित कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने वेदांत को दर्शन ना मानकर मात्र एक धर्मानुशासन कहा है। उपनिषदों का आत्मवाद ब्राह्मणवाद का मुख्य श्रोत है और वर्णभेद इसका मुख्य सरोकार, जिसे कौटिल्य से लेकर मनु और तुलसीदास तक सभी लागू करते हैं।


किसानों ,श्रमिकों,शिल्पियों,सेवाकर्मियों,चिकित्सकों, ब्राह्मणवादी शब्दावली में कहें तो शूद्रों, का दमन वर्णव्यवस्था का मूल रहा है। ऋग्वेद में जहां ओदनम् यानि कि भात एक देवता है, वहीं वेदांत में कृषि कर्म को वेदअध्ययन में बाधक के रूप में देखा गया है। मजेदार बात है कि वेदों के संकलक और रामायण के रचनाकार शूद्र हैं और रामचरितमानस के रचनाकार तुलसी एक दलित के यहां पले दलित ब्रह्मण हैं, पर इन शास्त्रों में अधिकांश की शिक्षाएं शूद्रों के दमन व अनुशासित करने में सहयोग करती हैं। शूद्र के अन्न पर पलने वाले ब्रह्मण को स्वर्ग नहीं मिल सकता,भले ही वह नित्य वेदपाठी हो। तुलसी को भी अयोध्या के ब्राह्मणों ने कभी स्वीकार नहीं किया। यहां तक कि ब्राह्मणों को चुनौती देते तुलसी संस्कृत की जगह लोकभाषा अवधी में रचना करते हैं। पर जिस वर्णाश्रम ने उनकी दुर्दशा की कि उन्हें लिखना पडा कि मांग कर खाएंगे और मस्जिद में सोएंगे पर तुम्हारे सामने नहीं झुकेंगे, किसी की बेटी से बेटा नहीं ब्याहना मुझे , ना किसी की जाति बिगाडनी है, उसी वर्णाश्रम को वे रामकथा में स्थापित करते हैं। दरअसल यह उस अनुकूलन का परिणाम है जिसके तहत शूद्र अपनी पीडा को पूर्वजन्म के कर्मों को परिणाम मानते रहे और वेद,महाभारत,रामायण की रचना करते हुए भी अपनी स्थिति को विश्लेषित कर पाए। हालांकि वाल्मिकी ,तुलसी के वरक्स कबीर ,रैदास,दादू आदि तमाम संतों ने दशरथ पुत्र राम की जगह घट-घट वासी राम को तरजीह दी । इस विचारधारा की जकडन ऐसी रही कि बोद्धों,जैनों,लोकायतों की चुनौती के अलावे जब तब हुए विदेशी हमले ही इसकी पकड कुछ ढीली कर पाए। बांटों और राज करो की नीति भले अंग्रेजों की हो पर उसकी जमीन वर्णविभाजित भारतीय समाज ने ही उपलब्ध करायी थी।

शूद्र की तरह स्त्री को भी इस विचारधारा ने पापयोनी माना और कल्याण के लिये भगवतशरण में आने को कहा। स्त्री के कल्याण को पुरूष के कल्याण से अलग करने की इस अधमता को हम भारत की पतन गाथा की तरह पढ सकते हैं। शास्त्रों में स्त्रियों और शूद्रों की हत्या पर समान दंड की व्यवस्था थी,जबकि ब्राह्मण को अपीडनीय माना गया। शास्त्रों के अनुसार पूर्वजन्म के पापों के फल के रूप में स्त्री योनी में जन्म होता है। आगम-निगम के जानकार तुलसी यूं ही शूद्र के साथ नारी को ताडणा का अधिकारी नहीं बताते।

शूद्र अगर बाहर की श्रमशील इकाई थे तो स्त्री घर की। पुरूष मात्र की जन्मदात्री, माता जो कभी कुमाता नहीं होती, को ब्रह्मणवाद ने मात्र योनी यानि वंशोत्पादन के साधन की तरह देखा और अपनी इस गुलामी के विरूद्ध जब स्त्री ने आवाज उठाई तो उसी के द्वारा उसके ही हृदय को भेडिए का हृदय कहलवाया गया। भागवत पुराण-उर्वशी। स्त्री को उसके उच्चासन से दुनिया भर में गिराने के ऐसे प्रयास देखने में आते हैं। शेक्सपीयर का एक पात्र भी क्रूएल्टी के उमन का पर्यायवाची पुकारता है। यूं लोक में इससे अपने तरह से संघर्ष भी चलता रहता है, उस फिल्मी गाने को याद कीजिए- औरत ने जन्म दिया मर्दों को मर्दों ने बाजार दिया। ..............जारी


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