“वल्गर कॉमेडी” के नाम पर हाफ पौर्न परोस रही फिल्म “ग्रैंड मस्ती” कुछ असफल और फिल्मी प्लेटफार्म से गायब होते जा रहे लोगों की अवसाद से
ऊपजी भडास है. इंडस्ट्री में बनें रहने की दोयम दर्जे की घटिया, फूहड और अश्लील
अभिव्यक्ति है. जिसे 70 करोड की कमाई के मानक पर सफल कहा जा रहा है. यह पूरी
फिल्म ही मानों असफलता की बागुड में उलझे लोगों की मजबूर और बैचेन छटपटाहट है.
भला ऐसी कौन सी आफत आन पडी थी कि कभी “बेटा, मन, दिल” जैसी संजीदा फिल्म बनाने वाले निर्माता और निर्देशक इंद्र कुमार फिल्म “मस्ती” का सिक्वेल बनाने को मजबूर हो गए, और यही
काम कुछ अच्छी छबि वाले अभिनेताओं ने भी किया. हालॉंकि इस फिल्म को करने के पीछे
लंबे समय से पर्दे से गायब दो असफल अभिनेताओं की मजबूरी मान भी लें, तो मराठी संस्कारों,
परंपराओं और उसकी अस्मिता की प्रतिष्ठा को राजनीति में भुनाने वाले महाराष्ट्र
के मुख्यमंत्री के ठीक ठाक अभिनेता बेटे को पर्दे पर सफलता के लिए आखिर “ग्रैंड मस्ती” क्यों करनी पड गई? तब जबकि उन्हें महाराष्ट्र का पारंपरिक मराठी समाज विलासराओ देशमुख की
छबि में पसंद करता रहा है.
क्या बॉलीवुड में बैठे समाज सुधारक रहनुमाओं को यह दिखाई
नहीं दे रहा कि किसी महलनुमा कॉलेज में प्रिंसीपल द्वारा एक छात्र को सबके सामने
पूरे कपडे उतारकर उसकी कमर के हिस्से को ब्लर कर “नाम बडे और दर्शन छोटे” जैसे डबल मिनिंग के घटिया संवाद कहती यह फिल्म समाज पर क्या प्रभाव
डालेगी? एक लडकी के
सामने पूरे कॉलेज में बंद छतरी में एक लडका कॉंडम डालकर बेहुदा संवाद बोलता है,
ऐसे दृश्य और संवाद समाज के दिमाग को किस रसातल में पहुँचाऍंगे? एक तंबु के चादर पर रोशनी के माध्यम से परछाई के जरिये अभिनेता रितेश देशमुख
द्वारा लडकी के साथ किया गया बेहद गंदा दृश्य उनके सहित फिल्मी दुनिया को कहॉं
लाकर छोडता है? बैल की जनन प्रक्रिया के रूप में आफताब
शिवसादानी के निकलने का दृश्य, पुरुष जननांग को लेकर सीधे-सपाट विकृत दृश्य,
समाज में महिला वर्ग के मानस को कैसा बनाऍंगे इसकी फिक्र फिल्मी समाज को है? लडकियों के साथ फूहड और गंदे दृश्य, पूरी फिल्म में “सेक्स प्रतीकों” के रूप में कॉमेडी के नाम पर अश्लील
हरकतें, महानगर, शहरों, कस्बों और छोटे गांवों के हर युवा स्त्री–पुरुषों में
कौन सा जहर भरेंगी? फिल्म में संवाद भी डबल मिनिंग नहीं बल्कि
सीधे व सपाट हैं. ऐसी बहुत सारी हदों को लांघा गया है जिससे सेंसर बोर्ड के अंधे
होने में कोई शक नहीं रह गया है.
