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मंगलवार, 5 मार्च 2013

फ्रांस का माली में सैन्य अभियान : कथित समाजवादी आलेंद का साम्राज्यवादी क्षुद्र विस्तार


  • शमशाद इलाही अंसारी 



 
पश्चिमी अफ्रीकी देश माली में फ्रांस जैसी यूरोपीय महाशक्ति इन दिनों इस्लामी कट्टरपंथियों के सफाया अभियान में जुटी हुई है. कुछ हथियारबंद  दाढ़ी वाले पग्गड़धारियों ने गत ८-१० माह से वहां अपनी गतिविधियाँ बढ़ा दी थी कभी वह मध्यकालीन सूफी मज़ारों की कब्रे राजधानी टिम्बकटू में तोड़ कर खबरों में आते तो कभी देश के अधिकतर भाग पर कब्ज़े की तथाकथित ख़बरों से दुनियाभर के प्रचार माध्यमो में जगह बनाते. यह कारोबार एक ख़ास तरह का जनमनस तैयार करने के लिए  पिछले साल के आख़िरी छह महीनो से बहुत कायदे-करीने से लगातार किया जा रहा था. आखिरकार फ़्रांस ने अपने नाटो मित्रो, अमेरिकी युद्धपोतो और कनैडियन सैन्य माल वाहक युद्धक विमान की मदद से माली पर चढाई कर दी. दुनिया को पहले ही बताया जा चुका था कि वहां इस्लामी  कठमुल्लों की बढ़ती ताकत से अफ्रीकी महाद्वीप पर कितनी बड़ी अस्थिरता पैदा होने वाली थी? लिहाजा जनता की मांग और दुनिया की भलाई के लिए समाजवादी राष्ट्रपति के नेतृत्व में फ्रांस को यह फ़ौजी कार्यवाही करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस युद्ध में अभी तक सैंकड़ों लोगों की जाने गयी है और लाखो लोग बेघर हो चुके है.

दुनिया के सभी युद्धों का एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है, मानव इतिहास में कोई ऐसा युद्ध खोजना मुश्किल है जिसका कोई राजनीतिक अर्थशास्त्र न हो. आखिर फ्रांस को अपनी सरहद से हजारो किलोमीटर दूर इस अपेक्षाकृत गरीब मुल्क से क्या खतरा था कि वह उसके खिलाफ युद्ध में कूद पड़ा? आइये इन खतरों की पड़ताल की जाए और यह जानने की कोशिश की जाए कि युद्धों का असल कारण आखिर क्या होता है ?

१९७३ के ‘आयल शाक’ (खनिज तेल की कीमतों में भारी उभार) के बाद फ्रांस ने ऊर्जा के वैकल्पिक उपाए खोजने का निर्णय किया और पाया कि परमाणु उर्जा खनिज तेल का सबसे अच्छा साफ़ सुथरा और सस्ता विकल्प है जिसके परिणामस्वरूप ५६ परमाणु ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना की गयी. आज फ्रांस में कुल ५९ परमाणु ऊर्जा केंद्र है जो उसकी कुल ऊर्जा जरूरतों का ८० प्रतिशत हिस्सा वहन करती है. इस प्रकार फ्रांस परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र में दुनिया का सबसे पहला देश है जिसकी निर्भरता तेल पर सबसे कम है. वह परमाणु ऊर्जा का न केवल अपने देश में खपत के सिलसिले में अव्वल है बल्कि वह परमाणु ऊर्जा का सबसे बड़ा निर्यातक देश भी है. ब्रिटेन की अधिकतर ऊर्जा संबंधी जरूरतों को फ्रांस ही पूरा करता है. फ्रांस की परमाणु उर्जा का उत्पादन, प्रबंधन और बिक्री आदि  में सबसे बड़ा काम ‘अरेवा’ नाम की कंपनी करती है जो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है जिसकी सकल संपत्ति करीब नौ अरब यूरो है,इसके कामगारों की संख्या पचास हजार के आस पास है. अरेवा और ई डी ऍफ़ के अतिरिक्त फ़्रांस में कोई दर्जन भर कम्पनियां ऐसी है जो परमाणु ऊर्जा संबंधी कामों से जुडी है जिनका व्यापार अरबो डालरों का है.

