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शुक्रवार, 23 मार्च 2012

अलविदा ‘पाश’ ...तुम सदा हमारे दिलों में हो और रहोगे


आज शहीद ए आज़म भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के साथ पाश के भी शहादत का दिन है 


  • राम जी तिवारी 


 आज अवतार सिंह संधू उर्फ ‘पाश’ की 24 वीं पुण्य तिथि है | 23 मार्च 1988 को आज ही के दिन इस क्रांतिकारी जन-कवि की आतंकवादियों ने उनके अपने ही गांव में गोली मारकर हत्या कर दी थी | पंजाब के जालंधर जिले में सन 1950 में जन्में ‘पाश’ का जीवन कई मायनों में अनोखा रहा | पहला तो यही कि “साहित्य के जरिये भी आतताईयों के चेहरे पर वार किया जा सकता है और वह वार इतना तिलमिला देने वाला हो सकता है कि वे आपकी जान भी ले लें” | हालाकि अपनी लेखनी के लिए जीवन को कुर्बान करने वाले साहित्यकारों में ‘पाश’ अकेले नहीं हैं , वरन उनमे से एक हैं जो कुछ लोगों के इन शातिराना सवालों का , कि ‘लिखने मात्र से क्या होता है?’ , माकूल उत्तर छोड़ जाते हैं, कि व्यवस्थाओं की गोद में बैठकर तमगे लूटने वालों से इतर भी देखने पढ़ने की कोशिश होनी चाहिए , जहाँ कवि कहता है कि ‘ तुम मुझे एक चाकू दो / मैं अपनी रगें काटकर दिखा सकता हूँ / कि कविता कहाँ है ” |(सर्वेश्वर)|  दूसरा यह कि “जीवन को मापने का तरीका हमेशा से गुड़वत्ता ही हुआ करता है , उसकी मात्रात्मकता नहीं” | ‘पाश’ के 37 वर्षीय जीवन की लम्बाई और सौ – सवा सौ कविताओं की संख्या उन तमाम लोगों के जीवन और पुस्तकों पर इक्कीस बैठती है , जिन्हें आठ-नौ दशकों का भरा-पूरा जीवन नसीब हुआ और जिनकी किताबों की सूचियाँ इस व्यवस्था की विडंबनाओं जितनी ही लंबी हैं |

 एक तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण अनोखापन यह देखा जा सकता है कि न तो ‘पाश’ को न ही उनके चाहने वालों को,  तब या अब,  किसी भी कटघरे में खड़े होकर जबाब देना पड़ा है, या पड़ता है कि इन कविताओं का आशय वह नहीं वरन यह था | न तो उनके पास कोई ‘महामौन’ की ‘गुफा-कन्दरा’ है और न ही शब्दों की ओट में खेली गयी बाजीगरी , वरन वे तो सीधे-सीधे स्वीकार करते हैं कि “ मैं शायरी में क्या समझा जाता हूँ / जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में / कोई आवारा कुत्ता आ घुसे |” , ठीक उसी तरह जैसे की आलोक धन्वा स्वीकार करते है कि “मेरा कविता में इस तरह से आना / उन्हें एक अश्लील उत्पाद लगा ” | तो एक तरफ ऐसी स्वीकारोक्तियां साहित्य के प्रचलित  प्रतिमानों के खोखलेपन को दर्शाती हैं और दूसरी तरफ इन ‘इन आवारा कुत्तों’ और  ‘अश्लील उत्पादों’ के साथ आने वालो को मिलने वाली पाठकीय स्वीकारोक्ति नए प्रतिमानों को रचती नजर आती हैं |

