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सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद – हेगेल से मार्क्स तक

(जनपक्ष के पाठक जानते ही हैं कि मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों को लेकर मैंने एक लेखमाला की शुरुआत की थी. उसकी कुछ किश्तें देने के बाद वह क्रम ब्लॉग पर रुक गया लेकिन युवा संवाद पत्रिका में लगभग नियमित रूप से वह कालम के रूप में ज़ारी है. आज एक बहस के बाद मुझे लगा कि इसे फिर से ज़ारी करने की ज़रुरत है तो बीच के कुछ अध्याय छोड़कर (जो मूलतः योरोपीय दर्शन में भौतिकवादी प्रवृतियों पर हैं) मैं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी प्रणाली पर लिखे दो अध्याय एक साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ. पुराने लेख यहाँ पढ़े जा सकते हैं.)
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पूँजीवादी क्रान्ति के साथ दुनिया में पहली बार उद्योगपति और कामगार जैसा विभाजन सामने आया था. एक तरफ पूंजीपति थे जिनके पास पूँजी का नियंत्रण था और दूसरी तरफ वे लोग जो अपना मानसिक और शारीरिक श्रम पूंजीपतियों को बेचकर बदले में मज़दूरी पाते थे, जो उनके भरण-पोषण का इकलौता सहारा थी. ज़ाहिर है दोनों के हित एक-दूसरे से अलग होने थे. सामंती व्यवस्था योरप में ध्वस्त हो गयी थी. ऐसे में दर्शन के क्षेत्र में जो प्रवृतियाँ सामने आईं उन्हें हमने पिछले अध्यायों में विस्तार से देखा है. यांत्रिक भौतिकवाद के सन्दर्भ में हमने देखा कि दुनिया को किसी यंत्र की तरह चलने वाला मान लिया गया था, जिसके तहत दुनिया के बदलावों को एक क्रम-विकास के तहत माना गया और फिर इस प्रक्रिया को शुरू करने के लिए जिस बाहरी ताक़त की ज़रुरत थी, वह ईश्वर को मान लिया गया. क्रम विकास की यह प्रक्रिया निरंतर, निर्विघ्न और अटूट मानी गयी. लेकिन जैसा कि इतिहास में देखा गया था यह प्रक्रिया रेखीय नहीं थी. इतिहास के विकास में कई बार इतिहास छलाँग मारकर एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल तक पहुँचता दिखाई देता है. जैसे सामंतवाद से पूंजीवाद में परिवर्तन. जहाँ यांत्रिक भौतिकवादी इसे भी उसी निरन्तरता की एक कड़ी मान लेते थे.
हेगेल ने पहली बार इन गुणात्मक बदलावों को अलग करके देखा. उन्होंने लिखा ‘जिस तरह एक बच्चे के जन्म के दौरान, एक लम्बे समय के खामोश पोषण के बाद, आकार की लगातार वृद्धि की निरन्तरता रुपी मात्रात्मक बदलाव में बच्चे के पहली साँस लेने के साथ ही एक रुकावट आती है. प्रक्रिया में निरन्तरता एक गुणात्मक बदलाव के रूप में टूटती है और बच्चे का जन्म होता है.’ (हेगेल, फेनामेनालाजी आफ माइंड से, यहाँ मारिस कान्फोर्ड की किताब ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ से उद्धृत

यह प्रस्तावना क्रम-विकास की अवधारणा से अलग थी. इस गुणात्मक परिवर्तन के कारणों की तलाश में हेगेल ‘द्वंद्व’ तक पहुँचे. उन्होंने कहा कि ‘द्वंद्व’ सभी तरह के जीवन और गति के मूल में हैं. जहाँ अंतर्विरोध काम कर रहे होते हैं, वहीँ विकास की शक्ति मौज़ूद होती है या यों कहें कि वास्तविक वस्तुओं का विकास उनकी धारणाओं में मौजूद अंतर्विरोधों के कारण होता है. चूंकि हेगेल के लिए दर्शन का प्रयोजन ‘प्रकृति और अनुभवों द्वारा सारे जगत को, जैसा वह है वैसा समझना था और उसका ‘परमतत्व’ मन और भौतिक तत्व (जिन्हें वह अलग-अलग नहीं बल्कि परम तत्व के आत्मप्रकाश के एक ही प्रवाह के दो अभिन्न अंग मानता था) थे तो भौतिक तत्व से सम्बद्ध उसके परमतत्व को भी स्थिर नहीं, चलायमान ही होना था. इस गति के कारण के रूप में उसने ‘द्वंद्व’ या ‘अंतर्विरोध’ की पहचान की. उदाहरण के लिए अणु था जिसमें धनात्मक प्रोटान और ऋणात्मक इलेक्ट्रान होते है और गति इन विरोधी अवयवों की आपसी अंतर्क्रिया से होती है. ऊपर दिए गए उद्धरण में गर्भ के सन्दर्भ में भी हमने यह देखा.