आज पूरी दुनिया में करीब ४३६ परमाणु ऊर्जा केंद्र कार्यरत है, दुनिया में सर्वाधिक औसत विकास दर  से बढ़ते हुए इस व्यापार के चलते कोई ५२१ नए परमाणु केंद्र पूरी दुनिया में कहीं न कही बनाये जा रहे है जो अगले १० वर्षो में काम करना शुरू कर देंगे. आई ए ई ए की एक रिपोर्ट के अनुसार २००३ में  दुनिया भर में १६७४२ टेरा वाट हावर्स बिजली का उत्पादन हुआ जिसका ३९.९% कोयला जला कर, १९.२% प्राकृतिक गैस,१६.३ पानी से और १५.७ % परमाणु से पैदा की गयी. मात्र ०.४% बिजली सूरज और हवा से उत्तपन हुई, अगले २५ वर्षो में यह आंकड़े पूरी तरह बदल जायेंगे और परमाणु ऊर्जा विश्व की ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने में प्रथम स्थान ले लेगी.

उपरोक्त पृष्ठभूमि के साथ ही अब इसके अगले क्रम को भी समझ लेना चाहिए. परमाणु ऊर्जा बनाने के लिए दो बुनियादी  चीजों की आवश्यकता है पहला है उन्नत तकनीक और दूसरे कच्चा माल. फ्रांस सहित प्रथम विश्व के अन्य देशो में तकनीक की कोई समस्या नहीं है अगर कोई बाधा है तो वह है कच्चे माल की यानि प्राकृतिक संसाधनों की. परमाणु ऊर्जा के लिए युरेनियम की जरुरत होती है और कुदरत अपने इस खजाने को सभी देशो को नहीं देती. दुनिया में युरेनियम के प्राप्य भंडार करीब ५.५ मीलियन टन है जिसमे आस्ट्रेलिया,कजाखिस्तान,कनैडा के पास सबसे अधिक जखीरे मौजूद हैं. यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि ३००० टन कोयले को फूंकने से जितनी ऊर्जा प्राप्त होती है वह  एक किलोग्राम युरेनियम २३५ से प्राप्त की जाती है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में  कीमत २००७ में १३८ डालर प्रति पाउंड थी (३०४,१५२ डालर प्रति टन). जाहिर है आस्ट्रेलिया और कनैडा से युरेनियम खरीद कर परमाणु बिजली बनाकर मुनाफा नहीं कमाया जा सकता इसीलिए फ्रांस की अरेवा कंपनी अफ्रीका के अपने पूर्व उपनिवेशी देशो में खनिज सम्पदा खोजने और उनकी खदानों को विकसित करने के कारोबार में संलग्न है. मनचाही खदानों के ढूँढने,उनके खनिज उत्पाद को  निर्यात करने, खदानों पर बसे लोगो को मनमर्जी से विस्थापित करने जैसे कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए अक्सर मन माफिक सरकारों की जरुरत होती है.

पूरे अफ्रीकी देशो के इतिहास पर अगर नज़र डाल कर देखे तब यही पायेंगे कि अफ्रीका सभी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक पसंदीदा क्षेत्र रहा है. इन शक्तियों को यहाँ बसे लोगो में कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही हां अफ्रीका की ज़मीन में छिपे दुनिया भर के अपार खदानों में सभी का ध्यान अपनी और खींचा है चाहे अमेरिका हो या चीन सभी देशो को अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए जिन प्राकृतिक संसाधनों की जरुरत है वह सब अफ्रीका के पास है. कच्चा तेल, लौह, अयस्क, कोयला, सोना, हीरा आदि खनिजों के भंडार यहाँ मौजूद है. इसी श्रखंला में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी युरेनियम भी जुड़ गया है नाईज़र,माली, सेनेगल, अल्जीरिया से होती हुई साहेल वादी में युरेनियम सहित एनी कई खनिजो के अपार भंडार मिले है जिसका दोहन करना फ्रांस की अरेवा कंपनी का काम है. माली का पडौसी देश नाईज़र युरेनियम उत्पादन में दुनिया में छठा स्थान रखता है. २०१० में दुनिया भर में ५३,६६३ टन युरेनियम का उत्पादन हुआ जिसका ४१९८ टन हिस्सा नाईज़र से आया. अरेवा की खदाने नाईज़र, माली और सेनेगल में मौजूद है जिसकी सहायता राकगेट नामक  कनैडियन खदान कंपनी भी करती है.

