शनिवार, 17 जुलाई 2010

भाड़ में जाएं अज्ञेय जी - संस्मरण की दूसरी क़िस्त

पहली क़िस्त यहां

वह नवभारत टाइम्स में एक-सवा साल से ज्यादा नहीं रहे। ज्ञानपीठ अज्ञेय जी कोनवभारत टाइम्स से हटने के बाद ही मिला था। वह स्वयं हटे या उन्हें हटाया गया यह भी ठीक से कहा नहीं जा सकता। पर यह जग-जाहिर है कि ज्ञानपीठ टाइम्स आॅफ इंडिया के मालिकों का ही ट्रस्ट है। यह प्रश्न हो सकता है कि क्या अज्ञेय जी को पहले से ही इशारा कर दिया गया था कि आप को ज्ञानपीठ मिलनेवाला है? ऐसे किसी आदमी को पुरस्कार देना जो बैनेट कोलमैन की सेवा में हो, सम्मान की गरिमा जरूर घटाता। पर दूसरी ओर उनके हटने के साथ ही शानी को भी हटा दिया गया। अज्ञेय जी का बैनेट कोलमैन के तत्कालीन मालिकों पर खासा प्रभाव था, इसके बावजूद ऐसा क्यों हुआ, कहा नहीं जा सकता। क्या अज्ञेय जी ने शानी की पैरवी नहीं की होगी? या मालिकों ने अज्ञेय जी का, जो भी राजनैतिक इस्तेमाल हो सकता था, कर लिया था और अब वे उनकी ओर देखना भी नहीं चाहते थे? पर मुझे यह जरूर याद है कि इससे शानी बहुत परेशान हुए। संभवतः वह अनुबंध पर आये थे या फिर प्रोबेशन में ही थे। अज्ञेय जी के कहने पर उन्होंने लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़ी थी। संयोग से उन्हीं दिनों साहित्य अकादेमी ने हिंदी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य निकालने का निर्णय लिया और शानी इस के पहले संपादक बने। कुछ का तो यह भी मानना है कि शानी को काम पर लगाने के लिए अकादेमी के तत्कालीन सर्वे सर्वाओं ने पत्रिका की आनन-फानन में शुरूआत करवाई थी।

शानी के अलावा अज्ञेय जी सिद्धेष्श्वर प्रसाद को भी लाए थे, जो उससे पहले संभवतः बिहार सरकार में मंत्री रह चुके थे और बाद में गवर्नर भी बने। उन्हीं दिनों अज्ञेय जी संपादित सप्तक श्रंृखला का चैथा सप्तक प्रकाशित हुआ था। सिद्धेश्वर प्रसाद ने नवभारत टाइम्स में ही उस पर एक के बाद एक तीन लेख लिखे। कहा जाता है कि इस लेख माला का एक पुष्प और तैयार था जिसे अंततः इला डालमिया के हस्तक्षेप पर रोका गया। यह देखना अपने आप में कोई बहुत आश्वस्त नहीं करता कि नवभारत टाइम्स में उन दिनों उन गोष्ठियों की रिपोर्टें, जिन में अज्ञेय जी की अध्यक्षता होती या उनका भाषण होता, विस्तार से छपने लगे थे।

अज्ञेय जी को 1979 में (वर्ष 1978 का) ज्ञानपीठ मिला था। उन दिनों मैंआजकल का सहायक संपादक था। मैंने अज्ञेय जी पर विशेष सामग्री देने की योजना बनाई। तत्कालीन संपादक भगीरथ पाण्डेय की ओर से मुझे पूरी छूट थी। बोले, जरूर होना चाहिए। आखिर हिंदी को ज्ञानपीठ मिला है। तय हुआ कि लेखों के अलावा उनका साक्षात्कार और कविताएं भी छापी जाएं। इससे भी बड़ी बात यह थी कि मैं आवरण पर उनका चित्र छापना चाहता था जो आजकल की तब तक परंपरा नहीं थी। सामान्यतः विषय से संबंधित आवरण न दे कर कलात्मक या किसी कलाकृति को स्वयं में एक रचना की तरह छापा जाता था। और यह परंपरा देवेन्द्र सत्यार्थी ने स्थापित की थी, जो चित्रकला के खासे प्रेमी थे और जिन्होंने आजकल को दूसरे महायुद्ध के दौरान अंग्रेजों की प्रचार की योजना से निकाल कर एक साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका का रूप और प्रतिष्ठा दिलवाई थी।

कम से कम साक्षात्कार के लिए सबसे पहले अज्ञेय जी की सहमति जरूरी थी। मेरी न तो उन तक पहुंच थी, न ही सीधे बात करने की हिम्मत। विष्णु नागर मित्र और समवयस्क होने के अलावा उन दिनों फ्रीलांसिंग किया करते थे और आजकल के लिए भी अक्सर लिखते थे। मैं जानता था वह अज्ञेय जी के संपर्क में हैं। मैंने उन्हें पकड़ा।

