समास में दिए गए साक्षात्कार में कवि कमलेश के सी आई ए समर्थन वाले बयान और उसके बाद चली बहस से आप परिचित हैं ही. इसी क्रम में अर्चना वर्मा ने उस पूरी बहस को 'बचकाना' जैसा बताते हुए और कमलेश के बयान को 'पासिंग रिमार्क' तथा 'कृतज्ञता के अतिरेक में एक असतर्क, असावधान क्षण में' की गयी भावुक अभिव्यक्ति ही नहीं साबित किया बल्कि इस बहस में भागीदार लोगों की उम्र का मज़ाक उड़ाते हुए इसे 'युवकोचित उत्साह' भी कहा . अब हम अपनी उम्र वक़्त से पहले तो नहीं ही बढ़ा सकते लेकिन सी आई ए के समर्थन की परतें खोलने के लिए वयोवृद्ध होने की भी प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते. खैर. उनके लेख के निहितार्थों और इस पूरी बहस के असली उद्देश्यों की पड़ताल करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने यह प्रतिवाद लिखा है, जो कथादेश के ताज़ा अंक में प्रकाशित है. इसे हम पूरी क्रोनोलाजी के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं. साथ ही जनसत्ता में नहीं छापे गए मेरे और गिरिराज किराडू के प्रतिवाद भी इसी क्रम में जनपक्ष पर छापे जायेंगे.
4- इस मुद्दे से अलग लेकिन वैचारिक रूप से करीब कथन में प्रकाशित मेरा आलेख
5-अशोक वाजपेयी का पत्र
6- गिरिराज किराडू का जवाब
7- अशोक वाजपेयी का एक और पत्र
5-अशोक वाजपेयी का पत्र
6- गिरिराज किराडू का जवाब
7- अशोक वाजपेयी का एक और पत्र
और यह प्रतिवाद
सी आई ए के प्रति ऋण बनाम ‘अज्ञान का अन्धेरा ‘
'असहमति और विवाद की संस्कृति ' (कथादेश ,जून २०१३) शीर्षक लेख में अर्चना वर्मा का यह कथन आश्वस्तकारी है कि ,"एकवीय विश्व में समतोल या प्रतिभार की जो भूमिका जरूरी है और थोड़ी बहुत निभायी जा सकती है उसके लिए संगठित प्रतिपक्ष का ,चाहे कितना भी अपर्याप्त ,विकल्प वामपंथ ही है ." लेकिन ज्यों ही वे कमलेश जी के 'समास -५' के अमरीका और सी आई ए विषयक कथन को 'सिर्फ एक पासिंग रिफरेन्स ' बताती हैं त्यों ही वे अपना तयशुदा पक्ष उजागर कर देती हैं .दरअसल सच यह है कि कमलेश का यह कथन महज 'एक पासिंग रिफरेन्स ' न होकर उनकी उस सुचिंतित सोच का परिणाम है जिसकी धुरी कम्युनिज्म और वामपंथ विरोध पर टिकी है और इसे वे सुस्पष्ट भी करते हैं . दिक्कत कमलेश के उन समर्थकों की है जो अमरीका और सी आई ए के पक्ष में दिए गए उनके कथन का बचाव करते हुए निर्लज्ज रूप से उसके पक्ष में दीखना नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करना 'पोलिटिकली करेक्ट ' नहीं होगा .कमलेश का कथन कुछ यूं है ,"शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे धीरे उपलब्द्ध होने लगा .यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमरीका और सी आई ए ने उपलब्द्ध कराया ,इसके लिए मानव जाति अमरीका और सी आई ए की ऋणी है .भारतवर्ष को यह बौद्धिक खुराक शायद ही उपलब्द्ध होती अगर अमरीका और सी आई ए इस दिशा में सक्रिय नहीं होते .हमारा दुर्भाग्य है कि हिन्दी में नयी पीढी के अधिकांश लेखकों को सोवियत संघ के इन भयंकर अपराधों का ज्ञान भी नहीं है." और यह भी कि ,"इन जानकारियों के बाद भी लोग कम्युनिस्ट रह सकते हैं ,यह भारतवर्ष में फैले हुए अज्ञान के घोर अँधेरे में ही संभव है ."
