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मंगलवार, 27 मई 2014

जनतंत्र के सामने


(जनसत्ता में प्रकाशित यह आलेख चुनाव नतीजों के आने से ठीक बाद  लिखा गया था)
  • अंजुम शर्मा


बात चुनाव परिणाम वाले रोज़ की है. खाने के बाद अमूमन पार्क में टहलना होता है. उस रोज़ कुछ पहले निकला. साथ में दो मित्र भी थे. नुक्कड़ से चौराहे तक और दूकान से पार्क तक हर कहीं चर्चा का एक ही विषय था- मोदी. मोदी समर्थकों की आवाज़ में इतना जोश था कि आप कानों में रूई भी डाल लें तो कोई फर्क न पड़े. उनके हाथ में होता तो उस दिन पार्क का हरा रंग उतार कर भगवा रंग चढ़ा देते. बहरहाल, हमने पार्क में चौकोर पाथ पर धीरे धीरे चलना शुरू किया. अप्रत्याशित नतीजों पर मैं भी मित्रों संग चर्चा कर रहा था. हालांकि चुनाव परिणाम हम तीनों में से केवल मेरे लिए ही चौंकाने वाले थे. इसलिए बोलने के लिए मेरे पास कम उनके पास ज़्यादा था- ‘क्या बे! सुने हैं बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है. साले, बड़ी हाय तौबा मचाये थे. मार फेसबुक पर पोस्ट पे पोस्ट, अखबार में आलेख पर आलेख कि देश छोड़ देंगे, हई कर देंगे हउ कर देंगे. लेकिन हुआ कुछ? मोदी ‘शेर’ ह भईया! सब भीतर से जानते थे कि आएगा वही लेकिन ड्रामा करना था बेकार का. वैसे कुछ और काम भी है इनके पास? संपादक से लेकर प्रोफ़ेसर तक पूरा दिन तो फेस्सेबुक पर रहते है खाली. लाइमलाईट में आने के लिए विरोध में कुछ भी लिख दो. हैं न? अब लिखो, पता चलेगा...हाहाहा.’

पहले भी कई दफ़ा इस पर बहस हो चुकी थी लेकिन आज कमल खिला था. कुछ भी कहता तो आंकड़े बोलने नहीं देते. इसलिए ‘समय बताएगा’ कहकर चुप हो गया. तभी सामने से हिजाब पहने एक महिला आ रही थी. उसके निकल जाने के बाद हमारे आगे चल रहे दो युवाओं में से एक ने पीछे मुड़कर उस स्त्री की ओर देख और कहा “वह आ गया है, बस कुछ दिन और. अब सच होगा सपना”. इतना कहकर दोनों हँसने लगे. हमारे और उनके बीच फासला इतना कम था कि उनकी आवाज़ पीछे सुनाइ दे रही थी. दूसरे ने कहा ‘ देखिएगा! इतिहास में दर्ज होगा नाम. जितना ये बुद्धिजीवी लोग बोल रहा है न! सबको बताएगा ई मोदिया. बस्स! देखते जाइए बहुत जरुरी है अब देश के लिए. कोई भी आकर आँख दिखा जा रहा है. ऐसे देश चलता है क्या महाराज. बुद्धिजीवी थोड़ो न देश चलाएगा. आया तो था मनमोहना. यूजीसी का अध्यक्ष. का किया? कद्दू.’ और फिर वही हँसी.

क्या यह वाकया हँसी की जगह बेचैनी पैदा नहीं करता? इन युवाओं को क्या चाहिए? ‘अब सच होगा सपना’ हिजाब को देख कर ही क्यों कहा गया? ‘बुद्धिजीवियों को बताएगा मोदी’ किस बात के संकेत हैं? भाजपा द्वारा विजित दो सौ बयासी सीटों में एक भी मुस्लिम सांसद के न होने को क्या हिजाब वाली घटना से जोड़ सकते हैं? या यू आर अनंतमूर्ति को मोदी ब्रिगेड द्वारा कराची के लिए एक तरफ़ा हवाईयात्रा की टिकट भेजा जाना ‘बुद्धिजीवियों को बताए जाने’ के संकेत तो नहीं?

