( समयांतर में छपा पंकज बिष्ट का यह संस्मरण अज्ञेय के संदर्भ में तमाम पहलुओं को सामने लाता है। प्रस्तुत है इसकी पहली क़िस्त)
अज्ञेय जी को देखने का सौभाग्य मुझे पहली बार सन 1968 में मिला। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स में इंटर्नशिप कर रहा था। वह दिनमान के संपादक थे और दिनमान ने अपने प्रकाशन के साथ ही हिंदी में महत्वपूर्ण जगह बना ली थी। इसे तब हिंदी का टाइम (अमेरिकी साप्ताहिक जिसका उन दिनों जबर्दस्त रुतबा था) माना जाता था और एक तरह से यह उसकी नकल कहिये या तर्ज पर था भी। पर यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा कि यह यथावत नकल था। अज्ञेय जी के बाद रघुवीर सहाय के दौरान भी दिनमान की हिंदी के बौद्धिक समाज में विशेष जगह बनी रही। यह मेरा सौभाग्य था कि मेरा एक पत्र 1967 में दिनमान में छप चुका था और उस अंक को मैंने वर्षों संभाल कर रखा। एक तरह से वह पत्र राजनैतिक पत्रकारिता में मेरी दखलंदाजी की शुरूआत कहा जा सकता है। पत्र राममनोहर लोहिया के एक साक्षात्कार पर प्रतिक्रिया थी। वैसे लोहिया और समाजवादी आंदोलन दिनमान के प्रिय विषय थे और काफी हद तक दिनमान के प्रसार का – जो बिहार में सबसे ज्यादा था – आधार भी वही थे। बाद में अज्ञेय एवरी मैन्स साप्ताहिक के संपादक बने। जयप्रकाश नारायण उसके प्रधान संपादक थे और वह बहादुरशाह जफर मार्ग की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग से, बल्कि कहना चाहिए उसकी मदद से ही निकलता था। एवरी मैन्स संपूर्ण क्रांति आंदोलन का एक तरह से मुखपत्र था। इसके हिंदी सहोदर का नाम था प्रजानीति।
अज्ञेय जी ज्यादातर खादी का सफेद कुर्ता-पायजामा और उस पर क्रीम रंग की बंडी पहने होते थे। कुर्ता-पायजामा इतने सफेद होते थे कि मैं यह सोच कर आश्चर्य करता रहता था कि आखिर वह इन्हें कहां से धुलवाते होंगे? एकाध बार मैंने उन्हें बटिक प्रिंट की छापेदार बुशर्ट में भी देखा था। प्रकाशन विभाग के संग्रह में उनके कई पुराने बड़े आकर्षक फोटो थे जिनमें एक फौजी वर्दी में भी था। खैर, जब भी वह आते बहादुरशाह जफर मार्ग स्थिति टाइम्स हाउस का दूसरा तल्ला उनके व्यक्तित्व व पांडित्य की गंभीरता से थम-सा जाता था। ऐसा संभवतः श्याम लाल के लिए भी नहीं होता होगा जो उन दिनों टाइम्स आफ इंडिया के संपादक थे। वैसे श्याम लाल, मुंबई में बैठते थे और बहुत ही लो प्रोफाइल्ड आदमी थे। सभाओं/ सेमिनारों में जाना और फिर उनकी रिपोर्टें अपने अखबार में छपवाना, उन्होंने शायद ही कभी किया हो। टाइम्स आफ इंडिया चाहे जितना खराब हो गया हो, पर अपने संपादकों की सार्वजनिक गतिविधियों की रिपोर्टें आज भी उसमें नहीं छपतीं। अंग्रेजी के अखबारों में यह परंपरा कुल मिला कर लगभग नहीं के बराबर है। हिंदी में यह पंरपरा तब भी थी और आज भी फलफूल रही है।
दिनमान उन दिनों बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित टाइम्स हाउस में ही था। बाद में उसे टाइम्स आफ इंडिया की 10 दरियागंज स्थित पुरानी बिल्डिंग में पटक दिया गया था। जफर मार्ग की दूसरी मंजिल में सीढ़ियों से प्रवेश करने पर पहले दांयी ओर टाइम्स आफ इंडिया का ब्यूरो और उसके आगे संपादकीय विभाग था, बीच में नवभारत टाइम्स और बिल्कुल बायें छोर पर खिड़की से लगे दिनमान के लोग बैठा करते थे। खिड़की के बाहर कब्रिस्तान और पीछे आइआइएमपी व एजीसीआर की बिल्डिंगें नजर आती थीं। अज्ञेय जी विशेषकर पढ़ने-लिखने की चीजें स्वयं ही लाया करते थे। उनसे मिलने या बात करने की हिम्मत मैं कभी नहीं कर पाया। उनका व्यक्तित्व इतना भव्य था कि एक विदेशी महिला ने एक बार मुझ से गदगद होकर कहा कि मैंने ऐसा संुदर आदमी नहीं देखा। और यह भी तब जब वह साठ पार कर चुके थे। वह लगभग छह फुट के थे और उनका शरीर भी कसरती था। सफेद दाढ़ी और चश्मे में वह किसी ग्रीक दार्शनिक से कम नहीं लगते थे। मैंने उन्हें एकाध बार कपिला जी के साथ भी आते-जाते देखा था और एकआध गोष्ठियों में भी सुना था।