पिछले साल हरियाणा में लगे “बलात्कार के मासिक मेले” से हतप्रभ, मुँह छिपाती राजनीति, चिथडे-चिथडे होती सामाजिक परंपराओं और
संस्कारों की फोकली प्रतिष्ठा, उसके बाद राजधानी दिल्ली के चेहरे पर पुती “निर्भया” बलात्कार की कालिख, (जो अभी ठीक से मिटी भी नहीं है, और उस घटना के घाव अब तक हरे हैं) इस साल “सो कॉल्ड सेफ” सिटी
के रूप में इतराती मुंबई में महिला पत्रकार की इज्जत को तार-तार करने की घटना और
इन सबके बीच लगातार रोजाना देश के सुदूर गाँवों, अंचलों में बेटियों की अस्मिता
पर डाका डालने की बुरी खबरें, यह सब हमारे बीमार और विकृत समाज की वास्तविक स्थिति
प्रकट कर रही है. पुलिस, प्रशासन, सरकार, संसद समाज का हर वर्ग, हर संस्था, यहॉं
तक की बॉलीवुड भी देश में बेटियों-बहनों के साथ हो रही इन घटनाओं पर चीख-चीखकर
अपनी पीडा व्यक्त कर रहा है, समाज को जागृत करने के लिए छटपटा रहा है, वहीं ऐसे
में बॉलीवुड में बन रही “ग्रैंड मस्ती” जैसी फिल्में और उन्हें पास करती सेंसर बोर्ड जैसी संस्थाओं की कामकाज
की “अंधी मस्ती” पर सवाल उठना शुरू हो
गए हैं.
टीवी न्यूज चैनल के पैनल्स में चिल्लाती पूजा बेदी हो
या कलम के सिपाही जावेद अख्तर, तथाकथित स्त्री चेतना की आवाज बनती शबाना आजमी
हो, या हमलावर मूड में दिखने वाले ओमपुरी, या फिर संजीदगी से लबरेज गंभीर बयानों
से समाज को एक ही दिन में सुधारने का ठेका लेने वाली अनुपम खैर जैसी कई अन्य शख्सियतें,
क्या इन्हें फिल्मी पर्दे से समाज में फैल रही वह मानसिक गंदगी दिखाई दे रही
है, जिसने पिछले दस से बीस सालों में अपने कपडों को कम करके समाज की शर्म को उघाडा
कर दिया है.
दाढी-मूंछ में एडल्ट का सर्टिफिकिट लेकर घूमने वाले युवा
क्या मल्टीप्लेक्स के भव्य पर्दे पर इस तरह की फिल्म में एक स्त्री के गुप्तांगों
को लेकर रचे गए प्रतीकात्मक सेक्स दृश्यों के प्रभाव से अपनी वयस्कता को
समझदारी के स्तर पर बनाए रखते हैं? यहाँ तो बूढे भी बलात्कार के केस में पकडे जा रहे हैं, वह भी मासूम बच्चियों
के साथ. स्कूल से भागकर चोरी-छिपे टिकिट की जुगाड कर हॉल में घुसने के लिए
हाथ-पैर मार रहे बच्चों को तो यहीं मुंबई के मल्टीप्लेक्सों में आसानी से देखा
जा सकता है, रिलीज के पहले दिन ही यह अनुभव रहा, उधर, रात के आखिरी शो में याचना
और गिडगिडाहट के बाद 16 साल के लडके-लडकियॉं आपको अंदर मिल जाऍंगे. सोचिए महानगरों
के मल्टीप्लेक्स थियेटरों का यह हाल है तो देश के कई राज्यों के छोटे कस्बों के
सिंगल थियेटरों में, गॉंवों के कमरे में बंद सीडी प्लेयर्सों से क्या फैलाया जा
रहा है? क्या फूहडता और सेक्स की अश्लील लीलाओं को देखने
के बाद नाबालिक और युवा अपने आसपास, बच्चियों, लडकियों, औरतों के प्रति जो नजरिया
अपना लेते हैं, वे क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मॉर्डन सोच वाला बॉलीवुड
का समाज समझ पा रहा है. हाल ही में आई मराठी फिल्म “बीपी” इस संदर्भ में बच्चों के साथ-साथ फिल्मों के समाज पर व्यापक, गहरे और
गंभीर प्रभाव को पूरी ईमानदारी के साथ सामने लाती है और उसके दूरगामी परिणामों को
भी.
