-जितेन्द्र विसारिया
कला
और विज्ञान का अद्भुत संगम और बीसवीं सदी के कुछ विशिष्ट अविष्कारों में से एक ‘सिनेमा’ ने अपने शैशवकाल से ही व्यक्ति और समाज को
अपने सम्मोहन में बाँध रखा है और बाँधे हुए है। कहते हैं 1857 के विद्रोह के कुछ कारणों में से एक देश में अंग्रेजों द्वारा ‘रेलगाड़ी’ का लाना भी था, जो
अपने आप में सभी जातियों और धर्मों के लोगों को बिठाकर एक मार्ग पर आगे बढ़ती है।
इससे ब्राह्मणों का धर्म भ्रष्ट होता था और तथाकथित उच्च-जातियों के अहंकार को ठेस
लगती कि इसमें अछूत और निम्न जातियों के लोग भी बगल में बैठकर यात्रा करते
हैं/करेंगे। अर्थलोभी कंपनी सरकार सबको एक करना चाहती है।...पता नहीं भारत में
सिनेमा के आगमन के साथ ऐसा हुआ या नहीं? क्योंकि रेल की तरह
ही सिनेमा हाल का विकास भी अनचाहें ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक क़दम
था, जो दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदवाकर उच्च जातियों
के साथ बैठकर उस ‘भगवान’ के दर्शन का
लाभ देता था, जिसके दर्शन मंदिर में असंभव थे और जिसकी
शुरूआत दादा साहब फालके ने ‘हरिश्चन्द्र तरामती’(1913),
‘मोहिनी भस्मासुर’(1913), ‘लंका दहन’(1917),
‘कृष्ण जन्म’(1918), ‘कालिय मर्दन’(1919)
जैसी धार्मिक फिल्मों के अविष्कार के साथ कर दी थी।
...इसका मूलभूत कारण भारत में रगंमच और अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में
दलित-पिछड़ों का सर्वेसर्वा होना है और यही कारण है कि देश में दलितों की ही तरह
संगीत, नृत्य और अभिनय कला को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से
देखा गया। इस उपेक्षा का शिकार भारत में नाट्य कला को जन्म देने वाले एवं ‘नाट्यशास्त्र’ शास्त्र के प्रणेता भरत मुनि और उनकी
संतानें भी हुई। डा. राम विलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘भारतीय
साहित्य की भूमिका’ में लिखते हैं-‘‘मनुस्मृति
में हम गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का निषेध देखते हैं
तथा व्यवस्था पाते हैं कि सवर्णों को गीत, वाद्य और नृत्य से
आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ सूत, मागधों और नटों को वर्णसंकरता का परिणाम बताती
है...‘नाट्यशास्त्र’ ‘नटशाप’ अध्याय में बताया गया है कि ऋषियों के शाप से भरतमुनि के पुत्रों का वंश
शूद्राचार, अशौच एवं स्त्री-बालोपजीवी हो गया...जिस समाज में
नर्तकों, गायकों, अभिनेताओं को हीन
स्थिति में रखा जाये, उसमें संगीतशास्त्र का विकास कैसे हो
सकता है?[1]
फिर
भला सिनेमा इस उपेक्षा से कैसे बच सकता था। दादा साहब फालके ने भले ही क्राइस्ट के
जीवन पर बनी फिल्म से प्रेरणा लेकर भारतीय पुर्नजागरण के उस युग में चित्रपट पर
कृष्ण का जीवन सजीव करने की कल्पना की किन्तु आर्थिक अभावों के चलते जब वे ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ फिल्म बनाते हैं, तो उसमें रानी तारामती की भूमिका के लिए कोई स्त्री तो क्या तब के सवर्ण
ज़मीदार और नबाबों की मुँहलगीं एवं कोठे पर मुजरा करने वाली किसी ‘तवायफ’ ने भी उसमें अभिनय करने से इन्कार कर दिया
था। ...ऐसे में सिनेमा की बागडोर सम्हाली थी दलित, मुस्लिम
और एंग्लो-इण्डियन परिवारों के स्त्री-पुरूष कलाकारों ने जिनके लिए रंगमंच और
थियेटर की तरह सिनेमा भी हेय नहीं, सम्मान और आत्मगौरव की
वस्तु थी। संभव है फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में रानी तारामती की भूमिका करने वाले ‘ए. सालुंके’
भी दलित ही रहे हो? दादा साहब फाल्के ने इसकी
भरपाई के लिए ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में
जहाँ राजकुमार रोहिताश्व की बाल भूमिका में अपने बेटे ‘बालचन्द्र’
को लिया था तो दूसरी फिल्म ‘कालिया मर्दन’
में अपनी बेटी ‘मंदाकिनी’ को कृष्ण की भूमिका देकर पूरा किया था। 1917 में
उनकी ‘मोहिनी भस्मासुर’ में मराठी
नाटकों की अभिनेत्री ‘कमला बाई गोखले’ फिल्म
अभिनय में आती हैं तो वह भी स्वेच्छा से नहीं, परिवार की
विकट गरीबी के चलते।[2] वैसे भी दलितों की तरह स्त्री,
वह भले ही उच्च या निम्न परिवार से रही हो; समाज
में उसकी स्थिति दलितों जैसी ही रही है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में सीता और
अन्य स्त्री पात्र संस्कृत नहीं प्राकृत में संवाद बोलते दिखाये गए हैं, क्योंकि शूद्रों की तरह स्त्रियों के लिए भी संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना
वर्जित था।
और
यह आश्चर्य नहीं कि वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाले महात्मा गाँधी फिल्मों की
जनप्रियता और लोकधर्मिता को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जबकि बाबू सुभाष चन्द्र
बोस और बाबा साहेब अंबेडकर उसके दूरगामी परिणामों के प्रति पूर्ण आश्वस्त थे। बाबू
सुभाष ने जहाँ कुछ राष्ट्रीय फिल्मकारों को आजाद हिन्द सेना के जीवंत दृश्य सूट
करने की अनुमति दी थी, वहीं बाबा साहेब ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई के साथ ‘अंकल टाॅम’ और ‘अछूत कन्या’
फिल्म देखीं थी। निरंजन पाल निर्मित ‘अछूत
कन्या’ चित्रपट उन्होंने भींगी आँखों से देखा था। वह चित्रपट
अस्पृश्य जीवन की मानवता की पुकार था। वहीं ‘अंकल टाम’
हैरियट बीचर स्टो के कालजयी उपन्यास अंकल टाम केबिन (टाम काका की
कुटिया) पर आधारित थी, जिसमें रंगभेद और गुलामी की अटूट
श्रृंखलाओं में जकड़े और अमानवीय कष्ट पाते एक अमेरिकी अश्वेत ‘टाम’ की हृदय विदारक त्रासदी है। डाक्टर श्रीमती
सविताबाई के साथ उन्होंने ‘आलिव्हर ट्विस्ट’ अंग्रेजी फिल्म देखी थी। निम्नवर्ग के निकृष्ट जगत का गरीबों या पद्दलितों
की जिन्दगी देखते समय उनके हृदय का कंपन बढ़ जाता था।[3]
हम अपने महापुरुषों को अतिमानवीय और अति संयमी दिखाने के
चक्कर में कभी-कभी उनके जीवन संस्मरण लिखते समय उनकी स्वभाविक मानवीय प्रवृतियों
को दबा जाते हैं।... बाबा साहेब अंबेडकर ने सार्थक फिल्में देखी हीं नहीं बल्कि
उनके मुहूर्त समारोहों में भी शामिल हुए थे। आचार्य प्र. के. अत्रे के ‘महात्मा फुले’ चित्रपट के मुहुर्त समारोह में 4
जनवरी, 1954 को ‘फेमस
पिक्चर्स’ कलागृह में बाबा साहेब उपस्थित रहे थे। चित्रपट का
मुहुर्त उनके हाथों सम्पन्न हुआ। चित्रपट आचार्य अत्रे को शुभेच्छा देकर बाबा
साहेब ने कहा, ‘आजकल जो उठता है वह राजनीति और चित्रपट के
पीछे लग जाता है। किन्तु समाज सेवा का भी अधिक महत्व है, क्योंकि
उसमें शीलवर्धन होता है।’ आचार्य अत्रे बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे। उनका ‘श्यामची आई’ चित्रपट
राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से गौरवान्वित किया गया था।...महात्मा ज्योतिराव फुले के
तेजस्वी और सत्य जीवन को दर्शाने वाली यह फिल्म देखकर बाबा साहेब आंबेडकर ने
आचार्य अत्रे को उत्कृष्ट चित्रपट बनाने के लिए धन्यवाद था। अपने 20 जनवरी, 1955 के पत्र में आंबेडकर ने अभिप्राय व्यक्त
किया है कि विषय-प्रस्तुति और दृश्य विधान की दृष्टि से वह चित्रपट उत्कृष्ट है।[4]
फिल्म ही नहीं नाटकों का भी बाबा
साहेब पर गहरा प्रभाव था और कुछ नाटक मंडलियों भी उन्हें नाटक देखेने के लिए
बुलाया करती थी। 15 मार्च 1936 को बंबई
में चितरंजन नाटक मंडली ने बाँबे थियेटर’ में आंबेडकर का
सत्कार किया। उस समय वह नाटक मंडली आप्पा साहब टिपणिस लिखित ‘दक्खन का दिया’ इस लोमहर्षक नाटक के प्रयोग करती थी।
उस नाटक में पेशवाई के समय अस्पृश्यों के साथ कितनी अमानुष रीति से बर्ताव किया
जाता था, उस संबंध में कुछ प्रसंग रेखांकित किए गए थे। पुणे
के रास्ते से जाना-आना करना हो तो महार जाति के अस्पृश्यों को गले में मिट्टी का
घड़ा और कमर में पेड़ की डाली लगानी पड़ती थी। आंबेडकर नाटक का प्रयोग देखने जाने
वाले हैं, यह खबर फैलते ही वहाँ काफी भीड़ लग गई। नाट्यगृह
में चींटी को भी प्रवेश करने के लिए जगह नहीं थी।...सत्कार के समय अनंत हरि गद्रे
प्रमुख वक्ता थे। गद्रे अत्यंत आस्थापूर्वक अस्पृश्यता निवारण का कार्य करने वाले
कार्यकर्ताओं में से एक अगाड़ी के वीर, महाराष्ट के सामाजिक
समता के बड़े पुरस्कर्ता थे। अपने भाषण में गद्रे ने कहा कि, ‘अस्पृश्यों के साथ पेशवा कालीन महाराष्ट्र में इतने अपमानास्पद और अमानुष
रीति से बर्ताव किया जाता था कि नाटक में अभिनय करने वाले नट भी उनकी भाँति गले
में मिट्टी का बर्तन बाँधकर रंगमंच पर आने के लिए शरमाते हैं।[5]’’
यों देखा जाए तो ब्राह्मण
श्रेष्ठता और वर्णव्यवस्था को हर परिस्थिति में अक्षुण्ण बनाये रखने (भले ही स्वयं
या पत्नी-पुत्र को बीच बाजार में बेचना पड़ जाए।) का यशगान तो हिन्दी की पहली
फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ से ही
प्रारंभ हो जाता है। छद्मभेषी ब्राह्मण विश्वामित्र को दिए वचन पर अटल अयोध्या का
राजा हरिश्चन्द्र अपने राज्य के अतिरिक्त साठ भार सोने से उऋण होने के लिए काशी के
बाजार में स्वयं और अपनी पत्नी तारामती एवं पुत्र रोहिताश्व के साथ बिक जाता है।
सत्य (वर्णधर्म) पर अटल यह परिवार संकट के समय में भी एक दूसरे की मदद (कथानक में
रानी तारामती कृशकाय हुए हरिश्चन्द्र का घड़ा इसलिए सिर पर नहीं रखवाती, क्योंकि वह एक ब्राह्मण की क्रीतदास है और राजा काशी के कालू नामक चांडाल
(दलित) का श्मशान रक्षक।) करने से भी इन्कार कर देते हैं। अपनी आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ में गाँधी जिस ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक का अपने जीवन पर अमिट प्रभाव[6]
बताते हैं, वह गुजराती नाटक और इस फिल्म का कथानक एक ही
है-संकट की विकट परिस्थितियों में भी अपने जाति और वर्णधर्म पर अटल बने रहना और
दलित द्वेष...। इस प्रकार दलितदृष्टिकोण से देखा जाए तो हिन्दी सिनेमा की प्रारंभिक
फिल्म ही हमें निराश करती है। उसमें प्रगतिशील तत्वों की अपेक्षा प्रतिगामी तत्वों
का समावेश ही प्रमुख है। जातिवाद और वर्णवाद के विरूद्ध न जाकर यह सिनेमा, उसका खुला समर्थन करता है। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा पौराणिक फंतासियों
का पुनुरुत्पादन...।
पहला
उपद्रव ‘अछूत कन्या’ (1936), से हुआ यह
एक वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक और ईमानदार अभिव्यक्ति थी। यह
उपद्रव किसी खास दर्शक समूह में नहीं हुआ, क्योंकि इस फिल्म
का मकसद किसी को सताना या चिढ़ाना कतई नहीं था। आजादी का आंदोलन था। समाज, शुद्धिकरण की प्रक्रिया में था। मनुष्य को हमेशा दूसरा नागरिक बनाने बताने
वाली मान्यताओं की सींवने उधड़ रही थीं।[7]
इससे पूर्व 1934 में सोलहवीं शताब्दी में हुए महाराष्ट्र के
संत एक नाथ पर ‘धर्मात्मा’ और बंगाल के
संत चंड़ीदास पर बनी ‘चंडीदास‘ फिल्म
में भी अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट कर चुकी थीं। ‘चंडीदास’
सदियों से चली आ रही ब्राह्मण वर्ग की अतिरूढ़िवादिता एवं मनमानी की
प्रवृत्ति का प्रतिवाद करती है। सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के एक गाँव में स्थित
जागृत देवी बांशुली के मंदिर में वैष्णव चंडीदास ठाकुर पुरोहित के रूप में
प्रतिष्ठित थे। वे आंतरिक रूप सौन्दर्य के पुजारी तथा सत्य और प्रेम के उपासक थे।
प्रेम ही उनका धर्म था और प्रेम ही सत्कर्म था। वे ईश्वर को पाने का एक मात्र
मार्ग, प्रेम ही मानते थे। निम्नवर्ग की रानी धोबिन में
उन्हें सत्त प्रेम की छवि दिखी। रौब-दाब वाला अत्याचारी, ईष्र्यालु
और बदचलन जमींदार समाज को उनके खिलाफ भड़का देता है। तमाम सामाजिक प्रतिरोध के
बावजूद आदर्शवादी विश्वप्रेमी परिवर्तनप्रिय संतकवि चंडीदास को वर्गभेद, सामाजिक बंधन, धर्मान्धता-इन सबको लांघकर रानी के
साथ स्वतंत्र एवं सुखी जीवन बिताने के लिए प्रेम नगर की राह पर चलने से कोई नहीं
रोक पाता।[8]
चंडीदास
एक ऐतिहासिक और समाज से मान्यता प्राप्त कथानक पर आधारित होने से,
निर्देशक फिल्म में दलित रानी धोबिन और ठाकुर पुरोहित चंडीदास का
मिलन करवा देता है! किन्तु उसी के दो वर्ष बाद तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के
