गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

भोजपुरी भाषा..... बाजार की भाषा में रचा गया ‘लंपट साहित्य’


     (अभी रंगनाथ सिंह के ब्लाग पर भोजपुरी के सम्बंध में एक आलेख पढ़कर  मुझे                                                विभूति नारायण ओझा द्वारा भेजे गये इस आलेख की याद आई। दोनों लेख अलग-अलग मुद्दे उठाते हैं लेकिन उनकी मूल चिंता इस भाषा को लेकर है। कोई भाषा कैसे जीवंत बनी रह सकती है -- बाज़ार के साथ चलकर या फिर अकादमियों के सहारे…या कोई तीसरा रास्ता भी है? क्या भाषाओं की भी उम्र होती है…जन्म के साथ अविछिन्न रूप से जुड़ी मृत्यु?)

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भोजपुरी लोकभाषा एवं जनभाषा है जिसमें जनजीवन के संवेदनात्मक अनुभूतियों का बहुत ही मार्मिक-विश्वसनीय, प्रगटीकरण, चित्रण दिखायी देता रहा है। लोकजीवन शास्त्रीय चिंतन पद्धति से विद्रोह करते हुए अपना विकास करता रहा है, उसका लालित्य ग्रामीण समाज के सभी हिस्सों में रचा बसा रहा है। तमाम विद्रोह के बावजूद उसने अपनी गरिमा एवं मर्यादा का सदैव ख्याल रखा। बाद के दिनों में इसने जनसंघर्षो को व्यक्त करने के माध्यम की भूमिका निभायी किन्तु एक ऐसा दौर भी आया है जब भोजपुरी गीतों के नाम पर नितान्त ही फूहड़, अश्लील प्रस्तुतियों ने उसके अतीत एवं भविष्य के स्वर्णिम पृष्ठो को अंधेरे कोने मंे ढकेल दिया है। वस्तुतः यह लोक भाषा में रचा गया लोक साहित्य नहीं है, यह बाजार की भाषा में रचा गया ‘लंपट साहित्य’ है। जिसमें लोकभाषा का भी प्रयोग हुआ है।


यदि हम भोजपुरी में बनी फिल्मों पर बात करें तो 1963 में प्रदर्शित विश्वनाथ शाहाबादी की फिल्म ‘‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इवों’’ से भोजपुरी सिनेमा की शुरूआत होती है। हालांकि 20वीं सदी के 5वें दशक में भोजपुरी क्षेत्र के कई लेखक कवि, कलाकार बम्बई फिल्म उद्योग में सक्रिय थे और इन भोजपुरियों को अपने देश (गांव-जवारा) की बड़ी याद सताती थी। बरहज के मोती बीए को हिन्दी फिल्मों में भोजपुरी गीतो के प्रचलन का श्रेय दिया जाना चाहिए इसमें हिन्दी भाषी दर्शक भोजपुरी के मिठास से परिचित हो सके। जनवरी 1961 में नजीर हुसैन के नेतृत्व में ‘‘गंगा मइया तो हे पियरी चढ़इवों’’ के निर्माण की योजना बनी, 1963 में यह फिल्म बनारस मंे प्रदर्शित हुयी थी। इसके बाद तो भोजपुरी फिल्मों के निर्माण की घोषणा की गई। इनमें जो फिल्मे प्रदर्शित की गयी उनमें ‘‘विदेशिया लागी नाही घूटे रामा, नइहर छूटल जाय, हमार संसार, बलमा बडा नादान, सीता मइया, सइयां से अइसे मिलनवा, भौजी, गंगा आदि फिल्मे प्रमुख रही है। ‘विदेशिया’ में भोजपुरी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नाटककार व कवि भिखारी ठाकुर को गाते दिखाया गया है जो अपने आप में एक दुर्लभ दस्तावेज है। अगर भोजपुरी को सिनेमा जैसा माध्यम नही मिला होता तो भोजपुरी के सेक्सपियर माने जाने वाले इस महान नाट्यकर्मी को परदे पर जीवित देखने का मौका भोजपुरियों को शायद ही मिल पाता।

भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में जो फिल्में प्रदर्शित हुयी उनमें अधिकांशत ने दहेज, नशाखोरी, छूआछूत, आर्थिक विषमता और पूंजी की संस्कृति को अपना मुद्दा बनाया। इन फिल्मांे में गीत संगीत, खेत खलियान, बैठका, कहावते आदि सब कुछ जीवंत दस्तावेज की तरह है।

आज जब हम 21वीं सदी मंे भोजपुरी की दशा और दिशा पर विचार करते है तो पाते है कि मनोज तिवारी, निरहुआ, गुड्डु रंगीला जैसे भोजपुरी के कुख्यात लोकगायक को भोजपुरी भाषी क्षेत्र में अपने द्विअर्थी गानों से लोक प्रियता मिली हुई है जो लोग आज भी मोती बीए, बलेसर भरत शर्मा और शारदा सिन्हा को याद करते है उनकी गैर जानकारी में ही भोजपुरी में इन नए स्टार जो मुवईया लटको-झटको से लैस है, न सिर्फ आ चुके है बल्कि सफलता के नये आयाम रच रहे है।

सस्ती लोकप्रियता पाने की होड में आज पूरा बाजार अश्लील व अपसंस्कृति को बढावा देने वाले ‘लभ के टानिक पियल करा’, ‘चक्का जाम हुआ जयपुर में’ ‘भऊजी मास्टराइन’ हो गयली, लाली पाप लागेगी, जीन्स में जवानी, बगलवाली जान मारेली, ऊपर वाली के चक्कर ...., रख देइव तोहके नचा के, तनी सा जीन्स ढीला......,जैसे अनेकों गाने के कैसेटो से बाजार भरा पड़ा है।

इसका कारण यह है कि वैश्वीकरण के चलते भोजपुरी क्षेत्रांे में भी इन मूल्यों की स्वीकार्यता पैदा हुई है। यह बाजारवाद का दौर है जो हर बिकने वाली वस्तु को तब्बजों देगा। यदि भोजपुरी की अश्लीलता और द्विअर्थीपन इन देश में बिकता है तो इसकी सरलता संवेदनशीता और भावनात्मक गहराई को चाहने वाले लोग इस देश में ही नही विदेशों में बडी संख्या में है। इसलिए उम्मीद बनती है कि इस बड़े वर्ग की मांग पूरी करने के लिए भोजपुरियें आगे आयें।

भोजपुरी भाषा अधिकारी डाॅ0 उदय नरायन तिवारी का मानना है कि- ‘‘भोजपुरी में सबसे बड़ी कमी इसमें प्रकाशित उच्च श्रेणी के साहित्य का अभाव है। भोजपुरियों को अपनी भाषा के प्रति इतना अनुराग होने पर भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस भाषा की श्री वृद्धि नही हुई है और प्राचीन काल में भी इसकी बहने, बंगाली, मैथिली, कोशली के मुकाबले में इसमें साहित्य रचना विशेष नही हुई है।’’

पिछले वर्षो इस अपसंस्कृति के खिलाफ क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन की बलिया इकाई ने अभियान के तहत, गुड्डू रंगीला एक शैतान कर रहा नारी अपमान’’ जैसे अनेक नारों का दीवार लेखन किया और लोगों में जागरूकता पैदा की। निश्चित तौर पर यह एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है। इस समय सबसे ज्यादा अश्लील व अपसंस्कृति का बढावा देने वाले दृश्य श्रव्य सामग्रीयों का निर्माण पूर्वांचल के इलाकों में लोकप्रियता स्थापित करने के लिए किया जा रहा है। मनोज तिवारी, गुड्डू रंगीला, पवन सिंह, दीपक दीक्षित, कुमार जितेन्द्र जैसे भोजपुरी गायकों ने तो इस संस्कृति को प्रभावित करने का काम किया ही है। आज के दौर में कस्बाई, क्षेत्रीय स्तरांे पर भी इन श्रव्य कैसटों की धूम मची हुई है चाहे वह इलाका पूर्वांचल का सलेमपुर, बरहज, गोरखपुर, या फिर बलिया, बनारस, गाजीपुर, सुल्तानपुर कन्नौज, मऊ, इटावा सहित बिहार राज्य के कुछ स्थल ऐसे है जहाॅ पर इस प्रकार के गानों के आडियों वीडियों का निर्माण हो रहा है।