दरअसल कमलेश की मुख्य चिंता कम्युनिज्म द्वारा फैलाये गए 'अज्ञान के घोर अँधेरे ' से मुक्ति और अभी भी भारत में कम्युनिस्टों के वजूद के
बने रहने से है . अर्चना वर्मा के 'विकल्प वामपंथ ही है’ की सदेच्छा और कमलेश की कम्युनिज्म द्वारा फैलाये गए 'अज्ञान के घोर अँधेरे’ व कम्युनिस्टों से मुक्ति पाने की
मुहीम के बीच नट-संतुलन के निहितार्थों को पढ़ा जाना चाहिए . क्या ही अच्छा होता
यदि अर्चना जी ने 'समास -६' में प्रकाशित कमलेश के उन विचारों को भी पढ़ लिया होता
जिनमें उन्होंने नात्सीवाद के समर्थक जर्मन दार्शनिक हाइडेगर का यह कहकर
बचाव किया है कि भले ही वे नात्सी पार्टी के सदस्य रहे हों लेकिन
"वैचारिक स्तर पर उनका चिंतन नात्सी विचारधारा से अलग ही नहीं था ,बल्कि उसका गंभीर प्रत्याख्यान भी था.” ज्ञातव्य है कि नाजी
विचारों के समर्थन के ही कारण जर्मन
विश्वविद्यालय में उनके अध्यापन पर रोक लगा दी गयी थी .कमलेश हाइडेगर को महात्मा गांधी के 'हिन्द स्वराज ' के निकट भी पाते हैं . उन्हें हाइडेगर के चिंतन में वह 'लोकोन्मुख राष्ट्रवाद ' दीखता है जिसके प्रतीक पुरुष के रूप में इन दिनों नरेंद्र
मोदी को प्रस्तुत किया जा रहा है .आखिर ऐसा क्यों है कि जब जर्मनी सहित समूची
दुनिया में हाइडेगर को हिटलर के समर्थक दार्शनिक के रूप में पढ़ा और
समझा जा रहा है तब कमलेश उनमे गांधी से सादृश्य तलाश रहे हैं . यह सचमुच गंभीर विचार का विषय है कि जिन दिनों
हाइडेगर के नाजी संबंधों को लेकर साएमन हेफर की 'हिटलर'र्ज सुपरमैन’ और इमनेल फाई की 'हाइडेगर -दि इंट्रोडक्सन आफ नाजिज्म इन्टू फिलासफी’ सरीखी पुस्तकें समूचे विश्व के बुद्धिजीवियों के बीच गंभीर चर्चा के
केंद्र में हों तब हिन्दी का एक बुद्धिजीवी हाइडेगर की औचित्यसिद्धि
कर रहा हो .
अभी पिछले दिनों कमलेश ने मार्क्सवादी इतिहासकार डी
डी कोसंबी को अपना कोपभाजन इसलिए बनाया कि वे ब्राह्मणवाद को प्रश्नांकित करते हैं
.कमलेश का कहना है कि "कोसंबी ब्राह्मणों पर ऐसे आरोप लगाते हैं जो नात्सियों
द्वारा यहूदियों पर लगाये गए आरोपों से समान्तर है .इसके बाद 'फाइनल साल्युशन ' ही बच जाता है ,जिसके लिए राज्य पर मार्क्सवादियों का कब्ज़ा आवश्यक है” .(जनसत्ता
,१० मार्च २०१३) काजी जी ,दुबले क्यों शहर के अंदेशे से ! यानि
वे मार्क्सवादी आन्दोलन को ब्राह्मणवाद के लिए बड़े खतरे के रूप में
देखते हैं .यही कारण है कि वे साफगोई के साथ अपने इस निष्कर्ष को प्रस्तुत करते
हैं कि ,"मार्क्सवादी इतिहासकार ,कम्युनिस्ट पार्टियाँ ,ईसाई प्रचारतंत्र ,ईसाई समर्थित दलित आन्दोलन सभी ब्राह्मण विरोधी प्रचार में
लगे हैं ." (जनसत्ता ,२४ मार्च २०१३ ) दरअसल जिसे कमलेश ‘ब्राह्मण विरोधी’ प्रचार
बताते हैं उसे ही डॉ.आंबेडकर ‘दलितों की
मुक्ति’ की युक्ति मानते थे .डॉ. आंबेडकर की दो टूक सोच थी कि, “असमानता
ब्राह्मणवाद का आधिकारिक सिद्धांत है और समानता की चाहत रखने वाले निम्न वर्गों का
दमन व उन्हें नीचा दीखाना उनका पश्चाताप रहित पवित्र कर्तव्य रहा है”.कमलेश जिस
ईसाई समर्थित दलित आन्दोलन को ब्राह्मण विरोधी करार देकर उसके द्वारा अपनाई गयी
‘धर्मान्तरण’ की प्रक्रिया को ख़ारिज करते
हैं उसे ही दलित अपनी सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता और समता
का माध्यम मानते रहे हैं . आश्चर्य की क्या बात यदि कमलेश के निशाने पर वे
इतिहासकार ,कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दलित आन्दोलन हों जो ‘ब्राह्मणवाद’ को बपर्दा करते हों .! अर्चना वर्मा को कमलेश जी की यह वैचारिक
पृष्ठभूमि 'आधुनिक भारतीय मानस की औपनिवेशिक बनावट के बरक्स भारतीय
मेधा की मौलिकता के अनेक परतीय विश्लेषण ’ लगती है तो यह उनका ‘उदारवादी’ दृष्टिकोण ही है .कमलेश के
बचाव में अर्चना जी का यह तर्क सचमुच दिलचस्प है
कि , “ जो कम्युनिस्ट नहीं है उसे
कम्युनिस्ट विरोधी होने का हक़ है” . इसी तर्क के आधार पर यह भी तो कहा जा सकता है
कि जो ब्राह्मण है उसे ब्राह्मणवाद समर्थक होने का हक़ है . कमलेश
के सन्दर्भ में तो यह काफी कुछ सच भी है. कहना न होगा कि ब्राह्मणवाद को
