सोमवार, 26 अप्रैल 2010

संसद का खेल इंगलिस्तान में!

ब्रिटेन के चुनाव और कुछ अहम् प्रश्न
  • अरुण माहेश्वरी




आगामी छ: मई को होने वाले ब्रिटेन के आम चुनाव पर सारी दुनिया की नजरें टिकी हुई है। यह सिफ‍र् इसलिये नहीं कि ब्रिटेन अपने जीवन के एक जिस सबसे बड़े आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है, इन चुनावों के जरिये उसका कोई समाधान हासिल हो जायेगा। पिछले एक साल में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 5 प्रतिशत का भारी संकुचन हुआ है। डेढ़ साल का हिसाब अर्थव्यवस्था में 6.2 प्रतिशत का संकुचन बताता है। जीडीपी के अनुपात में बजट घाटा दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अभी सबसे चरम पर है। चालू वित्तीय वर्ष में यह घाटा जीडीपी का 11.8 प्रतिशत कूता गया है। सरकार पर कर्ज जीडीपी के 83 प्रतिशत तक चला गया है। 2008 के वित्तीय संकट के वक्त बैंकों को बचाने की दौड़ में सबसे आगे रहने वाली ब्रिटिश सरकार 950 बिलियन पाउंड उढ़ेल कर भी वहां की बैंकिंग व्यवस्था को अब तक संकट से पूरी तरह उबार नहीं पायी है और यहां तक कहा जा रहा है कि यह स्थिति 90 के दशक के जापान के वित्तीय क्षेत्र के संकट की याद को ताजा कर देती है, जिससे जापान की अर्थव्यवस्था पर पड़े गहरे घावों को भरना आज तक मुमकिन नहीं हो पाया है। आईएमएफ के अनुसार इस साल सिफ‍र् जी 7 के देशों में ही नहीं, जी 20 के देशों में भी ब्रिटेन सबसे अधिक बजट घाटे का देश होगा। आर्थिक साख के मामले में उसकी गिनती ग्रीस और स्पेन जैसे आर्थिक रूप से बीमार हो चुके देशों में भी की जाने लगी है। ब्रिटेन का वित्तीय क्षेत्र सारी दुनिया के वित्त बाजार के सटोरियों की तमाम प्रकार की काली और मनमानी करतूतों का स्वर्ग राज्य बना हुआ है। वैश्विक स्तर पर शेयरों के व्यापार का 40 प्रतिशत से ज्यादा ब्रिटेन में होता है और इसीप्रकार बैंकों के भी वैश्विक कारोबार का 20 प्रतिशत ब्रिटेन के वित्त बाजार से किया जाता है। गैरकानूनी बैंकिंग तथा संदेहास्पद वित्तीय कारस्तानियों के एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में लंदन को वाल स्ट्रीट का ग्वांतानामोकहा जाता है, अर्थात अपने देश के बाहर की एक ऐसी जगह जहां अमेरिकी धंधेबाज लोग वह सब कर सकते हैं, जिन्हें उनको अपने देश में करने की अनुमति नहीं है। इन्हीं कारणों से ब्रिटेन में भी अमेरिका की तरह ही संपत्तियों और उसको लेकर तैयार किये गये हुंडियों पर हुंडियों जैसे वित्तीय उत्पादों का बुलबुला तैयार होगया था और जीडीपी में वित्तीय लेनदेन की भागीदारी 1990 से 2007 के बीच में बढ़ कर 22 प्रतिशत से 33 प्रतिशत होगयी थी, जो सारी दुनिया में सबसे अधिक कही जा सकती है।

अर्थव्यवस्था के इस संकट का सीधा सामाजिक परिणाम यह हुआ कि अकेले 2009 में प्रतिदिन 1400 के हिसाब से पांच लाख लोगों के रोजगार छिन गये। 2009 के अंत तक ब्रिटेन में बेरोजगारों की संख्या 25 लाख पंहुच गयी है।