शारदा सिन्हा-भरत शर्मा जैसे गायकों का आज आस्तित्व ही नही रहा जिन्होने अच्छे गीतों को रचा। आज इनको किनारे करते हुए पूरा बाजार अश्लील गानों के द्वारा सभ्यता और संस्कृति दोनों को प्रभावित कर रहे है।

आज के दौर में जो अश्लील भोजपुरी गीत रचे जा रहे है वैसे तो वे द्विअर्यी कहे जाते है लेकिन अगर हम उसके असर को देखते है तो यही पाते है कि ये है तो दो अर्थो लेकिन स्रोता समुदाय उन गीतों के एक अर्थ को समझता है और सच भी यही बात है कि कलाकार स्रोता को वही अर्थ सम्प्रेषित करना चाहते है जिसमें वे सफल है। आज किसी भी व्यक्ति से इन भोजपुरी गानों के दूसरे अर्थो के बारे में नही जान सकते है।

अगर हम इन अश्लील गानों की जाॅच पड़ताल करे तो पाते है कि इन गानों के श्रोता इस देश की वह व्यापक आबादी है जो दिन-भर लगातार अपनी श्रमशक्ति बेचती है। जिनके जीवन में मनोरंजन के लिए कोई और दूसरा साधन नही उपलब्ध है। रिक्शा चालकों से लेकर ट्रक ड्राइवरों, मजदूरों आदि के बीच इन सतही गीतों की स्वीकार्यता ज्यादा पायी जाती है वही इधर बीच इन अश्लील गानों से लोगों की रूची थोडी कम हुई है लोग अब इन अश्लील गीतों से खुद को दूर रखना चाहते है। वे अब इन गीतों को सुनने से परहेज कर रहे है। खैर आने वाले समय में इन गीतों को सुनने वाले श्रोताओ का अभाव होगा लेकिन यह एक शुभ संकेत है। समाज के जागरूक लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे समाज में इस अपसंस्कृति के खिलाफ आगे आए तथा एक जनपक्षधर संस्कृति के निर्माण में अपनी भूमिका सुनिश्चित करे।

भोजपुरी की इस दुर्दशा के लिए हमारे देश की मीडिया भी कम जिम्मेदार नही है। मीडिया द्वारा उन सारे जनपक्षधर भोजपुरी रचनाकारों को भुला दिया जा रहा है । अखबार भी इन्हीं बाजारू गायकों को स्थापित करने का कार्य कर रहें है, यह दुःखद है। वहीं दूसरी ओर भोजपुरी भाषा को लगातार समृद्ध करने के लिए  समकालीन भोजपुरी पत्रिका, बलिया से ‘पाती’, ‘मड़ई’, ‘अंजोर’ आदि भोजपुरी की समृद्धशाली पत्रिकायें निरन्तर प्रकाशित हो रही है। मुनाफे की इस दौर में भी अपनी मातृभाषा को बाजार की गिरफ्त से मुक्त कराने के लिए लोग विभिन्न मंचों पर सक्रिय है। वही ‘महुआ’ जैसे टीवी चैनल को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसका भोजपुरी क्षेत्र से कोई लेना देना नहीं है। बम्बईया स्टाइल में भोजपुरी कार्यक्रमों की अश्लील प्रस्तुति एक चिन्ता जनक स्थिति है।

इस तरीके से जिस प्रकार भोजपुरी भाषा के साथ खिलवाड किया जा रहे है तथा उसे बेच कर मुनाफा कमाने का कुचक्र रचा जा रहा है यह निन्दनीय और चिन्तनीय है। भोजपुरी अश्लीलता का पर्याय बन गयी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बाजारू संस्कृति के द्वारा भोजपुरी भाषा पर हो रहे हमलों को रोकते हुए संस्कृति, लोक कलाओं एवं नृत्यों को लुप्त होने से बचाया जाय। तभी हम अपनी जनभाषा भोजपुरी का अपेक्षित विकास कर सकते है।