  • अरेवा को पिछले दिनों यहाँ एक बड़ी सफलता हाथ लगी.नाईज़र स्थित, माली सरहद के नज़दीक उसे इमोरारेन खदान मिली जिसमे प्रतिवर्ष ५००० टन (करीब १.५२ अरब डालर मूल्य) युरेनियम का अगले ३५ सालों (मौजूदा कीमतों के अनुसार लगभग ५३.२० अरब डालर) तक उत्पादन किया जा सकता है. इमोरारेन खदान को इसी वर्ष आरंभ होना था लेकिन स्थानीय असंतोष और अन्य राजनीतिक कारणों के चलते इसे अगले साल तक के लिए टाल दिया गया है. नाईज़र में अरेवा की खदानों की गतिविधियों का जनता पर भारी असर पड़ा है जिसका विरोध दिन बा दिन बढ़ता जा रहा है. जब स्थानीय नागरिको को यह पता चला कि खदानों के कारण वहां के पानी में रेडियशन की मात्रा अत्यधिक बढ़ गयी और लोग कैंसर जैसी बीमारियो का सामना करने लगे तब उन्होने संगठित विरोध करना शुरू किया जिसके चलते पिछले वर्ष अरेवा कंपनी के प्रबंधक एम ए लौवेर्गन को नाईज़र से भागना पड़ा. इस आन्दोलन का असर माली और सेनेगल पर भी पड़ने लगा और लोग संगठित होकर इन खदानों का विरोध करने लगे.


माली की अंदरुनी राजनीतिक स्थितियां भी पिछले दिनों कई संकटों से दो चार हुई. मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व यूरोपीय हितों की पूर्ती करके अपने पेट भरता रहा और देश की राजनीतिक समस्याओं का जवाब दमन और जनविरोधी नीतियों से ही देता रहा जिसके लिए उसे हथियार और धन पश्चिमी ताकतों से प्राप्त होते रहे. माली का तुआरेग आन्दोलन एक ऐसा ही जन जातियों का आन्दोलन है जो देश की आज़ादी के बाद से ही अपनी मांगो के लिए प्रयासरत है ताकि उन्हें देश के संसाधनों के बंटवारे में उनका हक़, जनवादी अधिकार और सत्ता में हिस्सेदारी मिल सके. १९६० के दशक से चl रहा यह आन्दोलन अफ्रीकी महाद्वीप के सर्वाधिक पुराने आंदोलनों में गिना जाता है जिसकी जडें नाईज़र तक में फ़ैली हुई है. लीबिया के पुर्व शासक गद्दाफी से समर्थन प्राप्त इस आन्दोलन के माली हकुमत के साथ १९९५ में शान्ति समझौते में गद्दाफी का बहुत बड़ा हाथ था लेकिन उसकी मृत्यु के बाद लीबिया सेना के हथियारों का एक बड़ा हिस्सा इस्लामी लड़ाकुओ के हाथ लग गया जिससे माली की सत्तारूढ़ सरकार, तुआरेग ताकतों और इस्लामी लड़ाकुओं के बीच  शक्ति संतुलन ही बिगड़ गया. हथियारों के बल पर टिम्बकटू में इस्लामी लड़ाकुओं ने वो कहर मचाया जो तुआरेग आन्दोलनकारी पिछले ५० सालो में न कर सके.