बचाने, नात्सी दार्शनिक के समर्थन और अमरीका व सी आई ए के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की
यह मुद्रा महज एक 'पासिंग रिफरेन्स ' नहीं है . यह एक सोची समझी विचारसारिणी का हिस्सा है
.वामपंथ के विरुद्ध कमलेश के मन-मस्तिष्क में कितनी रोगमूलक वितृष्णा
है इसका अनुमान कुलदीप कुमार द्वारा फेसबुक (९ मई )पर लिखी इस आपबीती से
लगाया जा सकता है ,"कमलेश कवि अच्छे हैं, लेकिन उनके विचार निकृष्टतम कोटि के हैं। शुक्रवार (७ मई)
को 'द हिन्दू' में बलराज साहनी पर छपे मेरे स्तंभ को पढ़कर वे इतने
उत्तेजित हो गए कि मेरे एक मित्र से मेरा फोन नंबर लेकर जीवन में पहली बार (और आशा
है अंतिम बार भी) उन्होंने मुझे फोन किया। लगभग आधे घंटे तक वे मुझे लताड़ते रहे,
बेहद अपमानजनक भाषा और टोन में। इसी क्रम में उन्होंने यह
भी कहा कि बलराज साहनी के पुत्र परीक्षित साहनी ईसाई प्रचारक हो गए हैं और लोगों को ईसाई बनाते हुए घूम रहे हैं। मैंने
पूछताछ की तो पता चला कि यह सफ़ेद झूठ है। 'समास' में छपे अपने विवादास्पद इंटरव्यू में कमलेश लोहिया के
समाजवाद से अपने दूर होने की बात कह चुके हैं। दरअसल वे पूरी तरह से ब्राह्मणवादी,
अतीतोन्मुखी और वाम-विरोधी हैं। उनकी कुछ कविताओं में उनका
पुराणप्रेम और सनातनधर्मी चेतना मुखर होकर व्यक्त भी हुई है जिसकी ओर मैंने 400
शब्दों की एक अति-संक्षिप्त समीक्षा में इशारा भी किया था।
... मुझे भेजे एक ई-मेल में उन्होंने मेरे बलराज साहनी वाले स्तंभ के हवाले से मुझ
पर "घृणित झूठ" फैलाने का आरोप लगाया है। परीक्षित के बारे में उनका यह
झूठ किस श्रेणी में रखा जाएगा?" कुलदीप कुमार के इस कथन को संदिग्ध इसलिए नहीं माना जा सकता
क्योंकि ‘ ओम थानवी २ जून के ‘जनसत्ता’
के अपने स्तम्भ में 'साहित्य में फिर सी आई ए ' शीर्षक लेख में उन्हें 'स्वतंत्रचेता लेखक ' होने की सनद दे चुके हैं .
कमलेश की इस वैचारिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए उनका
सी आई ए और अमेरिका के प्रति नतमस्तक होना स्वाभाविक है .लेकिन जिस तत्परता और उत्साह के साथ '
ओम थानवी ने उनके पक्ष में मोर्चाबंदी की है ,वह वास्तव में दिलचस्प है .अर्चना वर्मा को 'उदारवादी ' और उनके लेख
को 'सुविचारित ,अकाट्य तथ्यों व मिसाल कायम करने वाला'
करार देते हुए उन्होंने
कमलेश जी को 'भावुक इंसान’ बताया और उनके विरुद्ध किये जा रहे 'क्षुद्र अभियान ' को नेस्तनाबूद करने के लिए शिखा बाँध ली .यानि अमरीका और सी
आई ए के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन उद्दात्तता और इसे प्रश्नांकित करना छुद्रता.
अर्चना वर्मा और ओम थानवी दोनों ने ही बात मुद्दों से भटकाकर उम्र पर टिका
दी गोया कि बहस के प्रतिभागी दूधपीते बच्चे हों ,बिना इस बात का ख्याल किये कि उस बहस में शामिल कईयों
की उम्र लगभग उनके बराबर या कुछ की तो अधिक ही थी .
अर्चना वर्मा |
यह सचमुच हैरत की बात
है जब सी आई ए के निशाने पर भारत सहित
समूची दुनिया के देश हों और जब सोसल मीडिया सहित भारतीय नागरिकों की निजी
स्वतन्त्रता पर उसकी तेज निगहबानी हो और भारत
का बौद्धिक और नागरिक समाज इसको लेकर उद्विग्न हो , तब हिन्दी के लोकवृत में अमरीका और सी
आई ए के प्रति समूची मानवता के ऋणी होने की सदाशयता व्यक्त की जा रही है . देश की शीर्ष
बौद्धिक पत्रिका ‘इकोनोमिक एंड पोलटिकल वीकली ‘ने अभी अपने २२ जून के अंक में अमेरिकी गुप्तचरी के इस अभियान
को नागरिक स्वतंत्रता का हनन मानते हुए इसके विरुद्ध नागरिक और राजनीतिक समाज
द्वारा प्रभावी प्रतिरोध दर्ज करने का आह्वान किया है . सी आई ए और अमरीका के प्रति
कृतज्ञताज्ञापन का यह अभियान और भी
विस्मयकारी इसलिए है कि न तो इन
दिनों हिन्दी में साठ के दशक सरीखी
शीतयुद्धकालीन बहसे हैं और न ही भारत में वामपंथी विचारधारा का कोई नया विस्फोट . बल्कि
इसके उलट जब स्वयं ओम थानवी के ही अनुसार डॉ.नामवर सिंह ,मैनेजर पण्डे से लेकर
प्रणय कृष्ण आदि तक
‘संकीर्ण मतवाद’ से मुक्त हो चुके हों तब इसकी क्या जरूरत !
