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शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास


       

  • ---अशोक कुमार पाण्डेय 


कश्मीर भारतीय उपमहाद्वीप का वह इकलौता क्षेत्र है जिसका इतिहास लिखित रूप में अबाध, श्रेणीबद्ध और उपलब्ध है.[1] कल्हण द्वारा लिखी गई “राजतरंगिणी” कश्मीर के राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने 1184 ईसापूर्व के राजा गोनंद  से लेकर अपने समकालीन राजा विजयसिम्हा (1129 ईसवी) तक का कालानुक्रमिक वर्णन दर्ज किया है. कश्मीर में इतिहास लेखन की परम्परा कल्हण के बाद भी फली फूली. पंद्रहवीं सदी में जोनाराजा ने “द्वितीय राजतरंगिणी” लिखी जिसे उन्होंने वहां से शुरू किया जहाँ कल्हण ने अपनी पुस्तक समाप्त की थी और इसे जैन-उल-आब्दीन तक लेकर आये. हालाँकि जैन-उल-आब्दीन के जीवनकाल में ही जोनाराजा गुज़र गए तो उनके काम को उनके शिष्य पंडित श्रीवर ने 1486 में फाह शाह के गद्दीनशीन होने तक बढ़ाया. इसके बाद प्राज्ञ भट्ट ने “राजावलीपतक” लिखी जो 1588 में अकबर के आधिपत्य तक का इतिहास है.[2] इसके अलावा फ़ारसी विद्वानों ने भी समकालीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण किताबें लिखी हैं.

कश्मीर के उद्भव का वर्णन नीलमत पुराण में  है जिसके अनुसार कल्प के आरंभ में घाटी कई सौ फीट गहरी सतीसर नामक झील थी जिसमें जलोद्भव नामक एक राक्षस रहता था. उसने झील के रक्षक नागों को आतंकित किया हुआ था. सातवें मनु के समय नागकुल के गुरु कश्यप मुनि जब हिमालय की तीर्थयात्रा पर आये तो उन्होंने जलोद्भव के अत्याचारों के बारे में ब्रह्मा से शिकायत की. ब्रह्मा के आदेश पर देवताओं ने झील को घेर लिया. लेकिन जलोद्भव को यह वरदान प्राप्त था कि जब तक वह जल में रहेगा उसे कोई मार नहीं सकेगा. जलोद्भव को जल से बाहर करने के लिए विष्णु ने अपने बड़े भाई बलभद्र को बुलाया और उन्होंने अपने हल से झील के चारों तरफ स्थित बारामूला (वाराह मूल) की पहाड़ियों में एक गोल छेद बना दिया जिससे झील का सारा पानी बह गया. इसके बाद विष्णु ने अपने चक्र से जलोद्भव की गर्दन काट दी और कश्यप मुनि इस सूखी घाटी में बस गए. कश्मीर का नाम (पहले कश्यपमार, फिर कश्मार और अंततः कश्मीर)[3]  इन्हीं कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा.  आश्चर्यजनक है कि भू विज्ञानियों ने अपने शोध में पाया कि वास्तव में यहाँ एक बड़ी झील थी जो बर्फ युग के बाद के एक बड़े भूकंप में पहाड़ों के धँसने से हुए छिद्र से बह गई और यह हरी-भरी घाटी अस्तित्व में आई.[4] श्रीनगर के पास हुई एक खुदाई में यहाँ पर 2000 वर्ष पहले मनुष्यों के निवास के अपुष्ट प्रमाण मिले हैं. नाग, पिशाच और यक्ष यहाँ के सबसे पहले निवासी माने जाते हैं जिसके बाद खस,डार,भट्ट,डामर,निषाद, तान्त्रिन आदि क़बीलों ने प्रवेश किया. नीलमत पुराण की इस कहानी का एक आधार 800 ईसा पूर्व आये आर्यों और स्थानीय निवासियों के बीच का संघर्ष भी हो सकता है. संभव है कि लोहे का उपयोग सीख चुके आर्यों ने पत्थरों में छेद कर झील को सुखा दिया हो और नागों का वहां रहना मुश्किल कर इलाक़े पर अपना कब्ज़ा कर लिया हो.[5] नाग क़बीले के लोग सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध थे. सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल इसी वंश के थे. यह भी माना जाता है कि प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन और नागबुधि भी नाग वंश से ही ताल्लुक रखते थे. कश्मीर के इन मूल निवासियों ने आर्यों के आने के बाद अपनी हार के साथ-साथ वैदिक धर्म अपना लिया और बाद में जब बौद्ध धर्म आया तो इनमें से अधिकाँश ने बौद्ध धर्म अपनाया.[6] आमतौर पर मान्यता है कि आर्यों की एक शाखा ओक्जस (वर्तमान में तजिकिस्तान, अफगानिस्तान,तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान से बहने वाली अमू दरिया) और जैक्सेरेट्स (वर्तमान में किर्गिस्तान के त्यान शान पर्वत से निकल कर दक्षिण कज़ाकस्तान से होकर अराल नदी में मिलने वाली सिर दरिया) की ओर जाते हुए अपने अपने साथियों से अलग होकर कश्मीर में बस गई थी.[7] हालाँकि कल्हण के अनुसार गोनंद कृष्ण का समकालीन था और  उनके शत्रु मगध के राजा जरासंध  का रिश्तेदार. कृष्ण के ख़िलाफ़ युद्ध में उसने जरासंध का साथ दिया और मारा गया. उसके बाद कश्मीर का सिंहासन उसके पुत्र दामोदर[8] को मिला. जब उसने सुना कि यादव उसके राज्य के निकट गांधार में स्वयंवर में भाग लेने आ रहे हैं तो वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़ा और अंततः कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन उड़ा दी. उस समय उसकी पत्नी यशोवती गर्भवती थी और दरबारियों ने उसे रानी मानने से इंकार कर दिया. तब कृष्ण ने स्वयं हस्तक्षेप कर कहा कि “कश्मीर की धरती पार्वती है ; इसलिए इसका राजा स्वयं शिव का एक अंश है. उसका अपमान किसी हाल में नहीं होना चाहिए, तब भी नहीं जब वह बुद्धिमान व्यक्तियों के कल्याण में बाधा उत्पन्न करे”[9] फिर समय आने पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया और वह गोनंद द्वितीय के नाम से कृष्ण की सरपरस्ती में सिंहासन पर बैठा. जब कौरव पांडव युद्ध हुआ तो अपने अल्पवय के कारण उसे किसी भी पक्ष से लड़ने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया[10]. देखा जाए तो महाभारत काल से कश्मीर के इतिहास को जोड़ने के पीछे ऐतिहासिकता कम और इसे एक पौराणिक वैधता दिलाना अधिक लगता है.

कश्मीर  में  बौद्ध  धर्म

कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास मौर्य वंश के प्रसिद्ध सम्राट अशोक (273 से 232 ईसापूर्व) के कश्मीर पर अधिकार से आरम्भ होता है. कल्हण बताते हैं कि उसने ही 96 लाख घरों वाले भव्य श्रीनगरी को बसाया और वितस्त तथा सुस्क्लेत्र में बौद्ध विहारों का निर्माण कराया.उसने पाटलिपुत्र में हुए महासंगीति (महासभा) ने मझ्झंतिका के नेतृत्व में पांच सौ बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर घाटी और गांधार में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था. लेकिन अशोक के बाद वहां शासन में आये उसके पुत्र की आस्था शैव धर्म में थी. कश्मीर में राज्याश्रित बौद्ध धर्म की वापसी कोई दो सदी बाद कुषाण वंश के शासक कनिष्क के शासन काल में हुई. हूणों से पराजित हो चीन की सीमाओं पर स्थित अपने मूल निवास स्थान से विस्थापित होकर यह घुमंतू जाति (यू ची) ईसापूर्व पंद्रहवीं शताब्दी में काबुल की घाटी में बस गई थी. कुषाण इसी के एक क़बीले थे जिन्होंने बाद में अफगानिस्तान से उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया था. कनिष्क इस वंश का चौथा शासक था जिसका शासन बंगाल से ओक्जस नदी तक विस्तृत था. उसने न केवल एक विस्तृत भूभाग में अपना राज्य स्थापित किया बल्कि कई महत्त्वपूर्ण निर्माण भी कराये. कनिष्क ने सर्वस्तिवाद की विभिन्न पुस्तकों और यत्र तत्र फैले विचारों को एक साथ रखकर उसका व्यापक आधार निर्मित करने के उद्देश्य से श्रीनगर के कुंडल वन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद परम्परा की चौथी बौद्ध महासंगीति का आयोजन किया जिसमें सर्वस्तिवाद के तीन प्रमुख ग्रन्थ लिखे गए. इनमें से एक “महा विभास शास्त्र” अब भी चीनी भाषा में उपलब्ध है.[11]

अभिनव गुप्त 


आठवीं-नौवीं शताब्दी में कश्मीर में शैव दर्शन विकसित हुआ. यह शैव सिद्धांत प्रत्यभिज्ञा या त्रिक दर्शन कहलाता है जिसके सबसे उद्भट विद्वान अभिनव गुप्त का जन्म 950-960 ईस्वी के बीच हुआ था. उनकी पुस्तक ‘तन्त्रलोक’ एकेश्वरवादी दर्शन की इनसाइक्लोपीडिया मानी जाती है. उन्होंने कुल 50 पुस्तकें लिखी थीं लेकिन आज कुल 44 पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें तन्त्रलोक के अलावा ‘तंत्रसार’ और ‘परमार्थ सार’ उल्लेखनीय  हैं. वह शैव दर्शन में आभासवाद के प्रणेता माने जाते हैं जिसमें उन्होंने ‘कुल’ और ‘कर्म’ की व्यवस्थाएं दीं.[12] उन्होंने दर्शन के अलावा व्याकरण, नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र का विशेष अध्ययन किया था और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर एक टीका भी लिखी थी. उन्हें रस सिद्धांत का प्रणेता माना जाता है. अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमेन्द्र संस्कृत के अत्यंत प्रतिष्ठित कवि थे जिन्होंने अपने गुरु का काम आगे बढ़ाते हुए “प्रत्याभिज्ञान हृदय’ में अद्वैत शैव परम्परा के ग्रंथों का सहज विश्लेषण प्रस्तुत किया तथा तांत्रिक परम्परा पर कई सुदीर्घ भाष्य भी लिखे. कश्मीर में विकसित इस दर्शन ने पूरे दक्षिण एशिया की शैव परम्परा पर गहरा प्रभाव डाला. नौवीं से बारहवीं सदी के बीच बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होता गया और शैव दर्शन कश्मीर का सबसे प्रभावी दर्शन बन गया.[13]


शैव धर्म का  प्रभाव

कश्मीर के इतिहास में कनिष्क के बाद सबसे प्रभावी राजा था मिहिरकुल जो साकल (आज का सियालकोट) का हूण राजा था. उसने मालवा के राजा यशोवर्मन और मगध के राजा बालादित्य से मिली पराजय के बाद कश्मीर में शरण ली. उसकी क्रूरता के कारण कल्हण ने उसे  हिंसक म्लेच्छ, यमराज  के समतुल्य और ज़िंदा बेताल कहा है जिसके आने का पता उसके आगे आगे चलते कौओं और गिद्धों से चलता था. इसकाका अंदाज़ एक घटना से लगाया जा सकता है जिसमें एक युद्ध से लौटते हुए पीर पंजाल दर्रे के पास जब उसकी सेना का एक हाथी खाई में गिर गया तो  हाथी की करुण पुकार सुनकर मिहिरकुल को इतना रोमांच हुआ कि उसने एक के बाद एक सौ हाथियों को खाई में गिरवा दिया. लेकिन उसने समय के अनुरूप शैव धर्म अपना कर उसने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया था. कश्मीर का एक और प्रतापी राजा कार्कोट वंश का ललितादित्य मुक्तपीड़( सन 724- सन 761) था जिसके राज्य को कश्मीर में स्वर्ण युग कहा जाता है. गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अस्त-व्यस्त पड़े उत्तर भारत, दक्कन के रजवाड़ों में आतंरिक संघर्ष और कश्मीर के पश्चिम में पसरे राजनीतिक शून्य का  फायदा उठा कर उसने अपने राज्य का खूब विस्तार किया. वह बेहद कुशल और  सहिष्णु प्रशासक था जिसने जिसका राज्यकाल “कश्मीरी बौद्ध युग का स्वर्ण काल” कहा जाता है.[14] उसकी सेना के सेनापति और कई प्रमुख मंत्री बौद्ध थे. चाहे कोई भी युग रहा हो, धार्मिक सहिष्णुता हमेशा राज्य की शान्ति, समृद्धि और खुशहाली के मूल में रही है. उसकी मृत्यु के बाद कार्कोट वंश का पतन शुरू हो गया. राजा की उपपत्नी और भतीजे आदि के बीच चले सत्ता संघर्ष में यह वंश समाप्त हो गया.