विदेश नीति के हर मामले में अमेरिका के सहोदर की भूमिका निभातेनिभाते ब्रिटिश सरकार की सूरत विदेश मामलों में एक जंगखोर और अपनी स्वायत्तता गंवा कर अमेरिका के पिछलग्गू की रह गयी है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर इस बीच ब्रिटिश राज्य की दमनकारी ताकत में भारी वृद्धि हुई है। ब्रिटेन के फौजदारी कानूनों के प्राविधानों में माग्र्रेट थैचर और जॉन मेजर के काल में औसतन 18 महीनों में एक विधेयक आया था, जबकि ब्लेयर के काल में इसप्रकार के विधेयकों की संख्या औसतन सालाना तीन की रही है। यही वजह है कि आज ब्रिटेन में यूरोप के दूसरे किसी भी देश की तुलना में सबसे अधिक दर से लोग जेल में बंद है। प्रति एक लाख लोग में 124 को जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा है।

ब्रिटेन के इसबार के आम चुनाव पर सारी दुनिया की नजर के टिके होने का अभी सबसे बड़ा कारण यह कहा जाता है कि वहां पिछले 13 वर्षों के लंबे शासन के उपरांत इसबार लेबर पार्टी की स्थिति बेहद कमजोर दिखाई दे रही है। लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री गौर्डन ब्राउन की तुलना में एक नेता के रूप में कम प्रभावशाली माने जारहे कंजरवेटिव पार्टी के उम्मीदवार डेविड कैमरोन, अपनी सारी सीमाओं और अक्षमताओं के बावजूद इस चुनाव की दौड़ में पहले नम्बर पर हैं। इसके साथ ही गौर करने की बात यह है कि वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में नीतियों के सवाल पर ब्रिटेन का मतदाता प्रगतिशील मानी जाने वाली लेबर पार्टी को किसी भी रूप में कंजरवेटिव पार्टी के दक्षिणपंथी रास्ते से भिन्न नहीं समझ पा रहा है।

प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल के साथ थोड़ा सा पीछे, इतिहास के कुछ पन्नों की ओर नजर डालना उचित होगा।

ब्रिटेन के संसदीय इतिहास में लेबर पार्टी का अपना एक खास स्थान रहा है। इस पार्टी का गठन 20वीं सदी के पहले साल में हुआ था। ऐतिहासिक रूप में इसका लक्ष्य था समाजवाद की स्थापना। सभी प्रमुख उद्योगों की मिल्कियत सार्वजनिक क्षेत्र में हो, अर्थव्यवस्था में सरकारकी पूरी दखलंदाजी हो, संपत्ति का पुनर्वितरण और मजदूर वर्ग को ज्यादा से ज्यादा अधिकार मिले तथा राज्य का चरित्र जनकल्याणकारी हो जिसमें स्वास्थ्य और चिकित्सा की तरह के विषय पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में हो। ये चंद बातें लेबर पार्टी की मूलभूत प्रतिज्ञाओं, इसके कार्यक्रम और संविधान के अविभाज्य अंग माने जाते थे। कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह वर्गसंघर्ष और समाजवादी क्रांति पर विश्वास न करने के कारण उसने शुरू से ही संसदीय रास्ते को ही अपनी गतिविधियों के सबसे प्रमुख रास्ते के रूप में अपनाया और सन् 1900 के बाद से वहां के हर चुनाव में हिस्सा लेती रही है। 1900 के चुनाव में उसे सिफ‍र् 1.8 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन उसके बाद के चुनाव में धीरेधीरे उसके मतों की संख्या में वृद्धि होती चली गयी और सन् 1923 की त्रिशंकु पार्लियामेंट में अल्पमत में होने पर भी उसे पहली बार एक साल के लिये सत्ता का स्वाद मिला था। 1929 में भी उसकी एक अल्पमत की सरकार बनी थी, लेकिन 1945 और 1950 में पूरी तरह से उसकी अपनी सरकारें बनी। इसके बाद 1964, 1966, 1974 में भी लेबर पार्टी की सरकारें बनी।