पश्चिमी निजामुद्दीन में ऐन सड़क से लगे एक मकान की पहली मंजिल में अज्ञेय जी इला डालमिया के साथ रह रहे थे। वे विवाहित नहीं थे बल्कि ‘लिव इन पार्टनर’ थे और यह संबंध तब तक चार-पांच साल पुराना हो चुका था। उस सुरुचिपूर्ण मकान में, जितनी होनी चाहिए थी हमारी उससे कुछ ज्यादा ही आवभगत हुई। इला बहुत ही मेहमान नवाज महिला थीं। वह अज्ञेय जी के लिए जिस तरह समर्पित थीं, वह भी देखते बनता था। उन्हें देख कर मैं मन ही मन आश्वस्त हुआ था कि लेखक बनना कोई गलत निर्णय नहीं है। अज्ञेय जी पहाड़ों के प्रेमी थे और कुछ हद तक पहाड़ियों के भी। मनोहरश्याम जोशी और गौरीशंकर जोशी उनके बहुत निकट थे। दोनों ही उनके साथ दिनमान में काम कर चुके थे। गौरीशंकर जोशी तो नवभारत टाइम्स में भी रहे। इसे महज इत्तफाक ही कहेंगे कि एक और जोशी, दयाकृष्ण, की शादी की पार्टी में भी उनसे मुलाकात का मौका मिला था। यह 1980-81 के आसपास की बात है। पार्टी आनंद पर्वत में डीएवी स्कूल के परिसर में हुई थी। वहां अज्ञेय जी के साथ इला तो थीं हीं निर्मल वर्मा भी उपस्थित थे। उन्हीं की सिफारिश पर दयाकृष्ण जनसत्ता में रिपोर्टर बने थे। मैं वर-वधू दोनों को आजकल के कारण जानता था। जहां उन्होंने थोड़ा-बहुत लिखा था। दयाकृष्ण को जिस महिला ने भेजा था वह भी पहाड़ी थीं और पाण्डे जी को जानती थीं। वह संभ्रांत महिला साहित्य प्रेमी थीं और दिल्ली के साहित्यिक समाज में उनका उठना-बैठना था। अज्ञेय जी समेत कई जाने-माने लेखकों के वह संपर्क में थीं। उन्हीं के माध्यम से दयाकृष्ण अज्ञेय और निर्मल वर्मा तक पहुंचे थे।

इला जी ने बतलाया कि भीमताल और भवाली के बीच में उन्होंने एक मकान खरीदा है। कई वर्ष बाद 1995 में इग्नू की एक फिल्म बनाने के दौरान विज्ञान लेखक और हमारे वरिष्ठ मित्र स्व. कैलाश साह के भवाली के घर जाना हुआ। उनके छोटे भाई महेश लाल साह ने वहां से दूर नीचे दायीं ओर एक भव्य बंगले की ओर इशारा करते हुए बतलाया था कि वह मकान अज्ञेय जी का है। वे लोग वहां कितना रह पाये कहा नहीं जा सकता। अज्ञेय जी कुमाऊं के पहाड़ों में 40 के दशक से ही आ जा रहे थे और नटरंग (अंक 74-76, 2005) में छपे नेमिचंद जैन को लिखे एक पत्र के अनुसार अज्ञेय जी ने जून, 1942 में ही भीमताल में जमीन खरीद ली थी। उन्होंने पत्र में लिखा है, जमीन ‘‘झील के किनारे पर है (यद्यपि झील कभी-कभी रूठकर परे चली जाती है)।’’ पर लगता है अज्ञेय जी वहां मकान नहीं बनवा पाये थे। महेश लाल साह ने जो मकान दिखलाया था वह झील से तीन-चार कि.मी. की दूर पर भवाली की ओर था। लगता है औपनिवेशिक शैली का यह भव्य बंगला बाद में खरीदा गया होगा। कुछ ऐसा याद पड़ रहा है कि महेश ने इसे भुतहा कहा था, संभवतः वह अर्से से खाली पड़ा रहा होगा। आजादी के बाद कुछ वर्षों तक वहां ऐसे कई बंगले हुआ करते थे जिन्हें कभी अंग्रेजों ने बनवाया था और जिनमें वह ब्रिटिश हुकूमत के समाप्त होने के साथ ही औने-पौने दामों में बेच कर या खाली कर के चले गए थे। कुछ अंग्रेज लगभग साठ के दशक तक रहे। 1956 तक भवाली में हमारे घर के पीछे कम से कम तीन बंगलों में अंग्रेज थे। उनके परिवारों से हमारा कोई लेन-देन नहीं था पर उनके बच्चे जरूर हमारे साथ कभी-कभी फुटबाल खेला करते थे।