यहाँ यह तथ्य दिलचस्प है
कि कमलेश के सुर में सुर मिलाते हुए अर्चना वर्मा ने सी आई ए के प्रति ऋणी होने की
औचित्यसिद्धि के लिए अन्ना अख्मातोवा, ओसिप मंदेल्स्ताम .मारिना त्स्वेतायेवा
,निकोलोई बोलोस्की, बुल्गाकोव ,युरी ओलेशा ,आइजक बाबेल अदि के साहित्य के प्रकाशन का श्रेय सी आई ए को दे दिया .और साथ ही दूदिनेत्सेव
के उपन्यास ‘नाट बाई ब्रेड अलोन’ और सोल्झेनित्सिन
के ‘वन डे इन दि लाईफ आफ इवानोविच’ के प्रकाशन
का सेहरा भी सी आई ए के सिर बाँध दिया ,जबकि इन दोनों पुस्तकों का पहला प्रकाशन
सोवियत संघ में ही हुआ था . इन दोनों उपन्यासों को सोवियत प्रकाशन ‘.नोवी मीर’ ने
क्रमशः १९५६ और १९६२ में प्रकाशित किया. सोल्झेनित्सिन को तो ‘वन
डे इन..’ के लिए रायल्टी के रूप में सामान्य से दुगनी राशि भी दी गयी थी . यह सही है कि स्टालिन के व्यक्तिपूजा
के दौर और बाद में भी अख्मातोवा , मन्देल्स्ताम और पास्तनाक सहित कई लेखकों की कुछ रचनाएँ
सोवियत सेंसर की शिकार हुईं और इनका विदेशों में प्रकशन हुआ .इनमें से कुछ लेखकों
की रचनाएँ पहली बार फ़्रांस ,ज़र्मनी
,ब्रिटेन और इटली के प्रकाशकों द्वारा भी छापी
गयीं . अमेरिका में भी कई चर्चित पुस्तकें प्रकाशित हुईं , लेकिन यह कहना कि ये सारे प्रकाशन सी आई ए
द्वारा संचालित थे उन प्रकाशनों के लिए
अपमानजनक है. नहीं ,अर्चना जी सी आई ए के आगे जहाँ और भी हैं . ओम थानवी आपके
जिस ‘शोध’ पर मुग्ध हैं ,काश वह सचमुच शोध होता बकौल आपके ‘पूछताछ से मिली
सूचनाओं’ पर न टिका होता . याद यह भी रखना
चाहिए कि जिन अख्मातोवा को १९४६ में
स्टालिन का कोपभाजन होना पड़ा उन्हें ही
१९५५ में उच्च स्तर की सुविधाएँ प्रदान कर ससम्मान पुनर्स्थपित किया गया
.उनकी कविताओं का प्रथम चयन १९५८ में और वृहत संचयन १९६१ में सोवियत संघ में ही प्रकाशित हुआ .१९६६ में उनकी मृत्यु के
बाद भी उनकी रचनाएँ तत्कालीन सोवियत संघ में प्रकाशित होती रही थीं .इसी प्रकार
बुल्गाकोव ,खेल्बिनिकोव,ओलेशा,प्लातोनोव और सेवेतायेवा अदि सहित कई ऐसे लेखक थे
जिन्हें उत्तर-स्टालिन दौर में पुनर्प्रतिष्ठित किया गया और इन सभी लेखकों की रचनाओं
को प्रकाशित भी किया गया . इन सारे तथ्यों की पुष्टि के लिए फिलहाल रोनाल्ड
हिन्गले के पुस्तक ‘राशियन राईटर्स एंड सोवियत सोसाईटी’ और विटाली शेन्तिलान्स्की
की ‘दि के जी बी आर्काविव्स’ को पढ़ा जा सकता है .