हिन्दू राजाओं का पतन काल

अवन्तिवर्मन कश्मीर का एक और योग्य शासक था जिसने चौपट हो चुकी राज्यव्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अथक प्रयास  किये. उसने बलिप्रथा तथा जीव हत्या पर रोक लगा दी. इस  समय  कश्मीर में हिन्दू धर्म पूरी तरह से प्रभावी हो चुका था और बौद्ध धर्म की चमक खो गई थी. 883 ईसवी में उसकी मृत्यु के बाद ही का समय हिन्दू राजाओं के चारित्रिक पतन का  है. सुरा-सुंदरी के प्रभाव में ऐसे ऐसे राजा हुए जिन्होंने अपने सगे बेटों के साथ सत्ता संघर्ष किये. अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तथा जनता त्राहि माम करने लगी. ऐसे ही एक राजा क्षेमेन्द्र गुप्त का राज्यकाल पतन की पराकाष्ठा का काल था. क्षेमेन्द्र शराब और कामक्रीड़ा से जब मुक्त होता था तो विद्वानों के अपमान और किसानों के उत्पीडन के नए नए तरीके ढूंढता था. हालत यह कि उसके मंत्री उसे अपने घर पर आमंत्रित कर अपनी पत्नियाँ प्रस्तुत करते थे और वह इसके बदले उन्हें ईनाम-इक़राम दिया करता था. वह अपनी रानी दिद्दा पर इस कदर निर्भर था कि उसे दिद्दाक्षेम कहा जाने लगा था. राजा की मृत्यु के बाद उसने 958 ईसवी में रानी ने अपने अल्पवयस्क पुत्र अभिमन्यु को गद्दी पर बिठाया और ख़ुद शासन सम्भाला. वह अपने समय के किसी भी अन्य राजा की तरह ही चालाक और क्रूर थी. उसने अनेकों प्रेम सम्बन्ध बनाए और उसका उपयोग अपने शासन को सुरक्षित रखने में किया. जब वे उसके लिए ख़तरा बने या अनुपयोगी हुए तो दिद्दा ने उन्हें रास्ते से हटा दिया. उसकी सबसे क्रूर कार्यवाही अभिमन्यु की मृत्यु के बाद एक के बाद एक अभिमन्यु के तीन पुत्रों की हत्या करवाना थी. जहाँ पहले दो, नंदिगुप्ता और त्रिभुवन को उनके शासन के पहले और दूसरे साल में ही जादू टोने से मार दिया गया वहीँ भीमगुप्त ने पांच साल शासन किया और जब उसने अपनी दादी और उसके नए प्रेमी तुंग के अनाचारों के ख़िलाफ़ क़दम उठाये तो उसे पहले गिरफ़्तार किया गया और फिर खुलेआम हत्या कर 981 ईस्वी में दिद्दा ख़ुद गद्दीनशीन  हुई. तुंग खस कबीले का था और अपने भाइयों के साथ बैल चराने आया था. उसने दरबार में चिट्ठियां पहुंचाने का काम हासिल कर लिया था. दिद्दा की उस पर नज़र पड़ी और जल्द  ही वह उसका प्रिय बन गया. दिद्दा के तत्कालीन प्रेमी भूय्या की हत्या कर तुंग सबसे शक्तिशाली मंत्री बन गया. अपने सभी उत्तराधिकारियों की हत्या कर चुकी दिद्दा ने अपने भाई उदयराज के पुत्र संग्रामराजा  को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और 1003  ईस्वी  में  दिद्दा की मृत्यु के साथ  लोहार वंश का शासन आरम्भ हुआ.  
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उसके बाद के राजाओं में प्रमुख नाम हर्ष का है जिसे मंदिरों को तोड़ने और लूटने के संदर्भ में विशेष रूप से याद किया जाता है. कल्हण ने उसका वर्णन करते हुए भयानक घृणा का प्रदर्शन किया है. हर्ष का व्यक्तित्व विद्वत्ता और दुराचार जैसे विरुद्धों का अजीब समन्वय था. एक तरफ वह सुन्दर गीतों का रचनाकार था, संगीत और कला का ज्ञाता था, न्यायप्रिय था, समन्वयवादी था तो दूसरी तरफ स्वेच्छाचारी, क्रूर और चरित्रहीन था. आरंभ में उसका शासन बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन बाद में वह लगातार पतन के गर्त में जाता गया. वह खुले दिमाग का था. तुर्क तब तक कश्मीर में आ चुके थे और उसने न केवल उनकी संस्कृति से बहुत कुछ अपनाया बल्कि उनकी सैन्य रणनीतियों को भी अपने दरबार में शामिल किया और गुलाम तुर्की स्त्रियों को अपने हरम में. हर्ष ने तमाम युद्ध किये और इनमें से अधिकतर में हार का सामना किया. इन  सबके साथ अय्याशी  उसे परम्परा में मिली थी. कामपिपासा में उसने अपने परिवार की स्त्रियों तक को नहीं बख्शा और वेश्याएं तो खैर थी हीं. ज़ाहिर है इन बढ़ते ख़र्चों को पूरा करने के लिए अकूत धन की ज़रुरत पड़ती. यह  धन अन्धान्धुध करारोपण से हासिल किया गया. यहाँ तक कि मल त्याग पर भी कर लगा दिया गया था![15] जनता में त्राहि त्राहि मच गई. उसने मंदिरों और देवालयों को भी लूटा. बहुत संभव है ऐसा धन के लिए ही किया गया हो[16]. मंदिर उस  समय धन  सम्पत्ति का केंद्र थे और राजाओं की गरिमा तथा शक्ति के प्रतीक. उन्होंने कभी  खुद को अमर करने के लिए तो कभी अपनी हिंसा और अनाचार को छिपाने के लिए एक तरफ पंडितों को दान दिए थे तो दूसरी तरफ मंदिर बनवाये थे जिनमें सोना-चांदी और दूसरी कीमती धातुएं लगीं थीं. मंदिरों की उसकी लूट को कुछ लोगों ने तुर्कों के प्रभाव से जोड़ा है, लेकिन न केवल कश्मीर बल्कि देश के अन्य कई भागों में मंदिरों के लूट के कारण केवल साम्प्रदायिक नहीं थे.[17]

1128 ईसवी में गद्दीनशीन हुए जयसिम्हा का लगभग 28 वर्षों का राज्य ललितादित्य और अवन्तिवर्मन की कड़ी में कश्मीर के बेहतर वक्तों की तरह याद किया जाता है. कल्हण इन्हीं के दरबार में थे. लेकिन इस छोटे से अंतराल के बावजूद कश्मीर में जो पतन जारी था वह बदस्तूर चलता रहा. 1171-1286  तक चले बोपादेव वंश के राज्य में या फिर उसके बाद स्थापित हुए डामर वंश में कुछ भी ऐसा नहीं बदला जो सड़ चुकी राज व्यवस्था में कोई बड़ा परिवर्तन लाता. नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पतन कश्मीर के इतिहास का हिस्सा बन चुके थे.

जर्जर हो चुके कश्मीरी राज्य पर जब मंगोल आक्रान्ता दुलचा (ज़ुल्जू)  ने बारामूला दर्रे की ओर से आक्रमण किया तो डामर वंश के राजा सहदेव ने उसका सामना करने की जगह उसे रिश्वत देने की कोशिश की. नाक़ामयाब होने पर सहदेव किश्तवार भाग गया. मंगोल सैनिकों ने आठ महीनों तक सोना-चाँदी, अनाज लूटने के बाद कश्मीर की अरक्षित महिलाओं को अपना शिकार बनाया. खेत जला दिए गए, घर लूट लिए गए, जवान पुरुष और बच्चे या तो मार दिए गए या ग़ुलाम बना लिए गए. कश्मीर घाटी पूरी तरह से तहस नहस हो गई. सेनापति रामचंद्र ने ख़ुद और अपने परिवार सहित विश्वस्त सैनिकों तथा अनुचरों को किले के भीतर क़ैद कर लिया था. आठ महीने बाद जब वहाँ सब नष्ट हो चुका था और लूटने के लिए कुछ नहीं बचा तो दुल्चा वापस जाने का निर्णय लिया. उसके सहयोगियों ने बारामूला और पाखली के उसी रास्ते से लौटने की सलाह दी जिससे वे आये थे, पर दुलचा ने स्थानीय क़ैदियों से सबसे छोटे रास्ते के बारे में पूछा. कहते हैं कि दुलचा से उसकी ज़्यादतियों का बदला लेने के लिए उन्होंने जान बूझकर सबसे ख़तरनाक रास्ते, बनिहाल दर्रे से जाने का सुझाव दिया और लौटते हुए दुलचा दिवासर परगना की चोटी के पास अपने सैनिकों, क़ैदियों और लूट के सामान के साथ बर्फ में दफ़न हो गया.[18] 

इस पूरी विपत्ति में घाटी के निवासियों के मददगार बनकर आये शाह मीर और रिंचन. रामदेव की पुत्री कोटा के साथ मिलकर उन्होंने जितना थोड़ा बहुत संभव हो सका प्रतिरोध भी किया और सहायता भी. रिंचन कोटा से प्रेम में पड़ गया और कोटा ने भी उसे स्वीकृति दी. रिंचन (ला चेन रिग्याल बू रिन चेन) बौद्ध था जो कुबलाई खान की मौत के बाद लद्दाख में मची अफरातफरी में अपने पिता और वहां कुबलाई खान के प्रतिनिधि लाचेन की हत्या के बाद अपनी छोटी सी सेना के साथ जो-ज़िला दर्रे से सोनमर्ग घाटी पार कर गंगागीर में सेनापति रामचंद्र के महल में शरणागत हुआ था. शाह मीर स्वात घाटी का निवासी था और कहा जाता है कि एक रात उसे ख़्वाब आया कि वह कश्मीर का राजा बनेगा तो इस बिना पर वह सपरिवार श्रीनगर पहुँच गया  और राजा के दरबार में उसने रामचंद्र से निकटता बनाई. राजा  सहदेव ने उसे बारामूला के पास एक गाँव दावर कुनैल की जागीर दे दी थी.[19] कालान्तर में रिंचन और शाह मीर अच्छे मित्र बन गए.[20]

दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया. रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाह मीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320  को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने अपने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया.
                                                            

कश्मीर में इस्लाम

दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया. रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाह मीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320  को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने अपने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया.