बीच से चुनी और सत्यकथा के रूप में फिल्मायी गई ‘अछूत कन्या’
का निर्देशक साहस करके भी उसमें उच्च वर्णीय ब्राह्मण युवक प्रताप
(अशोक कुमार) और एक अछूत रेलवे क्रासिंग गार्ड की लड़की कस्तूरी (देविका रानी) का
मिलन नहीं करवा पाता!! फिल्म के अंत में नायिका रेल दुर्घटना में हृदय विदारक
मृत्यु को प्राप्त होती है!!! प्रमोद भारद्वाज के शब्दों में कहूँ तो, ‘दोनों में ही जाति का अस्वीकार था। जाति के परे प्रेम था, पर अछूत कन्या में अछूत नायिका को छोड़ने की दुर्बलता उस समय की भीषणतम
सच्चाई थी।[9]
प्रहलाद अग्रवाल लिखते हैं कि ‘अछूत कन्या’ में छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भत्र्सना की
गई थी। यह उस समय आसान बात नहीं थीं यह बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध था और राष्ट्र इस
समस्या से गहराई तक ग्रस्त था।
इन
दो परिवर्तनकामी फिल्मों के बाद 1940 में सरदार
चंदूलाल शाह निर्देशित और मोतीलाल गोहर मामाजीवाला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘अछूत’ प्रदर्शित होती है। यह फिल्म ‘अछूत कन्या’ का थोड़ा सा परिष्कार है। इसमें भी उच्च
जाति का लड़का और निम्न जाति की लड़की का प्रेम, संघर्ष और
सामाजिक रूढ़ियों के चलते अंत में नायक-नायिका द्वारा अपने प्राणों का बलिदान है।
बदलाव सिर्फ इतना कि फिल्म के अंत में नायक-नायिका अपने प्राणों का अंत गाँव के
मंदिर में सबको प्रवेश दिलाने में करते हैं। यद्धपि फिल्म गाँधीजी के हरिजनोद्धार
और मंदिर प्रवेश की पृष्ठभूमि पर निर्मित है, किन्तु उससे
आगे जाकर वह यह भी संदेश देती है कि अछूतोद्धार सिर्फ दिखावे से नहीं होगा,
अपितु सबको व्यवहार में समान समझना होगा और बराबर अवसर पाने के मौके
देने होंगे। फिल्म में दलित लड़की लक्ष्मी एक सवर्ण पूंजीपति द्वारा गोद ली जाती
है और उसे अपनी पुत्री के समान रखा जाता है, किन्तु जब दोनों
लड़कियाँ एक ही व्यक्ति के प्रेम में पड़ती हैं तब पक्ष अपनी बेटी का लिया जाता है,
लक्ष्मी का नहीं...! यह फिल्म इसलिए भी स्मरणीय कही जा सकती है कि
इसमें सर्वप्रथम दलितों का धर्मान्तरण (फिल्म में नायिका लक्ष्मी का पिता सवर्णीय
अत्याचारों से तंग आकर ईसाई धर्म ग्रहण करता है।) सवर्णों के अन्याय और अत्याचार
से प्रेरित होकर दिखाया गया है न कि किसी प्रलोभवश। आश्चर्य होता है कि जो बात
फिल्म ‘अछूत’ का निर्देशक 1940 में समझ गया था, हिन्दुत्व के झंडावरदार उसे आज भी
मानने को तैयार नहीं है।... इस फिल्म की प्रशंशा सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने
भी थी।
इसी
समय ऐसी तमाम फिल्में आयीं, जिन्होंने धर्म, जाति, वंश और मिथकीय परंपराओं और महाजनी सभ्यता के संकीर्ण अनुशासन के खूब लत्ते
लिए। जैसे-महाजनी प्रथा (सावकारी पाश-1925), मूर्तिपूजा और
ब्राह्मणवाद (संत तुकाराम-1936, संत दानेश्वर-1940, संतसाखू-1941), नरबलि (अमृत मंथन 1934), छुआछूत (धर्मात्मा-1934) बेमेल विवाह (दुनिया न
माने-1937) विधवा विवाह (अनाथ आश्रम-1937, सिन्दूर-1947), वेश्यावृत्ति : (ठोकर-1939) दहेजप्रथा (दहेज-1950) नशा (ब्रांडी की बोतल 1939)
इत्यादि विषय प्रधान फिल्मों के अलावा चालीस से पचास के दशक में
दलित विमर्श से संबंधित फिल्मों का अभाव है। किन्तु दलित सर्वहारा की दृष्टि से इस
दशक में ‘नया संसार’(1942), ‘रोटी’,
‘गरीब’ (1942), नीचा नगर (1946), ‘गोपीनाथ’ (1948), आदि विषयों ने परदे पर आकर काफी
विक्षोम पैदा किया, पर यह हमारे समाज का अन्र्तयुद्ध था। हम
एक नए समाज के क्षितिज की तरफ प्रस्थान कर रहे थे, इसलिए
हमारी परंपराओं, हमारी धूर्तताओं और जड़ताओं से यह टकराव
स्वभाविक थे। यह सनसनी फैलाने या बिखेरने का संघर्ष था, पर
आजादी के बाद सिने माध्यम, बजाय समाज को नया और सार्थक शिल्प
देने के, समाज में हड़बड़ी, अफरातफरी
फैलाने वाले तत्वों का जमाव बनकर रह गया। कुंठाएँ, संत्रास,
बैचेनियाँ, अतृप्ताएँ, निर्लक्ष्य
कामनाएँ, अबूझ भविष्य और रहस्यमय जीवन शैलियाँ एकाएक उभरती
रहीं।[10]
इन कारणों की गहराई में जाएँ तो
हम पाते हैं कि तमाम मतभेदों के बावजूद स्वतंत्रता के पूर्व आजादी को लेकर
देश के नेताओं और जनता में एक सामूहिक स्वप्न था। स्वतंत्रता और स्वराज पाने की
कामना हर एक वर्ग में थी। यद्धपि वर्चस्व की लड़ाई के बीज तब भी मौजूद थे और कोई
किसी के प्रति पूर्णरूपेण विश्वस्त नहीं था; किन्तु एक
सामूहिक आवेश था कि जो होगा वह देखा जाएगा, पहले हम गोरों की
गुलामी से आजाद हो लें। किन्तु हम देखते हैं कि देश स्वतंत्र नहीं हो पाता और
राष्ट्र को बँटवारे की गहरी त्रासदी झेलनी पड़ती है। सांप्रदायिक दंगे होते हैं और
देश दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। सहानुभूति के आधार पर ही सही, समाज में सामूहिक परिवर्तन की इच्छा रखने वाले गांधी की हत्या होती है और
संघर्ष से समानता की ओर अग्रसर होने वाले आंबेडकर को कानून मंत्री के पद से
इस्तीफा देना पड़ता है। मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं और दलित बौद्ध बनते
हैं...।
आजादी के इस सामूहिक स्वप्नभंग की
अवस्था 1950 से 1970 के बीस वर्षों की
फिल्मों पर दृष्टिपात करते हैं तो इनमें दलित सर्वहारा की दृष्टि से कुछ ही
फिल्में उल्लेखनीय हैं। ‘आवारा’ (1951) यद्धपि यह दलित विमर्श की फिल्म नहीं है किन्तु वह अपने साथ जो संदेश लिए
थी कि व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता, अपराधी उसे उसका
परिवेश बनाता है फिर भले ही वह व्यक्ति किसी वंश, जाति,
या गोत्र का रहा हो। उच्चकुल में जन्मा किन्तु एक अपराधी के यहाँ
पलकर अपराधी बना उपेक्षित युवक ‘राज’ (राजकपूर)
द्वारा ‘अवारा हूँ’ गीत के रूप में जब
महान दलित गीतकार शैलेन्द्र की यह पंक्तियाँ:
घरबार नहीं संसार नहीं मुझसे किसी को
प्यार नहीं,
दुनिया में तेरे तीर का
या तकदीर का मारा हूँ।
दोहराता
है, तो ऐसा लगता है कि गीत में स्वयं शैलेन्द्र ने
सदियों से समाज के उपेक्षित अपनी धन-धरती से वंचित दुनिया (पूँजीवाद) और तकदीर
(भाग्यवाद) दोनों की मार सहते आए दलित सर्वहारा जीवन की पीड़ा ही व्यक्त की हो...।
‘राही’(1952) कामरेड ख्वाजा अहमद
अब्बास की आसाम के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के शोषण को रूपायित
करने वाली फिल्म है, जो मुल्कराज आनंद के उपन्यास पर
आधारित है। ‘दो बीघा ज़मीन’(1953) हिन्दी
सिनेमा के मील का पत्थर है। हिन्दी में प्रेमचन्द के अमर उपन्यास ‘रंगभूमि’ के बाद भूमि अधिग्रहण को लेकर यदि कोई महान
रचना है तो वह ‘दो बीघा ज़मीन’ हो सकती
है। यह एक ऐसे सीमांत किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) और उसकी पत्नी पार्वती
(निरुपाराय) की मर्मस्पर्शी दुखांत कथा है, जिसमें गाँव का
जमींदार और शहर की पूँजीवादी ताकतें उसकी दो बीघा ज़मीन अधिग्रहीत कर उस स्थान पर
एक मिल का निर्माण करती हैं। ऋण में गले तक डूबा बेचारा शंभू अपने अथक प्रयासों के
बावजूद भी अपनी वह दो बीघा ज़मीन नहीं बचा पाता। फिल्म के अंत में बलराज साहनी के
बूढ़े पिता की भूमिका में नाना पलसीकर तो एक प्रतीक बनकर खड़े हो जाते हैं उस
किसान का, जिसके नसीब में उसकी ज़मीन की एक मुट्ठी धूल भी
नहीं है जिसे वह माथे से लगा सके। इस फिल्म के बारे में तब मैनचेस्टर गार्जियन ने
लिखा था, ‘भारत किसी अन्य प्रकार से न सही, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक
फिल्मकार अपने देश के अर्थिक विकास को इस क्रूर निराश नज़र से देखता है।[11]
‘बूट पालिश’(1954) राजकपूर की सर्वहारा (आवारा) से
दलित विमर्श की ओर बढ़ा दूसरा कदम था। यह फिल्म भी संदेश प्रधान है कि कोई काम
छोटा-बड़ा नहीं होता। भीख माँगने और चोरी करने से अच्छा है मेहनत-मजदूरी (बूट पालिस)
करके जीवन यापन करना। इस फिल्म के माध्यम से राजकपूर दलितों में आत्मसम्मान की
भावना जाग्रत करते प्रतीत होते हैं। भीख न माँगने की बिना पर ‘शर्मा अनाथ आश्रम’ में भर्ती हुए बालक (रतन कुमार)
को चंदे के नाम पर आश्रम के संचालक (जो निश्चय ही ब्रह्मण है) की अगुवायी में अन्य
अनाथ बच्चों के साथ जब घर-घर, गली-गली भीख माँगनी पड़ती है,
तो भीख में मिले मोतियों को ठुकराने के आदर्श पर जीने वाला वह बालक
वहाँ से भागकर पुनः अपने काम (बूट पालिश) में लौट आता है। फिल्म ‘बूट पालिश’ के इस दृश्य मे निश्चय ही कवि शैलेन्द्र
की संगत में रहे निर्देशक राजकपूर, परजीवी एवं भिक्षाजीवी
ब्राह्मणवाद के चुँगल से श्रमजीवी दलितों को दूर रहेने का महान संदेश, सायास और स्पष्ट रूप से देते प्रतीत होते हैं।
जिया सरहदी की ‘हमलोग’(1951), ‘फुटपाथ’(1954) और ‘आवाज’(1956)
उनके वामपंथी रुझान और गंभीर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी और
जनसंघर्षों को विभिन्न कोणों से देखने परखने वाली फिल्में थीं। वहीं राजकपूर की ‘श्री 420’(1955) ‘विद्या’ (ज्ञान)
और ‘माया’ (पूँजी) जैसे प्रतीक लेकर
रची गई एक सामान्य फिल्म है, किन्तु अपने पीछे वह यह जो
संदेश छोड़ती है कि हजारों आदमियों को भूखा रखकर एक गुलछर्रे उड़ाता है। दूसरों के
खून-पसीने पर चमकदार जिंदगियाँ इतराती हैं। पर सच्चाई और ईमानदारी से कमाई गई सूखी
रोटी जितनी शांति और मुहब्बत दे सकती है उतनी बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत
नहीं।’ वह अवश्य ही पूँजी और पूँजीवाद के विरुद्ध एक बड़ा
किन्तु रोमानी संदेश है। गोगोल की कथा ‘द ओवर कोट’ पर आधारित और राजेन्द्र सिंह बेदी की निर्मित और अमर कुमार निर्देशित
फिल्म ‘गरम कोट’(1955), भी एक सशक्त
फिल्म थी जिसमें एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार में सौ के नोट के गुमने को प्रतीक
बनाकर आर्थिक संकट की विभीषिका को व्यंग्यरू मिश्रित ढंग से बयान किया गया था।
वहीं ‘सीमा’(1955) परिवार और समाज
द्वारा प्रताड़ित लड़की की कथा है जिसके जीवन का कलुष एक आर्दशवादी व्यक्ति द्वारा
चलाए जा रहे अनाथालय में जाकर घुलता है। यह एक गंभीर यथार्थवादी सामाजिक फिल्म है।
‘भारतीय कृषक ऋण में जन्म लेता है, ऋण में ही पलता है
और अपनी मृत्यु के बाद अपने बाल-बच्चों को विरासत में ऋण दे जाता है।’ भारतीय कृषक जीवन का दृश्य महाकाव्य कही जाने वाली ‘महबूब
खान’ की कालजयी फिल्म ‘मदर इण्डिया’(1957)
इस वाक्य को पूर्ण रूपेण चरितार्थ करती है। फिल्म के केन्द्र में मूलतः
साहूकारी प्रथा और उससे उपजे कृषक जीवन के संत्रास हैं, जिसकी
कहानी गाँव की ‘राधा’ (नर्गिस) नामक
स्त्री के आसपास बुनी गयी है, जिसका पति अपाहिज होकर सदा-सदा
के लिए घर छोड़ गया है और एक बेटा ‘बिरजू’ (सुनील दत्त) गाँव के साहूकार सुख्खी लाला (कन्हैयालाल) के शोषण-उत्पीड़न
के चलते डाकू बन जाता है। एक दिन जब सुक्खी लाला की लड़की का ब्याह हो रहा होता है,
उस दिन बिरजू अपने अन्य साथियों के साथ गाँव पर हमला बोल देता है और
लूटपाट एवं मारपीट के बाद बिरजू लाला की लड़की का अपहरण करके ले जा रहा होता है।
आदर्शवादी ‘राधा’ अपने बेटे बिरजू को
ही गोली मार देती है।... जिस तरह अपनी तमाम अच्छाइयों के उपरांत भी ‘गोदान’ का नायक ‘होरी’ दलित नहीं है, उसी प्रकार ग्रामीण भारत में व्याप्त
शोषण के तमाम अनछुए पहलुओं को उजागर करने वाली फिल्म ‘मदर
इण्डिया’ की नायिका ‘राधा’ भी दलित नहीं है। वह गरीब और विधवा होकर भी गाँव में ‘राधा चाची’ के रूप में सम्मान पाती है। सुख्खी लाला
भी उससे जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकता। यदि दलित होतीं तो ‘राधा’
से रधिया होकर, सुख्खीलाला द्वारा कब की रखैल
बना ली जाती...। फिल्म में राधा के गैर दलित होने का प्रमाण, पुरोहित द्वारा उसके विवाह में वैदिक मंत्रोच्चार भी है, जो एक दलित के विवाह में असंभव है।
इसी
तरह ‘नयादौर’(1957) पूँजीवाद और
मशीनीकरण के विरुद्ध सामूहिक श्रम तथा स्वाबलंबन की महत्व को दर्शाती है। फिल्म में
ग्रामीण अपनी मेहनत के बल पर सड़क तथा पुल का निर्माण करते हैं। यह हमारे लिए
प्रेरण दायक है, क्योंकि आज छोटे-बड़े हर काम को सरकार के
भरोसे छोड़ दिया गया है। हम कष्ट सहते रहते हैं, असुविधा का
समाना करते हैं, लेकिन उससे निजात पाने का प्रयास नहीं