दरअसल कमलेश और अर्चना
वर्मा की रूचि उन्ही पुस्तकों में है जो सी आई ए द्वारा कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार
के लिए भारत में सस्ते दामों में छापी गयी थीं . वरना वे त्रात्सकी की आत्मकथा ‘
माई लाईफ’ और स्टालिन की बेटी स्वेतलाना की पुस्तकों ‘ट्वेंटी लेटर्स टू ए फ्रेंड’
और ‘ओनली वन ईअर’ का जिक्र जरूर करते जिनमें स्टालिनकालीन सोवियत संघ का अन्तरंग और प्रामाणिक खुलासा होता है .क्या ही अच्छा
होता यदि अपने समय के विश्वविख्यात
पत्रकार और स्टालिनकालींन दौर के विशेषज्ञ आईसक दुएश्चर की पुस्तकों को भी इस सन्दर्भ में याद
कर लिया जाता .स्टालिन और त्रात्सकी की शाहकार
जीवनी लिखने के साथ साथ उन्होंने ‘रशिया आफ्टर स्टालिन’, ‘हेरेटिक्स एंड
रेनेगेड्स’ , ‘आयरनीज आफ हिस्ट्री’ सरीखी
स्थाई महत्व की पुस्तकें लिखीं ,जिन्हें संदर्भित किये बिना स्टालिनकालीन रूस की
कोई भी प्रामाणिक चर्चा आज भी अधूरी रहती है .
मंतव्य यदि सोवियत समाज के सच को जानने और कम्युनिस्ट तंत्र को आलोचनात्मक
दृष्टि से समझने का ही हो तो यह सूची किंचित लम्बी हो सकती है. लेकिन यह अवश्य है
कि इन सभी पुस्तकों का प्रकाशन सी आई ए की मदद द्वरा न किया जाकर विश्वप्रसिद्ध
प्रकाशन गृह ‘पेंग्विन’ द्वारा किया गया है .स्वाभाविक है सी आई ए का शुक्रगुजार
होने के लिए तो उन्ही पुस्तकों की चर्चा की जानी थी जो सस्ते दामों में छपकर
प्रचार सामग्री के रूप में फुटपाथों पर बिकती थीं .
कमलेश को इस बात पर हैरत
है कि सी आई ए द्वारा इतना कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार साहित्य मुहैय्या कराने के
बाद भी ‘लोग कम्युनिस्ट रह सकते हैं’ ! दरअसल ब्राह्मणवाद
की जिस जमीन पर आज कमलेश खड़े हैं वहां से
यही सोचा जा सकता है . इस प्रसंग में याद
आते हैं इतिहासकार एरिक हाब्स्बाम . हाब्स्बाम से जब उनके अंतिम दौर
में यह पूछा गया कि वे अंत तक कैसे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने हुए हैं तो उन्होंने कहा कि , “ मुझे उन
पूर्व-कम्युनिस्टों की संगत में रहने का
विचार अत्यंत विकर्षक लगता रहा जो
दुराग्रह की हद तक कम्युनिस्ट विरोधी हो गए थे और जो ‘असफल देवता’ (गॉड दैट
फेल्ड) की सेवा से तभी मुक्त हो सके थे जब उन्होंने उसे दानव में तब्दील कर दिया था. शीतयुद्ध के दौर
में ऐसे लोग बहुतायत में थे”. शीतयुद्ध के इसी दौर में स्टीफेन स्पेंडर ,आर्थर
कोसलर सहित बुद्धिजीवियों को बड़ी जमात ‘कांग्रेस
फार कल्चरल फ्रीडम ‘ के बैनर तले अमरीका के
कम्युनिस्ट विरोधी अभियान का हिस्सा बनी थी .भारत में इस अभियान की बागडोर उन दिनों ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’
की भारतीय शाखा के सचिव प्रभाकर पाध्ये के
हाथों में थीं . अज्ञेय किस तरह इस अभियान
से जुड़े थे इसका खुलासा ‘परिमल’ के केशव चन्द्र वर्मा ने अपने उस संस्मरण में किया
है जो ओम थानवी द्वारा दो खण्डों में सम्पादित पुस्तक ‘अपने अपने अज्ञेय’ के दूसरे
खंड में शामिल है . ‘परिमल’ के १९५७ के
‘साहित्य और राज्याश्रय’ विषय पर आयोजित सम्मेलन का उल्लेख करते हुए केशव चन्द्र वर्मा ने लिखा है , “ उस सम्मलेन में दो कड़वी बातें हुईं –एक तो
यह कि वात्स्यायन ने बिना परिमल की संयोजन समिति से स्वीकृति लिए एक मराठी लेखक प्रभाकर
पाध्ये को निमंत्रित कर दिया जो ,उस समय ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ वाली
अमेरिकी एजेंसी के एक सक्रिय कारकुन माने जाते थे .उन्होंने इस आयोजन के लिए कुछ
रकम देने की बात भी वात्स्यायन के जरिये कहलाई .बस फिर क्या था इस पर ‘नकचढ़े परिमल
दिमाग’ ने न केवल थू थू की ,बल्कि प्रकारांतर से पाध्ये को अपमानित भी किया . .पाध्ये
