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बुधवार, 25 जनवरी 2012

तिब्बत क्या तुम ने धर्मशाला देखा है ?








गणतंत्र दिवस पर जनपक्ष मे मेरा पहला पोस्ट । तिब्बती युवा कवि तंज़िन त्सुंडे की कविता जिस का हिन्दी अनुवाद लाहुल के कुछ अनाम कवियों ने किया ।








जब  धर्मशाला   में बारिश होती है.

जब  धर्मशाला में बारिश होती है
बारिश की बूँदें बॉक्सिंग ग्लव्ज़ पहन लेती हैं
हज़ारों की संख्या में
वे मेरे कमरे पर बरसती हैं
और इसे पीटने लगतीं हैं बे तरह
अपनी टीन की छत के नीचे
मेरा कमरा भीतर से रोता है
और भिगो देता है
मेरे कागज़ों को मेरे बिस्तर को.

कभी कभी एक चालाक बारिश
आती है पिछवाड़े से
गद्दार दीवारें अपनी एड़ियाँ उठाती हैं
और एक छोटी सी बाढ़ को भीतर आने दे देती है
मैं अपने बिस्तर के टापू पर बैठ कर
अपने बाढ़ग्रस्त देश को देखता हूँ
आज़ादी पर नोट्स
जेल के संस्मरण
कॉलेज के दोस्तों की चिट्ठियाँ
ब्रेड के टुकड़े
और मैगी नूडल्ज़
सतह पर तिर आते हैं सहसा
मानो समृतिपटल पर कुछ भूली बिसरी यादें.

मॉनसून के तीन यंत्रणा भरे महीने
सूई की नोक जैसे पत्तियों वाले चीड़वन
स्वच्छ धुला हुआ हिमालय
चमकता है शाम की धूप में.

जब तक कि थम नहीं जाती बारिश
और मेरे कमरे पर बरसना नहीं छोड़ देती
मुझे अपने टीन छत को सांत्वना देनी है
जो अपनी ड्यूटी बजा रहा है
ब्रिटिश राज से ले कर अब तक
इस कमरे ने अनेक बेघरों को शरण दी है
पर अब इस पर नेवलों, चूहों, छिपकलियों
और मकड़ियों का कब्ज़ा है
जिस के एक हिस्से का मैं किराएदार हूँ
घर की जगह एक किराए का कमरा
जिस के अस्तित्व पर तुम तरस खा सकते हो
मेरी कश्मीरी मकान मालकिन
अस्सी बरस की उम्र में
घर नहीं लौट सकती
अक्सर हम तुलना करते हैं
कौन सुन्दर
काश्मीर या तिब्बत ?

हर शाम
मैं अपने किराए के कमरे मैं लौटता हूँ
पर मैं इस तरह मरना नहीं चाहता

कहीं न कहीं
कोई रास्ता होना चाहिए

मै अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता
मैं बहुत रो चुका

जेल में
हताशा के छोटे छोटे क्षणों में

कहीं न कहीं
कोई रास्ता होना चाहिए

मैं रोना नहीं चाहता
मेरा कमरा काफी भीग चुका है.