अज्ञेय जी ने दिनमान कब छोड़ा यह ठीक से याद नहीं है, पर मैं नभाटा में ज्यादा दिन नहीं रहा और दिसंबर, 1968 में प्रकाशन विभाग में मुझे नौकरी मिल गई। संभवतः 70-71 की बात होगी कि एक दिन मैंने उन्हें और इला डालमिया को टी हाउस के संसद मार्ग पर खुलनेवाले दरवाजे के ठीक सामने से सड़क पार करते हुए देखा। निर्मल वर्मा भी साथ थे। टी हाउस संसद मार्ग के ऐन कोने में, आज जहां एलआइसी की बिल्डिंग है ठीक उसके सामने हुआ करता था। उसका एक दरवाजा कनाट सर्कस की ओर खुलता था तो दूसरा संसद मार्ग की ओर। मेरे लिए वह बड़ा रोमांचक क्षण था। इला सांवली, काफी लंबी और लावण्यमयी थीं और अज्ञेय जी (7 मार्च, 1911-1987) से 31 साल छोटी थीं। उस दिन जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया वह था इला डालमिया का लंबा-सा, रंग-बिरंगे फंुदनोंवाला चुटीला, जो उनकी पीठ पर पेंडुलम की तरह लयबद्ध झूल रहा था। उनके आकर्षक व्यक्तित्व ने कई दिन तक मेरा पल्ला नहीं छोड़ा।
अज्ञेय जी से मेरा वास्तविक सामना कुछ वर्ष बाद हुआ पर इस बीच एक और घटना हुई। 1977 में जनता दल के सत्ता में आने पर अज्ञेय जी को नवभारत टाइम्स का संपादक बना दिया गया। इस में उनके जेपी के नजदीक होने ने निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। नवभारत टाइम्स कुल मिला कर सदा से सामान्य हिंदी पाठकों का ही अखबार रहा है। अज्ञेय जी सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कर चुके थे। उन्होंने नवभारत टाइम्स को बदलने की कोशिश की और उसी कोशिश के तहत वह कथाकार शानी को अखबार के साप्ताहिक संस्करण को सुधारने की मंशा से सहायक संपादक बना कर भोपाल से लाए। शानी द्वारा संपादित पहले रविवारीय परिशिष्ट में मेरी कहानी ‘प्रतिचक्र’ छपी। इस कहानी का शीर्षक योगश गुप्त ने सुझाया था, जिनसे मेरी उन दिनों खासी दोस्ती हुआ करती थी। शानी द्वारा इसके छापे जाने के पीछे भी एक कहानी है। उनसे मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था, सिवा इसके कि मैं उन्हें उनके बहुचर्चित उपन्यास काला जल और उनके द्वारा संपादित मध्यप्रदेश सरकार की पत्रिका साक्षात्कार के कारण जानता था। वह, अहंकारी न भी कहा जाए तो भी अतिरिक्त रूप से आत्मसजग व्यक्ति थे। पहले अंक के लिए उन्हें कोई संतोषप्रद कहानी मिल नहीं रही थी। संभवतः कवि इब्बार रब्बी ने, जो उन दिनों नवभारत टाइम्स में थे, मुझसे कहा कि कोई कहानी दो, शानी चाहते हैं। मेरे पास एक कहानी थी पर उसको लेकर मुझे खुद शंका थी, विशेष कर नवभारत टाइम्स के पाठक वर्ग को देखते हुए। मैंने सुझाया कि असग़र वजाहत से कहानी मांगी जाए, पर शानी इसके लिए तैयार नहीं थे। वह नहीं चाहते थे कि उन पर आरोप लगे कि आते ही मुसलमानों की कहानियां छापने लगे हैं। जो भी हो रब्बी के आग्रह पर मैंने कहानी अपनी शंका के साथ, देखने को दे दी। वह छप भी गई। शानी के संपादन में छपी मेरी वह पहली और आखिरी रचना थी। वैसे वह नवभारत टाइम्स में ज्यादा दिन रहे भी नहीं।