दर्शन के क्षेत्र में हेगेल का यह विचार क्रांतिकारी था. एंटी ड्यूहरिंग में एंगेल्स कहते हैं, ‘इस प्रणाली में पहली बार समस्त प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं बौद्धिक जगत को एक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया है – और यही इसका सबसे बड़ा गुण है...इस प्रणाली को अपनाने पर मानवजाति का इतिहास ऐसे बुद्धिहीन, हिंसात्मक कार्यों का दिशाहीन चक्रवात नहीं लगता था जो परिपक्व दार्शनिक बुद्धि की अदालत में समान रूप से निंदनीय थे और जिन्हें यथाशीघ्र भूल जाना ही उचित है ; बल्कि इतिहास स्वयं मनुष्य के विकास की प्रक्रिया प्रतीत होने लगा था. अब बुद्धि का काम यह था कि यह प्रक्रिया जिन टेढ़े-मेढे रास्तों से गुज़रती है उनका पता लगाए, इस क्रमिक विकास क्रिया की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन करे और ऊपर से आकस्मिक प्रतीत होने वाली इसकी समस्त घटनाओं में अन्तर्निहित नियमितता को खोज कर निकाले.’ 

हेगेल के अनुसार विश्व निरंतर होते विकासों का प्रवाह है और ये विकास उसके भीतर उपस्थित अंतर्विरोधों के कारण हैं. द्वंद्व के चलते ही एक चीज़ बिलकुल खुद से अलग दूसरी चीज़ में बदल जाती है. इसके लिए उसने वाद, प्रतिवाद और संवाद (thesis, antithesis and synthesis) की प्रक्रिया बताई. यानि पहले एक अवयव, फिर उसका विरोधी अवयव और फिर दोनों के सामंजस्य से तीसरी चीज़ जो मूल वस्तु से बिलकुल अलग है. अंतर्विरोधों की इसी श्रृंखला से नए विचार आकार लेते हैं और विचार के यह विकास आगे चलकर भौतिक जगत में वास्तविक परिवर्तनों के रूप में दिखाई देते हैं. समस्या यहीं है. हेगेल भाववादी हैं और उनका मानना यह है कि ‘वस्तुएं और उनका विकास क्रम उस “विचार” के मूर्त रूप थे जो संसार के जन्म के पहले से ही कहीं पर अनन्त काल से विद्यमान है.’ इस तरह पूरी प्रक्रिया एक ‘परमतत्व’ की अनंतकाल से उपस्थिति से निर्धारित होती है. उनके अनुसार इस ‘अनंत काल से उपस्थित चेतना से ही जीवन निर्धारित होता है. ईश्वर ही चेतना का सर्वोच्च प्रतीक है तथा प्रशा का राज्य इसका सर्वोच्च प्रतिनिधि.” एक तरफ तो वह विश्व को ‘निरंतर होते विकासों का प्रवाह’ कहते हैं तो दूसरी तरफ हो रहे तथा भविष्य में होने वाले सभी बदलावों को पहले से उपस्थित विचार का प्रतिबिंब मात्र बनाकर वास्तविक परिवर्तनों तथा इसमें मनुष्य की भूमिका को खारिज़ भी करते हैं. यहाँ तक कि  सभी सत्ताओं की बुरी लगने वाली बातों को भी भ्रम और अंततः शुभ कहकर वह प्रशा (जिस राज्य में वह रहता था) के राजा के राज्य को ही नहीं उसकी निरंकुशता और अत्याचार को भी वैधानिकता प्रदान करता है और अपने दर्शन को एक यथास्थितिवादी दर्शन में तब्दील कर देता है.

मार्क्स ने हेगेल के दर्शन के क्रांतिकारी पक्ष ‘द्वंद्ववाद’ का उपयोग किया और इसे भौतिकवाद से जोड़कर इसे एक सकर्मक तथा क्रांतिकारी दर्शन ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ में तब्दील कर दिया.

उनके इस दर्शन को समझने से पहले थोडा उनके बारे जान लेते हैं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे वह वैचारिक-सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि मिलती है जिसने मार्क्स को गढ़ा. कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी के राइन प्रदेश के त्रियेर नामक शहर के एक खुशहाल यहूदी परिवार में 5 मई, 1818 को हुआ था.  राइन जर्मनी के उन प्रदेशों में था जो 1789-1794 की महान फ्रांसीसी क्रांति से बेहद प्रभावित हुए थे. 1795 में इसके बांये तट के इलाके को नेपोलियन ने फ्रांस में मिला लिया था और सामंतवादी व्यवस्था को बुनियादी तौर पर मिटाकर नेपोलियन संहिता के तहत अधिक प्रगतिशील जनतांत्रिक कानून लागू किए गए थे. नेपोलियन की हार के बाद 1815 में राईन प्रांत पर प्रशा का अधिकार हो गया  जो आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से विखंडित जर्मनी के सबसे प्रतिक्रांतिकारी राज्यों में से एक था. प्रशा की सांमती निरंकुश राज्य.व्यवस्था कुलीनों के विशेषाधिकार और पुलिस के अत्याचार से आम जन ही नहीं, वहां की बुर्ज़ुआजी भी असंतुष्ट थी फ्रांसीसी क्रांति की कोख से जन्में मुक्ति और परिवर्तन के विचारों की छाप अब भी वहां स्पष्टतः मौजूद थी.