का अपमान ,प्रस्ताव पास करने का विरोध और और परिमल के भीतर से ऊभरता हुआ अपने को
मुक्त करने का अंदाज वात्स्यायन को कहीं गहरे स्तर पर काट गया .उन्हें सदा आँखें
मूंदकर साथ चलने वालों की तलाश थी ,जो परिमल से उन्हें अंततः नहीं मिला”.(अपने
अपने अज्ञेय खंड २ –सं. ओम थानवी ,पृष्ठ ६१७-६१८)
दरअसल ‘अज्ञेय पंथ’
की शीतयुद्ध के दौर की यही वह
विरासत है जिसे अज्ञेय के ‘शिविर शिष्य’ ओम थानवी आज भी ढो रहे हैं . यहाँ
दिलचस्प यह भी है कि अमेरिकी मदद को नकारने की ‘थू थू’ का ‘परिमालियन’ दायित्व भी आज केवल उन वाम
मतवादियों का रह गया है जो पहले से ही इसके लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे .अर्चना वर्मा जिसे ओम
थानवी द्वारा फेसबुक पर ‘मजा लेते से अंदाज में कोंचना’ कह रही हैं
वास्तव में वह अज्ञेय के महिमामंडन का ऐसा ‘राजसूय यज्ञ’ है जिसमें वामपंथी विचारधारा को
यज्ञ की समिधा के रूप में स्वाहा किया जा रहा है . इस यज्ञ के दोषपूर्ण मन्त्राचार
को जब प्रश्नांकित किया जाता है तब ओम थानवी उन्हें ‘मतवादी ,शोहदे ,मनचले और
पण्डे’ जैसी उपाधि देकर संवाद के कपाट बंद कर देते हैं . इतना ही नहीं वे फेसबुक
के अपने अभियान को ‘साहित्य में फिर सी आईए’ जैसी सनसनी के साथ ‘जनसत्ता’ में परोस
देते हैं और कुतर्कों व मिथ्या तर्कों का
प्रतिवाद किये जाने पर उसे प्रकाशित तक करने की जनतांत्रिकता का निर्वाह नहीं करते
. यह सचमुच विस्मयकारी है कि अर्चना वर्मा इस सब की अनदेखी करके ‘दलबद्ध आयोजन
बनाम एकाकी योद्धा’ का रूपक गढ़ती हैं . क्या सचमुच उन्हें कमलेश ,अशोक वाजपेयी ,ओम
थानवी और उदयन वाजपेयी की जुगलबंदी नहीं सुनायी दे रही है ? क्या यह अनायास है कि
ज्यों ही कमलेश का सी आई ए और अमेरिका के
प्रति शुक्राने का साक्षात्कार अशोक वाजपेयी द्वरा प्रकाशित रज़ा फाऊंडेशन की पत्रिका ‘समास’ में प्रकाशित होकर विवादित होता
है त्यों ही ओम थानवी पहले फेसबुक पर फिर ‘जनसता’ के पृष्ठों पर मोर्चा संभाल लेते
हैं ! ‘प्रतिलिपि’ पत्रिका की कथित खरीद पर ओम थानवी की गलतबयानी को लेकर ज्यों ही उन्हें घेरा जाता है , अशोक वाजपेयी उनके बचाव
में ‘नरो वा कुंजरो’ की शैली में बयान के
साथ प्रस्तुत हो जाते हैं . कमलेश के विचारों और कविता पर जव फेसबुक पर प्रसंगवश मंगलेश डबराल सवाल उठाते
हैं तो क्या यह यूं ही है कि ‘समास’ के
संपादक उदयन वाजपेयी ‘जनसत्ता’ में नया मोर्चा खोल देते हैं , और कम्युनिज्म को
विदेशी विचारधारा कहकर ख़ारिज करते हैं .क्या कमलेश के दो-दो कविता संग्रहों का रजा
फाऊंडेशन के तत्वावधान में अशोक वाजपेयी द्वारा विमोचन महज एक संयोग है ? आखिर ऐसा
क्यों है कि जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उपाध्यक्ष की संस्था के कार्यक्रम
में अशोक वाजपेयी के एकल कविता पाठ पर सवाल उठाये जाते हैं तो उनके बचाव में ओम
थानवी यह ढाल लेकर खड़े हो जाते हैं कि उन्हें ‘कवि’ जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने
आमंत्रित किया था ? अब यह कौन ,कैसे कहे कि न तो जगदम्बा प्रसाद दीक्षित कवि हैं
और न उन्होंने अशोक वाजपेयी को आमंत्रित किया था . जगदम्बा प्रसाद दीक्षित शिव
सेना के मुखपत्र ‘सामना’ के स्तंभकार रहे
हैं और शिव सेना से अपनी वैचारिक नजदीकियों के ही चलते ‘मनसे’ के साहित्यिक मंच से
सम्बद्ध हैं . हाँ, एक समय उन्होंने ‘मुर्दाघर’
सरीखा बहुचर्चित उपन्यास और ‘गंदगी और
जिन्दगी’ सरीखी कुछ कहानियां हिन्दी में
जरूर लिखी थीं . अर्चना वर्मा उपरोक्त
सारे सहकार की अनदेखी करती हैं तो क्यों ? कहीं इसलिए तो नहीं कि वे स्वयं भी अज्ञेय की ‘वत्सल निधि’
के लेखक शिविरों की सहभागी रही हैं?