                            
हम जानते हैं कि “पाश” की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी लेकिन सत्ता और उनके खिलाफ लड़ रहे आतंकवादी - दोनों पक्षों – को उनकी क्रांतिकारी कवितायेँ इतनी अखरने लगीं कि उन्होंने “पंजाब के लोर्का” माने जाने वाले इस जनवादी कवि की असमय बलि ले ली | यह कवितायें हीं थीं , जिन्होंने एक तरफ तो उन्हें अवाम में अमर कर दिया, वहीँ दूसरी तरफ 37 वर्ष की अल्पायु में उनकी हत्या का कारण भी बनीं | कहा तो यह भी जाता है कि यह महज एक संयोग था कि “धर्म दीक्षा के लिए विनयपत्र” वालों की ट्रिगर पर तैनात तर्जनी पहले हरकत में आ गयी ,और “बेदखली के लिए विनयपत्र” वालों का माथा कलंक के लगने वाले टीके से साफ़ बच गया |
                
 “पाश” की काव्य-यात्रा 15 वर्ष की उम्र से ही आरम्भ हो गयी थी और 20 वर्ष के होते-होते जब उनका पहला संकलन ‘लौह कथा’ छपा था , तब वे पंजाबी के एक प्रतिष्ठित कवि बन गए थे | पाश के कुल चार कविता संग्रह मूल पंजाबी में प्रकाशित है , और ये हैं “लौह कथा”(1970) , “उडडदे बाँजा मगर”(1974), “साडे समियाँ विच”(1978) और “लड़ान्गे साथी”(1988) | और हिंदी में अनूदित दो संग्रह “बीच का रास्ता नहीं होता” और “समय ओ भाई समय” भी प्रकाशित हुए हैं |  इस प्रतिभाशाली युवक ने उसी अल्पवयस्क उम्र में लिखा था ...
               
              “ भारत –
               मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द 
               जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए 
               बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है 
               इस शब्द के अर्थ 
               खेतों के उन बेटों में हैं 
               जो आज भी बृक्षों की परछाइयों से 
               वक्त मापते हैं 
               और वह भूख लगने पर
               अपने अंग भी चबा सकते हैं 
               ....................................
               .................................
               कि भारत के अर्थ 
               किसी दुष्यंत से सम्बंधित नहीं 
               वरन खेतों में दायर हैं 
               जहाँ अन्न उगता है 
               जहाँ सेंध लगती है |”
                            
पाश की कविता हमारी क्रांतिकारी काव्य-परंपरा की अत्यंत प्रभावी और सार्थक अभिव्यक्ति है | मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित व्यवस्था के नाश और एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए जारी जन-संघर्षों में इसकी पक्षधरता स्पष्ट है | नामवर सिंह ठीक ही कहते है कि “ पाश की कविता की यह ताकत है जो अनुवाद में भी इतना असर रखती है | मूल पंजाबी में वह कैसी होगी इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है |” बिलकुल ...जैसे कि यह ---
               
               “हाथ यदि हों तो 
                जोड़ने के लिए ही नहीं होते 
                न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं 
               यह गर्दनें मरोडने के लिए भी होते हैं 
               हाथ यदि हों तो 
               हीर के हाथ से छुरी पकड़ने के लिए ही नहीं होते 
               सैदे की बारात रोकने के लिए भी होते है 
               कैदो की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
               हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते 
               शोषक के हाथो को तोडने के लिए भी होते हैं |”

(हीर- प्रसिद्द लोक गायिका ),  (सैदे-हीर का अनचाहा पति)  , (कैदो-हीर के प्यार का दुश्मन चाचा ) 