करते।...‘रील लाइफ’ में नयादौर से तथा ‘रियल लाईफ’ में हमें दसरथ मांझी से प्रेरणा मिलती
रहेगी। ‘मिलन’(1957) यों तो पुनर्जन्म
की फंतासी पर आधारित है, किन्तु उसके यथार्थवादी चित्रण के
चलते उसे, एक सामाजिक फिल्म की श्रेणी में भी रखा जा सकता
है। एक ज़मीदार की युवती राधा (नूतन) और गरीब मल्लाह युवक (सुनीलदत्त) के प्रेम
में किस प्रकार उनकी जाति और सामाजिक स्थिति बाधक बनती है कि जिसे सेहरा बाँधकर
दूल्हे के रूप में आना चाहिए, वही मीराँसियों भांति उसके
सामने खड़ा मुबारक गीत गाने को विवश है।... राधा के विधवा होने पर भी गोपी उसका जीवन
साथी नहीं बन पाता। आपसी लगाव से मिली बदनामी और सामाजिक घेराव के चलते अंत में
उन्हें नदी में डूबकर जल समाधी लेनी पड़ती है। पति-पत्नी के रूप में उनका मिलन
दूसरे जन्म में ही हो पाता है। हिन्दी सिनेमा में संभवतः यह पहली फिल्म है जो
सवर्ण युवक और दलित युवती के प्रेम की दुखांत कथा के बँधे-बँधाए ढर्रे को तोड़कर,
फिल्मी पर्दे पर पहली बार निम्न जाति के लड़के और उच्चवर्ग की लड़की
के प्रेम को इतने भव्य स्तर पर दिखाती है। प्रेम के पक्ष में पुनर्जन्म के मिथ को
एक क्रांतिकारी मोड़ देती है, कि प्रेम जाति और ज़मीदारी से
बढ़कर है और दो प्रेमी-प्रेमिका अंततः मिलकर ही रहते हैं।
‘अर्पण’(1957) हिन्दी सिनेमा की
उन ऐतिहासिक दुर्लभ फिल्मों में से एक है, जिसका आधार दलित
जीवन बना। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद (चेतन आनंद) और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी
चांडालिका (प्रिया राजवंश) के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमकथा है, जिसमें अपनी माँ के तंत्र-मंत्र और जादू के बल पर दलित युवति चांडालिका
आनंद को वश में कर लेती है। बंधन में पड़कर आनंद अपना स्वाभाविक स्वरूप खो देते
हैं। चांडालिका आनंद की दयनीय और विरूप स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाती है। वह वासना
भाव से ऊपर उठकर आनंद को मुक्त कर देती है और स्वयं भी अपना सारा जीवन बुद्ध के
चरणों में जाकर अर्पण करती है।
‘सुजाता’(1959) विमलराय की यह बहुचर्चित फिल्म, दलित विमर्श पर बनी
पूर्व की दो फिल्में ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूत’ का परिष्कृत रूप है और कुछ नहीं। यहाँ भी अछूत
कन्या की तरह दलित युवती (नूतन) और ब्राह्मण युवक (सुनील दत्त) है। ‘अछूत’ की तरह इसमें भी एक पिता ब्राह्मण इंजीनियर
उपेन्द्रनाथ चौधरी (तरूण बोस) की दो पुत्रियाँ रमा (शशिकला) और सुजाता (नूतन) हैं,
जिनमें फर्क बस इतना कि फिल्म ‘अछूत’ की लक्ष्मी दत्तक है और सुजाता अछूत कुली की लड़की जिसका पिता प्लेग की
बीमारी के चलते अब इस दुनिया में नहीं है और चैधरी परिवार उसका पालन-पोषण सहर्ष
नहीं दयावश किया करता है। फिल्म ‘अछूत’ में अपनी पुत्री और दलित पुत्री के बीच भेद पिता के सिर पर है, तो सुजाता में माँ पर। फिल्म में सुजाता की धर्म माँ चारू (सुलोचना) सबके
बीच सुजाता को अपनी ‘बेटी’ नहीं,
बेटी जैसा मानती है। यह खाई तब और चैंड़ी हो जाती है, जब एक ब्राह्मण युवक अधीर (सुनील दत्त) रमा को देखने आता है किन्तु अपने
परिवार की इच्छा के विरुद्ध सादगी पसंद सुजाता से विवाह का निश्चय करता है। सारा
दोष सुजाता के सिर आता है। चारू के साथ-साथ सारे परिवार को दुःखी देखकर सुजाता
आत्महत्या का मन बनाती है, किन्तु नदी के घाट पर खुदे
महात्मा गाँधी के वाक्य ‘मरें तो कैसे? आत्महत्या करके? कभी नहीं। अगर आवश्यकता हो तो जिंदा
रहने के लिए मरें।’’ पढ़कर उसका मन बदल जाता। पढ़कर
उसका मन बदल जाता।... इसी बीच चारू सीढ़ियों से गिरकर अस्पताल पहुँच जाती है। उसे
रक्त की गहन आवश्यकता है। परिवार में किसी का ब्लडग्रुप उससे मैच नहीं खाता। मैच
खाता है तो सुजाता का और सुजाता अपनी धर्म माँ को रक्तदान करती है। सुजाता का रक्त
पाकर रमा का हृदय परिर्वतन हो जाता है और वे सुजाता को केवल माफ कर देती हैं वरन
अधीर से उसकी शादी भी करवाती हैं। कथानक की दृष्टि से सामान्य फिल्म ‘सुजाता’ की महानता सुजाता के रूप में नूतनजी का
अभिनय है, जिन्होंने दलित होने की हीनग्रंथि से पीड़ित युवति
के चरित्र को कुछ इस विश्वसनीयता से जिया है कि वह हिन्दी सिनेमा की अमर कृति बन
जाती है। तब परिवार की सहमति से अन्तर्जातिय विवाह होना भी इस फिल्म का एक प्लस
प्वाइन्ट कहा जा सकता है।
‘परख’(1960) विमल राय निर्देशित और शैलेन्द्र के
संवादों से सजी यह फिल्म, चुनाव माध्यम से लोकतंत्र में गलत
व्यक्तियों के चुनकर पहुँने पर निशाना साधती है। इसी के साथ इस फिल्म में गाँव के
दलित डाकिया हराधन (मोतीलाल) के माध्यम से निर्देशक ने अस्यपृश्यता और जातिवाद पर
भी गहरे व्यंग्य किए हैं। ‘गंगा जमना(1960) दिलीप कुमार के फिल्म मदर इण्डिया में न होने की टीस का परिणाम है थी
इसमें भी ज़मीदार के अत्याचार और एक सामान्य किसान गंगा के बागी होने की दुखांत
गाथा है, किन्तु इसमें दलित युवति धन्नो (बैजंयती माला) और
गैर ब्राह्मण युवक जमुना (दिलीप कुमार) की मार्मिक प्रेमगाथ भी शामिल है। फिल्म
में जमना और धन्नो के विवाह के पूर्व हाथ में जनेऊ लेकर पुरोहित जमना से यह कहता
है कि यह विवाह इसलिए नहीं हो सकता कि तेरी जात धन्नो की जात से ऊँची है, उस समय गंगा का पुरोहित को भगवान के महामंत्री संबोधित करते हुए
प्रतिउत्तर में यह कहना कि, ‘‘जब ऊँची जात वाले ऊकी गत बना
रहे थे, तब तुम कहाँ गए थे? जब हमरी
कुत्ते जैसी दशा हुय रही थी, जब हम भूखे पेट जंगल में
मारे-मारे फिर रहे थे। चल-चल के हमरे पैरों में छाले पड़ गए थे, उत्ते समय हमरे सर पे हाथ रखे कोई नहीं आया। ई आई थी और तुमरे सामने खड़ी
है। उस दिन हम येके काँधे पे सर रख के रोये थे...।’’ इस रूप
में यह फिल्म ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध जाते हुए, सामंतवाद
के खिलाफ लड़ाई का हथियार भी बनती है।
‘फूल और पत्थर’ (1966) ओ.पी. रल्हन निर्देशित और
धर्मेन्द्र और मीनाकुमारी अभिनीत इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक अपराधी दलित की
भूमिका निभाई थी, जिसे उच्च जाति की विधवा युवती (मीना
कुमारी) से प्रेम हो जाता है। अब यह फिल्मकारों की सोच की बिडंबना ही कही जा सकती
है कि एक ओर बाबा साहेब आम्बेडकर राष्ट्रीय स्तर पर डाॅ. शारदा कबीर से आपसी सहमति
के आधार पर विवाह कर चुके थे और हिन्दी सिनेेमा का फिल्मकार अभी भी डरता हुआ दलित
युवक और सवर्ण विधवाओं के प्रेम प्रसंग ही दर्शाने का साहस जुटा पाया था। सगीना
महतो (1970) तपन सिन्हा की यह फिल्म इस दशक अन्तिम
महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में ब्रिटिस राज के दौरान उत्तर भारत के पूर्वी
क्षेत्र के एक चाय बागान के श्रमिक नेता की कहानी है। सगीना महतो ब्रिटिस मालिकों
के अत्याचार का सामना करते हुए मजदूरों के अधिकार के लिए लड़ता हैं। वहीं एक युवा
कम्युनिस्ट अमल है जो गरीब और पिछड़े वर्ग की जनता की सहायता करने के लिए आता है।
सामाजिक पदानुक्रम में उच्च और एक बिहारी नेता के आने पर निम्नवर्गीय ‘सगीना’ अलग-थलग पड़ जाता है। इस फिल्म से पहली बार
कट्र मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वाले संगठनों के बीच में भी (सेनामुख/आगे
रहने की प्रवृत्ति) होने की अशिष्ट प्रवृत्ति का पता चलता है।
सत्तर
के दशक का सिनेमा हमारे आजादी से स्वप्नभंग का समय था। इस दशक की फिल्मे अहसास
कराती हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत से सामंती उत्पीड़न का खात्मा नहीं
हुआ है। इस उत्पीड़न से सामना हुए बगैर नये समाज का निर्माण संभव नहीं है। इसलिए
इस दशक की दलित-आदिवासी विमर्श आधारित फिल्मों में ग्रामीण परिवेश रोमानियत से अलग
एक कड़वी सच्चाई के रूप में प्रकट हुआ है। ‘अंकुर’
(1973) श्याम बेनेगल की पहली फिल्म है। ग्रामीण परिवेश उसके पूरे
रंग-ओ-आब के साथ सामंती मूल्यों के खिलाफ खड़ी यह फिल्म फिल्मों के बाजार में एक
सशक्त चुनौती है। फिल्म में गरीब किसान (साधू मेहर) अनाज चोरी में पकड़ा जाता है।
गांव का जमींदार (अनंत नाग) उसके मुँह पर कालिख पोतकर उसे पूरे गांव में गधे पर
बैठाकर घुमाता है। इतना ही नहीं गांव का क्रूर जमींदार किसान की पत्नी (शबाना
आजमी) को भी अपनी गिरफ्त में करता है। किसान की वह गर्भवती हुई पत्नी ज़मींदार के
कहने पर भी गर्भपात नहीं कराती। गुस्साया ज़मींदार साधू को सजा देता है, इससे आहत हो उसकी पत्नी जमींदार को बहुत कोसती है। ज़मींदार दरवाजा बंद
किए हुए बैचेनी से सुन रहा है। इस दृश्य में जमींदार युवक के प्रति निर्देशक की
सहानुभूति का बोध खटकता है। परंतु फिल्म के अंत में एक छोटा बच्चा जमींदार के घर
पर पत्थर फेंकता है। खिड़की का कांच चटक जाता है। इसका एक अभिप्राय यह है कि नयी
पीढ़ी को युवक जमींदार की बेचैनी, उसकी आत्मस्वीकृति की
परवाह नहीं है। नयी पीढ़ी हर घर का कांच तोड़ देगी। फिल्म इस साहस और जोखिम से
टकराती है। एकल साहस, एकल जोखिम के बाद भी, फिल्म का संदेश है, नयी पीढ़ी गांव के उत्पीड़न को
बर्दाश्त नहीं करेगी।[12]
‘बाबी’ (1973) इस वर्ष की दूसरी फिल्म है जो
एक मुंबई के एग्लों-इण्डियन दलित मछुआरे की लड़की बाबी (डिंपल कपाड़िया) और एक
उच्चवर्गीय लड़के राज (ऋषि कपूर) के किशोर रोमांस के उपफनते प्रेम के बीच वर्ग और
जाति के उपबंध तोड़ती सुन्दर प्रेम कहानी है। बहुत सारे नए आयाम लिए इस फिल्म में
एक नयापन यह है, कि बदलते परिवेश में सम्पन्न हुआ दलित
मछुआरा कहीं से भी दीनहीन नहीं है। वह अपनी लड़की के हक़ में किसी भी सीमा तक जाने
को तैयार है। संभवतः इसका श्रेय उत्तर की अपेक्षा महाराष्ट्र में सर्वप्रथम उठी
सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति की लहर को दिया जा सकता है, जिसने दलितों को आर्थिक रूप से सम्पन्न और सामाजिक रूप ये सुदृढ़ होने का
मार्ग सुझाया था।
‘निषांत’ (1975) अंकुर के बाद की श्याम बेनेगल की ही
फिल्म है, जिसमें वे एक कदम आगे बढ़कर जमींदारी अत्याचारों
के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को चित्रित करते हैं। फिल्म में पत्नी
की मर्यादा भंग होने पर मास्टर साहब (गिरीश कर्नाड) गांव को मिलाकर संगठित रूप से
जमींदार (अमरीशपुरी) के घर पर हमला करते हैं। फिल्म अच्छाई पर बुराई के संघर्ष में
जमींदार की हत्या के बावजूद आवाम की जीत का अहसास पैदा नहीं कर पाती। ‘दीवार’, (1975) दीवार यश चोपड़ा की बहुचर्चित और
बहुदर्शित फिल्म है। फिल्म के मूल में मजदूर संघ के एक नेता आंनद (सत्येन कपूर)
है। मिल मालिक आनंद को उसके परिवार सहित जान से मारने की धमकी देते है। बेवश आनंद
मालिकों से समझौत कर लेता है। इससे मजदूरवर्ग आनंद को चोर और बेईमान मानकर उस पर
जानलेवा हमला करता है। आनंद अपनी जान बचाकर भगता है। मजदूरों के कोप से आनंद का
परिवार भी नहीं बचता। उसके दो बच्चे विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) और
पत्नी (निरुपाराय) को वह स्थान छोड़कर मुंबई भागना पड़ता है। भागते हुए भी वे
मजदूर विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर-‘मेरा बाप चोर है।’
लिख देते हैं। अपने हाथ पर लिखे इस अपराधी शिलालेख के चलते
स्वाभिमानी विजय कहीं भी सम्मान नहीं पाता और वह अपराध की दुनिया में धँस जाता है।
दूसरा भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस अफसर बनता है। एक कानून का रखवाला है तो दूसरा
भंजक। आगे की कहानी दानों भाइयों की इसी तकरार की कहानी है। फिल्म में विजय (अमिताभ
बच्चन) का बचपन में बूटपालिश करना और उसी से जुड़ा उसका जवानी में बोला गया यह
संवाद-‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता!’ फिल्म ‘दीवार’ को दलित
स्वाभिमान अंकुरण की फिल्म बना देता है।[13]
‘मृगया’ (1976) मृणाल सेन निर्देशित यह फिल्म
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी शिकारी
घिनुआ (मिथुन चक्रवर्ती) की बहादुरी की कथा कहती है। साहूकार भुवन सरदार एक
आदिवासी विद्रोही का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार को पहुँचाकर इनाम पाता है। प्रतिशोध