जोनाराजा के अनुसार वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म में दीक्षित करने से इंकार कर दिया.[21]. ऐसे में निराश रिंचन को शाहमीर एक सूफ़ी संत बुलबुल शाह के पास ले गया. रिंचन उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने इस्लाम अपना लिया. लेकिन यूनेस्को द्वारा कराए गए शोध में एन ए बलूच और ए क्यू रफ़ीकी इसे जोनाराजा के दिमाग की उपज मानते हैं. उनके अनुसार एक राजा के रूप में यह उसके लिए कोई समस्या थी ही नहीं. वे उन इस्लामी विद्वानों[1]  के तर्कों को भी खारिज़ करते हैं जिनके अनुसार रिंचन ने तीनो धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ के बाद इस्लाम को अपनाया या वह बुलबुल शाह[2] के यहाँ अध्यात्मिक शान्ति से प्रभावित हो मुसलमान बन गया था. उनकी मान्यता है कि रिंचन का इस्लाम अपनाना किसी नैतिक नहीं बल्कि उस राजनीतिक यथार्थ के चलते था जिसमें उसकी स्वीकृति सिर्फ़ इस्लाम मानने वालों में संभव थी जो अब अच्छी संख्या में कश्मीर में आ चुके थे.[22] बौद्ध धर्म तब तक तमाम विकृतियों का शिकार हो हाशिये पर जा चुका था और हिन्दू राजाओं के वंशज अब भी कश्मीर में थे. ऐसे में शाह मीर की सलाह और प्रोत्साहन पर उसने इस्लाम अपनाया. कश्मीरी इतिहास के एक अध्येता अबू-फद्ल-अल्लामी भी रिंचन के इस्लाम स्वीकारने के पीछे शाह मीर की ही भूमिका मानते हैं. रिंचन के इस क़दम को दुनिया के अन्य देशों में इस्लाम के प्रभावी होने से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए.[23] रिंचन के बाद कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम अपनाने वाला व्यक्ति था उसका साला रावणचन्द्र.[24]

जोनाराजा ने उसके शासन काल को “स्वर्ण युग” कहा है, हालाँकि प्रोफ़ेसर के.एल.भान[25] उस युग को जबरिया धर्म परिवर्तन का युग बताते हैं. बहुत संभव है कि सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं हो. तथ्य बताते हैं कि सबसे पहले उसके उन बौद्ध अनुयायियों ने इस्लाम अपनाया जो लद्दाख से ही उसके साथ आये थे. ज़ाहिर है कश्मीर में इस्लाम तलवार के दम पर नहीं आया. हिन्दू राजाओं के शासन काल में जिस तरह का पतन हुआ था जनता उससे त्रस्त थी. अंधाधुंध कर, मंहगाई, मंत्रियों और सामंती प्रभुओं का भ्रष्टाचार, कृषि क्षेत्र तथा व्यापार में भारी गिरावट और भयावह अस्थिरता ने राजाओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया था, इसलिए जब रिंचन और उसके बाद के सुल्तानों के समय शान्ति और सुव्यवस्था क़ायम हुई तो जनता की ओर से धर्म के आधार पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. इन राजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और सभी धर्मों का सम्मान किया.

लेकिन रिंचन सिर्फ़ तीन वर्ष तक राज्य कर पाया. विद्रोहियों से युद्ध में घायल होकर जब उसकी मृत्यु हुई तो उसका पुत्र हैदर अभी शिशु ही था. शाह मीर और अन्य दरबारियों की सलाह से रानी ने डोल्चा के आक्रमण के बाद से ही स्वात घाटी में रह रहे राजा सहदेव के छोटे भाई उदयनदेव को राजा नियुक्त कराया तथा उससे विवाह कर रानी पद बरक़रार रखा. उदयनदेव एक कमज़ोर राजा था और राज्य का नियंत्रण कोटा देवी के हाथों में आ गया. इसी समय इतिहास ने खुद को दुहराया. एक तुर्क आक्रमणकारी अचल ने घाटी पर आक्रमण किया तो राजा लद्दाख भाग गया. कमान पूरी तरह से रानी और शाह मीर के हाथों में आ गई. उन्होंने चतुराई से चाल चली और अचल को समर्पण का सन्देश भेज दिया. इससे जब वह निश्चिन्त हो गया और उसने सेना का एक हिस्सा वापस भेज दिया तो रानी, उसके भाई रावणचन्द्र, भट्ट भीक्ष्ण और शाह मीर ने सेना एकत्र कर उस पर हमला किया और बुरी तरह परास्त कर गिरफ़्तार कर लिया. बीच चौराहे पर शाह मीर ने अचल का सर धड़ से अलग कर दिया. अब वे जनता के नज़र में नायक थे. लौटने पर उदयन देव को अपनी भाई की नियति तो नहीं मिली लेकिन वह नाममात्र का राजा रह गया. सत्ता का पूरा नियंत्रण रानी कोटा के हाथों में आ गया. 1338  में राजा की मृत्यु के बाद दोनों के बीच सत्ता के लेकर खींचतान शुरू हुई. रानी कोटा ने ख़ुद को साम्राज्ञी घोषित कर दिया और भट्ट भीक्ष्ण को अपना मंत्री घोषित कर राजधानी अंदरकोट में ले गईं. शाहमीर की महत्त्वाकांक्षाएं अब जाग चुकी थीं. उसने गंभीर रूप से बीमार होने का बहाना किया और जब रानी ने भट्ट भीक्ष्ण, अवत्र और अन्य मंत्रियों को उसे  देखने भेजा तो उनकी हत्या कर दी. इसके बाद  शाह मीर ने मानसबल झील के पास राजमहल को घेर लिया और रानी ने आत्मसमर्पण कर दिया. शाह मीर ने विवाह का प्रस्ताव दिया और रानी ने स्वीकार कर लिया. लोक में एक मान्यता है कि रानी ने उसी रात अपनी कटार पेट में भोंक कर आत्महत्या कर ली. लेकिन जोनाराजा ने बताया है कि एक रात रानी के साथ सोने के बाद शाह मीर ने उसे और उसके दोनों पुत्रों को गिरफ़्तार कर अपनी संभावित प्रतिद्वंद्वी को हमेशा के लिए राह से हटा दिया. रानी की मृत्यु 1339 में हुई और उसके बेटों का इतिहास में फिर कोई ज़िक्र नहीं आता. इस तरह कश्मीर में शाह मीर वंश की स्थापना हुई. इस समय तक दरबार में हिन्दू दरबारियों का बाहुल्य था. धर्म परिवर्तन की कोई बड़ी घटना भी इतिहास में नहीं मिलती. ज़्यादातर सुल्तानों की पत्नियाँ हिन्दू राजाओं या दरबारियों की बेटियाँ थीं और दोनों धर्मों के रहन सहन में कोई ख़ास अंतर न था.

शाहमीर वंश के एक सुल्तान शहाबुद्दीन से जुड़े जोनाराजा द्वारा उद्धरित एक किस्से को उनके धार्मिक आचरण को समझ सकते हैं. उसका प्रेम रानी की सगी बहन की लड़की लास्या से हो गया. वह रानी की शिक़ायत करते रहती थी. एक बार उसने कहा कि मंत्री उदयश्री को अपने पक्ष में करके रानी उस पर जादू टोना करवा रही हैं. सुल्तान ने कहा कि उदयश्री तो ईश्वर को मानता ही नहीं है, इसलिए यह संभव नहीं कि वह जादू टोना करे. लास्या के न मानने पर राजा ने उदयश्री को बुलाया और उससे कहा कि खज़ाना ख़ाली हो चुका है इसलिए पीतल की बनी श्री जयेश्वरी की मूर्ति को पिघला कर सिक्के ढलवा दे. इस पर कोई एतराज़ न करते हुए मंत्री ने कहा कि “लेकिन मूर्ति बड़ी हलकी है, बेहतर होता कि बुद्ध की मूर्ति को पिघलाया जाता उससे अधिक सिक्के ढल जाते. अगले दिन जब मंत्री बुद्ध की मूर्ति तोड़ने के लिए तत्पर हुआ तो सुल्तान ने कहा कि “हमारे पुरखों ने प्रसिद्धि और पुण्य कमाने के लिए मूर्तियाँ बनवाई और तुम उन्हें तोड़ने की बात कर रहे हो. कुछ ने ईश्वरों की मूर्तियाँ बनवा कर यश प्राप्त किया, कुछ ने उनकी नियमित पूजा करके तो कुछ ने उनकी देख रेख करके. उन्हें तोड़ना कितना नृशंस कार्य होगा. सागर नदियाँ और समुद्र बनाकर प्रसिद्ध हुए, भागीरथ गंगा को ज़मीन पर लाकर, इंद्र की प्रतिद्वंद्विता में दुष्यंत विश्वविजय करके प्रसिद्ध हुआ, और राजा राम रावण को मार के. अब यह कहा जाएगा कि शहाबुद्दीन ने भगवान की मूर्तियाँ तुड़वाईं? और यम से भयावह यह तथ्य सुनकर लोग भविष्य में काँपेंगे.[26]” हालाँकि कुछ फ़ारसी स्रोतों में उसे मूर्तिभंजक और हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाला कहा गया है लेकिन अबुल फज़ल या निज़ामुद्दीन के ब्यौरों में इसका कोई ज़िक्र नहीं मिलता, बल्कि इसके उलट सुलतान द्वारा जीर्ण मंदिरों के पुनरुद्धार और प्रशासन में बराबरी की घोषणा का ज़िक्र मिलता है.[27] जोनाराजा का उल्लिखित विवरण भी इस बात की गवाही नहीं देता. जोनाराजा ने ही आगे बताया है कि सुलतान ने उन विद्रोही हिन्दुओं को माफ़ कर दिया जिन्होंने माफ़ी मांग कर उसकी सरपरस्ती स्वीकार कर ली लेकिन उन मुसलमानों को मरवा दिया जिन्होंने ऐसा नहीं किया.[28]

कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत 1379 में कुतुबुद्दीन के शासनकाल में फ़ारसी संत और विद्वान सैयद अली हमदानी का अपने शिष्यों के साथ कश्मीर आगमन से मानी जाती है. सुल्तान ने उनका स्वागत किया श्रीनगर में झेलम के दक्षिणी किनारे पर उन्हें अपना खानकाह बनाने के लिए ज़मीन दी गई और इस तरह खानकाह-ए-मौला के नाम से कश्मीर में पहली खानकाह (सूफ़ी मठ) का निर्माण हुआ. हमदानी ने अपने शागिर्दों को पूरे कश्मीर में धर्म प्रचार के लिए भेजा. साथ ही उसने सुल्तान को शरिया की शिक्षा दी. सुल्तान पर उसके प्रभाव को इससे ही समझा जा सकता है कि उसने  दोनों बहनों में से एक को तलाक़ देकर बड़ी बहन सूरा से फिर से निक़ाह किया. उसके ही प्रभाव में उसने मुस्लिम देशों में पहने जाने वाली वेशभूषा अपनाई और अपने मुकुट के नीचे उसकी दी हुई एक टोपी, क़ुल्लाह-ए-मुबारक़,  पहनने लगा. यह परम्परा तब तक चली जब तक फतह शाह की आख़िरी इच्छा के अनुसार इस टोपी को उनके साथ दफ़ना नहीं दिया गया. सैयद हमदानी के समय तक बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के प्रमाण नहीं मिलते. उनका तरीक़ा आध्यात्मिक बहसों और चमत्कारों वाला था. हालाँकि रिज़वी चमत्कार की इन कथाओं को तवज्जो नहीं देते.[29] वह बताते हैं कि सुलतान के प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने काली मंदिर को तुड़वा कर अपनी खानकाह का निर्माण करवाया था और उनके शिष्यों ने अन्य कई मंदिरों को ध्वस्त करने तथा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराने के काम किये थे. उन्होंने एक सुलहनामा भी लिखा था जिसमें सुल्तान के राज्य में रह रहे हिन्दुओं के लिए नए मंदिरों के निर्माण पर रोक, क्षतिग्रस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण पर रोक, मुस्लिम व्यापारियों को रुकने के लिए अपने घर उपलब्ध कराना, मंदिरों में सूफ़ी संतों को रुकने की इजाज़त देना, घोड़े पर जीन-काठी सहित सवारी न करने, तलवार-तीर रखने पर पाबंदी, अपने धार्मिक रीति रिवाज़ सार्वजनिक रूप से न करना यहाँ तक कि मृतक का शोक भी ऊंचे स्वर में न मनाना और मुसलमान दास न ख़रीदने जैसी बातें थीं.[30] एम आई खान रिज़वी की बातों को खारिज़ तो करते हैं लेकिन सिवाय इस आरोप के कि उन्होंने उस समय के क्रोनिकल्स को जस का तस स्वीकार कर लिया, कोई और तर्क नहीं देते[31]. परमू यह तो बताते हैं कि हमदानी ने अपनी खानकाह बनाने के लिए झेलम के दक्षिणी किनारे की वह जगह चुनी जहाँ काली मंदिर था, लेकिन मंदिर के ध्वंस का कोई ज़िक्र नहीं करते.[32]  कहते हैं उसके हस्तक्षेप से दरबार में हिन्दू दरबारियों के बीच असंतोष फैला तो सुल्तान ने उसकी सारी बातें मानने से इंकार कर दिया और उसे वापस जाना पड़ा. हालाँकि इस तथ्य को लेकर इतिहासकारों में आम  सहमति नहीं है.
लाल द्यद 
इसी दौर में प्रसिद्ध शैव योगिनी लल द्यद का प्रभाव भी बढ़ा. वह हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों, मूर्ति पूजा, आडम्बर और जाति प्रथा का विरोध करती थीं. उनकी लिखी कविताओं को वाख (वाक्य) कहा जाता है और कश्मीरी भाषा में लिखे गए ये वाख अब तक कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं. तमाम ब्राह्मणवादी कुरीतिओं पर यह हमला वहाँ के हमदानी के साथ आये सूफ़ी आन्दोलन और इस्लामीकरण के लिए पूर्वपीठिका बना. इसे समझने के लिए उस दौर के धर्म परिवर्तनों को हमें एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. धर्म का परिवर्तन वस्तुतः सांस्कृतिक श्रेष्ठता की स्थापना और वर्चस्व का सवाल था, एक नए धर्म के रूप में इस्लाम के माननेवालों में एक मिशनरी जज़्बा तो था ही अधिक से अधिक लोगों को मुसलमान बना लेने का साथ ही अपने तांत्रिक तरीक़ों और ब्राह्मणवादी आचारों से हिन्दू धर्म उस समय ऐसी स्थिति में पहुँच चुका था कि  डी एच लारेंस ने लिखा है “हिन्दू समाज भ्रष्ट हो गया था. पुरुष असहिष्णु, अय्याश और पतित थे और स्त्रियाँ उससे बेहतर नहीं थीं जैसा उन्होंने उन्हें बनाया था. जादू टोने और चमत्कारों की भरमार थी”. हमने पिछले अध्यायों में राजाओं के किस्सों में समाज के पतन की इन्तेहा देखी हैं. उस दौर में स्त्रियों की दशा बेहद ख़राब थी और वैश्यावृत्ति, नैतिक भ्रष्टाचार, देवदासी प्रथा और सती प्रथा जैसी व्यवस्थाएं उनके जीवन को नर्क बना रही थीं. कल्हण ने ऐसे तमाम हृदयविदारक किस्से राजतरंगिणी में  बयान  किये  हैं. ऐसे में जब लल द्यद मूर्तिपूजा के खंडन, एकेश्वरवाद और योग के तीन सरल आधारों पर धर्म की स्थापना करती हैं तो यह सूफ़ी संतों के लिए बहुत सुविधाजनक हो जाता है. पहली दो चीज़ें तो थी हीं इस्लाम में, योग के समकक्ष था सूफ़ी समाज में प्रचलित “ज़िक्र” जो श्वास नियन्त्रण का अभ्यास है. इस तरह लल की शिक्षाएँ परोक्ष रूप से इस्लाम के लिए अनुकूल माहौल बनाने में सहायक हुईं. आम भाषा में मूर्तिपूजा  और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का उनका विरोध भ्रष्ट ब्राह्मण समाज को सुधारने की इस्लाम के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ.[33] यही वज़ह है कि आज भी उनकी रचनाएं कश्मीर के मुसलमानों की जुबान पर हैं और वे उन्हें उसी आदर और श्रद्धा के साथ लल आरिफ़ा और राबिया[3] सानी के नाम से याद करते हैं. ब्राह्मणवादी प्रपंचों से त्रस्त ग़ैर-सवर्ण हिन्दू समाज के लिए जाति-पांति का भेद न करने वाला इस्लाम मुक्तिदाता की तरह भी था. उसने धीरे धीरे लोगों को नैतिक और सामाजिक बल दिया. उनमें एक नए धर्म के साथ शक्ति का संचार हुआ जो साधारण था, बोधगम्य था और व्यवहारिक था. इसने सदियों पुराने विभाजनकारी सामाजिक ढांचों को ध्वस्त कर दिया. [34], जैसा कि रतन लाल हंगलू कहते हैं कि ऐसे माहौल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पीड़ितों ने किसी सीधे विरोध की जगह इस्लाम अपनाने को मूक अहिंसक विद्रोह की तरह लिया.[35]

सिकन्दर ‘बुतशिकन’

लेकिन सुल्तान सिकंदर का समय आते-आते परिस्थितियाँ बदल गईं. 1393 में सैयद अली हमदानी के साहबज़ादे मीर सैयद मुहम्मद हमदानी (1372-1450) की सरपरस्ती में सूफी संतों और उलेमाओं की दूसरी खेप कश्मीर आई. अपने पिता के विपरीत मीर हमदानी इस्लाम की स्थापना के लिए हर तरह की ज़ोर ज़बरदस्ती का हामी था या  यों  कहें  कि  तब  तक  इसके  लिए  अनुकूल  माहौल बन  चुका था. कश्मीर में उसी समय सक्रिय सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ियों के विपरीत उसने इस्लामीकरण के लिए मिशनरी ज़ज्बे से काम किये और सिकन्दर पर अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करते हुए 12 सालों के कश्मीर प्रवास में सत्ता और धर्म के चरित्र को इस कदर बदल कर रख दिया उसे में सिकन्दर बुतशिक़न के नाम से जाना गया. हमदानी के प्रभाव में सबसे पहले जो लोग आये उनमें सुल्तान का ताक़तवर मंत्री सुहा भट्ट था. हमदानी ने उसका धर्म परिवर्तन कर मलिक सैफुद्दीन का नाम दिया और उसकी बेटी से विवाह किया. सुहा भट्ट ने कालान्तर में अपनी क्रूरता से सबको पीछे छोड़ दिया और सिकन्दर के नेतृत्व में कश्मीर में मंदिरों के ध्वंस और धर्मपरिवर्तन का संचालक बना. इस दौर को कश्मीर में ताक़त के ज़ोर से इस्लामीकरण का दौर कहा जा सकता है जिसके बारे में जोनाराजा ने कहा है कि “जनता का सौभाग्य उनका साथ छोड़ गया, सुल्तान राजधर्म भूल गया और दिन रात मूर्तियाँ तोड़ने में आनंद लेने लगा.”  फ़रिश्ता ने लिखा है कि सुहा भट्ट के प्रभाव में सुल्तान ने शराब, संगीत, नृत्य और जुए पर पाबंदी लगा दी, हिन्दुओं पर जज़िया लगा दिया गया और माथे पर कश्का (तिलक) लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया, सोने और चाँदी की सभी मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों में तब्दील कर दिया गया और सभी हिन्दुओं को मुसलमान बन जाने के आदेश दिए गए. हालाँकि इसी धार्मिक पागलपन के चलते सती प्रथा पर जो बंदिश लगी उसने कश्मीर से इस कुप्रथा का लगभग अंत ही कर दिया.कश्मीर में अफ़रातफ़री मच गई, मार्तंड, अवन्तीश्वर, चक्रधर, त्रिपुरेश्वर, सुरेश्वर और पारसपुर के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया. हिन्दुओं के सामने इस्लाम अपनाने, देश छोड़ देने या आत्महत्या करने के ही विकल्प बचे थे. बड़ी संख्या में लोगों ने धर्म परिवर्तन स्वीकार कर लिया. केवल कुछ ब्राह्मणों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उनमें से अधिकाँश ने देश छोड़ दिया और बाक़ी ने आत्महत्या कर ली. कुछ विद्वानों ने तो माना है कि उस दौर में बस 11 कश्मीरी पंडित परिवार बचे थे.[36] जोनाराजा की मानें तो कोई मंदिर साबुत नहीं बचा था.

लेकिन उसी दौर में सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ी भी थे जिनके दबाव में आखिरकार सुलतान को इस्लामीकरण की सीमा तय करनी पड़ी और जज़िया कम करने के साथ कुछ और क़दम उठाने पड़े. इन क़दमों से मीर हमदानी इतना आहत हुआ कि 12 साल के प्रवास के बाद अपने पिता की ही तरह अपने कई महत्त्वपूर्ण शिष्यों को इस्लाम का प्रचार जारी रखने के लिए छोड़कर वह भी कश्मीर से चला गया. वर्तमान मीरवायज़ हमदानी के उन शिष्यों में से एक सिद्दीकुल्लाह त्राली के खानदान से हैं जो उस समय त्राल में बसे लेकिन बाद में श्रीनगर आ गए थे. बाद के दौर में ऋषि आन्दोलन से ज़ोर पकड़ा और कश्मीर में अंततः जो इस्लाम स्थापित हुआ वह बाहर से आये सूफिओं का भी नहीं बल्कि स्थानीय ऋषियों का इस्लाम था जिसके नायक नन्द ऋषि ऊर्फ शेख नुरूद्द्दीन थे. मान्यता है कि नन्द ऋषि को लल द्यद ने अपना दूध पिलाया था. सादा जीवन, त्याग, समानता और साम्प्रदायिक सद्भाव वाला यह इस्लाम उन्नीस सौ साठ के दशक में अहले हदीस और जमात जैसे कट्टरपंथी आन्दोलनों के पहले तक वहां बना रहा.