अज्ञेय जी संभवतः कुछ काम कर रहे थे, इसलिए थोड़ा देर से आये थे और आये भी तो ज्यादा बातें इला डालमिया से ही होती रहीं जो हमारी समवयस्क थीं। पहाड़ और पहाड़ियों से उनका खासा सरोकार था। कहने लगीं, पहाड़ इतने सुंदर हैं और वहां प्रकृति इतनी मेहरबान है फिर भी पहाड़ी गरीब हैं। हमें देखिये हम लोग (मारवाड़ी-राजस्थानी) जिस इलाके से आते हैं वह बिल्कुल बंजर है फिर भी वहां के लोग संपन्न हैं। उनकी बात सही थी। इसमें शक भी नहीं है कि पहाड़ियों में नौकरियों की ही परंपरा रही है। मैंने उनसे कहा था, नौकरी करना आसान होता है जबकि व्यापार के लिए विशेष दक्षता, लगन, समझदारी, मेहनत और सबसे बड़ी चीज उद्यमिता की जरूरत होती है जो पहाड़ियों के पास नहीं है।

‘‘नहीं,’’ वह अत्यंत शालीन महिला थीं और संभवतः मेरी इतनी स्पष्ट आत्मस्वीकृति से थोड़ा असहज हो गईं थीं। बोलीं, ‘‘समझदार, मेहनती और ईमानदार तो पहाड़ी होते हैं। थोड़ा कोशिश की जरूरत है।’’

‘‘परंपरा बनने में समय लगता है।’’ वह मेरी बात पर मुस्कराई थीं।

अज्ञेय जी से बातचीत का दूसरा ही स्तर रहा। न जाने कैसे पाश्चात्यीकरण पर बात चल पड़ी। वह बताने लगे कि हम लोग किस हद तक अंधानुकरण के आदी हो चुके हैं। बोले, किसी भी होटल में जाइये और भारतीय खाना भी खाइये तो भी छोटी प्लेट को – क्वार्टर प्लेट – बाएं हाथ की ओर रख दिया जाता है जबकि उस में रोटी रखी जाती है। हम लोग रोटी को सीधे हाथ से तोड़ कर खाते हैं, पश्चिम में कांटे से उल्टे हाथ से खाया जाता है। हमारे हिसाब से क्वार्टर प्लेट को सीधे हाथ की ओर रखा जाना चाहिए पर हम इतना भी नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से यह विवेकहीन परंपरा आज भी बरकरार है।

मैं इस बात को मानने लगा था कि जो समाज मौलिक चिंतन नहीं कर सकता वह समाज सिर्फ नकल करता है, और आंख मूंद कर करता है। यह बात मैंने उन्हीं दिनों कहीं पढ़ी थी। इससे मेरी जो समझ बनी थी, वह यह थी कि नये काम करने के लिए ऐसे वैचारिक आधार की जरूरत होती है जो कि सामयिक चुनौतियों का सामना करने की क्षमता रखता हो। और तभी यह व्यक्ति और समाज के दैनंदिन व्यवहार में प्रतिबिंबित होता है। मैंने वही तर्क उनके सामने रख दिया।

अज्ञेय जी ने अंततः पूछा, ‘‘बतलाईये कैसे आना हुआ?’’

विष्णु नागर ने मेरा परिचय देने की कोशिश की तो अज्ञेय जी ने उन्हें बीच में ही टोक दिया, ‘‘मैं जानता हूं।’’ मुझे डर लगा, नवभारत टाइम्स के पारिश्रमिक के प्रसंग को तो कहीं अज्ञेय जी ने नकारात्मक रूप में नहीं लिया होगा?

नागर ने थोड़ा संभल कर बात आगे बढ़ाई , ‘‘आजकल आप पर विशेषांक निकालना चाहता है। उसके लिए साक्षात्कार चाहते हैं।’’

अज्ञेय जी ने मेरी ओर मुखातिब होकर धीमी आवाज में पर भयावह दृढ़ता से कहा, ‘‘ मैं सरकारी पत्रिकाओं को साक्षात्कार नहीं देता।’’

उनके उत्तर से एक पल के लिए मैं सन्न रह गया। देर तक समझ में नहीं आया, क्या जवाब दूं। किसी तरह मैंने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘आप जो कहेंगे, वही छपेगा। और हम तो सिर्फ साहित्य पर ही बात करना चाहते हैं। आप के व्यक्तित्व और कृतित्व पर।’’ वह जनता दल के शासन का दौर था, जिसके अज्ञेय जी समर्थक थे ही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कहीं किसी तरह की कोई बंदिश नहीं रह गई थी।