कार्ल मार्क्स के पिता हाइनरिष मार्क्स भी इस प्रभाव से अछूते न थे और उनकी पहचान यथोचित प्रतिनिधित्व आधारित राजनीतिक के व्यवस्था के समर्थक तथा प्रशा में यहूदियों के साथ होने वाले भेदभाव के विरोधी के रूप में थी प्रशा के कानून के अनुसार कुछ पद और व्यवस्थाएं के लिए निषिद्ध थे इसलिए अपना वकालत का जारी रखने के लिए उन्होंने 1824 में अपने पूर्वजों का धर्म तथा अपना नाम ‘हर्शेल’ बदलकर प्रोटेस्टेंट धर्म अपना लिया था. वाल्तेयर और रूसो के प्रशंसक हाइनरिष को याद करते हुए उनकी पत्नी एलेओनोर ने उन्हें 18 वीं सदी का सच्चा फ्रांसीसी कहा है.युवा मार्क्स पर अपने पिता के उदारवादी विचारों की गहरी छाप थी.

1830 से 1835 तक मार्क्स ने त्रिएर के जिम्नेजियम (उच्चतर माध्यमिक विद्यालय) में शिक्षा प्राप्त की. इस काल में ही मार्क्स का वैचारिक विकास आरंभ हो चुका था जिसका प्रमाण था विद्यालय की अंतिम परीक्षा में लिखा उनका निबंध “व्यवसाय के चयन पर एक तरूण के विचार.” इस निबंध पर प्रबोधनकाल के प्रगतिशील विचारों का स्पष्ट  प्रभाव था यहा उन्होंने निजी महत्वाकांक्षाओं को अस्वीकार कर मानव जाति सेवा को व्यवसाय चयन का अपना आधार स्वीकार किया था. उन्होंने इस निबंध में लिखा ‘यदि हम ऐसा व्यवसाय चुनते हैं, जिसके क्षेत्र में ही मानव जाति के हित में सबसे अधिक कार्य कर सकते हैं तो उसके बोझ तले झुकेंगे नही क्योंकि यह सबसे नाम पर बलिदान होगा तब हमें स्वार्थपूर्ण  सीमित व तुच्छ खुशी का अनुभव नहीं होगा हमारा सुख कोटि जन का सुख होगा बाद के वर्षों में विचारों में अनेक गुणात्मक परिवर्तनों के बावजुद मानव  जाति के लिए काम करना सदैव उनका प्रिय मुहावरा बना रहा.’
 अक्तूबर 1835 में कानून के अध्ययन के लिए उन्होंने बोन विश्वविद्यालय के विधि.संकाय में दाखिला लिया लेकिन उनकी रूचि इससे अधिक कविता इतिहास और दर्शन में थी छात्र जीवन में उन्होंने कई सानेट, एक काव्य नाटक आंलानेग और व्यंग्य उपन्यास बिच्छू तथा फेलिक्स लिखा. दर्शन के लिए मार्क्स का उत्साह केवल अकादमिक नहीं था. उन दिनों दार्शनिक बहसों के केंन्द्र में समाज इतिहास और मानव के विकास की संभावनाओं के प्रश्न थे. इन उत्कट बहसों पर सबसे अधिक प्रभाव उस दौर के महान दार्शनिक हेगेल का था.

उस काल में मार्क्स के अध्ययन का प्रमुख क्षेत्र प्रचीन यूनानी रोमन दर्शन था अपने शोध प्रबंध के लिए उन्होंने “डेमोक्राइट्स और एपिक्युरस के प्रकृति दर्शनों में भेद” विषय चुना था. हेगेल के विपरीत मार्क्स धर्म और अंधविश्वास के विरूद्ध खड़े भौतिकवादी दार्शनिक एपिक्युरस से अत्यंत प्रभावित थे. उन्होंने मानव जाति के सुख के लिए आत्मबलिदान करने वाले मिथकीय प्रोमीथियस के कथन : “सच कहा जाए तो मुझे सभी देवी देवताओं से घृणा है” को अग्रणी दर्शन की स्वीकारोक्ति बताया जिसका उदात्त प्रयोजन वह आकाश और धरती पर बसे सभी देवताओं के विरूद्ध संघर्ष को ही मानते थे. अब तक वे पक्के निरीश्वरवादी बन चुके थे. वह जानते थे कि प्रशा के प्रतिक्रियावादी माहौल में शोध का वैज्ञानिक मूल्यांकन असंभव है, इसलिए उन्होंने इसे येन विश्वविद्यालय में भेजा जहां से अप्रैल 1841 में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली. पहले से ही उदारवादी विचारों से प्रभावित कार्ल मार्क्स वामपंथी हेगेलवादी युवा छात्रों के उस दल “डाक्टर्स क्लब” से जुड़ गए जो हेगेल के दर्शन से निरीश्वरवादी तथा क्रांतिकारी निष्कर्ष निकालने की चेष्टा करता था. वामपंथी हेगेलवादी और उनके साथी प्रशा के अत्याचारी शासन के विरोधी थे. उनके लिए 1789 की फ्रांसीसी क्रांति प्रबोधन, परिवर्तन तथा उन प्रगतिशील विचारों का प्रतीक थी जिनसे  सामंती जर्मनी को भी एक आधुनिक पूंजीवादी जनतंत्र में बदला जा सकता था.