1413 में सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसका बेटा अली शाह जब गद्दी पर बैठा तो सत्ता पूरी तरह सुहा भट्ट के हाथ में थी और उसने अपना साम्प्रदायिक अभियान और क्रूरता से चलाया. जोनराजा बताते हैं कि सिकन्दर का नियंत्रण समाप्त होने बाद उसकी क्रूरताएँ और बढ़ गईं. अपने पूर्व समुदाय को उसने तलवार की नोक पर मुस्लिम बनाया. मौलानाओं ने सुलतान से मनमुताबिक नीतियाँ बनवाईं. लेकिन यह आज़ादी केवल चार साल चल पाई. 1417 में जब सुहा भट्ट की मौत तपेदिक से हुई तो क्रूरताओं से कराहते कश्मीर की एक स्वर्णयुग प्रतीक्षा कर रहा था.

ज़ैनुलआब्दीन : ‘बड शाह’

अली  शाह  के  छोटे भाई शाही खान उसे सत्ता से अपदस्थ कर ज़ैनुल आब्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा और उसने अपने पिता तथा भाई की साम्प्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया. उसका आधी सदी का शासन काल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है. जनता के हित में किये उसके कार्यों के कारण ही कश्मीरी इतिहास में उसे बड शाह यानी महान शासक कहा जाता है. ज़ैनु-उल-आब्दीन का सबसे बड़ा क़दम धार्मिक भेदभाव की नीति का ख़ात्मा करना था. अपने पिता और भाई के विपरीत उसने हिन्दुओं के प्रति दोस्ताना रुख अपनाया और उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता दी. एम डी सूफ़ी तबाक़त ए अक़बरी के हवाले से बताते हैं कि सुल्तान ने हिन्दुओं से अपने धर्म ग्रन्थों में लिखी बातों का उल्लंघन न करने का राजीनामा लेकर सिकंदर के समय में बने उन तमाम क़ानूनों को रद्द कर दिया जो धार्मिक असमानता पर आधारित थे. जज़िया की दर चाँदी के दो पल (सिक्कों) से घटाकर एक माशा चाँदी कर दिया और इसे भी कभी वसूला नहीं गया. इसी तरह हिन्दुओं की अंत्येष्टि पर लगाया कर भी समाप्त कर दिया गया. तिलक लगाने आदि पर लगी रोक को हटाकर धार्मिक मामलों में पूरी आज़ादी दी गई. सौहार्द्र बढ़ाने का एक बड़ा क़दम उठाते हुए गो हत्या पर पाबंदी लगा दी गई. जो हिन्दू कश्मीर छोड़कर जम्मू सहित दूसरी जगहों पर जा बसे थे उन्हें वापस बुलाया गया और जिन्होंने भय से धर्म परिवर्तन कर लिया था उन्हें फिर से अपने धर्म में लौटने की सहूलियत दी गई. टूटे हुए मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया गया और कई नए मंदिर बनवाये भी गए. पंडित श्रीवर बताते हैं कि महल के भीतर के कई मंदिरों का सुल्तान ने जीर्णोद्धार कराया और नए मंदिर भी बनवाये. श्रीनगर में रैनावारी में हिन्दू राजाओं द्वारा तीर्थयात्रियों के भोजन आदि के व्यवस्था के लिए बनाए गए स्थान को उसने और विस्तृत कराकर उनके रुकने की व्यवस्था भी की. हिन्दू बच्चों के लिए पाठशालाएं खोलीं गईं तथा संस्कृत सीखने के लिए छात्रों को छात्रवृत्ति देकर दकन और बनारस भेजा गया. मंदिरों और पाठशालाओं की देखरेख के लिए उन्हें जागीरें दी गईं. कई हिन्दुओं और बौद्धों को शासन के उच्च पदों पर नियुक्ति दी गई. साथ में राज्य सेवाओं में निचले स्तरों पर भी उन्हें अवसर दिए गए. इसी काल में कश्मीरी हिन्दुओं के बीच “कारकून” और “पुजारी (बछ भट्ट)” जैसी दो श्रेणियों का विकास हुआ, जिनमें आपस में शादी ब्याह नहीं होता. कारकून श्रेणी के पंडितों ने फ़ारसी सीखी और शासन व्यवस्था में शामिल हुए. एक तीसरी श्रेणी ज्योतिषियों की विकसित हुई जिनका कारकूनों के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध होता है. ज़ाहिर है पुजारी वर्ग स्वयं को सबसे उच्च मानता है. संस्कृत के अलावा इस दौर में हिन्दुओं ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया. मुंशी मुहम्मद-उद-दीन की किताब तारीख़-ए-अक्वान-ए-कश्मीर के हवाले से सूफ़ी बताते हैं कि जिन हिन्दुओं ने सबसे पहले फ़ारसी और इस्लामी साहित्य की तालीम हासिल की वे सप्रू थे. सर मोहम्मद इक़बाल इसी वंश के थे जिनके परिवार ने औरंगज़ेब के समय इस्लाम स्वीकार कर लिया था. इस वंश के दूसरे प्रतिष्ठित नाम सर तेज़ बहादुर सप्रू थे. मैंने उस दौर पर लिखी बीसियों किताबें पढ़ते तमाम मुद्दों पर असहमत लेखकों और इतिहासकारों को ज़ैन उल आब्दीन के शासनकाल की मुक्त कंठ प्रशंसा में लगभग एक स्वर में करते पाया है, और उसकी सबसे बड़ी वज़ह है ज़ैन उल आब्दीन का जनता के प्रति अथाह स्नेह और समर्पण. उसके पचास साल के शासन काल में कश्मीर के सामाजिक-आर्थिक –सांस्कृतिक जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जो अनछुआ छूटा हो. धार्मिक सहिष्णुता, आर्थिक स्वावलंबन, राजनैतिक स्थिरता, सांस्कृतिक उत्थान और ज्ञान-विज्ञान का आम जन तक प्रसार ऐसे क़दम थे जिन्होंने कश्मीर को पूरी तरह बदल दिया. उसके बनवाये तमाम भवन भले समय की मार से नष्ट हो गए हैं, लेकिन उसके दौर में विकसित हुए जीवन मूल्य कश्मीर के सामाजिक जीवन में आज भी मौज़ूद हैं और इन अँधेरे वक्तों में भी उम्मीद की लौ की तरह टिमटिमाते हैं.

ज़ैना कदाल 

लेकिन उसकी मृत्यु के बाद शाह मीर वंश का पतन शुरू हो गया और 1540 में हुमायूं के एक सिपहसलार मिर्ज़ा हैदर दुगलत ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. उसका शासनकाल 1561 में समाप्त हुआ जब स्थानीय लोगों के एक विद्रोह में उसकी हत्या कर दी गई. उसके बाद चले सत्ता संघर्ष में चक विजयी हुए और अगले 27 सालों तक कश्मीर में लूट, षड्यंत्र और अत्याचार का बोलबाला इस क़दर हुआ कि कश्मीर के कुलीनों के एक धड़े ने बादशाह अकबर से हस्तक्षेप की अपील की. अकबर की सेना ने 1589 में कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया और इस तरह कश्मीर मुग़ल शासन के अधीन आ गया. इस खूनखराबे के बीच आख़िरी चक सुल्तान युसुफ शाह और उसकी प्रेमिका हब्बा ख़ातून का एक मासूम सा क़िस्सा भी है. अकबर द्वारा गिरफ़्तार युसुफ के बिछोह में लिखे हब्बा ख़ातून के गीत आज भी कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं.

हब्बा खातून 

कश्मीरी प्रजा : गैर कश्मीरी शासक

16 अक्टूबर 1586 को जब मुग़ल सिपहसालार कासिम खान मीर ने याक़ूब खान को हराकर कश्मीर पर मुग़लिया सल्तनत का परचम फ़हराया तो फिर अगले 361 सालों तक घाटी पर ग़ैर कश्मीरियों का शासन रहा- मुग़ल, अफ़गान, सिख, डोगरे.

1589 में जून के महीने में अकबर पहली बार श्रीनगर पहुँचा और उसने जो पहले दो काम किये वे थे एकसमान और न्यायपूर्ण लगान तय करना तथा हिन्दुओं पर लगा जज़िया हटाना. उस समय तक हर पुजारी को साल के 40 पण सुल्तान को भेंट के रूप देने पड़ते थे, अकबर ने इस प्रथा तथा ऐसे तमाम नियमों को रद्द करवा दिया जो साम्प्रदायिक भेदभाव प्रकट करते थे.[37] उसके समय में कश्मीरी पंडित एक बार फिर दरबार में प्रविष्ट हुए और पंडित तोताराम पेशकार के पद तक पहुँचे. डल झील पर हाउसबोटों का विचार सबसे पहले अकबर को ही आया था और आज भी डल पर तैरती हाउसबोट कश्मीर के ख़ुशनुमा दिनों का प्रतीक सी लगती है. उसकी दूसरी यात्रा के समय दीवाली का त्यौहार था और बादशाह ने झेलम नदी में जहाज़ों और आसपास के पूरे क्षेत्र में दिए जलवाए. 1597 में जब वह तीसरी बार कश्मीर गया तो अकाल पड़ा हुआ था, अकबर ने लोगों को आर्थिक सहायता देने की जगह निर्माण कार्य शुरू करवाए और उचित मज़दूरी दी जिससे अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ गई. कुल मिलाकर अकबर से लेकर शाहजहाँ तक का समय बाहरी राज्य के बावज़ूद कश्मीर की जनता के लिए सुख और समृद्धि का समय था. जहाँगीर का कश्मीर प्रेम तो जग प्रसिद्ध है, उसका बनवाया मुग़ल गार्डेन आज भी अपनी ख़ूबसूरती में दुनिया के किसी बाग़ को शर्मिन्दा कर सकता है. कहते हैं मृत्युशैया पर जब उसकी आख़िरी इच्छा पूछी गई तो उसने कहा – कश्मीर. कश्मीर की आर्थिक प्रगति तो हुई इस काल में लेकिन मोहम्मद इशाक खान अपनी किताब “पर्सपेक्टिव्स ऑफ़ कश्मीर” में एक जायज़ सवाल उठाते हैं कि – इस काल में कश्मीर में सांस्कृतिक, साहित्यिक प्रगति क्यों रुक गई थी?