“ग्रैंड मस्ती, क्या सुपर कूल हैं हम, देल्ही बैली” जैसी डबल मिनिंग संवादों, गीतों, आइटम सॉग्स वाली फिल्में हैं जिनके
अश्लील दृश्य समाज के दिमाग में रील की तरह चलते हैं, और कहीं न कहीं दिल्ली
सहित रोजाना देश के कोने-कोने से आ रही बलात्कार की घटनाओं में दिखाई पडते हैं.
पैसे कमाने के लिए समाज को वह दिखाया जाए जो हमारे संस्कारों में छिपा है, गुप्त
है, और अनुशासन में है और उसके पीछे यह तर्क दिया जाए कि समाज को खुला बनाओ, उसकी
सोच को परिपक्व करो, संस्कारों की जकडन से बाहर करो, यह एक बेहूदा तर्क है जिसकी
परिणिति बलात्कार और छेडछाड की बढती घटनाओं में हो रही है.
मनुष्य के जीवन के निजी और अंतरंग हिस्से को सार्वजनिक
करना और फिर सेक्स को अपनी प्रतिष्ठा व सम्मान से जोडने वाले बेचारे अशिक्षित
अपरिपक्व, अनपढ, गरीब, वंचित दबे-कुचले और शोषित समाज से सभ्य, सुसंस्कृत,
शालीन और नैतिक बनें रहने की अपेक्षा करना. क्या यह दोहरे मापदंड, पैसे कमाने वाले
प्रोड्यूसर और अपने कपडे उतारने वाले अभिनेताई समाज, दोनों के समझ में नहीं आते? ग्रैंड “मस्ती फिल्म” को लिखने
वाले बेशर्म लेखक मिलाप जवेरी एक वेबसाइट को दिये अपने साक्षात्कार में इसकी
आलोचना के प्रश्न पर कहते हैं- “मुझे
लगता है हमारे फिल्म समीक्षक मानसिक रूप से बडे नहीं हुए हैं, जबकि जनता परिपक्व
हो चुकी है.” मानों पूरे समाज का साक्षात्कार उन्होंने ही
किया है, और बलात्कार की बढती घटनाएँ ही जनता की तथाकथित मानसिक परिपक्वता है. पॉर्न
फिल्में करने वाली भारतीय मूल की सनी लियोनी ने भी भारत आने के बाद अब तक एक भी
पॉर्न फिल्म नहीं की, और जो भी कि वह अपने पति के साथ की, जो पॉर्न फिल्में
बनाने का काम करता है. प्रॉब्लम पॉर्न में नहीं है, मर्यादा की है, प्रोफेशल एथिक्स
की है, “ग्रैंड मस्ती” सेक्स, गुप्तांगों
और स्त्री-पुरुष संबंधों का दोयम दर्जे का एकदम महाघटिया संस्करण है, उनकी धज्जियॉं
उडाता है, उन्हें गाली देता है. स्त्री और पुरुषों के बीच सहज शारारिक संबंध के
सौंदर्य को इतना घिनौना, स्तरहीन और मजाक का विषय बनाकर दर्शाया है, जिसे देखकर
हमारा पहले से ही सेक्स को लेकर विकृत समाज और बद्दिमाग होता है, और “निर्भया” जैसी घटनाऍं होती हैं.
बॉलीवुड पूंजीवाद का एक अलग अड्डा है, उसके दिमाग में
पूंजी का सुरुर चमक-धमक और सेक्स के साथ शराब, अफीम, चरस और कोकिन में घुलता है
और कभी-कभी समलैंगिक भी हो जाता है. वह जिस मुंबई, दिल्ली, बैंगलोर जैसे महानगरों
को देश का समाज मान बैठा है, वह जरा वहाँ से बाहर निकलकर, देश के गॉंवों, कस्बों
और छोटे शहरों के समाज को भी देख ले, जहॉं समाज कुछ दूसरी स्थिति में है. भले ही
वह कैसा हो, पर वैसा तो बिल्कुल भी नहीं है, जैसी सोच रखकर बॉलीवुड उन्हें “ग्रैंड मस्ती“ दिखाना चाहता है और घरेलू सीरियलों में पहुँचकर परिवार सहित देखने के
पीले चावल बॉंट रहा है.