तो प्रशा के राजभक्त हेगेल के लिए द्वंद्व के जो यथास्थितिवादी मायने निकलते थे, ज़ाहिर है परिवर्तनकामी मार्क्स के लिए वे स्वीकार्य नहीं होते. उन्होंने कहा कि ‘इतिहास गति मानवीय क्रियाओं से तय होती है...और यह भी कि मानवीय विवेक में परिवर्तन भौतिक विश्व तथा उत्पादन की स्थितियों में परिवर्तन की प्रक्रिया में ही होता है. दुनिया को बदलने की प्रक्रिया में मनुष्य अपने विचारों को भी बदलता है.  उन्होंने कहा कि  ‘एक साथ खुद को तथा परिस्थितियों को बदलना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है’. ‘जर्मन विचारधारा’ में उन्होने लिखा  जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता अपितु चेतना जीवन से निर्धारित होती है इस तरह हेगेल के उलट मार्क्स के लिए वास्तविक जगत किसी पहले से उपस्थित विचार का मूर्त रूप न था बल्कि विचार खुद वास्तविक जगत के परिवर्तनों के साथ पैदा होने वाली चीज़ थे. पूँजी के दूसरे खंड में उन्होंने लिखा है, ‘ हेगेल के लिए मानव मष्तिष्क की जीवन प्रक्रिया यानि चिंतन की प्रक्रिया, जिसे विचार के नाम से उन्होंने एक स्वतंत्र करता बना डाला है, वास्तविक संसार का सृजन करने वाली है. इसके उलट मेरे लिए विचार इसके सिवा और कुछ नहीं है कि भौतिक संसार मानव मष्तिष्क में प्रतिबिम्बित होता है और चिंतन के रूपों में बदल जाता है.’ मार्क्स के पहले फायरबाख ने प्रकृति में द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी तरीके से विकास की व्याख्या की थी. लेकिन वह मानवसमाज तथा इतिहास में इसे लागू नहीं करते थे. मार्क्स ने इसके आधार पर मानव समाज तथा अब तक के इतिहास में आये परिवर्तनों की भी व्याख्या की. 
द्वंद्व या विरोधाभास ही सभी तरह की गति के मूल में हैं. प्रकृति या मानव समाज दोनों में हमेशा विपरीत तत्व उपस्थित रहते हैं और उनके बीच संघर्ष चलता रहता है. विकास परस्पर विरोधी प्रवृतियों व् तत्वों के बीच का संघर्ष है. इस तरह कोई भी वस्तु या इतिहास का कोई दौर, समाज सम्पूर्ण, अंतिम या निरपेक्ष नहीं है. परिवर्तन की इस प्रक्रिया में मनुष्य के नए विचार जन्म लेते हैं. इस संघर्ष में समाज परिमाणात्मक (Quantitative) परिवर्तनों से गुणात्मक (Qualitative) परिवर्तनों की ओर जाता है और विकास की निम्नतर मंज़िल से उच्चतर मंज़िल की ओर जाने की इस प्रक्रिया में समाज में मूलभूत परिवर्तन होते हैं.

साथ ही मार्क्स के अनुसार न तो प्रकृति न समाज अलग-अलग वस्तुओं या मनुष्यों का समुच्चय है जो एक दूसरे से स्वाधीन हैं बल्कि दोनों जगह सभी पदार्थ और मनुष्य ‘एक दूसरे से सम्बद्ध, एक दूसरे पर निर्भर तथा एक दूसरे द्वारा निर्धारित होने वाले हैं.’ किसी भी मनुष्य का अध्ययन उसे समाज से काट के नहीं किया जा सकता. जैसा समाज और जैसी अर्थव्यवस्था होगी, वैसा ही मनुष्य होगा. किसी मनुष्य की चेतना किसी स्वर्ग से बनकर नहीं आती बल्कि वह जिस समाज में और जिन परिस्थितियों में रहता है, उसकी चेतना भी वैसी ही होती है तथा वह इससे प्रभावित होने के साथ-साथ इसे प्रभावित भी करता है और इस तरह उसकी चेतना का विकास भी होता है. ‘फायरबाख पर निबंध’ में मार्क्स लिखते हैं, ‘यह भौतिकवादी सिद्धांत कि मनुष्य परिस्थितियों एवं शिक्षा-दीक्षा की उपज है, और इसीलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न परिस्थितियों एवं बदल दी गयी शिक्षा-दीक्षा की उपज है, इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियाँ मनुष्य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्वयं शिक्षा की ज़रुरत होती है.’

मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अब तक के सभी भाववादी दर्शनों के विपरीत दुनिया में होने वाले परिवर्तनों में किसी ईश्वर की जगह मनुष्य की सकर्मक भूमिका को स्थापित करता है. फायरबाख पर निबंध के अंतिम हिस्से में वह कहते हैं कि ‘अब तक के दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से विश्व की केवल व्याख्या की है, सवाल दुनिया को बदलने का है.’ मार्क्स ने अपने दर्शन के सहारे न केवल इतिहास के अब तक के विकास की ‘वर्ग संघर्षों’ के रूप में व्याख्या की ( कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की पहली पंक्ति याद करें – ‘अब तक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है) बल्कि भविष्य के परिवर्तनों के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया. पूँजीवाद के तहत पैदा हुए बुर्ज़ुआ (पूंजीपति) तथा सर्वहारा (कामगार) वर्ग के बीच के संघर्ष को उन्होंने रेखांकित किया और बताया कि सर्वहारा विश्व को आगे ले जाने वाली शक्ति है/ था पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच संघर्ष में सर्वहारा की जीत सुनिश्चित है. यह कोई दैवी भविष्यवाणी नहीं थी जिसे संयोगों के आधार पर घटना था. इसके लिए ज़रुरत थी सर्वहारा के अपने संगठन और पूंजीपति वर्ग से उसके तीखे और फैसलाकुन संघर्ष की. 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद : गतिकी के नियम  