में नायक घिनुआ उस साहूकार का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार के अधिकारी के पास यह कहकर
पहुँचाता है कि उसने जंगल के सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है। वह जो दूसरों की
बहू-बेटियों को बेइज्जत कर अपनी हवस पूरी करता है, उससे बड़ा
शिकारी कौन हो सकता है। उसकी बहादुरी पर अंग्रेज सरकार को भी सजा सुनाते हुए दो
बार सोचना पड़ता है। उपनिवेशकालीन शोषण के विरुद्ध और प्रकारांतर से आपातकाल के
विरोध में खड़ी यह बहुचर्चित फिल्म, दलितों के बाद आदिवासी
जीवन और उनके कथावृत्तों का चित्रपट पर उभरने के प्रारंभिक सफल प्रयासों में से एक
है। यह सब अनायास ही नहीं हुआ था उस समय तक 1969 में बंगाल के
नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन देश के उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में
अपना प्रभाव पकड़ चुका था। तब बंगाली फिल्मकार मृणलसेन इसके प्रभाव से कैसे
बचपाते। शोषण के विरुद्ध सार्थक हिंसा इस फिल्म का मूल स्वर है।
‘मंथन’ (1976) श्वेत क्रांति के जनक और गुजरात के
नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी और श्याम
बेनेगल निदेर्शित यह फिल्म यथार्थ जीवन की कथा पर आधारित है। इसमें सहकारिता की
शक्ति को प्रदर्शित किया गया है और इसके साथ ही उन बाधाओं का भी निरूपण किया गया
है जो सामाजिक कार्यों के बीच आ खड़ी होती हैं। इनमें सिर्फ शोषक वर्ग ही नहीं
होता अपितु जातिवाद और अस्यपृश्यता जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी
होते हैं जो सृजानत्मक कार्यों में अवांछित अवरोध खड़े करते हैं। गंगा की सौगंध (1976)
राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के
दौर सुल्तान अहमद निर्देशित ‘गंगा की सौंगध’ एक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा(ंगंगा) जमींदारी
अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य सी कहानी है।
फिल्म में ध्यान देने योग्य एक चीज़ यह है कि फिल्मकार के मुस्लिम होने के कारण
इसमें दलितों के ज़मीदारी अत्याचारों से तंग आकर गाँव से पलायन का दृश्य, पूरी तरह पैगंबर हजरत मुहम्मद के मदीना से मक्का ‘हिजरत’
करने की शैली में फिल्माया गया है। जमींदारों और सवर्णीय अत्याचारों
के विरुद्ध दलितों का अपना निवास छोड़ सुरक्षित स्थान की ओर हिजरत (पलायन) कर जाने
का विचार गाँधी का भी था। फिल्म में यह प्रभाव मिलाजुला माना जा सकता है, क्योंकि धनिया का पिता कालू चमार(प्राण) अपनी जूते दुकान में गाँधी की
तस्वीर लगाए हुए दिखाया गया है दूसरे जमींदार के अत्याचारों से पलायन अपनी
जाति-बिरादरी के साथ कालू जिन उदार मुस्लिमों के यहाँ शरण पाता है वहाँ उसका
स्वागत ठीक वैसे ही होता है, जैसे मदीना छोड़कर गए हजरत
मुहम्मद का मक्का में स्वागत होना बताया गया है। फिल्म में प्राण का कालू चमार के
रूप में विद्रोही अभिनय एक स्मरणीय हिस्सा है।
‘आक्रोश’ (1980) आदिवासी विद्रोह की जो शुरूआत ‘मृगया’ से हुई थी, उसकी
समकालीन समय के क्रूर यथार्थ में परणिति, गोविन्द निहालनी
निर्देशित व विजय तेन्दुलकर कृत फिल्म ‘आक्रोश’ में होती है। यह फिल्म भीखू लहन्या (ओमपुरी) नामक आदिवासी की व्यथा बयान करती
है जो अपनी ही पत्नी नागी लहन्या (स्मिता पाटिल) के कत्ल के जु़र्म में मुज़रिम है
और अपने बचाव में एक भी शब्द नहीं बोलता! स्थानीय राजनेता, पूँजीपति
और पुलिस तीनों ने मिलकर ही उसकी पत्नी से बलात्कार करने के बाद उसकी जघन्य हत्या
की है। निरक्षर होने बावजूद लहन्या मूर्ख नहीं है वह जानता है कि उसे यह स्वार्थी
व्यवस्था न्याय नहीं दे सकती और व्यवस्था के इस ढोंग में पड़कर अपनी पत्नी की
अस्मिता की और छीछालेदर नहीं करवाना चाहता, इसलिए वह न अदालत
में एक शब्द बोलता है और न सरकार द्वारा न्युक्त किए गए वकील को कुछ बतलाता है।
उसे जब अपने पिता के अन्तिम संस्कार की इजाजत मिलती है तो वह मौके का फायदा उठाकर
अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के साथ ही अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि
उसकी असहाय बहन भी उसकी पत्नी की तरह ही समाज के बेईमानों की दरिंदगी का शिकार न
हो। दलित-आदिवासी जीवन के नग्न यथार्थ को रूपायित करने वाली इस फिल्म में नक्सलवाद
की स्पष्ट अनुगूँज है और कथा परिदृश्य में एक अनाम नक्सली (महेश एलंकुचवार) भी है
जो आदिवासियों के बीच संगठन का काम करता है। वहीं दूसरी ओर भास्कर कुलकर्णी
(नसीरुद्दीन शाह) है जिसका कानून और न्यायवस्था पर से अभी विश्वास छूटा नहीं है उन
दोनों के निम्न संवाद से हम फिल्म ‘आक्रोश’ की पक्षधरता समझ सकते हैं-
कामरेड:
दया आती है तुम्हें?
भास्कर
कुलकर्णी: ये लोग सोचते क्यों नहीं, जब तक
ये बोलेंगे नहीं तब तक कोई इनकी मदद नहीं कर सकता?
कामरेड:
आप उन्हें साँस भी लेने दें, तब ना? दोष उनका नहीं आपकी व्यवस्था का...?
भास्कर
कुलकर्णी: जी हाँ जानता हूँ, मार्क्सिस्ट लोग तो
हर...।
कामरेड:
हर्ट करना चाहते हो...।
भास्कर
कुलकर्णी: सो सारी...!
कामरेड:
मुझे घिन आती है तुम्हारे एटीट्यूड पर... तुम्हें दया आती है लेकिन जो कुछ चल रहा
है उस पर गुस्सा नहीं आता। खिचाई की तो आदत बन गई है,
बड़ा नाॅवेल फील कर लेते हैं आप...फिर उसके बाद कुछ करने की जरूरत
ही नहीं।
भास्कर
कुलकर्णी: और किया भी क्या जा सकता है...?
काॅमरेड:
टिपीकल पेटी बुर्जुआ एटीट्यूड, क्रांति तो दूर इस
घिनौनी परिस्थिति को बदलने का ख्याल तक नहीं आता हमें... ऐसा तो रोज़ ही होता है
कहकर चुप हो जाते हैं सब... क्या हो गया हमें; हमें शर्म ही
नहीं आती? गुस्सा भी नहीं आता?
भास्कर
कुलकर्णी: यश! आई डू हिम वट वरी सैम....लेकिन हमारी इतनी ताकत नहीं है;
मैं सिर्फ लहन्या की मदद कर सकता हूँ...।
कामरेड:
लहन्या जैसे इक्के-दुक्के की की मदद करने से क्या यह समस्या हल हो जाएगी?
इस व्यवस्था को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तब तक कुछ नहीं होने वाला...।’’
भास्कर
कुलकर्णी: लेकिन, देखिए यदि मैं एक भी गरीब आदिवासी की मदद कर सकूँ,
उसे न्याय दिला सकूँ, तो कहीं तो कुछ तो फर्क
पड़ेगा...।’’
कामरेड:
तो तुम यह समझतो हो कि तुम्हारी इस व्यवस्था में इंसाफ मिलना मुमकिन है?
भास्कर
कुलकर्णी: इंसाफ दिलाना हमार फ़र्ज़ है...।[14]
फिल्म
का एक पक्ष दुसाणे वकील (अमरीश पुरी) है, जो
स्वयं आदिवासी होकर भी पूँजीपति, नेताओं और वकीलों के केस
लड़ता है। उन्हीं के साथ उसका उठना-बैठना है और उन्हीं की गालियाँ भी खाता है।
किन्तु वह अपने को इस तरह डी-कास्ट कर चुका है कि सिर्फ केस लड़ने के अलावा उसकी न
तो ह्यूमनिटी में आस्था है न ही आत्मसम्मान और खुद्दारी में। बाबा साहेब ने संभवतः
ऐसे ही पढ़े-लिखे प्रशासनिक दलित-आदिवासियों को ध्यान में रखकर कहा था, कि मुझे सबसे ज्यादा धोखा पढ़े-लिखे लोगों ने ही दिया है। ‘चक्र’ (1980) रवीन्द्र धर्मराज की इकलौती फीचर फिल्म
जो मुंबई में झोपड़पट्टियों में रहने वालों के जीवन की आशा-निराशाओं की मार्मिक
कथा बयान करती है। उन कारणों की ओर इशारा करती है जो उनको विपदाग्रस्त वीभत्स जीवन
से बाहर नहीं निकलने देते। व्यवस्था की उनकी कुटिलताओं को भी रेखांकित करती है जो
उन्हें पशुवत जीवनयापन के लिए मजबूर कर रही हैं। जयंत दलवी के मराठी उपन्यास पर
आधारित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दीन शाह, स्मिता
पाटिल, कुलभूषण खरबंदा, रंजीता चैधरी,
सविता बजाज और रोहिणी हट्टंगड़ी।
अंधेर
नगरी’ (1980) गुजराती लोककथा ‘अछूत
नो वेश’ पर आधारित केतन मेहता की यह पहली फिल्म में अछूतों
की हीन दशा और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है। एक राजा की
दो रानियों के आपसी संघर्ष में बड़ी रानी के बेटे को छोटी रानी मरवा डालने का
प्रयत्न करती है परंतु वह दलित-आदिवासियों द्वारा बचा लिया जाता है और उसके समुदाय
की ही एक लड़की से प्यार करने लगता है। गुजरात के ‘भवाई’
लोकनाट्य शैली में फिल्म के अंत में सूत्रधार यह संदेश देता दिखाया
गया है कि यदि हम अपने अधिकारों की प्राप्ति के प्रति सचेत और सघर्षशील हो जाएँ तो
अन्याय का उन्मूलन कर सकते हैं। नसीरुद्दीन शाह, मोहन गोखले,
ओमपुरी, स्मिता पाटिल और दीना पाठक इसके मुख्य
कलाकार थे। ‘सदगति’ (1981) सत्यजीत राय
निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित यह एक मात्र फिल्म है, जो उस अप्रतिम
कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचन्द ने ‘सद्गति’
में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी उसी प्रकार सत्यजीत राय ने भी
उसी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे। ‘आरोहण’ (1982) समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक
गैर बराबरी से उत्पन्न वर्गसंघर्ष को केन्द्र में रखकर बनाई गई श्याम बेनेगल की यह
फिल्म एक ग्रामीण हरिमंडल की कहानी है जो जमींदार के अत्याचार से उत्पीड़ित है।
पुलिस और प्रशासन भी हरि की जगह जमींदार की सहायता करते हैं। हरि लेकिन तब भी
हिम्मत नहीं हारता और निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने को ही शोषण से मुक्ति का
साधन मापता है। मुख्य कलाकार थे ओमपुरी, शीला मजूमदार,
पकंज कपूर ओर विक्टर बैनर्जी। ‘सौतन’
(1983) सावन कुमार निर्देशित और राजेश खन्ना के नायकत्व वाली इस
फिल्म में टीना मुनीम के विरुद्ध सौतन के रूप में एक दलित युवति राधा की भूमिका का
निर्वहन पद्मिनी कोल्हापुरे ने किया था।
‘दामुल’ (1984) ‘शुरू होता है जहाँ से भय और अंधेरा/शुरू
होती है भय और अंधेरे को भेदने की इच्छा भी वहीं से।’ कुमार
अंबुज की ‘गुफा’ कविता की यह पंक्तियाँ
प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘दामुल’ पर
सटीक बैठती हैं। यह फिल्म आईना है बिहार का, जिसके
समाजार्थिक स्थितियों का खुलासा वह करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती
है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद के दंश झेलते उन दलितों की असाहयता
को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर
हिन्दू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहाँ आदमी जानवर
होने को अभिशप्त है। ‘दामुल’ है तो एक
बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है,
उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह
नहीं चाहता। इसके अलावा फिल्म में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में हरिजन
(दलित) कैसे पिसते है, यह प्रकाश झा की आँख देखती है।
बिहार
के जिला मोतीहारी के बच्चा सिंह राजपूत की खुन्नस यह है कि परधानी में ब्राह्मण
माधो पांड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने की चाल स्वरूप वे इस वार हरिजन टोले
के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो
पांड़े का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव ई बाभन लोग का बनाया हुआ है। अपनी इस चाल में बच्चा सिंह सफल तो हो
जाते है, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चासिंह को छोड़कर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग
करने नहीं जाते। बच्चासिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम,
जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो
पांडे़ चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडे को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के अहाते
में बंधक बना देने वाले माधो पांडे़ अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से
हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना बैठना, उनकी
बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ
बेकार चला जाता है। इधर गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में
बहुत खून-खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में
बदल जाता है। आगजनी और हत्याओं के नंगे-नाच के बीच अंततः सारे गिले-शिकवे मिटाकर
माधो पांड़े और बच्चासिंह का बाभन-राजपूती मेल हो जाता है। इसके बाद तो फिर पुलिस,
नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते?