औरंगज़ेब का समय आते आते स्थितियाँ बदलीं, उसने अपनी कट्टरपंथी नीतियाँ वहां लागू करने की कोशिश की. सिर्फ हिन्दू ही इसका शिकार नहीं हुए बल्कि कश्मीर की अल्पसंख्यक शिया आबादी के साथ भी दुश्मनाना व्यवहार हुआ. उसके बाद मुग़ल शासन के पतन के साथ साथ कश्मीर में भी स्थितियाँ बदतर हुईं. अगले 46 सालों में कश्मीर में 57 गवर्नर बदले. बहादुर शाह के वक़्त कश्मीर का गवर्नर बना महताबी खान उर्फ़ मुल्ला अब्दुन नबी. हिन्दुओं और शियाओं पर उसने वो वो कहर किये कि इंसानियत काँप जाए. 1720 में शियाओं और पंडितों ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और मुल्ला मारा गया. लेकिन उसके बेटे मुल्ला सैफरुद्दीन ने बदला लिया और शिया मुहल्ला ज़ादीबल ख़ाक में तब्दील हो गया. साल भर बाद दिल्ली से आये अब्दुर समद खान ने उसे गिरफ़्तार कर पचास सिपहसालारों के साथ मौत की सज़ा तो दी लेकिन हालात बिगड़ते चले गए. 1724, 1735 और 1746 में आई बाढ़ में कश्मीर तबाही की कगार पर पहुँच गया. दिल्ली में कमज़ोर हो चुकी सल्तनत के हाथ से कश्मीर का जाना अब वक़्त की बात थी और 1753 में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया.[38]

अफगान और  सिख : क्रूरता  के  साल  

 अफगानों के अत्याचार की कथाएं आज तक कश्मीर में सुनी जा सकती हैं, अगले 67 सालों तक पांच अलग अलग गवर्नरों के राज में कश्मीर लूटा-खसोटा जाता रहा. अफगान शासन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें प्रशासनिक पदों पर स्थानीय मुसलमानों की जगह कश्मीर पंडितों को तरज़ीह दी गई. “ट्रेवेल्स इन कश्मीर एंड पंजाब” में बैरन ह्यूगल लिखते हैं कि पठान गवर्नरों के राज में लगभग सभी व्यापारों और रोज़गारों के सर्वोच्च पदों पर कश्मीरी ब्राह्मण पदासीन थे. संयोग ही है कि अफगान शासन के अंत के लिए भी एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ही जिम्मेदार हैं. आख़िरी गवर्नर आज़िम खान के समय दीवान थे पंडित सहज राम सप्रू, मुख्य सचिव थे पंडित हर दास और राजस्व विभाग बीरबल धर, मिर्जा धर और पंडित सुखराम सफाया के पास था. यहाँ यह बता देना समीचीन होगा कि मुगलों के समय राजस्व विभाग पर पंडितों का जो कब्ज़ा हुआ वह डोगरा काल तक बना रहा. छः सालों तक लगातार उपज कम होने के चलते अकाल पड़ा तो गाज बीरबल धर पर पड़ी. बीरबल धर ने लाहौर दरबार के सिख महाराज रणजीत सिंह से मदद मांगने की ठानी और एक ग्वाले कुद्दुस गोजरी के यहाँ अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ जम्मू के राजा गुलाब सिंह की मदद से वह लाहौर दरबार पहुँचे जहाँ गुलाब सिंह के भाई राजा ध्यान सिंह प्रधानमंत्री थे. मौसम अनुकूल था, रणजीत सिंह ने तनिक देर न लगाई, किसी संभावित धोखे के ख़तरे को टालने के लिए सुखराम के बेटे को लाहौर में बंधक रखा और अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के नेतृत्व में  हरि सिंह नलवा सहित अपने सबसे क़ाबिल सरदारों के साथ तीस हज़ार की फौज रवाना की. आज़िम खान अपने भाई जब्बार खान के भरोसे कश्मीर को छोड़कर काबुल भाग गया लेकिन बीरबल धर के सगे दामाद त्रिलोक चंद की गद्दारी के चलते कुद्दुस गोजरी परिवार सहित मारा गया, बीरबल धर की पत्नी ने आत्महत्या कर ली और उनकी बहू को काबुल भेज दिया गया. यह थी उन दिनों की नैतिकता जिसे सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम के पैमाने पर देखना थ्री डी फ़िल्म को चश्मा उतार कर देखने जैसा होगा. खैर, इस तरह 15 जून 1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई, बीरबल धर फिर से राजस्व विभाग के प्रमुख बनाये गए और मिस्र दीवान चंद कश्मीर के गवर्नर. दीवान चंद के बाद कश्मीर की कमान आई मोती चंद के हाथों और शुरू हुआ मुसलमानों के उत्पीड़न का दौर. श्रीनगर की जामा मस्ज़िद बंद कर दी गई, अजान पर पाबंदी लगा दी गई, गोकशी की सज़ा अब मौत थी और सैकड़ों कसाइयों को सरेआम फाँसी दे दी गई. उसके एक सिपहसालार फूला सिंह ने तो शाह हमादान की खानकाह को बारूद से उड़ा ही दिया था मगर कश्मीर के रहवासी बीरबल धर को उसका महत्त्व पता था और खानकाह बच गई.  धार्मिक कट्टरपन का आतंक अभी ख़त्म नहीं हुआ था कि नए गवर्नर हरि सिंह नलवा ने वहां लूट-खसोट की सीमाएं पार कर दीं, इस हद तक कि यह बीरबल धर के लिए भी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त था. किसानों में त्राहि-त्राहि मच गई और ऐसा अकाल पड़ा कि आठ लाख रहवासियों वाली घाटी में बस दो लाख लोग ज़िंदा बचे.[39]

गुलाब सिंह 

डोगरा राजवंश : अंग्रेज़ों  के  ज़रखरीद ग़ुलाम

1839 में रणजीत सिंह की मौत के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा. अंग्रेज़ों के लिए यह अफगानिस्तान की ख़तरनाक सीमा पर नियंत्रण का मौक़ा था तो जम्मू के राजा गुलाब सिंह के लिए खुद को स्वतंत्र घोषित करने का. लाहौर में फैली अफरातफरी का फ़ायदा उठा कर अंग्रेज़ों ने 1845 में लाहौर पर आक्रमण कर दिया और अंततः दस फरवरी 1846 को सोबरांव के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की और रणजीत सिंह के साथ 1909 में हुई मित्रता संधि के उल्लंघन का आरोप उल्टा उनके पुत्र दलीप सिंह पर लगाकर उसे अपने संरक्षण में पंजाब का राजा बनाने के बदले डेढ़ करोड़ रुपयों की मांग करते हुए 9 मार्च 1946 को लाहौर की संधि की. दलीप सिंह की धन देने में असमर्थता की आड़ में उनके सभी किलों, ज़मीन-ज़ायदाद और ब्यास से सिंधु तक के बीच का सारा क्षेत्र अब ब्रिटिश सरकार की संपत्ति बन गया जिसमें कश्मीर और हज़ारा भी शामिल थे. इसके बाद 16 मार्च, 1846 को अंग्रेज़ों ने गुलाब सिंह के साथ अमृतसर संधि की जिसमें 75 लाख रुपयों के बदले उन्हें सिंधु के पूरब और रावी नदी के पश्चिम का जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के इलाक़े की सार्वभौम सत्ता दी गई, गुलाब सिंह अंग्रेज़ों से यह समझौता पहले ही कर चुका था बस कोशिश क़ीमत कम कराने की थी जो संभव नहीं हुआ.[40] इस तरह अपने पूर्व शासक रणजीत सिंह के बेटे को धोखा देकर 75 लाख रुपयों के बदले गुलाब सिंह ने जम्मू और कश्मीर का राज्य अंग्रेज़ों से ख़रीदा और यह इतिहास में पहली बार हुआ कि ये तीन क्षेत्र एक साथ मिलकर स्वतन्त्र राज्य बने.[41] ख़ुद को अंग्रेज़ों का ज़रख़रीद ग़ुलाम कहने वाला[42] यह राजा और उसका खानदान ताउम्र अंग्रेज़ों का वफ़ादार रहा, 1857 का राष्ट्रीय विद्रोह हो कि तीस के दशक में पनपे अनेक राष्ट्रीय आन्दोलन, कश्मीर के राजाओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लगने वाले किसी भी विद्रोह को अपनी ज़मीन पर पनपने नहीं दिया, उन्होंने क़ीमत दी थी कश्मीर की और उसे हर क़ीमत पर वसूलना था. किसानों और बुनकरों से इस दर्ज़ा टैक्स वसूला गया कि उनका जीना मुहाल हो गया. कश्मीरी शाल तब तक नेपोलियन की पत्नी के पहने जाने के बाद यूरोप में फ़ैशन बन गई थी. मांग बढ़ी और उत्पादन भी लेकिन इसका लाभ टैक्स के रूप में राजा के खज़ाने में गया. अनाज अब राजा खुद बेचता था. कालाबाज़ारी हद से अधिक बढ़ गई. एक तरफ किसानों को लगान के रूप में आधी से अधिक फसल के अलावा तमाम टैक्स देने पड़ते थे तो दूसरी तरफ़ बाज़ार में उसकी क़ीमत दुगनी हो गई. राजस्व विभाग पर वर्षों से कब्ज़ा जमाए बैठे कश्मीरी पंडितों ने इस तबाही का फ़ायदा अपनी तरह से उठाया और क़र्ज़ ने डूबे किसानों की ज़मीनें कब्जाईं. यहाँ यह जान लेना बेहतर होगा कि आबादी का लगभग 93 फ़ीसद हिस्सा होने के बावज़ूद मुसलमानों के पास संपत्ति का दस फ़ीसद हिस्सा भी नहीं था, हाँ परम्परागत रूप से रईस तथा कुछ धार्मिक नेताओं की संपत्तियां सुरक्षित रहीं, फलती फूलती रहीं. अंग्रेज़ों ने भी राजा का पूरा साथ दिया और उसकी नीतियों से त्रस्त जनता की सारी शिक़ायतें एक कान से सुने बिना ही अक्सर लौटा दीं. आख़िर उनके लिए कश्मीर एक सुरक्षित स्वर्ग था तफ़रीह और अय्याशी के लिए और गुलाब सिंह जैसे मेज़बान को छोड़कर ग़रीब किसानों और बुनकरों की आवाज़ भला वह क्यों सुनते?[43] गुलाब सिंह के रहते तो कश्मीर में उन्होंने अपना रीजेंट भी नहीं नियुक्त किया.

डोगरा और पंजाबियों के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों को प्रशासन और खासतौर पर राजस्व विभाग में सबसे ऊंचे पद दिए गए तथा बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमानों का बड़ा हिस्सा खेती-किसानी और बुनकर के पेशे से जुड़ा हुआ था. सिखों के समय से चले आ रहे धार्मिक भेदभाव खासतौर से गुलाब सिंह के पुत्र रणबीर सिंह के दौर में और बढ़ गए. यहाँ एक और बात कहनी ज़रूरी है, आमतौर से माना जाता है कि उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव जैसी कोई चीज़ नहीं थी और अंग्रेज़ गवर्नर लॉरेंस जैसे तमाम लोगों ने लिखा है कि हिन्दू-मुसलमानों में फ़र्क करना ही मुश्किल था. लेकिन इस रूमानी तस्वीर के पीछे सच इतना सीधा नहीं है. पहली बात तो यह कि हिन्दू धर्म के जिस गैरबराबरी के चलते इस्लाम आया था अब वह उसका हिस्सा बन चुकी थी. सुन्नियों में शेख, सैयद, मुग़ल, पठान जैसी ऊंची जातियों के अलावा बकरवाल, डोम और वाटल जैसे नीची जाति के सदस्य भी थे और आपसी शादी ब्याह जातिगत श्रेष्ठताओं से संचालित होता था तो घाटी में 5 प्रतिशत शियाओं के साथ उनका विवाद भी लगातार रहा. 1872 में शिया-सुन्नी विवाद हुआ जिसकी जड़ में भयानक करारोपण से बर्बाद होते शाल उद्योग में बुनकरों का सुन्नी और मालिकान का शिया होना था. 1880 आते आते वहां वहाबी किस्म का कट्टर इस्लाम प्रवेश कर चुका था और पारम्परिक सूफ़ी-ऋषि परम्परा को ग़ैर इस्लामी बता रहा था. इसी के आसपास आर्य समाज सहित हिन्दुओं के कट्टर संगठन बनने लगे थे जो इस्लाम पर सीधा हमला करते थे. आपसी तकरार के तमाम उदाहरण मृदु राय की बेहद महत्त्वपूर्ण किताब ‘हिन्दू रूलर्स एंड मुस्लिम सब्जेक्ट” में मिलते हैं.