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है. ज़ाहिर है कि दुनिया को बदलने की ख्वाहिश रखने वाले विचार का दर्शन अकर्मक तो हो नहीं सकता. यह वस्तुतः ‘कर्मों’ का मार्गदर्शक सिद्धांत है. यानि वास्तविक जगत में शोषण विहीन व्यवस्था की स्थापना के लिए पथ प्रदर्शित करने वाला दर्शन. तो ज़रूरी होगा कि मार्क्सवाद की अन्य प्रस्थापनाओं पर जाने से पहले इस दर्शन के वास्तविक जगत में अनुप्रयोगों पर कुछ बात कर ली जाय.

मारिस कान्फोर्ड कहते हैं कि ‘द्वंद्ववाद का उद्देश्य संसार में वास्तविक परिवर्तनों तथा अंतर्संबंधों की खोज करना है.’ इसका अर्थ क्या है? पहली बात तो यह कि वास्तविक परिवर्तन शून्य में पैदा नहीं होते. न ही किसी दैवी नियम से. उनके ठोस कारण होते हैं. उन कारणों की तलाश किये बिना उन्हें लाना संभव नहीं. दूसरा यह कि संसार में होने वाली समस्त आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक क्रियाएं एक दूसरे से मुक्त नहीं होतीं. वे अन्य संक्रियाओं से प्रभावित भी होती हैं और उन्हें प्रभावित भी करती हैं. उदाहरण के लिए हम संस्कृति को ले लें. किसी भी राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था में संस्कृति उस व्यवस्था की उत्पाद होती है. राजा-महाराजाओं के काल में जो संस्कृति थी वह आधुनिक युग में नहीं है. आधुनिक युग में उसका लोप होना आधुनिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अन्तर्निहित है. नए समय के सांस्कृतिक प्रतीक नए समय की ज़रूरतों और पसंदगियों के अनुरूप ही हो सकते हैं. पुराने समय के सभी त्यौहार-उत्सव कहीं न कहीं कृषि से जुड़े हुए थे लेकिन नए समय में कृषि के उत्पादन का प्रमुख साधन हो जाने के बाद उनका पुराना स्वरूप भी बदला और नए सामाजिक ढाँचे के अनुसार नए त्यौहार भी आये. संस्कृति न सिर्फ़ नयी सामाजिक-आर्थिक संरचना के साथ बदलती है बल्कि उसे प्रभावित भी करती है. इसीलिए आप देखेंगे कि शीत युद्ध के दौर में अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी सी आई ए ने विचारहीनता, अराजनीतिक और अ-यथार्थवादी संस्कृति, कला और साहित्य के प्रचार प्रसार और उसका वर्चस्व स्थापित करने के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम, फ़ोर्ड फाउंडेशन और राकफेलर जैसी संस्थाओं को अकूत धन दिया क्योंकि सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और फिल्मकारों के बीच वामपंथी विचारों का तेज़ी से फैलता प्रभाव उन्हें अपने वजूद के लिए ख़तरा लग रहा था. खैर, संस्कृति के प्रश्न पर हम आगे चर्चा करेंगे.