फ़्रांस की सरकार और अफ्रीकी खदानों में उसके हितों के रक्षको को इस अव्यवस्था में अपनी रोटी सकने का इससे अच्छा अवसर और कौन दे सकता था ? उनका इस समस्या के समाधान से कोई  लेना देना न पहले था; न अब है, और न भविष्य में होगा. फ्रांस के लिए इस इलाके (साहिल वादी) का महत्व उतना ही है जितना अमेरिकी कम्पनियों के लिए ईराक के तेल से था. अगर अमेरिकी कम्पनियां अपने फायदे के लिए ईराक को तबाह और बर्बाद कर सकती है तो फ्रांस के सैनिक माली में घुस कर पडौसी नाईज़र और सेनेगल को फूलों की भेंट देने नहीं गए है. वे इन देशो में फ्रांसीसी खदानों से खनन और उसके निर्बाध्य निर्यात को सुनिश्चित कराने वहां पहुंचे है जिसके खिलाफ वहां लगातार जन आक्रोष बढ़ रहा था. दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा के शिखर पर बैठा फ्रांस अपनी धरती से एक किलो युरेनियम भी पैदा नहीं करता. फ्रांस का परमाणु ऊर्जा उद्योग पूर्णत: आयातित युरेनियम पर निर्भर है.

भविष्य में परमाणु ऊर्जा के प्रयोग पर लगातार बढ़ती निर्भरता युरेनियम की खोज और उसके उत्तखनन को और अधिक महत्व देता दिखाई पड़ा रहा है. आई ए ई ए के अनुसार २०१० में  दुनिया के विभिन्न देशों ने युरेनियम की खोज और उसके संसाधनों के विकास पर २ अरब डालर से अधिक खर्च किया है. मात्र २००८ और २०१० के बीच युरेनियम के उत्पादन में २५% वृद्धि दर्ज हुई . २०१२ में ८१९४८ टन युरेनियम का इस्तेमाल किया गया. अमेरिका ने २००५ में २२,३९७ टन जो कि दुनिया का ३३% है प्रयोग किया इस युरेनियम का मात्र ८३५ टन का उत्पादन घरेलू था जबकि २१,५६२ टन विदेशो से खरीदा गया था, फ़्रांस ने १०,४३१ टन युरेनियम इस्तेमाल किया जो दुनिया में प्रयुक्त हुए युरेनियम का १५% है लेकिन इसमे एक ग्राम युरेनियम भी घरेलू उत्पादित नहीं था.

उपरोक्त अध्ययन के पसेमंज़र में पाठकों को यह समझाना अब आसान होगा कि माली में फ्रांस के साथ अन्य यूरीपीय देशो की फ़ौजी कार्यवाही शुद्ध रूप से एक साम्राज्यवादी एजेंडे का रद्दे अमल है जिसे आजकल जनता की सुरक्षा के नाम पर अंजाम दिया जा रहा है. इन सैन्य कार्यक्रमों  का अर्थ दूसरे देशो के खनिज संसाधनों पर कब्ज़ा करना है और साथ ही इन देशो में पनप रहे जनवादी राष्ट्रीय मुक्ति से सच्चे आंदोलनों का गला घोंटना भी है. फ्रांस जिसने मानव जाति को १७८९ की क्रान्ति के बाद आजादी के नए मूल्य दिए आज उसका समाजवादी नेतृत्व अपने कथित राष्ट्रीय हितो को सामने रखते हुए दूसरे देशो की सार्वभौमिकता, स्वतंत्रता और जनांदोलनो को कुचलने के लिए अपनी सैन्य शक्ति का प्रयोग कर रहा है. उसके इस अतिक्रमण पर विश्व समुदाय ने मानो स्वीकृति प्रदान की हो. अमेरिका अपने हितो के लिए ईराक अफगानिस्तान में जाए, चीन सूडान, लीबिया, बर्मा,पाकिस्तान,  अल्जीरिया में कुण्डली लगाए तो  भारत कभी माल द्वीप,श्रीलंका ,नेपाल को धमकाए या फ्रांस माली में अपनी फौजे भेजे, इन सब प्रश्नों पर विश्व जनमत को न केवल गुमराह किया जा रहा है बल्कि उसे चुप्पी साधने के टोन टोटके कराये जा रहे है.

हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे है जिसमे प्राकृतिक संसाधनों के जायज़ प्रयोग पर कोई जन आधारित नीति अभी तक नहीं बनी है. यह सिर्फ  उद्दण्ड ताकतवरो का युग है जिसमे हर देश ने अपनी अपनी ताकत के बूते पर अपने देश अथवा अपने देश की सीमाओं से बाहर  दूसरे देशो के प्राकृतिक संसाधनों पर धन/नीति-करार/ भय के आधार पर  कब्ज़ा किया हुआ है. इस प्राकृतिक लूट के कारोबार में  में दुनिया भर के  खून चूसू नेतृत्व की चांदी ही चांदी है. वह खुद को बेच कर अपने देश के संसाधनों को कौड़ियो के भाव अपने देश के बाहर के व्यापारियों को बेच सकता है. भारत के छत्तीस गढ़ और उडीसा में पोस्को कम्पनी के विरोध को इसी नज़रिए से साफ़ देखा जा सकता है. दुनिया में मानवजाति की बराबरी, उसके संसाधनों पर बराबर के हक़ की जरुरत जितनी आज है उतनी पहले कभी महसूस नहीं की गयी. इन्ही प्रश्नों पर दो विश्व युद्ध पहले  हो चुके है, लेकिन अभी  तीसरा नहीं होगा यह कोई नहीं कह सकता. 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

धर्म: एक वाहियात पोस्ट लाईफ इंश्योरेंस पालिसी


  • शमशाद इलाही अंसारी 

आधुनिक युग में इंसानी जीवन की अवधि ८० बरस से ऊपर है, मुसलमानों की औसत आयु कुछ कम होगी, चलिए किसी मान्य आंकड़े की अनुपस्थिती में अंदाजा ही लगा लेते हैं. कम से कम औसत आयु ६० बरस मान लीजिये. एक अच्छा मुसलमान बन कर अगर दस साल की उम्र से वह पांच वक्त की नमाज पढ़ने लगे तो पचास साल में कोई ३६,५०० घंटे (२ घंटे प्रतिदिन) वह इबादत में लगा देता है. इसमें कुरान की तिलावत और रमजान के दिनों में की जाने वाली विशिष्ट इबादत को जोड़ दे तब कम से कम यह आंकडा ५०,००० घंटो से कम नहीं हो सकता. डेढ़ अरब मुसलमानो में कम से कम आधे (७५ करोड़ ) तो नमाज पढ़ते ही है जिसके परिणामस्वरूप कम से कम १०२ अरब घंटे हर रोज़ मुसलमान एक अनुत्पादक कर्मकांड में व्यर्थ करता है. ७५ करोड़ लोगो में यदि १० प्रतिशत लोगो को प्रोफेशनल मान लिया जाए और उनकी प्रति घंटा उत्पादकता दर मात्र दस डालर भी मान ले तब इस समय की कीमत हर रोज़ करीब डेढ़ अरब डालर बैठती है.
हवाई जहाज निर्माण मौजूदा दुनिया की इंजीनियरिग का सबसे अनूठा और सर्वश्रेष्ठ उत्पाद है जिसे बनाने में करीब दस लाख घंटे लगते है, जाहिर है इसके निर्माण में सैकड़ो लोग रात दिन काम करते हैं तब जा कर एक हवाई जहाज़ बनता है जिसमे श्रम, तकनीक और दिमाग का विलक्षण मिश्रण होता है. इसे सर्वज्ञानी हिन्दू अथवा मुस्लमान क्यों नही बना पाए? इस प्रश्न की  पड़ताल कौन करेगा ? सिर्फ हवाई जहाज़ ही क्यों अपनी कमरे में अपने शरीर पर पहनी और रोज़मर्रा प्रयोग में की जाने वाली कितनी ऐसी चीजे हैं जो इन लोगो ने बनाई हो ? रेडियो, फोन, मोबाईल ,लेपटाप, वातानोकूलित यंत्र, कंप्यूटर, इंजेक्शन, इलाज की आधुनिक मशीने, दवाइयां, खुर्द बीन,चश्मा, टार्च, कपडे, जूते, कागज़ ,कलम कुछ तो हो जिसके निर्माण में- जिसकी इजाद में इन महापंडितों की  कोई भूमिका हो? इन तथाकथित सर्वज्ञानियों को अगर कुत्ते के  काटने से इंसान के मरने का खतरा था तो उसकी वैक्सीन १४०० पहले कुत्ते का बायकाट करते वक्त सूझ जानी चाहिए थी. सूअर के गोश्त को हराम घोषित करना एक आसान काम था बनिस्पत इसके की उसके टेप वार्म को जला डालने वाली हीट का निर्माण करते. शराब को हराम करने वाले सर्व ज्ञानियों  को यह मालूम  नहीं कि उसमे प्रयुक्त अल्कोहोल असंख्य दवाईयों में एक महत्वपूर्ण इकाई है.
  