गाँव
की विधवा महत्माइन जिसकी जर-ज़मीन ही नहीं, माधो
पाड़ें उसका शारीरिक शोषण भी करता है, एक रात वह उसकी हत्या
करवा देता है। केस में फँसा दिया जाता है संजीवना। संजीवना माधो पाड़ें का बंधुआ
है। कानून तो ताकतवर के लिए है। बंधुआ संजीवना के लिए महत्माइन की हत्या का झूठा
केस दामुल साबित होता है। उसे इसमें फाँसी हो जाती है।...गौर करने की बात है कि जो
दलित बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उठा खड़ा नहीं होती, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पांड़ें ठंड की रात में अपने
गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी)
गंड़ासा लेकर आती है और माधो पांड़े के गले पर प्रहार करती है। माधो कुर्सी से
गिरकर छटपटाने लगता है और अंततः दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं,
रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है-‘तू
मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...!’ यशस्वी
कथाकर शैवाल की कहानी पर आधारित ‘दामुल’ में मुख्य कलाकार थे मनोहर सिंह, अन्नू कपूर,
दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजना कामथ, प्यारे मोहन सहाय इत्यादि।[15]
‘पार’ (1984) बिहार के गाँव-जवार में दलितों के चुनाव
में खड़े होने और सवर्णीय कुचक्रों चलते मिली असफलता की जो एक हल्की सी झलक हम ‘दामुल’ में देखते हैं, उसका
अगला रूप गोतम घोष निर्देशित फिल्म ‘पार’ में हमें देखने को मिलता हैं। फर्क बस इतना है कि यहाँ एक दलित को चुनाव
में खड़ा करने का प्रयत्न बाभन-राजपूत नहीं, एक आर्दशवादी
स्कूल मास्टर करता है।... चुनाव सफलतापूर्वक जीता जाता है। मास्टर के प्रगतिकामी
विचार और गाँव में दलित राजनीति आने से जगी आशा की किरण से उत्साहित गाँव के मजदूर,
स्थानीय ज़मींदार के यहाँ न्यूनतम वेतन पर मजदूरी करने से इन्कार कर
देते हैं। ज़मींदार इस सब की जड़ स्कूल मास्टर को पहले तो धमकाता है और फिर न
मानने पर एक रोड एक्सीडेन्ट में उसकी हत्या करवा देता है। इस घटना का प्रतिकार
गाँव का विद्रोही दलित नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) अपने अन्य साथियों के साथ,
जमींदार के भाई की हत्या के रूप में करता है। बदले में जमींदार पूरी
दलित बस्ती में आग लगावा देता है। उस दहशतज़दा माहौल में नौरंगिया और उसकी गर्भवती
पत्नी (शबाना आजमी) भागकर किसी तरह कलकत्ता पहुँचते हैं। जहाँ रोजगार के स्थायी
अभाव और मिलों में चल रही अनिश्चितकालीन हड़तालों के कारण, अंततः
भूख से लड़ते थक-हारकर वे दलित दंपत्ति गाँव लौटने के लिए विवश होते हैं। किराये
का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है-सुअरों के झुँड को नदी
पार कराने का। सुअरों के झुँड को वे नदी पार तो पहुँचा देते हैं और पार पहुँचकर
उन्हें रोटी भी मिल जाती है और पैसा भी, पर उसकी पत्नी के
पेट में पलने वाला उसका बच्चा मर जाता है। दलित जीवन की भयानक त्रासदियों में से
एक फिल्म ‘पार’ सिद्ध करती है, कि सिनेमा भी जीवन से जुड़ी सच्चाइयों को बयान करने का एक सशक्त दृश्य
माध्यम है और क्यों? इसके शुरूआती दौर से लेकर अब तक
परंपरागत रूढ़िवादी तबका; इससे नाक-भौं सिकोड़ता चला आ रहा
है...।
के.
विश्वनाथ की ‘जाग उठा इंसान’ (1984) इस वर्ष
की एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसमें मिथुन ने एक हरिजन
युवक ‘हरि’ और श्रीदेवी ने एक ब्राह्मण
युवा नर्तकी ‘संध्या’ भूमिका निभाई थी।
तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद संध्या और हरि का मिलन होता है। ‘जन्मना जयते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्च्यते’ जैसे
प्रकारांतर में ब्राह्मण श्रेष्ठता को जीवित बनाये रखने वाले आर्यसमाजी विचार के
तहत, युवति का पिता और भतीजा यह रिश्ता स्वीकार भी कर लेते
हंै, किन्तु उसका भाई और गाँव समाज नहीं; जिनके क्रूर हमले में हरि और संध्या को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता हैं।
सटीक अभिनय और अर्धशास्त्रीय संगीत के होते हुए भी फिल्म का दुखांत दर्शकों को
भाया नहीं और फिल्म फ्लाप हुई। स्मरण रहे मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों का दर्शक
अधिकांशतः दलित-पिछड़ा आम आदमी ही रहा है, वह अपने नायक (जो
फिल्म में भी दलित है) की पराजय भला कैसे स्वीकार कर करता? ‘आदमी
और औरत’ (1984) तपन सिन्हा निर्देशित, अमोल
पालेकर, महुआ राय चौधरी अभिनीत मूलतः एक यह टेलीफिल्म है जो
दूरदर्शन द्वारा दूरदर्शन के लिए ही बनी थी, किन्तु जाति और
धर्म से परे मन और देह के धरातल पर मात्र स्त्री-पुरुष होने की कथा कहती इस फिल्म
को ‘इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टीवल’ में भी
सराहा गया और अवार्ड जीते थे।
‘देव शिशु’ (1985) उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित
धार्मिक शोषण पर आधारित यह फिल्म एक ऐसे दलित माता-पिता रघुवर (ओमपुरी) और सीता
(स्मिता पाटिल) के तीन सिर वाले बच्चे की कहानी है, जिसे
अशुभ कहकर जिये महंत नामक तांत्रिक (साधू मेहर) ने उनसे छीन लिया था। गाँव में आई
बाढ़ से लुटकर रघुवर और सीता जब अपने एक रिश्तेदार के गाँव पहुँते हैं, तो वे वहाँ देखते हैं कि उनका वही तीन सिर वाला शिशु एक ठेले पर रखा हुआ
है और दो व्यक्ति उसे देवशिशु कहकर प्रचारित कर रहे हैं। अंधश्रद्धा में डूबे लोग
भी उस पर पैसों की बौछार किए जा रहे हैं। रघुवर इसका तीव्र विरोध करता है, परिणाम स्वरूप वहाँ उपस्थित लोग उसे मार-मारकर अधमरा कर देते हैं। किसी
तरह जान बचाकर भागा रघुवर अपनी पत्नी के पास आता है और अपनी पत्नी से पुनः उसी तरह
का विचित्र बच्चा पैदा करने का आग्रह करता है, ताकि जिसके
जरिये वह भी कमाई कर सके। अपने सम्पूर्ण अर्थ में ‘देवशिशु’
एक महत्वपर्ण फिल्म है, जिसका एक दर्शन (पाठ)
यह भी है कि धार्मिक अंधविश्वास के आधार होने वाले अर्थोपार्जन पर जन्मजात आरक्षण
केवल सवर्ण पुरोहित, पंडे-पुजारी और संत-महंतो का ही है और
वे इस क्षेत्र में भूलकर भी दलित वर्ग को प्रश्रय नहीं देना चाहते/चाहेंगे।
‘गुलामी’ (1985) यद्धपि वर्ग और जाति के अपने संस्कार
होते हैं और उनका प्रतिबिंब व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक छाप के रूप
में अवश्य रहता है। उससे छुटकारा पाना असंभव नही ंतो आसान भी नहीं है, किन्तु जो इससे मुक्त हो जाता है वही सिद्ध पुरुष कहलाता हैं। जे.पी.दत्ता
निर्देशित और उनके पिता ओ.पी दत्ता द्वारा लिखित फिल्म ‘गुलामी’
एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कृति है, जिसे फिल्मकार
ने अपने तमाम पूर्वाग्रह और संस्कारों से मुक्त होकर सहज मानवीय धरातल पर स्वतंत्रता
और समानता की पैरोकार प्रतिनिधि रचना के रूप में किया है। यह फिल्मकार की दृष्टि
का ही विस्तार है कि जिस दलित जीवन की दुश्वारियों को महात्मा गाँधी भी सवर्णों की
आम समस्याओं से अलग करके नहीं देख सके थे, गुलामी का
निर्देशक फिल्म के प्रारंभ में ही सूत्रधार (अमिताभ बच्चन) के माध्यम से, उन्हें पहले ही अलग बताता हुआ आगे बढ़ता है-‘अंग्रेजों
की हुकूमत से जूझने के लिए और गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए तमाम हिन्दुस्तानी
वतन के सिपाही बन चुके थे। कुछ जाने-पहचाने कुछ बेनाम और कुछ गुमनाम। आजादी का
सपना तो सभी देख रहे थे, मगर एक सिपाही का सपना कुछ अपना था
उसकी गुलामी की जंजीरें अलग थीं और उसकी आजादी की देवी की मूरत भी अलग थी। वह
गुमनाम जरूर था मगर बेनाम न था। उसका नाम था रंजीत सिंह चौधरी।[16]’
फिल्म का प्रारंभ होता है राजस्थानी मरुधरा के एक अनाम गाँव के एक दलित
लड़के रणजीत के विद्रोह से, जो ब्रिटिश सरकार के शोषण और दमन
की जड़ें काटता, अपने गाँव-समाज में व्याप्त-अस्यपृश्यता,
जातिवाद और जमींदारी की जड़ें काटने का प्रयास करता है। रणजीत अपने
स्कूल में पीछे नहीं आगे और सवर्ण बच्चों के बगल में बैठना चाहता है। ऊँची जाति के
बच्चों के लिए पृथक रखे मटकों से पानी पीकर, वह पानी-पानी का
भेद मेटना चाहता है। पर यह हो नहीं पाता। स्कूल में जमींदार के लड़कों से लड़ी
बराबरी की लड़ाई में, उसे हवेली बुलाकर मार पड़ती है। हवेली
में अपना और अपने माता पिता का अपमान रणजीत सहन नहीं कर पाता और आगे की पढ़ाई पूरी
करने अपने मामा के यहाँ चला जाता है।
रणजीत
अपनी पढ़ाई पूरी कर भी नहीं पाता कि क़र्ज़ और जमींदार/महाजनों के शोषण के चलते
बीमार और फिर मृत्यु को प्राप्त हुए पिता के देहांत की खबर सुनकर वह अपने गाँव लौट
आता है। परंपरा अनुसार रणजीत के पिता द्वारा ज़मीदार से लिया क़र्ज़ रणजीत के सिर
आता है, किन्तु विद्रोही रणजीत इससे इन्कार कर देता है।
ज़मीदार पुलिस से मिलकर युवा रणजीत (धर्मेन्द्र) को जेल भिजवा देता है। घर में माँ
अकेली माँ के रहते रणजीत का खेत और घर नीलाम हो जाता है और माँ विक्षिप्त। कुछ दिन
बाद जमींदार की प्रगतिशील लड़की सुमित्रा (स्मिता पाटिल) के प्रयासों से रणजीत
सिंह जेल से छूट आता है, किन्तु अपना घर और खेत नीलाम होने
के कारण अपनी मानसिक स्थिति खो बैठी रणजीत की माँ (सुलोचना) उसके आने के साथ ही यह
दुनिया छोड़ देती है। रणजीत अपनी ही बिरादरी की मित्र लड़की मोरा (रीनाराॅय)
जो उसके जेल से आने तक उसकी माँ की सरंक्षक बन रही थी, उसे
अपनी पत्नी बना लेता है।
इसके
बाद गाँव में क्रमशः चार घटनाएँ घटती हैं। एक के ज़मींदार के विरुद्ध जाकर रणजीत
गाँव छोड़कर जा रहे किसानों को गाँव में ही रोक लेता है और क़र्ज़ में
जमींदार के कारिन्दों द्वारा खोलकर लिए जा रहे किसानों के हल-बैल वापस कराता है।
दो दलितों के लिए प्रतिबंधित जमींदार के कुँए पर सामूहिक रूप से पानी भरने के लिए
संघर्ष करता है। तीन दलित हवलदार गोपी (कुलभूषण खरबंदा) अपने बेटे के विवाह के
अवसर पर निम्न जातियों के लिए वर्जित घुड़चढ़ी की रस्म करने के प्रयास में,
अपने बेटे मोहन से हाथ धो-बैठता है। इसी क्रम में चैथी घटना अंतर्गत
एक दिन रणजीत और सुमित्रा डाकुओं के बीच फँस जाते हैं। रणजीत एक शिक्षक है यह
सुनकर डाकुओं का सरदार उनसे नरमी बरतता हैं। जमींदार और साहूकारी शोषण के चलते एक
आम इंसान से बागी बने डाकुओं के सरदार का दृष्टिकोण पलटने के लिए, रणजीत उन्हें पढ़ने के लिए मक्सिम गोर्की का महान उपन्यास ‘माँ’ देता है।
अंत
में यही उपन्यास रणजीत सिंह की बर्बादी का सबब बनता है। एक मुठभेड़ में डाकुओं के
डेरे से पुलिस के हत्थे यह किताब चढ़ जाती है। पुलिस जब्त की हुई पुस्तक की पहचान
कर लेती है जो गाँव के पुस्तकालय में चैधरी रणजीत सिंह के नाम चढ़ी हुई थी,
रणजीत एक बार फिर जेल में होता है। कटे पर नमक यह कि एसपी सुल्तान
सिंह जो सुमित्रा का पति है, उसकी विवाह के बाद वहीं आकर
पोस्टिंग होती है। वहाँ आकर जब उसे यह ज्ञात होता है कि नीच जात रणजीत और उसी
पत्नी सुमित्रा कभी मित्र थे, तब तो वह जेल में रणजीत को और
अधिक मात्रा में यातना देता है। तंग आकर रणजीत एक दिन जेल से भाग खड़ा होता है और
अपनी बेटे की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए हवलदार से बागी बने गोपी दादा की
गैंग में शामिल हो जाता है। इसी क्रम में एक व्यक्ति और बागी बनता है-जाबर (मिथुन
चक्रवर्ती)। दलितों के प्रति सहानुभूति रखने और बागी रणजीत की हथियारों से मदद