जानता हूँ इसे इस प्रकार व्याख्यायित करने पर मुझे दुराग्रही, अपरिपक्व और न मालूम क्या क्या कहा जायेगा लेकिन मेरी चिंता को उन दो युवाओं ने, मुस्लिमों के नदारद प्रतिनिधित्व ने और इस शर्मनाक हरकत ने कई गुणा बढ़ा दिया है. पिछले पचास वर्षों में पहली मर्तबा सोलहवीं लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या महज़ बाईस रहेगी. आश्चर्य की बात है कि भाजपा की कुल सीटों में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है. केवल महबूब अली कैसर अकेले मुस्लिम सांसद हैं जो राजग में मुसलामानों का प्रतिनिधित्व करेंगे. उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों में बत्तीस सीटों पर मुसलामान आबादी पंद्रह फीसद से अधिक है लेकिन भाजपा ने किसी उम्मीदवार को वहां से टिकट नहीं दिया. कुल चार सौ बयासी उम्मीदवारों में से केवल बिहार, जमू कश्मीर, बंगाल और लक्षद्वीप से सात उम्मीदवारों को भाजपा ने खड़ा किया था. यदि लहर पर भरोसा था तो भाजपा ने देश की सोलह फीसद आबादी के लिए सात उम्मीदवार ही क्यों उतारे? तर्क दिया गया कि भाजपा ने इस बार धर्म और जाति से ऊपर उठकर फैसले लिए और वोट भी इसी आधार पर पड़े. जिन सात उमीदवारों को टिकिट दिया उनमे से कोई विजयी नहीं हुआ जबकि मुस्लिम बहुल इलाक़े में हिन्दू उमीदवार विजयी हुए. क्यों भाजपा ने यह धर्म से ऊपर उठकर उम्मीदवार उतारने का खेल हिन्दू बहुल इलाक़े में मुस्लिम उम्मीदवार को उतारकर नहीं खेला? यदि मुस्लिम बहुल इलाक़े में हिंदु प्रत्याशियों को वोट मिलने का भरोसा था तो हिंदु बहुल इलाक़े में मुस्लिम प्रत्याशी पर यह भरोसा क्यों नहीं किया गया? क्या यह हिन्दुत्व उभार के संकेत हैं? क्या यह उसी कमेन्ट की ओर इशारा नहीं करता जो मोदी समर्थक ने पार्क में हिजाब पहनी महिला की ओर देखकर किया था?

ये उन्मादी अंध समर्थक बार बार विरोधियों को पकिस्तान भेजे जाने की वकालत करते हैं. क्यों अनंतमूर्ति को कराची का ही टिकिट भेजा गया? आरएसएस जिस नैतिकता की दुहाई देकर राष्ट्रीय हित का राग आलापती है, उसके समर्थकों के बीच वही नैतिकता अनंतमूर्ति को टिकिट भेजते वक़्त कहाँ चली जाती है? क्या मोदी का अंतिम व्यक्ति को साथ लेकर चलने का यही फ़ॉर्मूला है जिसमे ‘अंतिम व्यक्ति’ ‘अंतिम भक्त’ तक सीमित है? असमर्थन का यह कैसा विरोध है जो लोकतंत्र के आधार को ही ख़त्म कर दे. विरोध लोकतंत्र की नींव है जिसे अंध समर्थन की चोट से ख़तरा होता है. एक ‘समझ’ का प्रेमी है दूसरा ‘दंभ’ का. अब क्या वे अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का भरोसा दे सकेंगे और अपने से असहमत लोगों के भी विरोध करने के लोकतांत्रिक हक को पहले की तरह बहाल रख सकेंगे? यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी अंतिम व्यक्तितक पहुंचने में दंभ और समझ में से किसे तरजीह देते हैं!

(जनसत्ता से साभार)
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 अंजुम शर्मा 
युवा लेखक और टिप्पणीकार 

1 टिप्पणी:

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