डेढ़ अरब डालर का ‘समय’ हर रोज़ बेकार करने वाला समाज भला अपने पैरो पर कैसे खडा रह सकता है? जिस समाज को अपने समय और उसकी आर्थिक उत्पादकता का इतना भी इल्म नहीं; वह भविष्य में किसी प्रगति पथ पर अग्रसर होगा, इसकी कल्पना करना भी उचित नहीं. जिन समाजो में वक्त के लिए कोई स्थान न हो उनका गरीब रहना एक ऐतिहासिक शर्त है. समय को साधे बिना पूंजी और  संपदा का न सर्जन संभव है, न उसका  अर्जन. जिन समाजो ने समय को साधा उन्ही समाजो ने प्रगति की और आज वही समाज पूरी दुनिया पर काबिज़ हैं. दुनिया की कोई भी महान खोज, मानव जाति के इतिहास में आज तक किसी मदरसे अथवा धार्मिक इदारे ने नहीं की, क्यों? क्या यह समझाना अभी भी कोई टेहडी खीर है? आखिर धार्मिक कर्म काण्ड में उलझे मनस और समाज को अपनी वर्तमान दिशा-दशा का अहसास कब होगा? जाहिर है निहित स्वार्थ समाज में किसी प्रगतिशील विचार को जन्म लेने की न तो कोई स्थिती बनने देते है और न उसकी कोई गुंजाईश छोड़ते है.

सभी धर्मो ने वतर्मान दशा को यथास्थिति में स्वीकार करने का ही दर्शन दिया है, चतुर धर्माधिकारी को यह मालूम था कि ऐसा करके वह सत्ता के साथ अंतर्विरोध में नहीं जाएगा, लिहाजा वर्तमान को बुरा और गैर मुक्कमिल बना और उसे ऐसा समझा कर एक अलौकिक जगत का निर्माण कर लिया गया. अगर दुनिया अपूर्ण और दोयम दर्जे की  है तब अल्लाह का बनाया हुआ एक दूसरा जगत पूर्ण है. लेकिन उस असाधारण सर्वोच्च जगत को  प्राप्त करने के लिए तुम्हे पूजा पाठ, कर्म काण्ड करने होगे. कभी कब्र का डर तो कभी दोज़ख के अजीबो गरीब डराने वालो किस्सों के जरिये जनता को भरमाया गया. डर सभी धर्मो का वह प्रमुख औजार है जिसके जरिये वह इंसान की वर्तमान  जगत को बदलने वाली ऊर्जा का तिरोहण कर देती है. धर्म की अफीम के नशे में डूबा समाज राजा, सरकार, सत्ता और प्रशासन को पलटने के अपने ऐतिहासिक कार्यक्रम को छोड़ कर अपने परलौकिक जगत के सुखद सपनों में जीने के झंझट में पड जाता है. धर्माधिकारी ने समाज की जुझारू शक्तियों का अराजनीतिकरण करके न केवल समाज के बड़े हिस्से को क्रान्ति करने से रोका बल्कि उसे प्रतिक्रांतिकारी बना दिया. धर्म के नशे में डूबा ज़हन समाज को बदलने वाली हर तहरीक और हर शख्स के मुक़ाबिल खुद ब खुद एक दीवार बन जाता है. ऐसा होना स्वाभाविक है धर्माधिकारी/मुल्लाह को यह इल्म है कि अगर इंसान ने अपनी किस्मत खुद बनाने का हुनर सीख लिया तब उसका सबसे पहला संगठित हमला उनकी धार्मिक सत्ता पर ही होगा.