दो टूक बात तो यह है कि
अज्ञेय के शताब्दी समारोह के अंतर्गत किये जाने वाले आयोजनों के
बहाने ओम थानवी ने अज्ञेय की पुनर्प्रतिष्ठा का जो अभियान शुरू किया था , अब
विचारधारा और वामपंथ विरोध के रूप में यह उसकी तार्किक परिणति है . कमलेश ने तो
कन्युनिस्टों को नेस्तनाबूद करने के लिए
धूनी रमा ही ली है . इस सिलसिले में वे अब
‘रूसी संस्कृति के उद्भव और विनाश’ की चर्चा के बहाने कम्युनिस्टों की खबर लेंगें .अशोक
वाजपेयी ने भी गिरिराज किराडू को लिखे पत्र में स्वयं के विचारधारा विरोधी होने का
फिर से ऐलान कर दिया है .ओम थानवी भी भोपाल के ‘वनमाली समारोह’ में साहित्य को
विचारधारा से अलग रखने की अपनी मंशा प्रकट कर चुके हैं . और अर्चना जी तो सी आई ए
का साथ मकतल तक देने को प्रस्तुत ही हैं .कहने की आवश्यकता नहीं कि यह ‘विचारधारा
के विरोधियों’ द्वारा वामपंथी ‘ अज्ञान के अँधेरे’ को मिटाने की नयी मुहीम है . यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब दुनिया के बुद्धिजीवी नागरिक
स्वतन्त्रता के विरुद्ध अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसकी गुप्तचर संस्था
की हत्यारी भूमिका को लेकर चिंतित
हों तब हिन्दी की दुनिया में कुछ लोगों द्वारा
वामपंथ और विचारधारा का बिजूका खड़ाकर अमेरिकी साम्राज्यवाद के पक्ष में सहमति का वातावरण बनाया जा रहा है . काश इन योद्धाओं
को यह समझ होती कि इन्होने जिनके जिरिह- बख्तर पहन रखे हैं वे ही इनके देश और समाज पर
हमलावर हैं ! सचमुच ग़ालिब ने इन्ही वक्तों
के लिए लिखा था कि
“दे और दिल
उनको, जो न दे मुझको जुबाँ और !”
आशंकित आतंकित रहने वाले देशी- विदेशी पूंजीपतियों के हित में भारत में उनके लिए एक निरापदवन जैसा वातावरण देने के लिए सीआइए द्वारा चलाई जा रही कम्युनिस्ट विरोधी मुहिम का द्योतक है कि भारत सहित विश्व के कई देशों में वामपंथी रुझान बढ़ा है और एक शीतकालीन स्थिति जैसी स्थिति बनती दिखाई दे रही है !
जवाब देंहटाएंवीरेन्द्र जी ने अपने तर्कों सीआइए परिवार के सदस्यों की को करारा जवाब दिया है ,जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं !
सीधे-सीधे शब्दों में - पूरी बहस को निचोड़ता हुआ, तथ्यात्मक प्रतिवाद।
जवाब देंहटाएंभले ही पूरी बहस में दिये गए सारे संदर्भों, स्रोतों को न पढ़ा हो पर जिस तरह की प्रतिक्रयाएं और प्रतिवाद सामने आते रहे उनसे मंशाएं साफ़-साफ़ पता चल गईं। यह बहुत पहले से लग रहा था जो वीरेंद्र जी ने कहा कि ‘पुनर्प्रतिष्ठा का जो अभियान शुरू किया था, अब विचारधारा और वामपंथ विरोध के रूप में यह उसकी तार्किक परिणति है।’
'साहित्य को विचारधारा से अलग रखने' की मंशा की भी भली कही। मजे की बात यह कि अपनी बात को सही साबित करने के लिए भी रेफ्रेंस तो साहित्य से ही चुनते हैं।
जवाब देंहटाएंपिछले दिनों फेसबुक पर कवि कमलेश के सी.आई.ए. के सम्बन्ध में बयान को लेकर जो बहस शुरू हुई उसने एक महाबहस का रूप ले लिया एक तरफ अज्ञेय पंथ के कई कवि संपादक थे तो दूसरी तरफ मार्क्सवादी विचारधारा के सक्रिय लेखक, इसी बहस में हस्तक्षेप करते हुए अर्चना वर्मा ने कथादेश जून 2013 अपने लेख ‘कम्यूनिस्ट नहीं है, उसे कम्यूनिस्ट विरोधी होने का हक है’ से बहस को भटकने का रास्ता तैयार किया। उनके इस लेख पर ओम थानवी ने उन्हे सच्चा शोधार्थी का खिताब दिया तो प्रभात रंजन चैलेंज करते रहे की किसी मार्क्सवादी के पास अर्चना वर्मा के प्रश्नों का जवाब है? अशोक कुमार पाण्डेय ने समयान्तर में इस बहस पर बेहतरीन लेख लिखा है फिलहाल प्रस्तुत है कथादेश के जुलाई 2013 अंक से प्रख्यात आलोचक और चिंतक वीरेन्द्र जी का यह लेख जो अर्चना वर्मा के लेख के प्रतिवाद के साथ इस पूरी बहस की गंभीर पड़ताल करता है.
http://gauravmahima.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
Mangalesh Dabral (फेसबुक से)
जवाब देंहटाएंyah ek bejod 'polimical' aur vidwattapoorn aalekh hai, jisake sabhi aayaam --vichaar,tark, samvedana -bahut santulit hai.bertrand russel ne labhi vietnam yuddh ke sandarbh mein kaha tha ki 'duniya mein jahaa bhi manushyata ke prati apraadh hai, usake peechhe white house hai'. ab to har din yah dikhayi deta hai--assange,manning, snoden, prism, bolivia ke rashtrapati morales ka vimaan...virendra yadav ka shukriya.
