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शुक्रवार, 25 जून 2010

प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति के सम्बन्ध में नारीवादी दृष्टिकोण

(प्रस्तुत लेख मेरे शोध-कार्य "मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-संबंधी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव" का अंश है. इसलिए अधूरा भी लग सकता है और हो सकता है कि कहीं और भी पढ़ा जा चुका है. वैसे सन्दर्भ-ग्रंथों के नाम भी दे दिए गए हैं)

प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा के विषय में इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. स्थूल रूप में इन ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
- वामपंथी दृष्टिकोण
- नारीवादी दृष्टिकोण
- दलित लेखकों का दृष्टिकोण
जहाँ राष्ट्रवादी विचारक यह मानते हैं कि वैदिक-युग में भारत में नारी को उच्च-स्थिति प्राप्त थी. नारी की स्थिति में विभिन्न बाह्य कारणों से ह्रास हुआ. परिवर्तित परिस्थितियों के कारण ही नारी पर विभिन्न बन्धन लगा दिये गये जो कि उस युग में अपरिहार्य थे. इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था को भी कर्म पर आधारित और बाद के काल की अपेक्षा लचीला बताते हुये ये विचारक उसका बचाव करते हैं. वामपंथी विचारक राष्ट्रवादी विद्वानों के इन विचारों से सर्वथा असहमत हैं. उनके अनुसार स्त्रियों तथा शूद्रों की अधीन स्थिति तत्कालीन उच्च-वर्ग का षड्यंत्र है, जिससे वे वर्ग-संघर्ष को दबा सकें. उच्च-वर्ग अर्थात्मुख्यतः ब्राह्मण (क्योंकि समाज के लिये नियम बनाने का कार्य ब्राह्मणों का ही था) शूद्रों को अस्पृश्यता के नाम पर तथा नारियों को परिवारवाद के नाम पर संगठित नहीं होने देना चाहते थे.
नारीवादी विचारक भी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हैं. उनके अनुसार तत्कालीन सामाजिक ढाँचा पितृसत्तात्मक था और धर्मगुरुओं ने जानबूझकर नारी की अधीनता की स्थिति को बनाये रखा. ये विचारक यह भी नहीं मानते कि वैदिक युग में स्त्रियों की बहुत अच्छी थी, हाँ स्मृतिकाल से अच्छी थी, इस बात पर सहमत हैं. दलित विचारक स्मृतियों और विषेशत मनुस्मृति के कटु आलोचक हैं. वे यह मानते हैं कि शूद्रों की युगों-युगों की दासता इन्हीं स्मृतियों के विविध प्रावधानों का परिणाम है. वे मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३१वें[i] और ९१वें[ii] श्लोक का मुख्यतः विरोध करते हैं जिनमें क्रमशः शूद्रों की ब्रह्मा की जंघा से उत्पत्ति तथा सभी वर्णों की सेवा शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है.
प्राचीन भारत में नारी की स्थिति के विषय में सबसे अधिक विस्तार से वर्णन राष्ट्रवादी विचारक ए.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक में किया है. उन्होंने नारी की शिक्षा, विेवाह तथा विवाह-विच्छेद, गृहस्थ जीवन, विधवा की स्थिति, नारी का सार्वजनिक जीवन, धार्मिक जीवन, सम्पत्ति के अधिकार, नारी का पहनावा और रहन-सहन, नारी के प्रति सामान्य दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला है. अल्टेकर के अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार देने, नारी को शासन के पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकार अल्टेकर ने उन अनेक बातों में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात्भी वे कहीं-कहीं प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं.* प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनके अनुसार, "महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू परम्परा नहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं... . महिलाओं को ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी."[iii] शकुन्तला राव शास्त्री ने अपनी पुस्तकवूमेन इन सेक्रेड लॉज़में इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं.
आधुनिक काल के प्रमुख नारीवादी इतिहासकारों तथा विचारकों ने अल्टेकर और शास्त्री के उपर्युक्त स्पष्टीकरणों की आलोचना की है. आर.सी. दत्त के विरोध में प्रसिद्ध नारीवादी विचारक डा. उमा चक्रवर्ती कहती हैं, "... ... मनु तथा अन्य कानून-निर्माताओं ने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की हिमायत की थी. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्राम्भिक काल से संबंधित विवरणों में सती-प्रथा उच्च जति की महिलाओं के साथ साफ़ जुड़ी देखी जा सकती है. महिलाओं का अधीनीकरण सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूलरूप में मुस्लिम धर्म के उदय से भी काफ़ी पहले अस्तित्व में चुका था. इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिये एक आसान बहाना भर है."[iv]
नारीवादी विचारकों ने यह माना है कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति में ह्रास का कारण हिन्दू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना थी कि कोई बाहरी कारण. इसके लिये नारीवादी विचारक प्रमुख दोष स्मृतियों के नारी-सम्बन्धी नकारात्मक प्रावधानों को देते हैं, क्योंकि तत्कालीन समाज में स्मृतिग्रन्थ सामाजिक आचारसंहिता के रूप में मान्य थे और उनमें लिखी बातों का जनजीवन पर व्यापक प्रभाव था. प्रमुख स्मृतियों में नारी-शिक्षा पर रोक, उनका कम उम्र में विवाह करने सम्बन्धी प्रावधान, उनको सम्पत्ति में समान अधिकार देना आदि प्रावधानों के कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति होती गयी. नारीवादी विचारकों के अनुसार हमें अपनी कमियों का स्पष्टीकरण देने के स्थान पर उनको स्वीकार करना चाहिये ताकि वर्तमान में नारी की दशा में सुधार लाने के उपाय ढूँढे़ जा सकें.


सन्दर्भ :
* द पोजीशन ऑफ वूमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, ए.एस. अल्तेकर, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसी दास.
[i]लोकानां तु विवृद्धि अर्थं मुख- बाहु- ऊरु- पादतः
ब्राह्मणं क्षत्रिय वैश्यं शूद्रं निरवर्तयत्‌“ /३१ मनुस्मृति.
[ii]एकम्एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्
एतेषाम्एव वर्णानां शुश्रूषाम्अनुसूयया/९१ मनुस्मृति.
[iii] पृष्ठ संख्या २३, द सिविलाइजेशन ऑफ इण्डिया, आर.सी. दत्त, प्रकाशक-रूपा कंपनी, नई दिल्ली, २००२.
[iv] पृष्ठ संख्या १२९, अल्टेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारंभिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों का नई समझ, उमा चक्रवर्ती, नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, २००१.

2 टिप्‍पणियां:

  1. आश्चर्य कि इतना महत्वपूर्ण लेख लोगों को प्रतिक्रिया के लिये उत्तेजित नहीं कर पाया?

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  2. तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए ये आलेख पठनीय नहीं है क्योकि ना तो इसमें कोई नारी- पुरुष विभेद है ना ही कोई मसालेदार तत्व . मेरे जैसे साधारण पाठक को ये आलेख अच्छा लगा. , मुक्ति जी का आभार.

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