  ‘पाश’ को समझने के लिए किसी खास कविता का चयन करना आवश्यक नहीं है , आप कही से भी उठाकर उन्हें उद्धरित कर सकते है | आपको वही ‘पाश’ मिलेंगे , जिसे आप पढते और समझते आये थे | ध्यान रहे कि यह ‘पाश’ की एकरसता या दोहराव नहीं है , वरन उनकी प्रतिबद्धता और जन-पक्षधरता है , जो आईने की तरह साफ़ और स्पष्ट है और यही स्पष्टता उनकी कविता की विशेषता और बड़ी ताकत है | उनकी कविताओं के संग्रहकर्ता और अनुवादक चमन लाल ठीक ही कहते है कि “ ‘पाश’ हमारे समाज के जिस वस्तुगत यथार्थ को विश्लेषित करना चाहते हैं , उसके लिए वे अपनी भाषा , मुहावरे और बिम्बों-प्रतीकों का चुनाव ठेठ ग्रामीण जीवन से करते हैं | वे तमाम लोग जो अपनी तरह से एक बेहतर मानवीय समाज की आकांशा रखते हैं , बार-बार इन कविताओं में आते हैं |” जिस ट्रेडमार्क कविता ‘सबसे खतरनाक’ के लिए उन्हें याद किया जाता है , ध्यान रहे कि वह उनकी एक अधूरी कविता है | अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यदि यह पुरी हुई होती तो कैसी होती , बल्कि सच तो यह है कि हम और आप यह अंदाजा भी नहीं लगा सकते | न ही हम यह बता सकते हैं कि नाजिम हिकमत , पाब्लो नेरुदा और मुक्तिबोध के कैम्प का यह आदमी किन अनलिखी कविताओं के साथ इस दुनिया से कूच कर गया | वह हमें और किन खतरनाक चीजों से आगाह करना चाहते थे  , मसलन .... 

                मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
                पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती 
                गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती 
                ....................................................................
                ....सबसे खतरनाक होता है 
                मुर्दा शांति से भर जाना 
                न होना तड़प का सब सहन कर जाना 
                घर से निकलकर काम पर 
                और काम से लौटकर घर जाना 
                सबसे खतरनाक होता है 
                हमारे सपनों का मर जाना |

रवि कुमार स्वर्णकार का कविता पोस्टर 
चमन लाल को यहाँ पुनः उद्दृत करना चाहूँगा कि “लोक जीवन से उर्जा ग्रहण करती हुई ‘पाश’ की कविताये प्रतिगामी आस्थाओं और विश्वासों की स्पष्टतः शिनाख्त करती हैं |वे हमें हर उस मोड़ पर सचेत करती हैं , जहाँ प्रतिगामिता के खतरे मौजूद हों और ऐसा करते हुए ये कविताएं प्रत्येक उस आदमी से संवाद बनाये रखती हैं , जो देर-सबेर जनता के पक्ष में खड़ा होगा | यही खूबी ‘पाश’ को एक विलक्षण कवि का दर्जा प्रदान करती है |  समाज की प्रत्येक जकड़नों , प्रतिगामिताओं और यथास्थितियों को खुली चुनौती देते हुए वे स्वतंत्रता , प्रगतिशीलता और वास्तविक जनतंत्र के विकल्प का मार्ग सुझाते हैं | धर्म , व्यवस्था , राजनीति और समाज को लेकर उनकी स्पष्ट राय है | कहीं कोई दुराव नहीं , कहीं कोई छिपाव नहीं | बिलकुल स्पष्ट ....तभी तो “सब कुछ ईश्वर की मर्जी से होता है” , जैसे जुमले को ख़ारिज करते हुए वे सवाल करते हैं कि 

               “रब की यह कैसी रहमत है 
               जो गेंहूँ गोड़ते फटे हाथों 
               और मंडी के तख्तपोश पर बैठे                            
               मांस के उस पिलपिले ढेर पर
                                                                               एक साथ ही होती है |”