विभूति नारायण ओझा
संपादक
मुक्त विचार धारा (साप्ताहिक)
मो0 09450740268

4 टिप्‍पणियां:

  1. भोजपुरी भाषा का इतिहास मूलतः वाचिक है। इसलिए,उसमें साहित्य को बढावा देने से पहले, वाचिक स्तर पर हो रहे काम को फूहड़ता और अश्लीलता से बचाना जरूरी होगा।

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  2. रंगनाथ जी के ब्लॉग पर मैं ३-४ टीप तो कर आया हूँ और उनका प्रतिपक्ष भी
    आ गया है , जिनसे मुझे संतोष नहीं है .. पर कहने को बहुत कुछ है और मेरे पास
    सबसे ज्यादा दिक्कत समय की आ रही है .. समयाभाव में चीजें बहुत खुल के नहीं
    रख पा रहा हूँ , संकेत भर से चीजों को समझाना संभव नहीं हो पा रहा है .. लोक-भाषा
    को लेकर आप लोग बोल रहे हैं यह अच्छा लग रहा है ..
    वक़्त की तंगी कम होते ही अवधी के तरफ से अपनी बात को रखते हुए कुछ लिखूंगा ..
    पर अभी तो आप सब को पढ़ ही रहा हूँ .. सुन्दर बातें उठा रहे हैं आप लोग ! आभार !

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  3. एकदम यथार्थ पोस्ट। भोजपुरी फिल्मों की अपनी कोई मौलिक पहचान ही नहीं रह गई है एसा लगता है कि हम किसी बेहूदा मुम्बईया फिल्म का स्थानीय संस्करण देख रहे हों और उस पर तिवारी और रंगीला जैसों की बदहाल गायकी । अगर अभी भी हम नहीं सम्भले तो वो दिन दूर नहीं जब भोजपुरी भाषा लम्पट साहित्य का पर्याय मानी जायेगी......"

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  4. "वही इधर बीच इन अश्लील गानों से लोगों की रूची थोडी कम हुई है लोग अब इन अश्लील गीतों से खुद को दूर रखना चाहते है। वे अब इन गीतों को सुनने से परहेज कर रहे है। खैर आने वाले समय में इन गीतों को सुनने वाले श्रोताओ का अभाव होगा लेकिन यह एक शुभ संकेत है।" मैं इस बात से सहमत हूँ. लोग ऊब गये हैं फूहड़ता से... पर मैं मनोज तिवारी को इस कैटेगरी में नहीं रखती. ये सच है कि उन्होंने हल्के-फुल्के गाने भी गाये हैं, लेकिन उनके गानों में द्विअर्थी शब्द नहीं होते और न ही फूहड़ता... हाँ भाषा हल्की-फुल्की ज़रूर होती है, पर उन्हें परिवार के साथ सुना जा सकता है. इसके अतिरिक्त उन्होंने चैती और निर्गुण जैसे गीत भी गाये हैं, जिन्हें कम लोग सुनते हैं. मेरा ये मानना है कि उनके गीतों के कारण लोग फिर से भोजपुरी गीत सुनने लग गये हैं. वे शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता हैं और भोजपुरी में उन्होंने कुछ शोध कार्य भी किया है. उन्हें कम से कम निरहुआ और गुड्डू रंगीला की कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता.
    बहरहाल, अच्छा ये है कि लोग अश्लील गानों को सुनने से परहेज करने लगे हैं. भोजपुरी को बाज़ार के गलत प्रभाव से बचाने का यही सबसे अच्छा उपाय है. पूर्वांचल वि.वि. में भोजपुरी, हिन्दी के एक भाग के रूप में पढ़ाई जाने लगी है, ये एक अच्छा संकेत है.

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