अभी मेरा उद्देश्य विभिन्न परिवर्तनों के अंतर्संबंध का एक उदाहरण देना था. इसलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चीजों को उनके पार्थक्य में नहीं बल्कि ‘दूसरी वस्तुओं के साथ इसके अटूट संबंध में’ देखता है. इसे  एक और उदहारण से समझना बेहतर होगा. हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था प्राचीन काल से एक बेहद मज़बूत और कट्टर व्यवस्था के रूप में उपलब्ध रही है.  जातियों को लेकर समाज में एक सहजबोध भी है. यह ‘जातिगत’ विशेषता के रूप में प्रचलित किया जाता है. जैसे यह कि ब्राह्मण हमेशा विद्वान होंगे, क्षत्रिय होगा तो बलवान होगा, वैश्य व्यापारिक बुद्धि में कुशल होगा और दलित कम बुद्धि का होगा...वगैरह-वगैरह. अगर बाक़ी चीजों से काट के सिर्फ़ उदाहरणों की बात करेंगे तो समाज से इस धारणा को पुष्ट करने वाले उदाहरण भी मिल जायेंगे. इस तरह उनकी अवस्था को एकांगी तरीके से और दूसरी चीजों से काटकर देखने से ऐसा निष्कर्ष सामने आयेगा कि उनकी यह ‘प्रकृति’ अंतिम है और इस रूप में उसे बदला नहीं जा सकता. अगर कहीं इसमें विचलन दिख भी रहा है तो वह बस एक ‘अपवाद’ के रूप में है. लेकिन एक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नज़रिया इस बात को अलग तरीक़े से व्याख्यायित करेगा. वह वर्ण विभाजन के साथ हुए श्रम विभाजन के तहत हज़ारो वर्षों से इन जातियों को सौंपे गए विशेषाधिकारों और वंचनाओं की रौशनी में इसे देखेगा. वह विवेचना करेगा कि जिस तरह कुछ जातियों का संपत्ति और ज्ञान पर एकाधिकार रहा और कुछ जातियों को इन सबसे वंचित रखा गया, सदस्यों की मानसिक बनावट उसी के अनुरूप बनी. यह कोई ईश्वरीय या जन्मजात प्रवृतियाँ नहीं थीं बल्कि उन सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों की उपज थीं जिसमें इन सामजिक संरचनाओं का जन्म हुआ. इसीलिए इनके लिए दोषी वे लोग नहीं बल्कि वे हालात हैं और उन हालात को बदलकर ही इन विशिष्टताओं को बदला जा सकता है. इस तरह एक मार्क्सवादी व्यक्तियों को दोषी ठहरा कर यथास्थिति पर दुखी होने या उन परिस्थितियों के अपरिहार्य होने के यथास्थितिवाद (जो जैसा है, वैसा ही रहे) की जगह सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन की माँग और उसका प्रयास करेगा जिससे मनुष्य की भौतिक परिस्थितियाँ बदल सकें और उसका समग्र विकास हो सके. वह इस सिद्धांत को मानेगा कि ‘मनुष्य अपनी भौतिक परिस्थितियों का उत्पाद है और इन्हें बदलने की प्रक्रिया में वह खुद भी बदल जाता है’. वह जातिवाद जैसी संस्था के ख़ात्मे की बात करेगा. इस प्रक्रिया में वह किसी ‘निष्पक्षता’ की जगह एक स्पष्ट पक्षधरता के साथ सामने आता है. असल में निष्पक्षता एक प्रकार का यथास्थितिवादी औज़ार ही है जो अक्सर शोषक के पक्ष में इस्तेमाल होता है. जहाँ स्पष्ट रूप से एक वर्ग दूसरे का शोषण कर रहा है वहाँ निष्पक्षता का अर्थ शोषक को अपनी कार्यवाही करते रहने की आज़ादी देना है. एक मार्क्सवादी घोषित तौर पर अपने वर्ग के साथ होता है और इसीलिए वह वंचित वर्ग के पक्ष में आवाज़ उठाता है. लोकतंत्र या ‘निष्पक्षता’ एक ऐसे समाज में ही लागू हो सकती है जहाँ सभी लोग समान हों. जहाँ असमानताएं हैं, वहाँ यह गरीब की लाठी के आगे अमीर की बन्दूक को हथियार के नाम पर एक मान लेने जैसा ही होगा.

यह मान लेना भी ग़लत होगा कि यह कोई बनी-बनाई पद्धति है जिसमें हर चीज़ को फिट करने की कोशिश की जाती है. इसके उलट इसका प्रयोजन चीजें वास्तविक रूप में जैसी हैं, वैसे ही उनकी तलाश करना और उन्हें व्याख्यायित करना है. यह लेनिन के शब्दों में ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस आकलन’ है. वह कहते हैं, ‘वास्तविक द्वंद्ववाद एक प्रक्रिया के इसके समस्त ठोस रूप में सम्पूर्ण तथा ब्यौरेवार विश्लेषण के माध्यम से आगे बढ़ता है. द्वंद्ववाद का मूल सिद्धांत है : अमूर्त सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती, सत्य सदा ठोस होता है.’ स्पष्ट है कि जो ठोस नहीं अमूर्त है, उसकी न तो खोज की जा सकती है न ही उसे समझा जा सकता है लेकिन जो ‘ठोस’ है उसके बारे में सम्पूर्णता से पता लगाया जा सकता है. द्वंद्वात्मक पद्धति यही करती है, इसीलिए इसमें किसी कल्पित स्वर्ग-नर्क-देवता-भूत-प्रेत के लिए कोई जगह नहीं. वह इन चीजों को आँख मूंदकर मान लेने की जगह तथ्यों और तर्कों पर इनकी पड़ताल करता है. अंध-आस्था को एक मूल्य की तरह स्वीकारने की जगह यह विज्ञान में आस्था प्रकट करने वाली एक वैज्ञानिक पद्धति है.
द्वंद्वात्मक पद्धति को हम इसकी गति के तीन नियमों से समझ सकते हैं – 

(१) विपरीतों की एकता और संघर्ष का नियम, (२) मात्रा के गुण में परिवर्तन के नियम और (3) निषेध का निषेध.  