‘भारत’, ‘समय कोई कुत्ता नहीं’ , ‘तूफ़ान कभी मात नहीं खाते’ , ‘कांटे का जख्म’  ‘अंत में’ , ‘उड़ते हुए बाजो के पीछे’ , ‘हम लड़ेंगे साथी’ , ‘हमारे समयों में’ , ‘मैं अब विदा लेता हूँ’ , ‘कामरेड से बातचीत’ (पुरी श्रृंखला) , ‘धर्म दीक्षा के लिए विनयपत्र’, ‘बेदखली के लिए विनयपत्र’ और ‘सबसे खतरनाक’ जैसी अनेक कविताओं को पढते हुए पाठक को यह समझाने की जरुरत नहीं होती कि ‘पाश’ की कविताएं किस पक्ष के साथ और किसके खिलाफ खड़ी हैं | जीवन में सबको साधने वाले और कविताओं में मुलायमियत टटोलने वाले लोगों के लिए ऐसी पक्षधरता और स्पष्टता एक ऐसे आईने का कार्य करती है , जिसमे ऐसे लोगों को उनका अपना नंगापन साफ़ साफ़ दिखाई दे सके | ऐसे आदमी ‘पाश’ को यदि सत्ता परेशान करती है , अपनी लेखनी के लिए जेल की सजा भुगतनी पड़ती है , उसके पीछे आतंकवादी पड़ जाते हैं , तो कैसा आश्चर्य ..? आश्चर्य तो यह है कि जिस अंत को “पाश’ ने दस साल पहले भांप लिया था , वह दस साल तक मौन कैसे रहा..?  एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह , जो अपना जीवन दूसरों के लिए छोड़ जाता है “पाश” ने गहन संवेदना के साथ लिखा था ---- 

               मैं अब विदा लेता हूँ 
               मेरी दोस्त 
               .......................
               प्यार करना और लड़ सकना 
               जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त , यही होता है 
               धूप की तरह धरती पर खिल जाना 
               और फिर आलिंगन में सिमट जाना 
               बारूद की तरह भड़क उठना 
               और चारों दिशाओं में गूँज जाना 
               जीने का यही सलीका होता है मेरी दोस्त 
               .....................................................
और फिर प्यार में बिताए खूबसूरत क्षणों को जीते हुए कविता के अंत में इस सबको भूलकर सिर्फ यह याद दिलाते हैं , 
               
               तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त ,
               सिवाय इसके 
               कि मुझे जीने की बहुत लोचा (लालसा) थी 
               कि मैं गले तक जिंदगी में डूबना चाहता था 
               मेरे भी हिस्से का जी लेना , मेरी दोस्त 
               मेरे हिस्से का भी जी लेना ....|”
                               
‘पाश’  की इस लंबी कविता को पढते हुए आँखे नम हो जाती हैं और इस दुनिया को जी भरकर कोसने की ईच्छा होती है , जिसमें “पाश” जैसों के जीने के लिए कोई जगह नहीं है |इसे यहाँ फिर दोहराना उचित होगा कि पंजाबी से हिंदी में अनूदित होने के बाद भी उनमे इतनी आग बची है , कि आज भी जन-पक्षधर लोगों को उनसे उर्जा मिलती रहे | “कामरेड से बातचीत” श्रृंखला की कविताओं में “पाश” एक विलक्षण साम्यवादी विचारक के रूप में हमारे सामने आते है और यह अनायास नहीं है कि इस श्रृंखला को उनके रचनात्मक जीवन यात्रा का उत्कर्ष भी माना जाता  हैं |

 23 मार्च 1988 को “पाश” भी अपने जीवन के प्रिय आदर्श , शहीद-ए-आजम के रास्ते पर चले गए | याद हो कि 57 वर्ष पूर्व इसी दिन भगत सिंह भी अपने साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ देश के स्वतंत्रता-आंदोलन की बलिवेदी पर चढ़े थे | यह अदभुत संगम इस तारीख को न सिर्फ अमर बनाता है , वरन चमन लाल के शब्दों में , “हमें यह भी सिखाता है कि राजनीतिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी को मानव-मूल्यों की रक्षा के संघर्ष में अलगाया नहीं जा सकता |”  ‘पाश’ पर लिखते समय लेख के अंत का ख्याल अंदर तक कचोटने वाला होता है | उँगलियाँ की-बोर्ड पर आंसुओं को दर्ज तो करना चाहती हैं , कि तभी “पाश” का यह सन्देश आँखों में चमक उठता है ..........
                   “हम लड़ेंगे साथी जब तक 
                   दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकी है 
                   जब बन्दूक न हुई , तब तलवार होगी 
                   जब तलवार न हुई , लड़ने की लगन होगी 
                   लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरुरत होगी 
                   और हम लड़ेंगे साथी.......
                   हम लड़ेंगे  
                   कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता 
                   हम लड़ेंगे 
                   कि अभी तक लड़े क्यों नहीं 
                   हम लड़ेंगे 
                   अपनी सजा कबूलने के लिए 
                   लड़ते हुए मर जाने वालों 
                   की याद जिन्दा रखने के लिए 
                   हम लड़ेंगे साथी ........हम लड़ेंगे साथी.........