मौजूदा वैज्ञानिक युग में क्या धार्मिक प्रस्थापनाओ को सच की कसौटी पर नहीं कसा जाना चाहिए ? जाहिर है आज धर्मो की वकालत करने वाले खासकर इस्लाम की तरह-तरह की किस्मों को प्रोमोट करने वाले देश अथवा समूह  भूखे-नंगे नहीं है. उनके पास विश्वविद्यालय है और दुनिया का  हर जदीद वैज्ञानिक उपकरण भी  मौजूद है, फिर क्या कारण  है कि आज तक उनके धर्म द्वारा रचा गया स्वर्ग अथवा नरक का कोई जियोफिजिकल लोकेशन आज तक मुहैय्या नहीं कराया गया? आज तक किसी कब्र में कैमरा लगा कर मुलकिन नकीर के सवाल जवाब की कोई वीडियो क्यों नहीं बनी? बड़े बड़े अपराधी मरे लेकिन कब्र में तथाकथित अज़ाब का कोई दृश्य (जिसे सिर्फ मुल्लाह पिछले १४०० सालो से बांच रहा है) कि कब्र के दोनों पाट आपस में मिल कर मुर्दे को भींच देते है, पसलियाँ एक हो जाती है आदि आदि  अभी तक साक्षात क्यों नहीं दिखाया गया? क्या यह असंभव है ? इस्लामियत पढ़ने वाले छात्र इन बकवासो को कब तक सुनेंगे? बनिए की दूकान पर १० रूपए की साबुन लेने से पहले सौ सवाल करने वाला दिमाग मुर्दों पर ज़ुल्म करने वाले अल्लाह की दरिन्दगी पर सवाल क्यों नहीं उठाता? क्या कोई मुल्लाह प्रमाण मुहैय्या कराएगा कि पिछले १४०० सालो में किन-किन लोगो को जन्नत मिली और किसे दोज़ख ? जन्नत के जीवन की कोई वीडियो दिखा दो ताकि कुछ तर्क वादियों को तसल्ली हो जाए. ऐसे प्रमाणों से यकीन कीजिये धर्म के झंडाबरदारों को ही फ़ायदा होगा. जाहिर है धर्म ने सवाल करने की हदे तय की है
, वह उस हद को लांघने की इजाजत नही देता जहां धर्म और धर्माधिकारी की  सत्ता को सीधी चुनौती मिलनी शुरू हो जाए. यदि विज्ञान की दृष्टी और उसकी उपलब्ध तकनीको के माध्यम से धर्म पुस्तकों की बातों  को जांचना शुरू कर दिया जाए तब संभवत: धर्म के तमाम अतार्किक और गल्प शास्त्रों पर टिके सिद्धांत खुद ब खुद गिर जायेगे.

वैज्ञानिक चिंतन और तकनीक के बिना आधुनिक मानव समाज ने उन्नति नहीं की, उसके बिना विकास संभव नहीं. कहना न होगा जिन समाजो पर अभी धर्म का काला साया मौजूद है वह भले ही पैसे के बूते वैज्ञानिक उत्पादों को खरीद कर उपयोग कर रहा हो परन्तु उसके मनस  जगत में किसी वैज्ञानिक चिंतन की भोर नहीं हुई. वह भले ही इलाज कराने आधुनिक  अस्पताल में जाए या अमेरिका में स्वास्थ्य लाभ करे, चिंतन के स्तर पर वह अभी १४०० पहले वाले  ऊँट या गधे पर ही बैठा है. जिन उपकरणों के विकास में उसकी कोई भूमिका नहीं वह बस उनका प्रयोग पैसे देकर कर लेता है. आने वाले समय में बदलती पीढी और बदलते वातावरण में निश्चय ही लोग सवाल करना शुरू करेंगे कि यदि तुम सबसे बेहतर थे, हो या होने वाले हो तब इस तमाम वैज्ञानिक युग का निर्माण दूसरो ने क्यों किया? डेढ़ अरब डालर के समय को हर रोज़ बर्बाद करने वाला समाज एक दिन जरुर जागेगा क्योंकि जागना इंसानी फितरत है, जिस दिन जागेगा उस दिन वह सब से हिसाब ले लेगा, उसी दिन वह दुनिया का बदलने की जुस्तजू में लग जाएगा, मुझे लगता है यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बहुत देर के लिए मुल्लाह की सलामती संभव नही, भले ही उसके पास दर्जनों ‘पोस्ट लाईफ इन्शुरेन्स’ पालिसी हो.