प्रकृति तथा समाज, दोनों में विकास विपरीत तत्वों की एकता और संघर्ष से होता है. किसी भी प्रक्रिया या वस्तु में विपरीत रुझानों का संघर्ष चलता रहता है. दोनों रुझान एक ही प्रक्रिया में एक ही साथ सक्रिय होते हैं. यही ‘विपरीतों की एकता’ है. लेकिन एक ही प्रक्रिया का हिस्सा होने के बावज़ूद इनमें एक अंतर्विरोध चलता रहता है. यह ‘विपरीतों का संघर्ष’ है. इस एकता और संघर्ष से ही गतिमानता पैदा होती है. उदाहरण के लिए हम प्रकृति में बिजली या चुम्बक की बात कर सकते हैं. दोनों में ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुव होते हैं. ये चुम्बकत्व या विद्युत् धारा के प्रवाह की प्रक्रिया में एक साथ उपस्थित होते हैं. इन ‘विपरीतों की एकता तथा उनके अन्तरविरोध’ से ही चुम्बक में आकर्षण या विद्युत धारा में प्रवाह का गुण पैदा होता है. गौर से देखा जाय तो यह ‘धनात्मकता’ या ‘ऋणात्मकता’ भी पार्थक्य में नहीं एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही अस्तित्वमान होती हैं और इस तरह जो बात हमने पहले कही कि ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चीजों को उनके पार्थक्य में नहीं बल्कि ‘दूसरी वस्तुओं के साथ इसके अटूट संबंध में’ देखता है’ इस विज्ञान सम्मत उदाहरण द्वारा पुष्ट होती है. वैसे आइन्स्टीन का सापेक्षता सिद्धांत तो इसके लिए व्यापक वैज्ञानिक आधार प्रदान करता ही है. विज्ञान से इतर समाज में भी यह नियम बहुत स्पष्ट तरीके से परिवर्तनों को व्याख्यायित करता है. ऐतिहासिक भौतिकवादी तरीके से इतिहास में हुए परिवर्तनों का विस्तार से अध्ययन हम आगे करेंगे. अभी उदाहरण के लिए हम यह देख सकते हैं कि किसी भी आर्थिक व्यवस्था में जो उत्पादन पद्धति होती है वह ऐसे ही दो विपरीत रुझान वाले तत्वों की संयुक्त निर्मिति होती है. उदाहरण के लिए पूँजीवाद में ही एक उत्पादन प्रक्रिया में एक तरफ मालिकान होते हैं तो दूसरे तरफ मानसिक या शारीरिक कामगार. मालिक का रुझान होता है कि अधिक से अधिक काम कम से कम मज़दूरी पर मिले ताकि मुनाफा अधिकतम हो, लेकिन कामगारों (चाहे वे मैनेजर हों या मज़दूर) का रुझान अच्छी से अच्छी तनख्वाह तथा दूसरी सुविधाओं पर होता है. इन दो विपरीत रुझानों के बावज़ूद इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति में उत्पादन संभव ही नहीं. इस तरह वे एकताबद्ध हो उत्पादन करते हैं, लेकिन उनके विपरीत रुझानों के कारण संघर्ष भी लगातार चलता रहता है और उत्पादन में गति इसी से आती है.

लेकिन विपरीतों की एकता और संघर्ष से होने वाले परिवर्तन मात्रा में ही नहीं होते, इनसे एक सीमा के बाद व्यवस्था का मूलभूत गुण ही बदल जाता है. ज़ाहिर है कि वस्तु में समस्त परिवर्तनों का एक मात्रात्मक (Quantitaive) पक्ष होता है. इसमें परिवर्तन मात्रा में होता है, लेकिन प्रकृति (nature) नहीं बदलता. लेकिन यह मात्रात्मक परिवर्तन अनंत काल तक ज़ारी नहीं रह सकता. एक क्रांतिक बिंदु (critical point) पर पहुँच कर यह गुणात्मक परिवर्तन (Qualitative change) बन जाता है, यानि वस्तु का मूलभूत गुण ही बदल जाता है. प्रकृति में इसका सबसे साधारण उदाहरण पानी का गर्म /ठंढा किया जाना है जहाँ वह अनिश्चित काल के लिए गर्म/ठंढा नहीं होता बल्कि एक क्रांतिक अधिकतम/न्यूनतम तापमान के बाद इसकी प्रकृति बदल जाती है और यह भाप/बर्फ में बदल जाता है. समाज ने भी परिवर्तन के ऐसे चरण देखे हैं. अपने यहाँ देखें तो औपनिवेशिक शासन के लूट के मद्देनज़र उपनिवेशवादी अंग्रेज़ी शासन और उपनिवेश विरोधी भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के बीच जो लंबा संघर्ष चला वह अनंत काल तक चलता ही नहीं रहा, पहले मात्रात्मक परिवर्तन आये, छोटे-बड़े अधिकार मिले फिर जब यह चरम पर पहुंचा तो उपनिवेशवाद अपना बोरिया-बिस्तर समेत कर चलता बना तथा देश की राजनीतिक अवस्था में गुणात्मक परिवर्तन आये. वर्गों की उत्पति और संघर्ष का अध्ययन करते हुए हम इसे और व्यापक रूप से देखेंगे जहाँ दो वर्गों के संघर्ष की परिणिति पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन और नई उत्पादक शक्तियों के रूप में नए वर्गों के उदय में यह प्रक्रिया स्पष्ट दिखाई देती है.