करने के कारण, पूर्व आर्मी मैन जाबर को भी एसपी सुल्तान सिंह
झूठे केश में फँसा देता है।
इधर गाँव के स्कूल मास्टर (राम मोहन) की अनाथ बेटी और जाबर की मंगेतर
तुलसी (अनीता राज) हवेली में ज़मीदार के ऐयास बेटों से अपनी मर्यादा की रक्षा करती,
मारी जाती है। घुड़चढ़ी की ज़िद में अपने बेटे को खो चुके गोपी दादा
के सामने भी वैसा ही दृश्य पैदा होता है। थानेदार फतेसिंह (रजामुराद) अपने बेटे की
बरात लेकर जा रहा होता है। प्रतिशोध की आग में जलते गोपी दादा अपनी गैंग के साथ
हमला करते हैं और फतेसिंह को मार गिराते हैं, किन्तु उसके
मासूम बेटे को डाकू और पुलिस की गोलियों से बचाते हुए खुद मारे जाते हैं। इस प्रकार
जुल्म की इंतिहा हो जाती है।
फिल्म
के अंत में चैधरी रणजीत सिंह और जाबर गैंग के साथ गाँव पर हमला बोल देते है। वे
अपने ऊपर हुए अत्याचारों का चुन-चुनकर प्रतिशोध लेते,
ज़मीदार और महाजनों को मारते और लूटते-पीटते हैं। तब तक एसपी
सुल्तान सिंह अपने पुलिस फोर्स के साथ गाँव का घेरा डाल देता है। पुलिस और बागियों
की दो तरफा फायरिंग में पहले जाबर मारा जात है और उसके बाद जमींदारों और महाजनों
की हवेलियों से इक्ट्ठा किए गए बही-खातों के ढेर पर जलती लुकाठी लगा, अंत में चैधरी रणजीत सिंह भी शहीद हो जाता है। ...सामाजिक समरसता और शोषण
से मुक्ति का अधूरा सपना पूर्ण होने की आशा में मरते हुए भी चैधरी रणजीत सिंह की
आँखें, खुली रह जाती हैं। समाप्त होती फिल्म डूबते सूरज की
पृष्ठभूमि में रणजीत की पत्नी मोरा अपने नवजात शिशु को लिए खड़ी दिखाई देती है,
जो चैधरी रणजीत सिंह के सपने के बचे रहने और आशा का प्रतीक है।
शिक्षक से बाग़ी बने राजस्थान के एक दलित किसान के वास्तविक जीवन-संघर्ष का आधार
लेकर बनी फिल्म ‘गुलामी’ को; जातिग्रस्त भारत में वर्गसंघर्ष की गतिशीलता समझने में, पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।[17]
आघात
(1985) गोविन्द निहालिनी निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह,
ओमपुरी, पंकज कपूर, दीपासाही
और सदाशिव अमरापुरकर अभिनीत यह फिल्म ट्रेडयूनियनों के विघटन और समाजवादी आन्दोलन
के क्रमशः नष्ट होते जाने पर तीखा और विचारोत्तेजक व्यंग्य करती है। टेªेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वन्दिता किस प्रकार उनकी विश्वसनीयता को नष्ट
करने का काम करती है और व्यक्तिवाद को प्रश्रय देती है, इसका
अत्यंत सजीव चित्रण गोविंद निहालिनी ने इस फिल्म में किया है। ‘मैसी साहब’ (1986) प्रदीप कृष्ण निर्देशित और रघुवीर
यादव अभिनीत इस फिल्म में रघुवीर यादव ब्रिटिश शासित भारत में फ्रैंसिस मैसी नामक
एक साधारण क्लर्क की कहानी है, जो अपनी अंग्रेज नस्ल के चलते
लोगों पर रुवाब दिखाता है। क़र्ज़ लेता है और एक आदिवासी युवति से विवाह भी करता
है। आदिवासी समाज में दहेज युवति को नहीं युवक को देना होता है। दहेज की रकम पाने
के चक्कर में फ्रैंसिस से महाजन का खून हो जाता है। इस बीच उसके चहेंते अंग्रेजी
नस्ल भाई विवाह के चक्कर में इंग्लैण्ड चले जाते हैं और उसके पत्नी-बच्चे को उसका
आदिवासी ससुर रकम न चुका पाने के कारण, वापस घर लिवा ले जाता
है। इधर जेल में पड़े कल्पना करते मैसी साहब को भरोसा है कि एक न एक दिन उसके
चाल्र्स एडम्स साहब उसे जरूर आकर बचा लेंगे और उसके बेटे को अफसर बनायेंगे। पर
एडम्स साहब इंग्लैण्ड से कभी नहीं लौटते और मैसी साहब को फाँसी हो जाती है। रघुवीर
यादव, बैरी जान, अंरुधती राय, सुधीर कुलकर्णी, लल्लूराम, वसंत
जोगलेकर इत्यादि इसके प्रमुख अभिनेता थे।
सुष्मन’
(1986) आंध्रप्रदेश के सिल्क कारीगरों, सरकारी
अमले और सहकारी संस्थाओं के अंतःसंघर्ष को बयान करती श्याम बेनेगल की इस फिल्म में,
बुनकर रामुल के माध्यम से उनकी कथा कही गई है जो ‘इकत’ की बारीक सिल्क कारीगरी करता है। पूँजीवादी
शोषण और मशीनीकरण के कारण किस प्रकार कुशल कारीगर अपने हुनर से दूर चले जाते हैं।
वे कारीगर जो सिर्फ अपने हाथों से नहीं अपनी आत्मा से वस्त्रों का निर्माण
करते हैं। एसोसिएशन आॅफ कोआपरेटिव्स एंड अपेक्स सोसाइटी आॅफ हेन्डलूम्स निर्मित इस
फिल्म के मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा, के.के. रैना, अन्नू
कपूर, इला अरुण, मीना गुप्ता और मोहन
अगाशे इत्यादि। ‘महायात्रा (1987) गौतम
घोष की एन.एफ.डी.सी द्वारा हिन्दी और बंगला में एक साथ बनी इस पीरियड फिल्म में
उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल में गंगा तट पर शवों को जलाने वाले एक अछूत बैजू का भी
वर्णन है, जो मृत्युशैया पर पड़े एक विधुर ब्राह्मण के मोक्ष
के लिए खरीदकर लाई गई गरीब ब्राह्मण युवति को, सती कराने का
विरोध करता है। मुख्य कलाकार थे शुत्रघन सिन्हा, शंपा घोष,
बसंत चैधरी, मोहन अगाशे प्रमोद गांगुली और
राॅबी घोष। ‘बँटवारा’ (1989) राजस्थान
के जातिय और साम्प्रदायिक संघर्ष को जमींदारी परिवेश के अन्तर्गत प्रस्तुत करने
वाली जे.पी. दत्ता निर्देशित इस बहु सितारा फिल्म में भी अभिनेता धर्मेन्द्र ने एक
बार एक दलित युवा की भूमिका निभाई थी। यह चरित्र गुलामी के रणजीत से हटकर एक
अपेक्षाकृत संयमित दलित युवा है। अन्य कलाकार थे-विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, आशा पारेख, शम्मी
कपूर, पूनम ढिल्लों, अमरीशपुरी,
विजयेन्द्र घाटगे, नीना गुप्ता और कुलभूषण
खरबंदा इत्यादि। ‘भीम गर्जना’ (1989) बाबा
साहेब आम्बेडकर के जीवनवृत्त को पहली बार चित्रपट पर दर्शाने वाली विजय पवार
निर्देशित यह फिल्म अपने सार्थक अभिनेता चयन और निर्देशकीय गड़बड़ियों बावजूद भी
दलित वर्ग में इसे काफी सराहना प्राप्त हुई थी। ‘धारावी’
(1991) एन.एफ.डी.सी. और दूरदर्शन के सहयोग से बनाई गई प्रयोगधर्मी
निर्देशक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी में
हिन्दुस्तान के कोने-कोने से आकर पनाह पाने वाले गरीब, दलित
और बेरोजगारों की फौज के संतापों, आकांक्षाओं और स्वप्नों के
बनने और टूटने की कहानी है। मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना
आजमी, माधुरी दीक्षित, चंदू पारखी,
रघुवीर यादव, सतीश खोपकर, मुश्ताकखान, प्रमोदबाला, वीरेन्द्र
सक्सेना इत्यादि।
‘दीक्षा’ (1991) अरुण कौल निर्देशित यह फिल्म भी ‘महा यात्रा’ की तरह एक काल विशेष पर आधारित है।
पृष्ठभूमि है बीसवीं सदी के आरंभ का कर्नाटक, जब सुधारवादी
आन्दोलनों के प्रभाववश एक प्रगतिशील ब्राह्मण शेषादि; परंपरावादियों
से बैर मोल लेता अस्पृश्यों के यहाँ धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराने लगता है।
शेषाद्रि की निर्भीकता और पारंपरिक मूल्यों से हटकर चलने की सजा उसकी विधवा युवा
बेटी को मिलती तब मिलती है, जब वह गाँव के एक शिक्षक के
प्रेमपाश में पड़कर गर्भवती हो जाती है। शेषाद्रि, ब्राह्मण
समाज के दबाव में आकर अपनी पुत्री का घटश्राद्ध (जीवित रहते शवायात्रा निकालने का
दंड) करने को बेवश है। इस मनुष्यता विरोधी पाखंड के विरुद्ध तब सिर्फ अस्पुश्य ‘कोगा’ ही आवाज उठाता है, जिसके
यहाँ शेषाद्रि ने धार्मिक आचार संपन्न किया था। प्रगतिशील ब्राह्मण और विद्रोही
दलित के संयुक्त प्रयत्नों से धर्म के अन्तर्गत टूटती जड़ता का दर्शन कराने वाली,
मनोहर सिंह, नाना पाटेकर और राजश्री सांवत
अभिनीत ‘दीक्षा’ भी एक सराहनीय फिल्म
है। ‘रूदाली’ (1992) महाश्वेता दी के
उपन्यास पर आधारित कल्पना लाजिमी की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति सही मायनों में
स्त्रीत्व को श्रद्धांजली है। फिल्म के अनुसार राजस्थान के गाँव में समृद्ध
व्यक्तियों की मृत्यु पर रूदाली कहलाने वाली निम्न जाति की पेशेवर रोने वाली स्त्रियों
को बुलाया जाता था। सनीचरी (डिंपल कपाड़िया) एक ऐसी ही औरत की बेटी है, जिसकी माँ बचपन में ही उसे छोड़कर चली गई थी। उसका शराबी पति विवाह के कुछ
समय बाद ही मर जाता है। गाँव के ठाकुर की हवेली में वह काम करके अपना जीवन यापन
करती है। वह जीवन से लड़ने वाली स्त्री है, हथियार डाल देने
वाली नहीं। भले ही एक रूदाली उसकी माँ थी लेकिन वह रोना नहीं जानती। सनीचरी का
बेटा बुधुआ, जो एक वेश्या से ब्याह कर लेता है, उसकी कोख में पलने वाले अपने बेटे के बच्चे की खातिर अपने घर में आश्रय
देती है। लेकिन वह वेश्या गर्भपात करवाकर अपनी दुनिया में वापस लौट जाती है। हर
तरफ से रूसवाई की शिकार सनीचरी हवेली के छोटे ठाकुर के भावनात्मक शोषण का भी शिकार
होती है। बड़े ज़मीदार गंभीर रूप से बीमार हैं और अपने परिवार के बारे में अच्छी
तरह जानते हैं कि उनकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं होगा। भीकनी (राखी) नामक रूदाली
ठाकुर को आश्वस्त करती है। वह सनीचरी के पास आती है और उसकी अंतरंग बन जाती है। एक
दिन भीकनी को दूसरे गाँव में रोने के लिए जाना पड़ता है। सनीचरी कुछ समय बाद ही
जान पाती है कि भीकनी उसकी खोई हुई माँ थी जो अब इस दुनिया में नहीं है। उसका पत्थर
का कालजा फूट पड़ता है। इसी बीच बड़े ठाकुर की मृत्यु हो जाती है और उसे हवेली में
रोने के लिए बुलाया जाता है, जहाँ सनीचरी के भीतर जिंदगी भर
के जमे हुए आँसू आँखों से फूट पड़ते हैं। उसके मर्माहत कर देने वाले क्रंदन को
सुनकर लोग स्तब्ध रह जाते हैं। उसके रूदन का असली मर्म उसके सिवा भला और कौन जान
सकता है। मूल रूप से असम के ग्रामीण परिवेश को लिखे गए महाश्वेता देवी के इस
उपन्यास को कल्पना लाजमी ने राजस्थानी पृष्ठभूमि देकर इस तरह फिल्माया है, कि वह राजपूताने की मौलिक लोककथा लगती है।
‘बैंडिट क्वीन’ (1994) इस फिल्म पर कुछ लिखने से
पूर्व हमें दो कथन आ रहे हैं, पहला तेलुगु दलित स्त्री रचनाकार
चल्लापल्ली स्वरूपारानी का यह मार्मिक कथन- ’सवर्ण तो हमें
भोग्या समझाते हैं, दलित पुरुष भी मात्र्ा सम्पत्ति के रूप
में देखते हैं। ऐसे में हम प्रेम करें तो किससे? बेहतर
मानवता की उम्मीद में हम अपना प्रेम स्थगित करती हैं।[18]
तो दूसरा महान फ्रैंच नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवार का प्रसिद्ध कथन-‘स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है।[19]’
एक सामन्य दलित पिछड़ी युवति से बागी बनी फूलन देवी (मैं उन्हें
यहाँ जानबूझकर दस्यु या डाकू नहीं कह रहा, क्योंकि शोषण और
अपमान के खि़लाफ़ बन्दूक लेकर बीहड़ में कूद जाने वाले व्यक्ति का, हमारे चंबल में डाकू नहीं बागी कहा जाता है!) के ऊपर यह दोनों ही
पंक्तियाँ खरी उतरती हैं। उनके जीवन वृत्त को छोड़ दिया जाए और बात केवल शेखर कपूर
निर्देशित इस महान यथार्थवादी फिल्म की ही की जाए तो भी हम पाते हैं कि एक अदद
साइकिल और एक गाय के बदले अपने से तिगुनी उम्र के व्यक्ति पुत्तीलाल (आदित्य
श्रीवास्तव) से मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में फूलन (सीमा विश्वास)को ब्याह दिया
जाता है।
पुत्तीलाल
दलित होने के साथ-साथ पुरुष भी है और वह विवाह के बाद घर आई बालिका वधू के उम्र
पूरी होने का इंतजार नहीं करता। ब्याह के साथ बलात्कार करने के कानूनी हक का उपयोग
वह क्रूरता के साथ करता है कि फिल्म के पर्दे पर गूँजती बालिका फूलन की मर्माहत
चीखें, हमारा कलेजा चीर डालती हैं कि क्या यह वही समाज है,
जिसमें हम रहते हैं। क्या यह वही माता-पिता है, जिन्हें हम शिव और गौरी का रूप मानते हैं? क्या यह
वही पति है, जिसे हमारे शास्त्र ईश्वर का दर्जा देता हैं?