एक बड़ा फैसला डोगरा राजाओं ने फ़ारसी की जगह उर्दू को राजभाषा बनाकर किया (जी. कश्मीर में उर्दू मुसलमान नहीं सिख लेकर आये थे) इसका परिणाम यह हुआ कि सदियों से फ़ारसी में प्रशिक्षित कश्मीरी पंडितों के लिए राज्य प्रशासन की परीक्षा पास करना मुश्किल हो गया और पंजाबी प्रशासन में भरने लगे. उसी दौर में पंडितों और डोगराओं ने इसका विरोध किया और राज्य की नौकरी राज्य के निवासियों की जो मांग उठी वह डोगरा शासन की विदाई के बाद तक सुनाई देती रही.

असंतोष की आहटें और सन 31 का आन्दोलन

नौकरी के लिए मैट्रिक की पढ़ाई आवश्यक बना देने के कारण शिक्षा दीक्षा का वहां खूब विस्तार हुआ, लेकिन रोज़गार उस गति से नहीं बढ़े. ऊंचे पद कश्मीरी पंडितों, डोगराओं और सिखों के लिए आरक्षित थे, निचले स्तर पर रोज़गार बहुत कम थे. बेरोज़गारी, 95 फ़ीसद मुस्लिम आबादी के साथ इस कदर अन्याय कि टैक्स और दीगर परेशानियों के साथ-साथ अज़ान तक पर पाबंदी. हालाँकि राजा हरि सिंह ने मीरवायज़ सहित कुछ एलीट मुस्लिमों वाली अंजुमन-ए-नुसरत-उल-इस्लाम को संरक्षण दिया था[44], लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं थी. यह सारा गुस्सा फूटना ही था. वक़्त बदल रहा था. दुनिया भर में चल रहे मुक्ति आन्दोलन की आहट कश्मीर पहुँच रही थी. तीस का दशक आते आते पढ़े लिखे मुस्लिम लड़के मुस्लिम रीडिंग रूम में पढने और बहस करने लगे. उन्हीं में से एक थे मामूली गड़रिया परिवार से निकलकर जम्मू, लाहौर और फिर अलीगढ़ से विज्ञान में एम एस  सी करके लौटे शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह, जिन्हें मुस्लिम होने के कारण राज्य प्रशासन में जगह नहीं मिली और उस वक़्त एक हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे.  1931 में 21 जून को इन्हीं में से एक अब्दुल क़ादिर को जब शाह हमादान के ऐतिहासिक खानकाह पर राजा के ख़िलाफ़ भाषण देने के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया तो यह गुस्सा सड़कों पर फूटा. हज़ारो नौजवान आन्दोलन की राह पर उतर पड़े. पंडितों के विशेषाधिकार पर दबा वर्षों का क्रोध उनके घरों और दुकानों पर हुए हमले के रूप में निकला तो आन्दोलन ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया. हालात बिगड़े और दमन चक्र चला. एक सिपाही ने जेल में बंद आन्दोलनकारियों के सामने ही क़ुरान फाड़ डाली तो मामला एकदम बिगड़ गया. और अधिक दमन से आन्दोलन फौरी तौर पर दबा तो दिया गया लेकिन तब उठी मांग निष्पक्ष जांच की. राजा हरि सिंह ने शुरू में इंकार किया लेकिन फिर दबना पड़ा. जांच रिपोर्ट ने राजा की साम्प्रदायिक नीतियों पर सवाल उठाया और मज़बूरन उसे कुछ नीतियाँ बदलनी पड़ीं. लेकिन अब यह साफ था कि मेयो कॉलेज से पढ़े और अक्सर विदेशों में रहने वाले रंगीन मिजाज़ हरि सिंह के लिए अह आक्रोश संभालना आसान नहीं था और अँगरेज़ किसी मौके का फायदा उठाने से चूकने वालों में से नहीं थे.[45]


शेख अब्दुल्लाह 

इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का जन्म हुआ और शेख अब्दुल्लाह इसके पहले अध्यक्ष बने. जल्द ही इसे अपनी मुस्लिम पहचान खोकर समाजवादी विचार के क़रीब एक ऐसा संगठन बनना था जिसमें कश्मीरी पंडितों की भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी हुई और जो आने वाले समय में कश्मीर का सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन बना – नेशनल कॉन्फ्रेंस.     

भारत-पाकिस्तान-कश्मीर

सैंतालीस जैसे जैसे क़रीब आ रहा था भारतीय उपमहाद्वीप में हलचलें और बेचैनियाँ बढ़ती जा रही थीं. जिस अंग्रेज़ी छत्रछाया में राजे-रजवाड़े डेढ़ सौ साल से अय्याशी कर रहे थे वह अब हटने वाली थी, हिन्दुस्तान का दो हिस्सों में बंटना लगभग तय था. रजवाड़े येन केन प्रकारेण अपना राज बचाए रखना चाहते थे लेकिन इतिहास अब उस दौर को पीछे छोड़ने ही वाला था. हरि सिंह बाक़ी राजाओं से अलग कैसे हो सकता था. 

शेख अब्दुल्लाह इकतीस के आन्दोलन के बाद कश्मीर में अवाम के सबसे बड़े नेता बनकर उभरने लगे थे. अब वह सिर्फ़ मुसलमानों की बात नहीं कर रहे थे. 1932 में उन्होंने कहा – हमारे देश (कश्मीर) की प्रगति तब तक असंभव है जब तक हम यहाँ के विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित न कर लें.” यह कश्मीरियत की तरफ़ बढ़ा हुआ क़दम था – कश्मीरियत यानी धार्मिक अभिमान से ऊपर क्षेत्रीय स्वाभिमान. भारत में चले सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की आग वहां पहुँची और राजा को “प्रजा सभा” बनानी पड़ी जिसके 75 सदस्यों में से तैंतीस को चुना हुआ होना था, मिन्टो-मार्ले के आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व के फ़ार्मूले से इसमें 21 मुसलमान, दस हिन्दू और दो सिख सदस्य चुने जाने थे. औरतें और अनपढ़ तो वोट देने के अधिकार से वंचित रखे ही गए 400 रुपये सालाना से कम आय वालों को भी वोट देने का अधिकार नहीं दिया गया. अधिकार सारे राजा के पास. शेख अब्दुल्लाह ने ऐसी असेम्बली को मान्यता देने से इंकार कर दिया. अब वह राज्य की सारी मेहनतकश अवाम का नेतृत्व कर रहे थे. 1937 में जब मज़दूरों का आन्दोलन हुआ तो धर्म पीछे छूट गया. अंततः 11 जून 1939 को पार्टी के नाम से मुस्लिम हटाकर उसे “नेशनल कॉन्फ्रेंस” बनाया गया और जब 28 जून को उसमें हिन्दुओं सहित सभी धर्मों/जातीयों के प्रवेश का प्रस्ताव रखा गया तो रात भर चली बहस के बाद 179 सदस्यों की कार्यसमिति में से बस तीन ने इसका विरोध किया. इसके साथ ही यह पार्टी भारत की आज़ादी में सामंतवाद और उपनिवेशवाद के दोहरे जुए को उतार फेंकने के लिए लड़ रही पार्टियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई, अब वह कांग्रेस की सहयोगी पार्टी थी. जवाहर लाल नेहरू और शेख की दोस्ती दो स्वप्नदर्शियों की दोस्ती थी. शेख की पार्टी ने आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बनना मंज़ूर किया और शेख 46 में इसके अध्यक्ष बनाये गए. नेहरु ने कहा कि कश्मीरी लोग भारत की वृहत्तर आज़ादी में अपनी आज़ादी हासिल करेंगे. शेख ने साथ दिया और भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कांग्रेस का साथ दिया. मुस्लिम कट्टरपंथी धड़ा जिन्ना के साथ था. 1941 में ग़ुलाम अब्बास के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की सहायता से मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को फिर से जीवित किया गया. 44 में जिन्ना जब कश्मीर आये तो शेख से मिले तो लेकिन अगले ही दिन मुसलमानों से एक कलमा और एक ख़ुदा का हवाला देकर कश्मीर की आज़ादी को एक मुस्लिम काज़ बताया और मुस्लिम कांफ्रेंस में शामिल होने की अपील की. शेर ए कश्मीर ने जवाब देने में देर नहीं की – इस धरती की मुश्किलात केवल हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों को साथ लेकर दूर की जा सकती है.  

कश्मीर में आन्दोलन तेज़ हो रहा था. 46 का साल आते-आते शेख कश्मीरी जनता के निर्विवाद नेता बन चुके थे. इस हैसियत से कश्मीर का भविष्य तय करने के लिए उन्होंने राजा हरि सिंह से बात करने के लिए बम्बई तक जाना मंज़ूर किया जहाँ राजा अक्सर रहा करते थे. पर हरि सिंह ने बात करने से इंकार कर दिया. अंततः उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा आन्दोलन शुरू किया – कश्मीर छोड़ो आन्दोलन और घोषणा की कि “कोई पवित्र विक्रय पत्र (इशारा अमृतसर समझौते की तरफ है) चार लाख लोगों की आज़ादी की आकांक्षा को दबा नहीं सकती.”
राजा ने दमन का सहारा लिया. शेख नेहरू से मिलने जाते समय गिरफ़्तार कर लिए गए. नया प्रधानमन्त्री रामचंद्र काक हर आदेश को बढ़ चढ़ कर पूरा करने वाला था. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं पर हर तरह के अत्याचार किये गए. नेहरु ने उनकी मदद के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया. उन्हें कश्मीर में प्रवेश से रोका गया. मज़ेदार बात यह कि इस समय मुस्लिम कॉन्फ्रेंस राजा के साथ खड़ी थी. 47 के मई महीने में अखिल जम्मू और कश्मीर राज्य हिन्दू सभा (जो बाद में जनसंघ और फिर भाजपा की राज्य ईकाई में तब्दील हुई) घोषणा की कि वह हर हाल में राजा के साथ है. उनका फ़ैसला चाहे जो हो. मुस्लिम कॉन्फ्रेंस भी पीछे नहीं थी. चौधरी हमीदुल्लाह ने घोषणा की कि “राजा का जो निर्णय होगा मंज़ूर होगा. अगर पाकिस्तान कश्मीर पर हमला करेगा तो कश्मीर मुसलमान हथियार लिए उसके ख़िलाफ़ खड़े होंगे और ज़रूरी हुआ तो हिन्दुस्तान की मदद भी ली जा सकती है.”   बलराज पुरी जैसे भारत समर्थकों को गद्दार कहा गया. जम्मू से मुल्क राज सर्राफ के सम्पादन में निकलने वाले दैनिक अखबार रणबीर पर भारत समर्थक होने का आरोप लगाकर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.[46]