एक रूपये में वीडियो देखने का प्रचार कर रही मोबाइल
कंपनियॉ समाज को कौन सा सेक्सुल धीमा डोज दे रही है यह बताने की जरूरत नहीं.
बदलती तकनीक से झमाझम अपडेट हो रहे आईफोन, एन्ड्रायड फोन, कई एप्लीकेशन्स फीचर
से सजे-धजे मोबाइल्स में चल रहे पॉर्न वीडियो मुंबई के पढे-लिखे खुले समाज में
शाम की लौटती लोकल ट्रेनों का मनोरंजन बन गए हैं, तो सोचिए हरियाणा, यूपी, बिहार,
मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों के कस्बों में क्या हो रहा है? घटनाऍं आकार यहीं से
ले रही है. वहाँ तो बेरोजगारी, अशिक्षा, अभाव और आर्थिक शोषण वैसे ही युवाओं को
निगले जा रहा है. वहॉं अवसाद को एक रूपये में पॉर्न बॉटा जा रहा है.
हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने फिल्मों में
आइटम सॉग्स पर रोक लगाने की पेशकश की है, लेकिन फिलहाल यह कोई आदेश में नहीं बदला
है, ग्रैंड मस्ती जैसी फिल्मों पर रोक लगाने की मांग को लेकर महिला आयोग और न्यायालय
में छटपटाहट है. बैचेनी उसमें दिखाई दे रही है. देश के कई शहरों से भी इस फिल्म
के प्रदर्शन पर बैन लगाने की मांग की है, लेकिन बॉलीवुड तो केवल पैसे की अंधी भूख
में उलझा है. एक भी सो कॉल्ड सेलीब्रीटी “ग्रैंड मस्ती“ जैसी फिल्म पर बैन की मांग के साथ
नहीं आई. कहॉं गए सब? क्या चैनल्स पर चिल्लाने वाले
बॉलीवुड के सामाजिक सुधारक फिलहाल अपने दडबों में खामोशी की चिलम फूँक रहे हैं,
ताकि रात को प्राइम टाइम में बलात्कार पर चिंता में छलने वाला चिंतन घोला
जाए.
बताते हैं कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म के प्रदर्शन से पूर्व
कई दृश्यों को छांटा-काटा और डबल मीनिंग संवादों को डिलिट करवाया, उसके बाद इसे
एडल्ट फिल्म का सर्टीफिकेट देकर पास किया है. कमाल है कि उसके बाद भी यह फिल्म
इतनी अश्लील, गंदी और फूहड है, तो पहले तो पता नहीं क्या होगी? प्रमोशन के दौरान
परिवार के साथ उसके देखने की अपील छल के अलावा कुछ नहीं, ऐसे में क्या सेंसर बोर्ड
अंधा है? और क्या ऐसी फिल्मों पर काम के नाम पर ग्रैंड मस्ती
मार रहा है?
फिल्मों पर समाज का प्रभाव पडता है, वह उसके विवेक को
संचालित करती है, वह उसके सामने उस सत्य को रखती है जो घट चुका है, छिपा है,
भविष्य में घटने वाला है और वर्तमान में चल रहा है, ऐसे में यह निश्चित ही जिम्मेदारी
का काम है कि बलात्कार की राजधानी होने का दुख व पीडा अपने दिल में लिए बैठा यह
देश, फूहड
और अश्लील फिल्मों से श्रंखलाबद्ध दिल के दौरों को न पाल बैठे. वैसे भी अब तो यहॉं रोज बलात्कार हो रहे हैं.
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
जिस बीपी नाम की मराठी फिल्म का आपने ज़िक्र किया है, उसका नाम असल में बालक-पालक है। और उसका प्रोड्यूसर रितेश देशमुख ही है।
जवाब देंहटाएंवैसे मेरी राय में फिल्मों पर सेंसर बिल्कुल नहीं होना चाहिए।