कहानी छपने के बाद जो हुआ वह भी कम मजेदार नहीं था।
एक आध महीने बाद पारिश्रमिक मिला। चेक देख कर मुझे बड़ा गुस्सा आया। विशेष कर इसलिए कि अखबार के संपादक अज्ञेय जी थे। कुल पचास रुपये का था। मैंने तत्काल एक पत्र में अपना सारा गुस्सा उगल दिया। उसमें लिखा था, जिस अखबारी संस्थान ने छह सौ करोड़ रुपये (उस वर्ष) का लाभ कमाया हो वह अपने लेखकों का इस तरह अपमान करे, यह मुझे स्वीकार नहीं है। यह पैसा मेरी ओर से बैनेट कोलमैन कंपनी को दे दिया जाए। पत्र लेकर मैं नवभारत टाइम्स पहुंचा। बात 12 या एक बजे की होगी। मैंने पत्र रब्बी को दिखलाया। जैसी रब्बी की आदत है, उन्होंने पत्र का पूरा मजा लेने के बाद उसे अज्ञेय जी के पीए को थमा दिया।
मैं वापस अभी अपने दफ्तर, जो उन दिनों पटियाला हाउस में, इंडिया गेट के नजदीक, हुआ करता था, पहुंचा भी नहीं था कि अज्ञेय जी के पीए का फोन आ गया कि वह मुझ से तुरंत मिलना चाहते हैं। उस दिन संभव न होने के कारण मैं अगले दिन पहुंचा। उन से मिलने की कल्पना से ही मैं खासा उत्तेजित और कुछ हद तक घबराया हुआ भी था। पहुंचते ही मुझे अंदर बुला लिया गया। अज्ञेय जी के सामने मेरा चेक रखा हुआ था। बैठने का इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘आप की कहानी थी?’’
‘‘जी,’’ मैंने कहा।
इस पर उनकी प्रतिक्रया थी, ‘‘कम है।’’ मेरा सौभाग्य था कि वह थोड़ा मुस्कराए भी और जोड़ा, ‘‘आप इसे छोड़ जाइये।’’ संकेत था कि अब जा सकता हूं। मैं असहज तो था ही फौरन खड़ा हो गया। गले से धन्यवाद तक ठीक से नहीं निकल पाया और मैं कमरे से बाहर आ गया। पर मैं अपने कारनामे से काफी दिन तक गदगद रहा और ‘इसे कहते हैं विरोध’ वाले अंदाज में, अपनी वीरता की गाथा लोगों को सुनाता रहा।
अंततः एक दिन नवभारत टाइम्स की ओर से नया चैक भी आ गया। मैंने बड़े उत्साह से लिफाफा खोला। चैक ने मुझे स्तब्ध कर दिया। नया चेक सिर्फ 75 रुपये का था। जब कि उन्हीं दिनों सारिका और धर्मयुग जैसी बैनेटकोल मैन की ही पत्रिकाएं एक कहानी का पांच सौ से हजार रुपये तक दिया करती थीं। यहां तक कि आजकल एक कहानी का रु. 250 तक देता था और रविवार स्वयं मुझे एक कहानी का रु. 350 दे चुका था। वैसे मैं अपने पत्र में अज्ञेय जी को संपादक होने के नाते यह भी लिख चुका था कि आप (नवभारत टाइम्स) अंग्रेजीवालों से तुलना तो नहीं कर सकते पर कम से कम हिंदी वालों के बराबर तो पारिश्रमिक होना चाहिए। पर मैं खिन्नता से इतना भर चुका था कि आगे कुछ भी कहना या करने का उत्साह ही नहीं रहा। इसे अज्ञेय जी का आतंक भी कह सकते हैं कि मैं फिर विरोध नहीं कर पाया। हो सकता है, तब तकनीकी कारणों से अज्ञेय जी पैसा एक सीमा से ज्यादा न बढ़ा पाये हों पर बाद में नवभारत टाइम्स के पारिश्रमिक में जरूर बढ़ोत्तरी की गई थी।
ज़ारी…………
अच्छा लगा. एक साँस में पढ़ गया. इसका अगला हिस्सा भी ज़ल्दी दीजियेगा. समयांतर नहीं पढ़ पाता हूँ. बस थोडा लगा कि पंकजजी अंग्रेजी पत्रकारिता की संस्कृति से बेहद प्रभावित रहे हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में किस तरह कि नंगी नंगी तस्वीरे छपती हैं यह उनको नहीं दीखता है. चेतन भगत और शोभा दे का स्तंभ छापने लगा है इस गिरावट की ओर उनका ध्यान नहीं जाता है. बहरहाल अज्ञेय की उनकी रेअडिंग अच्छी लगी. आगे भी पढ़वाईएगा. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लगा संस्मरण...
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी की प्रतीक्षा है...