राजा कशमकश में था. एक तरफ़ जिन्ना हर तरह का लालच दे रहे थे तो दूसरी तरफ़ कश्मीर में जनता का आन्दोलन बढ़ता जा रहा था. माउंटबेटन ने उससे मिलने की कोशिश की तो पेट दर्द का बहाना बनाकर दिल्ली से श्रीनगर आये वायसराय से वह नहीं मिले. वह किसी भी हाल में अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते थे तो शेख के समर्थन से आश्वस्त नेहरु हर हाल में मुस्लिम बहुल कश्मीर को सेकुलर भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे, पटेल एक मुस्लिम बहुल सीमांत इलाक़े को भारत में मिलाने के लिए इस क़दर मुतमइन नहीं थे. उनके सचिव मेनन ने बाद में लिखा कि कश्मीर उस समय उनके दिमाग में था ही नहीं.
इसी बीच जम्मू में साम्प्रदायिक तनाव फ़ैल गया. 19 जुलाई 47 को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने आज़ादी के समर्थन में प्रस्ताव पास किया और पाकिस्तान के साथ समझौता कर उसका स्वतंत्र उपनिवेश बन जाने की हिमायत की. अब हिन्दू सभा ने भी भारत से जुड़ने की बात धीमे शब्दों में कहनी शुरू की. 15 अगस्त 47 को पाकिस्तान ने राजा का स्टैंड स्टिल प्रस्ताव मान लिया जिसके तहत लाहौर सर्किल के तहत राज्य के केन्द्रीय विभाग पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में होने थे. राज्य भर के पोस्ट और टेलिकॉम विभागों में पकिस्तान का झंडा फहर गया. ऐसा प्रस्ताव राजा ने भारत को भी दिया था, लेकिन नेहरु ने उसे ठुकरा दिया. पहली मांग शेख को रिहा करने की थी. उस समय नेहरु ने गृह मंत्री पटेल को लिखे पत्र में कहा कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर में घुसपैठ करके किसी बड़ी कार्यवाही को अंजाम देने की है. राजा के पास इकलौता रास्ता नेशनल कॉन्फ्रेंस से तालमेल कर भारत के साथ जुड़ने का है. यह पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर आधिकारिक या अनाधिकारिक हमला मुश्किल कर देगा.[47] काश यह सलाह मान ली गई होती! पर पटेल ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और उस समय राजा पर दबाव बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं की. 

जम्मू से लेकर गिलगिट तक साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बिगडती जा रही थी. पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि राजा की सेनायें मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हमला कर रही हैं तो नए प्रधानमन्त्री मेहर चंद महाजन ने जांच का प्रस्ताव दिया. पकिस्तान के गवर्नर जनरल ने इसका स्वागत करते हुए उन्हें कराची में डिनर पर चर्चा का न्यौता दे डाला. महाजन इंडिपेंडेस एक्ट का हवाला देकर आज़ाद कश्मीर को स्विट्जरलैंड बनाने के सपने देख रहे थे. पकिस्तान ने मेजर ए एस बी शाह के हाथों विलय का ख़ाली प्रपत्र भिजवाकर राजा से अपनी मर्ज़ी की शर्तें भर लेने को कहा. 21 अक्टूबर को हरि सिंह ने पंजाब हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को राज्य का नया संविधान बनाने को कहा.[48] शेख अब भी जेल में थे और नेहरु कश्मीर को अपने साथ लेकर चलने के लिए मुतमईन, पटेल बाक़ी रियासतों को हिन्दुस्तान से जोड़ने में मसरूफ़. आखिर निज़ाम और कश्मीर ही नहीं जोधपुर जैसी हिन्दू बहुल रियासतों के राजा भी अपना फ़ायदा देखते हुए पाकिस्तान से जुड़ने की इच्छा जता रहे थे!

इस हाई वोल्टेज ड्रामे के बीच वह हुआ जिसने कश्मीर की क़िस्मत तय कर दी. कश्मीर को अपनी जेब में देखने को बेक़रार जिन्ना ने कबायलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना भेज दी. यह एकदम अविश्वसनीय था. राजा और उसका नया प्रधानमंत्री अब भी पाकिस्तान से बात कर रहे थे. किसी तरह की कोई ऐसी कार्यवाही नहीं हुई थी, लेकिन पाकिस्तान शायद जल्दबाजी में था. कश्मीर में अफरातफरी मच गई. खूंखार आक्रमणकारियों ने किसी को नहीं छोड़ा. राजा की कमज़ोर सेना उनका मुक़ाबला करने में नाक़ामयाब हुई और सेना श्रीनगर के दरवाज़े पर पहुँच आई तो राजा के पास हिन्दुस्तान से सहायता माँगने के अलावा कोई चारा नहीं था. नेहरु की शर्त साफ थी. शेख की रिहाई और भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तख़त. अंततः यह सब हुआ. कश्मीरियों के आत्मसम्मान और आज़ादी के जज़्बे की इज्ज़त करते हुए इसे विशेष दर्ज़ा देकर हिन्दुस्तान में शामिल किया गया.[49] हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहाँ भी जनमत संग्रह की मांग स्वीकार की गई और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना – शेख अब्दुल्ला.  
 
इतिहास के तथ्य अपनी जगह रह जाते हैं, भविष्य उनके सही-ग़लत की पहचान करता है. इसके बाद का कश्मीर का क़िस्सा इतिहास की क़ैद में उलझे भविष्य का क़िस्सा है. वह फिर कहीं, फिर कभी.

(अशोक इन दिनों “कश्मीरनामा: इतिहास की क़ैद में भविष्य” शीर्षक से किताब लिख रहे हैं.)
संपर्क : ashokk34@gmail.com






   












[1] बहारिस्तान ए शाही –हसन बिन अली, तारीख़-ए-कश्मीर - हैदर मलिक, मजमुआदार अंसब माशिखी कश्मीर –बाबा नसीब आदि.
[2] बुलबुल शाह का असली नाम सैयद शरफ़ अल दीन था. वह सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सूफी संत थे जो सहदेव के समय तुर्किस्तान से कश्मीर आ गए थे.
[3] राबिया बसरा की अत्यंत प्रतिष्ठित सूफ़ी संत थीं.



[1] देखें, पेज़ 179, द वैली ऑफ़ कश्मीर, डी एच लारेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,लन्दन, 1895
[2] देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/history.htm
[3] देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/geography.htm
[4] पेज़ 10, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[5] देखें, माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली
[6] देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[7] देखें पेज़ 9, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[8] माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर में जगमोहन ने दामोदर को जरासंध का पुत्र बताया है. लेकिन राजतरंगिणी में उसे गोनंद का पुत्र बताया गया है. (पेज़ 16)
[9] देखें, पेज 17, तरंग 1, श्लोक 72,  कल्हण, राजतरंगिणी में, साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा  मुद्रित आर एस पंडित का अनुवाद
[10] नीलमत पुराण, श्लोक 10
[11] देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[12] देखें, पेज़ 10-11, कश्मीर इन क्रूसिबल, प्रेम नाथ बज़ाज़, दूसरा संस्करण, 1967, पाम्पोश पब्लिकेशन,नई दिल्ली 
[13] देखें, पेज़ 109, प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, शिवस्वरूप सहाय, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-2001
[14] देखें,पेज़  43,  माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली
[15] देखें,  पेज़ 33, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक : एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ,  खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[16] देखें, पेज़ 5, कश्मीर इन क्रूसिबल, प्रेमनाथ बज़ाज़, पाम्पोश पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1967

[17] देखें, Temple desecration in pre-modern IndiaRichard M Eaton, फ्रंटलाइन, 9-22 दिसंबर, वर्ष-2000

[18] देखें, पेज़ 36, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[19] देखें, इकॉनमी ऑफ़ कश्मीर अंडर सुल्तान्स,डा मंज़ूर अहमद, इंटरनेशल जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री एंड कल्चरल स्टडीज़, वाल्यूम 1, अंक 1, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015, पेज़ 39
[20] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवाद : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 15, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा, ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898

[21] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 20-21, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा, ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[22] 1- इस संदर्भ में कल्हण ने हर्ष के समय तुर्की लोगों की कश्मीर में उपस्थिति का ज़िक्र किया है. ये मुस्लिम व्यापारी मुख्यतः व्यपारियों और भाड़े के सैनिकों के रूप में कश्मीर में आये और यहाँ बस गए.
  2- ए क्यू रफ़ीकी का पूर्वोद्धृत पुस्तक में यह मानना है कि बहुत संभावना है कि गज़नी के कुछ सैनिक लौटने की जगह कश्मीर में ही बस गए हों.
  3- तेरहवीं सदी के अंत तक कश्मीर में कश्मीर में मुस्लिम बस्तियों के होने के प्रमाण मार्को पोलो के यात्रा वृत्तांत में मिलते हैं जहाँ वह लिखता है कि कश्मीर के लोग न जानवरों को मारते थे न ही खून फैलाते थे. जब उन्हें मांसाहार का मन होता था तो वे वहां रहने वाले साराकेन लोगों को बुला लेते थे. ( यूल एंड कार्डियर, ए क्यू   साराकेन उस समय तक मुसलमानों के संदर्भ में ही प्रयोग किया जाता था.  रफ़ीकी द्वारा हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 311, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997  पर  उद्धरित)
[23] देखें, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 308, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[24] देखें, पेज़ 40, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[25] देखें, पेज़ 5, सेवेन एक्जोडस ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स, प्रोफ़ेसर के एल भान (ऑनलाइन संस्करण)
[26] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 44, पुस्तक  1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[27] देखें, पेज 97, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[28] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 47, पुस्तक  1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[29] देखें, पेज़ 291-294, अ हिस्ट्री ऑफ़ सूफीज्म इन इंडिया, खंड 1, सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, मुंशीलाल मनोहर लाल पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड,1978
[30] देखें, वही, पेज़ 305
[31] देखें, पेज़ 26, कश्मीर्स ट्रांजीशन टू इस्लाम, प्मोहम्मद इशाक़ खान, मनोहर पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994
[32] देखें, पेज 103, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[33] देखें, पेज़ 12, पर्सपेक्टिव ऑन कश्मीर, मोहम्मद इशाक खान, गुलशन पब्लिशर्स, श्रीनगर, कश्मीर, 1983
[34] देखें, पेज़ 432, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[35] देखें, पेज़ 60 , रतन लाल हंगलू,द स्टेट इन मेडिवेल कश्मीर, मनोहर लाल पब्लिकेशन, दिल्ली-2000
[36] आनंद कौल बम्ज़ाई, द कश्मीरी पंडित, कलकत्ता 1924 ; आर सी काक, एंसियेंट मान्यूमेंट ऑफ़ कश्मीर, 1933, लन्दन ; लॉरेन्स, (पूर्वोद्धृत पुस्तक) 1895  
[37] देखें, पेज़ 41-43, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[38] देखें, वही, पेज़ 50
[39] देखें, वही, पेज़ 53-55
[40] देखें, अ हिस्ट्री ऑफ़ सिख्स, खुशवंत सिंह, प्रिंसटन-1963
[41] देखें, पेज़ 26-27, हिन्दू रूलर्स-मुस्लिम सब्जेक्ट, मृदु राय, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2004
[42] देखें, पेज़ 59, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[43] देखें, पेज़ 65, वही
[44] देखें, पेज़ 236, हिन्दू रूलर्स-मुस्लिम सब्जेक्ट, मृदु राय, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2004
[45] देखें, पेज़ 67-71, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[46] देखें, पेज़ 5-6, कश्मीर इंसरजेंसी एंड आफ्टर, बलराज पुरी, तीसरा संस्करण, ओरियेंट लॉन्गमैन, 2008
[47] देखें, पेज़ 7, वही
[48] देखें, पेज़ 9, वही
[49] देखें, पेज़ 13, वही

2 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " २२ जुलाई - राष्ट्रीय झण्डा अंगीकरण दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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