अर्थात नहीं। और आश्चर्य, इसकी भुक्तभोगी फूलन
भी यह नहीं मानती। वह ससुराल छोड़कर घर भाग आती है। परन्तु बेटी और बैल में अन्तर
न समझने वाले आम भारतीय माता-पिता दान (कन्यादान) करने के बाद फिर नहीं चाहते कि
उनकी बेटी ससुराल का खूँटा तोड़कर सदा-सदा के लिए फिर कभी लौटे, फिर भले ही उसक मालिक मारे-पीटे या काट कर बहा दे। लेकिन विद्रोही फूलन
रूकने का प्रयास करती है। किन्तु ठाकुरों से भरे-पूरे गाँव में भला एक युवा दलित
लड़की कब सुरक्षित रही है। फूलन भी इसका अपवाद रह पातीं। अर्थात नहीं। उस पर भी
फब्तियाँ कसी जातीं। छेड़खानी होती। लेकिन फूलन मल्लहिनियाँ की हिम्मत देखो कि वह
गाँव के ठाकुर और उस पर सरपंच के बेटे को भी तरजीह नहीं देती। उसकी यही हिम्मत उसे
गाँव की पंचायत में ला खड़ा कर देती है। तब जाहिर है कि फैसला उसके पक्ष में नहीं
होना था। बेटी पर पिता के सामने ही झूठा इल्जाम लगाकर, उसे
गाँव से खदेड़ दिया जाता है।
फूलन
के सामने अब सारे रास्ते बंद है। वह अपने चचेरे भाई मय्यादीन (सौरभ शुक्ला) के साथ
उसके घर जाती है, लेकिन ससुराल से भागी और मायके से परित्यक्त स्त्री
का शरण स्थल फिर कहीं स्थिर नहीं रहता। डाकुओं के साथ रहने के झूँठे लाँछन के बीच
पुलिस हिरासत में पुलिस उसकी देह से खेलती है। जमानत करने वाला गाँव ठाकुर उसका
उपभोग कर पाता, उससे पहले ही बागी उसे उसके घर ही धर ले जाते
हैं। इसके बाद फिर शुरू होता है यातनाओं का लंबा सिलसिला। बागियों के गिरोह में
बाबू गूजर (अनिरुद्ध अग्रवाल) उसके साथ बर्बरता के साथ बलात्कार करता है। बाबू
पिछड़ी जाति का है किन्तु सवर्णों की भाँति उसके लिए भी फूलन मात्र देह है और
उपभोग की वस्तु भी, वह भला इस बहती गंगा में हाथ कैसे न धोता?
तब यहाँ फूलन का मददगार होता है विक्रम मल्लाह मस्ताना (निर्मल
पाण्डेय), जो उसी की जाति का है। अब वह मात्र सहानुभूति थी
या अपनी जाति की स्त्री को अपनी इज्ज़त माानने का गुरूर कि विक्रम मल्लाह आवेश में
आकर बाबू गुर्जर की हत्या कर स्वयं गैंग का मुखिया बन जाता है।
एक
मुठभेड़ दौरान विक्रम के पैर में लगी गोली लगने पर फूलन,
इलाज के लिए उसे शहर (उरई) ले जाती है, जहाँ
उनका सहानुभूति से शुरू हुआ प्रेम देह की यात्रा पूरी करता है। विक्रम के साथ फूलन
कई डकैतियों में भाग लेती है और ब्याह के नाम पर बचपन में उसके मासूम मन को कुचलने
वाले पति से प्रतिशोध लेती फूलन पति पुत्तीलाल को भी पीट-पीटकर लहूलुहान कर देती
है। उसके बाद लगता है कि स्थितियाँ कुछ सहज हुईं कि उसी समय पुलिस की गोली से
विक्रम मल्लाह मारा जाता है और फूलन को हिरासत में ले लिया जाता है। पुलिस के
संरक्षण में उस पर फिर शारीरिक अत्याचार होते हैं। विक्रम मल्लाह से बैर रखने वाला
एक ठाकुर श्रीराम (गोविन्द नामदेव) फूलन की जमानत कराता है और उन्हें बेहमई के एक
गाँव लेजाकर कैद कर देता है, जहाँ कई दिनों तक फूलन ठाकुरों
के सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं। अधमरी अवस्था में उन्हें निर्वस्त्र कर
गाँव के कुँए से पानी लाने को कहा जाता है। पानी भरने से पहले ही उन्हें
निर्वस्त्र घसीट कर उनकी नुमाइश की जाती है!!!
इस अमानवीय घृणित कृत्य जो एक
स्त्री के सम्पूर्ण वजूद को कुचलने का सदियों से से स्त्री पर आजमाया गया हथियार
था। फूलन की जिजीविषा के आगे भोथरा पड़ जाता है। फूलन वहाँ से चलकर कुँआ-नदी नहीं
तरतीं। वह अपने चाचा कैलाश के साथ बागी मानसिंह (मनोज बाजपेयी) के पास जाती हैं।
मान सिंह विक्रम मल्लाह का पुराना मित्र था। वहाँ से वे दोनों मिलकर बागियों के
सरगना बाबा मुस्तकीम (राजेश विवेक) के पास जाते हैं। जो फूलन देवी और मानसिंह को
एक नई गैंग बनाने की सलाह देते हैं। गैंग बनती है और वहीं से शुरू हो जाती है
उत्पीड़न के खिलाफ एक जंग, जिसमें वे अपने को समर्थ बनाने के
लिए डकैतियाँ भी डालते हैं और लोगों की मदद भी करते हैं। इसी बीच बाबा मुस्तकीम को
पता चलता है कि ठाकुर श्रीराम एक विवाह के उपलक्ष्य में बेमही गाँव में रुका हुआ
है। फूलन और मानसिंह अपनी पूरी गैंग के साथ बेमही गाँव पर हमला करते हैं, लेकिन ठाकुर श्रीराम वहाँ से बच निकलता है। प्रतिशोध की आग में जलती फूलन
गाँव के ठाकुरों को एक स्थान पर खड़ाकर उनसे श्रीराम का पूछती है, किन्तु वे उसका कोई सुराग नहीं देते। फूलन पूर्व में अपने ऊपर हुए उस
जघन्य कृत्य के समय उपस्थित और सहयोगी रहे उन ठाकुरों को एक कतार में खड़ा करके,
गोलियों से भून देती है। (फरवरी 1981)[20]
जिस
फूलन को इतनी घोर यातनाएँ दी गईं, जिसमें पुलिस और
प्रशासन बराबर का सहयोगी रहा, वही फूलन के इस कृत्य पर सचेत
हो गया। उसे चंबल के बीहड़ में चारो ओर से घेरने की कबायद शुरू हो गई। दिल्ली से
स्पेशल फोर्स मँगा लिया गया। पर्याप्त रसद-पानी के अभाव में चारो ओर से घिरी फूलन
के गिरोह के एक-एक कर सारे साथी मारे जाने लगे। हताश फूलन देवी को फरवरी 1983
में आत्मसमपर्ण करना पड़ता है। ‘इण्डिया‘ज बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी आॅफ फूलन देवी’ इस
नाम के मालसेन के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’
निश्चय ही भारत में दलित स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का महान
यथार्थवादी आख्यान है।
‘टारगेट’ (1994) सत्यजीत राय के बेटे संदीप राय
द्वारा निर्देशित जमींदारी उत्पीड़न पर सत्यजीत राय द्वारा लिखित अंतिम पटकथा पर
बनाई गई हिंदी फिल्म है। ज़मींदार किस प्रकार दलितों और किसानों के विरुद्ध शोषण
का तंत्र चलाते हैं, इस बात की बारीक चित्रकारी फिल्म में
है। प्रमुख कलाकार-ओमपुरी, मोहन अगाशे, चम्पा, ज्ञानेश मुखर्जी और अंजन श्रीवास्तव। ‘हजार चैरासी की माँ’ महाश्वेता देवी के बंग्ला
उपन्यास ‘हजार चैरासीर माँ’ पर आधारित
गोविंद निहालिनी की यह फिल्म नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनाई गई थी। इस फिल्म में
जयाबच्चन ने शीर्षक भूमिका में एक आतंकवादी काॅ. भारती की माँ की पीड़ा को सिर्फ
भावनात्मक गहराइयों के जरिए उकेर कर ही आश्वस्ति नहीं ढूँड़ी थी अपितु स्थितियों
के बौद्धिक तनाव को भी रेशा-रेशा उधेड़ दिया था। मुख्य कलाकर थे अनुपमखेर, सीमा बिश्वास, मिलिंद गुणाजी, भक्ति
बर्वे, जाय सेनगुप्ता, नंदिता दास आदि।
‘चाची 420’ (1998) कमल हासन निर्देशित
यह फिल्मा एक दलित युवक जय उर्प जयप्रकाश पासवान (कमल हासन) और भारद्वाज लड़की
जानकी (तब्बू) के अन्तर्जातीय विवाहोपरांत तलाक के लिए चल रहे मुकदमे के दौरान
दलित युवक जय का ससुर दुर्गाप्रसाद भारद्वाज (अमरिश पुरी) की इच्छा के विरुद्ध
अपनी पत्नी और बेटी से मिलने की उत्कट जिजीविषा और उसके लिए किए गए तमाम नाटकीय
जतन और उनका पुर्नमिलन इस फिल्म का मूल कथानक है। अन्य कलाकार थे जाॅनी वाकर,
ओमपुरी, परेश रावल इत्यादि।
मोहनदास’ (1999) दलितों ने आरक्षण भले ही अपने
हजारों साल के शोषण और उत्पीड़न की क्षतिपूर्ति या किश्त दर किश्त हक अदायगी
का माना हो, किन्तु सामन्य वर्ग इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं
पाया। उसे यह अपना अधिकार हनन लगता है, जो दलित-आदिवासियों
को भीख के रूप में दिया दिया जा रहा है। अपने जातिय दंभ में जीता यह समाज आज भी
दलितों की पढ़ाई-लिखाई को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाया, फिर
भला उसके आधार पर मिली नौकरियाँ उसे कैसे होती? वह साम,
दाम, दण्ड भेद से उन्हें हथियाने में जुटा हुआ
है। ...कथाकार उदयप्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर मजहर कामरान निर्देशित इसी नाम से बनी फिल्म ‘मोहनदास’
एक दलित दस्तकार युवक की सवर्णों द्वारा हक और पहचान छीन लिए जाने
की मार्मिक कथा पर आधारित है। मूल कहानी के समान प्रभाव संप्रेषित न कर पाने के
कारण, ‘मोहनदास’ असफल रही। ‘समर’ (1999) यों तो भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश को
शांत प्रदेश कहा जाता है, किन्तु किसी प्रदेश की शांति को
केवल उसकी समृद्धि और समरसता से जोड़कर देखना बेमानी होगा। हो सकता है वहाँ का
दलित सर्वहारा इतना दबा-कुचला हो कि दबंगों के क्रूर अत्याचारों के चलते अपनी आवाज
ही नहीं उठा पाता हो? शिक्षा और समुन्नति से दूर थाने और
कोर्ट-कचहरियों भी उनके लिए ठाकुर का कुँआ ही रही हों? ऊपर
से नीचे तक दबंगों का साम्राज्य हो? ऐसे में शांति किस
चिड़िया का नाम होता है, यह उसका भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘समर’ मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत सागर जिले
के कुल्लू गाँव में 1991 को घटी एक सत्य घटना पर आधारित है।
तत्कालीन सागर जिले के कलेक्टर हर्षमंदर की डायरी में लिखे संस्मरणों के आधार पर
अशोक मिश्रा द्वारा लिखित इस फिल्म को वर्ष 1999 का
सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। कुल्लू गाँव की इस
कहानी में गाँव का एक कुँआ है जिसमें उत्तर की ओर से ब्राह्मण पानी भरते हैं,
पूरब की ओर से ठाकुर, पश्चिम की ओर से अहीर,
नाई और धोबी पानी भरते हैं। दक्षिण के ओर से दलित पानी भरते हैं।
दलितों को पानी भरने तब मिलता है जब सवर्ण पानी भर चुकते हैं। अगर इस बीच कोई दलित
पानी भरने पहुँचता तो उसके इस कार्य को अपराध मानकर सवर्ण उन्हें सजा देते थे।
दलित नत्थूलाल अहिरवार (रघुवीर यादव) की पत्नी दुलारी बाई (राजेश्वरी) कुँए पर
पानी भरने जाती है तो उसे लोधी ठाकुर (रवि झाँकल) की पत्नी सवर्णों के साथ पानी
भरने आने की वजह से पीटती है और साथ ही उसके हाथ में कोढ़ भी डायगनोस कर देती है।
जब नत्थू दवाई के लिए मुआवजे के लिए ठाकुर के पास जाता है तो ठाकुर उसे डाँटकर भगा
देता है।
दलितों की माँग पर सरकार हैंडपम्प
खुदवाने के लिए एक अफसर को भेजती है। दलित उसे अपनी बस्ती में खुदवाना चाहते हैं
और ठाकुर अपने खेत में। दलितों की बस्ती में पम्प खुदता देख ठाकुर दलितों को मारता
है। फिर दलित कम मजदूरी की वजह से खेतों में काम करना बंद कर देते हैं। ठाकुर उन
पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगवाता है-मसलन, नाई उनके बाल नहीं
काटेगा, बरेदी जानवर नहीं चराएगा, तिवारी
अपनी आटा चक्की में उनका अनाज नहीं पीसेगा, पटेल उन्हें
बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता नहीं देगा-वगैरह।
ठाकुर के प्रतिबंधों से तंग आकर
नत्थू अहिरवार बीड़ी बनाने सागर चला जाता है। वहाँ बीड़ी फैक्टरी का मालिक पैसे