‘‘नहीं, यह संभव नहीं है।’’ संक्षिप्त-से उत्तर के बाद उनका सर हौले से नकार में हिला और वह दीर्घ मौन में उतर गए। न तो उन पर मेरी बात का कोई प्रभाव पड़ा और न मेरे चेहरे की हताशा, नाउम्मीदी और याचना ने ही उन पर कोई असर डाला।

अंततः मैंने न जाने कैसे हिम्मत कर कह ही दिया, ‘‘आप रेडियो और टेलिविजन को तो साक्षात्कार देते ही हैं, उनके कार्यक्रमों में भी आते हैं।’’ उन दिनों रेडियो (आकाशवाणी) और टीवी (दूरदर्शन) पर सरकार का एकाधिकार था और मैं उन्हें कई कार्यक्रमों में देख-सुन चुका था। मैं तब तक यही जानता था कि वह आकाशवाणी से सलाहकार के रूप में जुड़े रहे हैं। बाद में मुझे पता चला कि वह आकाशवाणी में बाकायदा स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में अनुबंध पर 40 के दशक के शुरू में तीन वर्ष के करीब काम कर चुके थे।

इस पर उन्होंने जिस निर्विकार भाव से देखा, उसका कुछ भी अर्थ हो सकता था – उपेक्षा से लेकर तिरस्कार तक। कुछ पल में लगने लगा मानो मैं उनकी नजरों के आगे से ही गायब हो गया होऊं। उनका मौन मेरे अंदर चेतावनी का सायरन बजाने लगा था। इसके बाद बैठने का कोई औचित्व नहीं रह गया था। हम लोग उठ गये। उन्होंने हमें दरवाजे तक छोड़ने की शालीनता बरती। निराशा के अलावा उनके पाखंड ने मुझे बौखला दिया था। पर मुझे संतोष था कि मैंने जो कहना चाहिए था, कह दिया था।

अगले दिन दफ्तर में जब हमारे संपादक जी ने पूछा, कल क्या हुआ तो मैं भड़क गया, भाड़ में जाएं अज्ञेय जी, इंटरव्यू-सिंटरव्यू कुछ नहीं होगा. 

ज़ारी………

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा. मैं कल से इसका इन्तेज़ार कर रहा था. बस इतना कि असावधानीवश जनता पार्टी की जगह जनता दल छप गया है. १९७७-१९८० के दौरान जनता पार्टी की सरकार थी. जनता दल तो तब बना भी नहीं था. लेकिन लिखा बहुत अच्छा है पंकजजी ने.
    अगली किस्त के इंतज़ार में.

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  2. हां प्रभात भाई…पढ़ते वक़्त नज़र गयी थी इस पर लेकिन उनके लिखे में सुधार अनुचित लगा तो यूं ही छोड़ दिया…

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  3. भाई पंकज जी, कुछ बाते इस संस्मरण के बाद मन में उठी हैं जिन्हें लिंख देना उचित होगा।
    1-हिंदी का कोई लेखक अज्ञेय को पसंद करे या न करे अज्ञेय भाड़ में नहीं जाएँगे।
    2-आज या तब भी ऐसे कितने लेखक हो सकते हैं जो अपने विशेषांक के संपादकों के आगे लोट-पोट न होने लगेगें।
    3-इस संस्मरण के शुरुआत का बहुत सारा हिस्सा क्या सोच कर लिखा गया है,समझ में नहीं आता। अज्ञेय का बंग्ला, जमीन या इला जी के साथ लिव इन का प्रसंग कोई बहुत मायने नहीं रखता।
    4- फिर क्या वह विशेष अंक निकाला गया या आपने वह अंक ही रोक दिया।
    5- कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकारी नौकरी के दबाव में आप भी आ गए और वह अंक अज्ञेय के पाखंड पूर्ण बर्ताव के बाद भी छपा।
    6-क्या आज कोई अज्ञेय के कद का लेखक अपने से बहुत कम उमर और नए लेखक को दरवाजे तक छोड़ने....आता है...पाखंड के फेर में ही सही...
    7-आपको नहीं लगता कि अकादमी के उन सर्वे-सर्वाओं का हमें आभारी होना चाहिए जिन्हें ने हिंदी को शानी जैसा संपादक दिया। आनन-फानन में ही सही। ऐसे लोग अब कहाँ हैं....

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  4. अच्छा जी !
    कितनी नावों में इतनी बार !

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  5. जनपक्ष में आकर अच्‍छा लगा। अज्ञेय जी पर पंकज जी का संस्‍मरण बहुत सारी बातें बता रहा है। कृपया बताएं कि जनपक्ष में कैसे भागीदारी की जा सकती है।

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  6. विद्वानो ! दूसरा अज्ञेय अब हिन्दी में नहीं आनेवाला !

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