Rajneesh Sahil (फेसबुक से)
जवाब देंहटाएंसीधे-सीधे शब्दों में - पूरी बहस को निचोड़ता हुआ, तथ्यात्मक प्रतिवाद।
पूरी बहस में जिस तरह की प्रतिक्रयाएं, प्रतिवाद और प्रतिवादों पर प्रतिक्रियाएं सामने आते रहे उनसे मंशाएं साफ़-साफ़ पता चल गईं। यह बहुत पहले से लग रहा था जो वीरेंद्र जी ने कहा कि ‘पुनर्प्रतिष्ठा का जो अभियान शुरू किया था, अब विचारधारा और वामपंथ विरोध के रूप में यह उसकी तार्किक परिणति है।’
'साहित्य को विचारधारा से अलग रखने' की मंशा की भी भली कही। मजे की बात यह कि अपनी बात को सही साबित करने के लिए वे भी रेफ्रेंस तो साहित्य से ही चुनते हैं। हां साहित्य की व्यापकता को भी वे किसी दायरे में सीमित करना चाहते हों तो फिर कुछ नहीं कहा जा सकता
Arun Aditya (फेसबुक से)
जवाब देंहटाएंतथ्यों और तर्कों के साथ वीरेंद्र जी ने स्पष्ट कर दिया कि अ-रचना के भोले-भाले कवि साम्यवाद पर किस तरह के भाले चलाते हैं।
शिरीष कुमार मौर्य : (फेसबुक से)
जवाब देंहटाएंबहुत गम्भीरता और तथ्यों के साथ किया गया ज़रूरी प्रतिवाद। वीरेन्द्र जी से यही उम्मीद हमेशा हमारी रहती है...वे बेवजह की थुक्काफज़ीती में नहीं पड़ते...तर्कों के साथ सामने आते हैं। यह प्रतिवाद एक दस्तावेज़ की तरह है...
वीरेन्द्रजी ने इस समूचे विरोध को सत्ता मद द्वारा रिडिक्यूल किये जाने, इसे वैचारिक की बजाय व्यक्तिगत में और विचारधारात्मक की बजाय कट्टरता में रिड्यूस किये जाने का एक सशक्त और रौशन-खयाल प्रतिवाद किया है. यह इरादतन वैचारिक धुंधलका फैलाने और रचना की पढ़त और प्रतिमानीकरण के लिए अनैतिक छूट लेने के सुव्यवस्थित अभियान को जितनी स्पष्टता से बेपर्द करता है उतनी ही स्पष्टता से हिंदी में स्वतन्त्र आवाजों के पक्ष में एक पारदर्शी हस्तक्षेप करता है. इतनी साफ़ खरी ज़बान में वीरेन्द्रजी के बोल लेने के बाद भी अगर कोई फूहड़ता देखनी बाकी है तो यही दुआ दे उनको दिल और. इस विरोध के हिस्सेदार रहे सभी मित्रो की और से मैं वीरेंद्रजी को शुक्रिया कहता हूँ.
जवाब देंहटाएंकल 11/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
पता नहीं क्या संयोग था की मैंने मीर प्रकाशन की सिर्फ टॉलस्टॉय, तुर्गनेव और दोस्तोएवस्की की रचनाएँ पढ़ीं। सीआईए की फंडिंग से क्या छपा था यह तो पता नहीं। अमृत रॉय ने होवार्ड फ़ास्ट की कुछ किताबें छपी थीं उन्हें पढने का मौका मिला। अल्बेयर कामू और क्नुत हमसून को पढने में भी मजा आया। कभी यह सोचने का मौका नहीं मिला की ये हिंदुस्तान यूनिलीवर के लेखक हैं या प्रोक्टर गैम्बल के. मैं यह भी नहीं समझ पाया की मीर प्रकाशन की दूसरी दसियों किताबों को मैं क्यों लाख चाह कर भी क्यों पूरा पढ़ नहीं पाया।
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्या संयोग था की मैंने मीर प्रकाशन की सिर्फ टॉलस्टॉय, तुर्गनेव और दोस्तोएवस्की की रचनाएँ पढ़ीं। सीआईए की फंडिंग से क्या छपा था यह तो पता नहीं। अमृत रॉय ने होवार्ड फ़ास्ट की कुछ किताबें छपी थीं उन्हें पढने का मौका मिला। अल्बेयर कामू और क्नुत हमसून को पढने में भी मजा आया। कभी यह सोचने का मौका नहीं मिला की ये हिंदुस्तान यूनिलीवर के लेखक हैं या प्रोक्टर गैम्बल के. मैं यह भी नहीं समझ पाया की मीर प्रकाशन की दूसरी दसियों किताबों को मैं क्यों लाख चाह कर भी क्यों पूरा पढ़ नहीं पाया।
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