1974 के पूरे 23 साल बाद 1997 में टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में फिर एक बार जो लेबर पार्टी की सरकार बनी, वह दरअसल पुरानी लेबर पार्टी की सरकार नहीं थी। इसे न्यू लेबर (नयी लेबर) पार्टी कहा जाता है। इसने समाजवाद के लक्ष्य को पूरी तरह से छोड़ कर एक तीसरे रास्तेकी बात करना शुरू कर दिया था। और, यह तीसरा रास्ता क्या और कैसा रहा है, हमारे सामने विचार का यही प्रमुख मुद्दा है। जहां तक चुनावी गणित का सवाल है, 1997 में टोनी ब्लेयर को वहां के हाउस आफ कामन्स में 174 सीटों के साथ भारी बहुमत मिला था, जिसे 1945 के बाद किसी भी पार्टी के पक्ष में मतदाताओं का सबसे बड़ा रूझान माना जाता है। 2001 के चुनाव में भी लेबर पार्टी की जबर्दस्त जीत का सिलसिला जारी रहा। उसकी सीटों में मामूली 7 सीटों की कमी आई। लेकिन 2001 के बाद 2005 के चुनाव में जब ब्रिटेन के वर्तमान प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, लेबर पार्टी को एक करारा झटका लगा। वह सत्ता में तो बनी रही, लेकिन उसकी सीटों में 66 सीटों की कमी आगयी। और दरअसल, यही, 1997 से 2005 तक का, खास तौर पर 2001 से 2005 तक का टोनी ब्लेयर का काल है, जिस दौरान लेबर पार्टी की नीतियों में एक प्रकार का जो मूलभूत परिवर्तन आया और जिसने न सिफ‍र् घरेलू राजनीति के क्षेत्र में बल्कि विश्व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में भी इंगलैंड को दुनिया की चरम दक्षिणपंथी और आक्रामक साम्राज्यवादी ताकतों का कठपुतला बना कर छोड़ दिया, वह बिंदु है जिसपर पूरी गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, टोनी ब्लेयर की इस न्यू लेबर की सरकार के तीसरे रास्तेकी सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि उसने लेबर पार्टी के अब तक चल आरहे समाजवाद, सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता तथा अर्थव्यवस्था में सरकार के हस्तक्षेप की तरह की घोषित नीतियों से अपना पल्ला पूरी तरह झाड़ लिया था। स्वतंत्र बाजार इसका सबसे प्रिय और प्रमुख नारा बन गया और इस मामले में वह यूरोप के अन्य देशों की सोशल डेमोक्रेट सरकारों से हमेशा चार कदम आगे रही। इस न्यू लेबर की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता थी अमेरिका की सभी आक्रमणकारी सामरिक योजनाओं के साथ इसका पूरी तरह से जुड़ जाना। इसका अमेरिका प्रेम जिसे अन्य पदावली में अटलांतिकवाद कहते हैं, इतना अंधा था कि इसने जर्मनी, ांस, इटली और स्पेन की दक्षिणपंथी सरकारों से भी आगे बढ़ कर, जिन्होंने कोसोवा और अफगानिस्तान पर हमलों का समर्थन करने पर भी इराक के मामले में अमेरिका का साथ देने से इंकार कर दिया था, इराक में भी अमेरिका की सैनिक कार्रवाई में सक्रिय भागीदारी की। हालत यह होगयी कि जहां अमेरिका जायें वहीं ब्रिटेन भी रामलक्ष्मण की जोड़ी की तरह मौजूद रहे। ब्लेयर का यह रास्ता ब्रिटेन की अब तक चली आ रही नीतियों से काफी भिन्न रास्ता था। पहले की ब्रिटिश सरकारें अमेरिका से थोड़ी दूरी रखती थी। अपने औपनिवेशिक अतीत और साम्राज्यवादी इरादों के बावजूद आंख मूंद कर अमेरिका के नक्शे कदम पर चलना उन्हें मंजूर नहीं था। 1964–68 के काल में लेबर पार्टी के ही प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन और अमेरिका के डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति लिंडन बी. जानसन के बीच वियतनाम में सेना भेजने के प्रश्न पर जो विरोध हुआ था, उसे इतिहास के सभी विधार्थी जानते हैं। 1973 के अरब इसराइल युद्ध के समय प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ ने अमेरिकी वायु सेना को अपने हवाई अड्डे का इस्तेमाल करने से रोक दिया था। अमेरिका की राय के खिलाफ जाकर मार्गे्रट थैचर ने अर्जेंतिना के खिलाफ युद्ध छेड़ा था। युगोस्लाविया के मामले में जॉन मेजर को पूछा तक नहीं गया था। लेकिन 1990 के बाद तैयार हुए एकधु्रवीय विश्व के साथ अपना तालमेल बैठाने के चक्कर में ब्लेयर ने विदेश नीति के मामले में ब्रिटेन की सार्वभौमिकता की पूरी परंपरा को खत्म कर दिया।

अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सभी स्तरों पर पूरी तरह से विफल और ब्रिटेन को अमेरिका का पिछलग्गू बना देने वाली इस न्यू लेबर के पक्ष में आज जो दलीलें दी जारही है, उनमें पहली दलील, जिसे अक्सर भारत में भी हर हारने वाले शासक दल से सुना जाता है, वह यह है कि लेबर पार्टी की सरकार ने काम तो बहुत अच्छे किये, लेकिन उन कामों के बारे में जनता तक जानकारी देने के मामले में वह चूक रही है। इसलिये जरूरत न्यूज मैनेजमेंट की है। दूसरी अनोखी दलील यह भी है कि लेबर पार्टी को सत्ता में बनाये रख कर ही अंतत: उसे उसके अतीत के बेहतर सामाजिक जनतांत्रिक चरित्र में वापस लौटाया जा सकेगा। और तीसरी, वही अंधों में काना राजा वाली दलील कि ब्लेयरब्राउन कंपनी कितनी भी बुरी क्यों न हो, कंजरवेटिव पार्टी हर हाल में उनसे बदतर है। कंजरवेटिव पार्टी का अभिजनवादी नजरिया बजट में कटौती करके जनसेवाओं को नुकसान पहंुचायेगा और सामाजिक न्याय के हितों के खिलाफ होगा, इत्यादि।

सवाल उठता है कि क्या बारबार इस प्रकार की कम बुराईवाली दलीलों से लेबर पार्टी का काम चल पायेगा? सचाई यह है कि ब्रिटिश मतदाता लेबर पार्टी के प्रति अब किसी प्रकार के भावनात्मक आवेग से चलने के लिये तैयार नहीं है। ब्रिटेन में वामपंथी बुद्धिजीवियों का एक तबका कह रहा है कि ब्रिटेन की संसदीय सड़ांध में किसी भी सच्चे वामपंथी को सिर्फ़ एक शत्रुतक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इस समूची सड़ीगली स्थिति पर हमला करते हुए इससे निकलने का रास्ता बनाना चाहिए। जो आज भी इस न्यू लेबरके पक्ष में दलील दे रहे हैं, वे जनतंत्र की इस मूल बात को भूल रहे हैं कि जहां राजनीतिक फर्क न्यूनतम हो, वहां, किसी भी सरकार को अनंत काल तक सत्ता में नहीं रहने दिया जाना चाहिए। जनतंत्र में जवाबदेही का यदि कुछ मायने है तो उसका पहला तकाजा है कि जिस सरकार का कार्यकाल इतनी विफलताओं और बुराइयों से भरा हुआ हों, उसे चुनाव के मौके पर निश्चित तौर पर दंडित किया जाना चाहिए। देखना यह है कि ब्रिटेन के आगामी चुनाव में वहां के बौद्धिक समाज के लोगों की यह सोच कहां तक फलीभूत होती है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut hi badhiya likha hai apne !! Sahi shabdo ka prayog karke teekhe kataksh kare hai !!Great post !!Also please visit my New Blog About Paranormal Studies of India.Click on the Link to view it Unseen Rajasthan Paranormal

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  2. बहुत रोचक लगा.....श्रीमान अगर निक्क क्लेग्ग ( देवनागरी में यही आया तो छोड़ दिया :-) ) और उनकी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के बारे में भी कुछ बतेयेंगे तो आभारी रहूँगा... क्योंकि हाल की खबरों से लगता है वे छुपे रुस्तम साबित होंगे..
    इक़बाल अभिमन्यु

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