          
अलविदा ‘पाश’ ...तुम सदा हमारे दिलों में हो और रहोगे .......
                                                   
                                                                                                       हम सबका क्रांतिकारी लाल सलाम .....


                                               

             
             
                

         

                                 

9 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे समय के अप्रतिम कवि हैं पाष। लोक से उनका जुड़ाव उनको लोक में इस तरह प्रतिस्ठित करता है कि वे आज भी हमारे दिलों में धड़कते हैं। पाष जैसा क्रान्तिकारी कवि ही यह लिख सकता है कि हाथ षोसकों की गरदन मरोड़ने के लिए होते हैं। ऐसा क्रान्तिकारी कवि ही बेहतरीन प्रेम कविताएॅ लिख सकता है। क्योंकि प्रेम भी वही कर सकता है जो हमेषा अपने उत्सर्ग के लिए तैयार रहे। इस अप्रतिम कवि को हमारा लाल सलाम। रामजी भाई को इस बेहतरीन आलेख के लिए और अषोक जी को प्रस्तुति के लिए बधाई एवम आभार।

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  2. हमारे समय के अप्रतिम कवि हैं पाष। लोक से उनका जुड़ाव उनको लोक में इस तरह प्रतिस्ठित करता है कि वे आज भी हमारे दिलों में धड़कते हैं। पाष जैसा क्रान्तिकारी कवि ही यह लिख सकता है कि हाथ षोसकों की गरदन मरोड़ने के लिए होते हैं। ऐसा क्रान्तिकारी कवि ही बेहतरीन प्रेम कविताएॅ लिख सकता है। क्योंकि प्रेम भी वही कर सकता है जो हमेषा अपने उत्सर्ग के लिए तैयार रहे। इस अप्रतिम कवि को हमारा लाल सलाम। रामजी भाई को इस बेहतरीन आलेख के लिए और अषोक जी को प्रस्तुति के लिए बधाई एवम आभार।

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  3. behtreen ramji bhayi......aap ka likha huwa dil main utar jata hai. fir yahan to dil main utarane ke do-do karan hain. koyi janpaxdhar lekhak hi itana sundar likh sakata hai......behtreen.man khush ho gaya.

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  4. behtreen ramji bhayi......aap ka likha huwa dil main utar jata hai. fir yahan to dil main utarane ke do-do karan hain. koyi janpaxdhar lekhak hi itana sundar likh sakata hai......behtreen.man khush ho gaya.

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  5. रामजी ने बहुत अच्‍छा लेख लिखा... इसकी सबसे खास बात यह कि दो समानधर्मा क्रांतिकारियों को लगातार साथ साथ याद करता हुआ लेख है और अपने समय से रूबरू होता हुआ भी... अमर शहीदों को क्रांतिकारी लाल सलाम...रामजी को भी सलाम...

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  6. सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

    _______________________


    और
    उससे ज़्यादा खतरनाक है वो
    रेडीमेड सपने दिखाए जाना

    जो कि अब दिखाए जा रहे हैं
    _______________________


    बेहतरीन आलेख है।

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  7. tino comred ko laal salam .Ramji ko dhanyvad. jab kabhi bhi kisi anayay par chuppi saadh lete hu tab pash aur bhagtsingh aakhe dikhate hai aur daud padta hai lahu naso may .

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  8. बहुत ही बेहतरीन रचना। अब तक पढ़ी रचनाओं में सर्वोत्कृष्ट

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…