लेकिन इस गुणात्मक परिवर्तन की दिशा क्या होगी? क्यों वह ख़ास रूप में ही नयापन हासिल करता है? इस वास्तविक कार्यशीलता को ‘निषेध का निषेध’ व्याख्यायित करता है. एंगेल्स कहते हैं कि ‘द्वंद्ववाद में निषेध का अर्थ मात्र नहीं कहने से नहीं है.’ हमने ऊपर उदाहरणों में जब एक प्रक्रिया को विकास के क्रम में निचली मंजिलों से ऊपरी मंजिलों (जैसे उपनिवेशवाद से संप्रभुता संपन्न होने या पानी से बर्फ बनने तक) की ओर जाते देखा तो यह ‘नई मंज़िल द्वारा पुरानी का निषेध है.’ अनिल राजिमवाले समझाते हैं कि ‘बीज से पौधा बनने की प्रक्रिया में बीज का अस्तित्व ख़त्म होता जाता है और जड़ें, तना, पत्तियाँ, फल-फूल विकसित होते जाते हैं. यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक विकास की सारी संभावनाएं समाप्त न हो जाएँ. निषेध की यह प्रक्रिया एक बिंदु पर आकर नए बीजों द्वारा पौधे के निषेध का रूप धारण करती है. बीज द्वारा पौधे का निषेध एक नया निषेध होता है जिसमें पिछले निषेध की पूरी प्रक्रिया शामिल होती है.’ इस तरह परिवर्तन/विकास पिछले निषेध से आगे बढ़ता हुआ अगले निषेध की ओर अग्रसर होता है. वह एक अंत से दूसरे, एक निर्माण से दूसरे निर्माण की ओर आगे बढ़ता है. पुरानी कक्षाएं पास कर नयी कक्षाओं में जाते विद्यार्थियों के उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है, जहाँ पुरानी कक्षाएं पास करने के बाद भी उसमें अर्जित ज्ञान को अगली कक्षा में नष्ट नहीं किया जाता, बल्कि वह अगली कक्षा के ज्ञान को हासिल करने के लिए आवश्यक होता है.

सामान्य नियम के रूप में इसे कान्फोर्ड के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक अवस्था में नए का पुराने के साथ संघर्ष होता है. पुरानी परिस्थितियों के अन्दर नए का उद्भव होता है तथा वह शक्तिशाली हो जाता है तो यह पुराने पर जीत हासिल कर लेता है व इसे नष्ट कर देता है. यह पिछली मंज़िल का, पुरानी गुणात्मक स्थिति निषेध है तथा इसका अर्थ है विकास की  नई  तथा उच्चतर स्थिति का, नई गुणात्मक स्थिति का अस्तित्व में आना.’

इस तरह द्वंद्वात्मक अर्थ में निषेध विनाश नहीं होता. न ही यह पुराने से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद होता है. अन्यथा विकास की हर अगली मंज़िल पर शून्य से शुरू करना पड़ेगा जो असंभव है. निषेध इस रूप में पुराने का आगे विकास है. इसीलिए जो कुछ लोग यह धारणा बनाते हैं कि समाजवाद आ जाने पर पूँजीवाद द्वारा किया गया सारा विकास नष्ट कर दिया जाएगा, वह कपोल कल्पना है. होगा यह कि इस नई मंज़िल पर पुराने विकास को एक नयी राह मिलेगी. उनके निजी मालिकाने की जगह और मुनाफा केन्द्रित स्वरूप की जगह उन पर सामूहिक स्वामित्व और बहुसंख्या की ज़रुरत वाला स्वरूप विकसित होगा. तकनीक मानव समाज की बेहतरी के लिए उपयोग होगी. अब तक हुआ सारा विकास मनुष्य की अदम्य जीजिविषा और मेहनत का परिणाम है और उसका उपयोग मनुष्य के हित में ही होना चाहिए न कि एक अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के मुनाफे के औज़ार के रूप में.

इस तरह हम देखते हैं कि वास्तव में हर निषेध में स्वयं उसका निषेध छिपा है. यह एक तरह से पहले निषेध का रद्द किया जाना है. इस तरह विकास की प्रक्रिया उच्चतर स्तर पर पहुँच जाती है. उसकी वापसी होती है, लेकिन नए और उच्चतर स्तर पर. पुराना निषेध पूरी तरह नष्ट नहीं होता बल्कि उसे नए निषेध में शामिल कर लिया जाता है. पुराने निषेध के सार को ग्रहण कर नया बेहतर और उच्च स्तर की ओर बढ़ जाता है. तो यह प्रक्रिया दरअसल ‘निषेध के निषेध’ की हुई. इस प्रक्रिया में विकास सीधी रेखा में नहीं होता. वह एक क्रांतिक बिंदु के बाद उछाल लेता है और इस रूप में यह वर्तुलाकार (serpentile)  होता है.   


5 टिप्‍पणियां:

  1. लेखमाला का पहला लेख कहाँ है???
    लिंक दे दें???

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  2. व्यस्तता के चलते आपका ये लेख पहले नहीं पढ़ सका ... जैसा की आप ने पहले ही आगाह किया था लेख कुछ क्लिष्ट है ....वो सही है ....किन्तु लेख में दिए उद्धरण एवं उदाहरण इसे उबाऊ होने से पूरी तरह बचा लेते हैं .....
    मार्क्सवाद एक विचार के तौर पे मुझे सदेव अच्छा लगा हैं किन्तु पढ़ा ना के बराबर ही हैं ...... आपकी ये लेख माला हम जैसे लोगों के लिए अत्ति महतवपूर्ण हैं ....मैं ये तो नहीं कह सकता की इसे पढने की बाद मैं मार्क्सवादी बन ही जाऊँगा पर हाँ पहले से ज्यादा और ठीक तरह से समझ पाऊंगा .....nice work bhai keep it up .......you are doing great great job ....:)

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  3. Good job bhai...
    But apka ye lekh bahot jyada hai..iske bich bich me kisi ka colour photo ya kuchh important notes daliye isse humlogo ko padne ne acchha lagega..

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