देकर अपने भाई के खिलाफ हरिजन-एक्ट में नत्थू से रिर्पोट दर्ज़ करवा देता है और
नत्थू दो बलवान भाईयों की लड़ाई में फँस जाता है। एक दिन मौका मिलते ही वह गाँव
भाग आता है। घर पर वह दुलारी को कुछ पैसा देता है। उनके घर खुशियाँ लौटती हैं।
नत्थू इस खुशी के अवसर पर मंदिर में झंडा चढ़ाने जाता है। पुजारी उसे मारता है।
मंदिर घुसने को अपराध माना जाता है और ठाकुर उसकी सजा तय करने के लिए पंचायत
बैठाते है। पंचायत के निर्णय पर ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब करता है।[21]
1991 में घटी इस घटना पर फिल्म
बनाने मुंबई से एक फिल्म युनिट कुल्लू गांव आती है। कार्तिक (रजत कपूर) उस फिल्म
के निर्देशक होते हैं। मुरली (रवि झाँकल) लोधी ठाकुर की भूमिका निभाते हैं,
जबकि फिल्म के नायक किशोर (किशोर कदम) नत्थूलाल अहिरवार की भूमिका
में होते हैं। नायिका दुलारी की भूमिका निभाने का जिम्मा उमा (राजेश्वरी सचदेव) पर
होता है जबकि दलित नत्थूलाल की भूमिका निभाने वाला किशोर मूल रूप से दलित ही होता
है। नायिका उमा ब्राह्मण है। असल फिल्म तब शुरू होती है, जब
जाति विद्वेष पर फिल्म बनाने मुंबई जैसे महानगर से आई ‘सो-काल्ड’
बुद्धिजीवी कलाकारों की वह फिल्म यूनिट खुद जाति के भ्रमजाल में या
कहिए बदमाशी में फँस जाती है।
पम्प खुदवाते हुए दलितों को ठाकुर
आकर पीटता है। निर्देशक, फिल्मी नत्थू (किशोर कदम) से कहता
है, इस रोल को करने में तुम्हें तो कोई प्राब्लम नहीं होनी
चाहिए तुम तो दलित ही हो...। फिर किशोर तुम्हारी बाॅडी से ‘दलित
बाॅडी लेंग्वेज’ भी निकल रही है...। पूरी फिल्म-यूनिट भी
किशोर से कहती है कि तुम्हें तो दलित का रोल बेहतर करना ही चाहिए क्योंकि तुम तो
दलित ही हो। किशोर हैरान होता है कि यह ‘दलित बाॅडी लेंग्वेज’
कैसी होती है? दूसरे दृश्य में संवाद याद कर
रहे किशोर से असली नत्थू कहता है, भैया किशोर तुम ने ये पहले
काहे नहीं बताई कि तुम हमौरों कि जात वाले हो...आओ हमार घर आओ, तुमाई भौजी ने गुड़ के लडुआ बनाए हैं...तकन खा जाते...। किशोर नत्थू को
डांटकर भगाता है। जाते-जाते नत्थू कहता है, भैया आप ही दलित
का सर्पोट नहीं करोगे तब दूसरे तो दुत्कारेंगे ही...।
एक और दृश्य में यूनिट बस से सागर
लौट रही होती है। मुरली कहता है, समय बिताने के लिए करना है
कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर प्रभु का नाम...। सिया पति
रामचंन्द्र की जै। पवन सुत हनुमान की जै। सारे दलितजनों कह जै...। किशोर खीजकर बस
की पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ जाता है। उमा (राजेश्वरी सचदेव) उसके पास आकर बैठती
है, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ आपको कोई एतराज तो नहीं? किशोर कहता है कि अगर आपको नही ंतो मुझे क्या हो सकता है...? उमा कहती है कि आप गलत समझ रहे हैं कि सारी यूनिट आपको अलग मानती है...।
किशोर कहता है कि बिल्कुल समझती है। होटल के डयरेक्टर के लिए एसी कमरा। हीरोइन के
लिए एसी कमरा। विलेन के लिए एसी कमरा और मुझे हीरो के लिए आॅर्डिनरी रूम...। सिर्फ
इसलिए क्योंकि मैं दलित हूँ...। गर्मी में सो जाऊँगा...।
नहीं ऐसी बात नहीं है। उस होटल
में सिर्फ तीन एसी रूम हैं। आप क्योंकि सबसे बाद में आए थे इसलिए एसी रूम आपको
नहीं मिला...। उमा बात स्पष्ट करती है, लेकिन किशोर उसे अपने
यानि दलितों के खिलाफ षड़यंत्र मानता है।
फिल्म में छोटे-छोटे प्रसंगों के
जरिए गाँव और शहर में अंदर तक घुसी जातिवाद की शैतानी को दिखाया गया है। गाँव की
दूकान का दृश्य फिल्माने निर्देशक दूकान पर जाते हैं। तभी दो महिलाएँ आकर एक पाव
गुड़ और चाय पत्ती माँगती हैं। दूकानदार उन्हें सामान तो फेंककर देता है लेकिन
पैसे हाथ से लेता है। निर्देशक पूछता है-ये आप पैकेट फेंककर क्यों दे रहे हैं?
तो दूकानदार कहता है कि यहाँ ऐसा होता हैै साहब। अहिरवारों को सौदा
हाथ में नहीं दिया जाता है...।
-लेकिन जब उन्होंने पैसे दिए तो
आपने हाथ से ही ले लिए...।
-लक्ष्मी अपवित्र नहीं होत है...।
तभी
फिल्म का हीरो किशोर आकर बीड़ी माँगता है। दूकानदार उसे इज्जत से बीड़ी देता है।
निर्देशक यह हमारे हीरो साहब है, किशोर...। इन्हें
भी हाथ से बीड़ी दे रहे हैं ना...। अरे ये भी दलित हैं...।
-क्या बात करत हो साहब। सहर के
हीरो दलित तो हो ही नहीं सकत हैं....।
मतलब
यह कि हर जगह दलित को बार-बार कोंच-कोंचकर यह अहसास कराया जाता है कि वह दलित है,
दलित है, दलित है। और यह नश्तर चुभो रहे होते
हैं, समाज के ऐसे लोग, जिन्हें कलाकार,
निर्देशक, लेखक वगैरह कहा जाता है।[22]
इसके बाद का मुख्य दृश्य है नत्थू
का सागर से आने के बाद मंदिर में झंडा चढ़ाने के ऐवज में ठाकुर द्वार नत्थू के सिर
पर पेशाब करने का। इस दृश्य को फिल्माने में निर्देशक को दिक्कत यह आती है कि
किशोर मुरली से अपने सिर पर पेशाब नहीं करवाने पर अड़ जाता है। वह दृश्य बदलने के
लिए जोर देता है। जबकि यूनिट के और लोग इसे करवाना चाहते हैं। विकल्पों पर भी बात
होती है, कुछ जमता नहीं। इस बीच असली नत्थू आकर निर्देशक से
कहता है-साहब, आपका दलित अभिनेता यह दृश्य नहीं करता,
तो मैं कर देता हूँ। मेरे सर पर तो सचमुच का मूता गया था-हँसी और
आँसू साथ-साथ आते हैं, इस मासूमियत की वेदना और संस्कार की
जड़ता पर। हारकर नत्थू के सिर पर पेशाब वाला दृश्य न फिल्माकर उसके बाद वाला दृश्य
फिल्माया जाता है। जब ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब कर देता है। तब नत्थू और उसकी
पत्नी रोते हुए आते हैं। नत्थू मरने के लिए भागता है और दुलारी उसे रोकती है। शाट
खत्म होते ही असली नत्थू (रघुवीर यादव) कहता है, जब चमक सिंह
(ठाकुर) ने हमारे मूड़ पे मूतो हतो तो हमने मरने-वरने की कौनौ बात नहीं कही
हती...। ऐ वाली घटना से तो हमें एक बल मिलो हतो...। गाँव के लोग उस घटना के बाद
नत्थू को सलाह देते हैं कि वह इस घटना को भूल जाए। नत्थू भड़क उठता है, भूल जाएँ। चूतिया हैं। ठाकुर ने हमारे मूड़ पे नईं सारी दुनिया के मूड़ पर
मूतो है...।
डीआईजी सागर (सदाशिव अमरापुरकर)
फिल्म यूनिट को अपने घर लंच पर बुलाते हैं। जातिवाद पर बहुत सारी चर्चाओं के बाद
बीच में ही डीआईजी साहब का बच्चा रोता हुआ आता है। कारण पूछने पर पता चलता है कि
उस बच्चे को स्कूल में चमार कहा था। इस संबोधन से बच्चा अत्यधिक दुखी था। डीआईजी
उससे कहते हैं, ये बताओ अगर तुम्हें किसी ने ब्राह्मण कहा
होता तो तुम्हें दुख होता क्या? किसी ने तुम्हें ठाकुर कहा
होता तो भी तुम रोते क्या? फिर चमार कहने पर क्यों रो रहे हो?
आदमी की जाति उसके कर्म से बनती है मेरे पिता मामूली दलित थे,
पर आज मैं क्या हूँ, डीआईजी हूँ...। तो सब
कर्मों से बनता है...।
‘समर’ दलित
विमर्श पर एक बहुकोणीय फिल्म है। खुद एक फिल्म निर्देशक होकर फिल्म वालों पर मारक
व्यंग्य केवल श्याम बेनेगल की फिल्म में ही संभव था। फिल्म समाप्त कर यूनिट जब
गाँव से जा रही होती है तो वे कितने बेमन से माला पहनते हैं उस बेचारे गाँव वाले
से। यानि जुड़ाव महज एक्टिंग (में जान लाने) भर का था। सत्यदेव त्रिपाठी के शब्दों
में कहें तो-‘यही दुनिया है। कला की। ग्लैमर की। यही रिश्ता
है स्वतांत्र्योत्तर जनतंत्र का गाँव के प्रति। वह पिकनिक के लिए आता है। दलित भी
आजकल प्रोजेक्ट के लिए, सेमीनार के लिए, फीचर के लिए यानि हर तरह से कैरियर के उत्थान के लिए याद आता रहा है और अब
फिल्म के लिए याद आ गया।[23]
‘बवंडर’ (2000) पिछड़ों द्वारा दलित उत्पीड़न की एक
झलक जो हम फिल्म ‘बैंडिंट क्वीन’ में
देखतें है, उसका विस्तृत रूप ‘बबंडर’
में देखने को मिलता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध भँवरीदेवी बलात्कार
कांड पर बनी जगमोहन मूँदड़ा निर्देशित इस फिल्म में भी संयोग से बलात्कारी गुर्जर
जैसी पिछड़ी जाति के ही कुछ लोग थे। राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’
अगस्त 2004 (दलित विशेषांक) के संपादकीय में
एक स्थान पर लिखा है-‘दलितों से कटा और सवर्णों से उपेक्षित
पिछड़े वर्ग का न तो कोई अपना इतिहास है और न आदर्श, वे
सवर्णों के ही इतिहास और महापुरुषों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं से अपनी
प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं।’ ऐसे में संभव है कि सवर्णों की
भांति पिछड़े भी दलित उत्पीड़न में भागीदार हैं/या बनते आये हैं। स्थान और नामों
के बीच मामूली से परिवर्तन के साथ बनी फिल्म ‘बबंडर’ की कहानी शुरू होती है एक विदेशी पत्रकार एमी (लैला रोज़ेज़) जो राजस्थान
के महल, मन्दिर और महाराजाओं पर लिखने के बजाय भँवरीदेवी पर
किताब लिखने के लिए अपने मित्र और दुभाषिए (राहुल खन्ना) के साथ, साँवरी (नंदिता दास) के गाँव धावड़ी आती है। जाति से कुम्हार साँवरी देवी
का पति सोहन (रघुवीर यादव) एक रिक्शा चालक है और उनकी एक लड़की है कमली। रवि और
एमी के धावड़ी पहुँचने पर साँवरी उन्हें पाँच वर्ष पूर्व अपने ऊपर हुए जघन्य
अत्याचार की मर्मव्यथा सुनाती है।
चार
साल की अबोध उम्र में साँवरी का सोहन के साथ ब्याह हुआ था। अनपढ़ और पूरी तरह
परंपरावादी सड़क मजदूर साँवरी का एक प्रमुख गुण अन्याय को सहन न करना भी था,
फिर चाहे वह पनघट पर छेड़ने वाला गाँव का गूजर हो या कम मजूरी देने
वाला ठेकेदार। साँवरी विरोध किए बगैर चुप न रहती । उसके जीवन में एकाएक तब मोड़
आता है जब पड़ोस की एक बालिका विधवा हो जाती है। वह सामाजिक कार्यकर्ता शोभा
(दीप्ति नवल) के संपर्क ढाई सौ रुपए माह की पगार पर ‘साथिन’
संस्था की ज़मीनी कार्यकर्ता बन जाती है। ‘साथिन’
संस्था का कार्य तमाम सामाजिक बुराईयों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा और
बाल विवाह के विरूद्ध लोगों में जन-जागरुकता पैदा करना है। साँवरी इस काम को बखूबी
करती अपने साहस की हद तक चली जाती है। वह गाँव में अखतीज के दिन गुर्जर समुदाय के
यहाँ सम्पन्न हो रहे ‘बाल विवाह’ को भी
पुलिस और ‘साथिन’ संस्था की मदद से
रुकवाती है। एक नीच जाति की लुगाई गुर्जरों के शुभकार्य में विघ्न डाले, यह भला उन्हें कैसे स्वीकार होता। फलस्वरूप गाँव के पाँच गुर्जर मिलकर
निकल पड़ते हैं साँवरी और उसके पति को सबक सिखाने। वे सोहन को बंधक बनाकर, बारी-बारी से असहाय साँवरीदेवी का बलात्कार करते हैं।
एक
स्त्री का वज़ूद कुचलने के लिए उसे बेइज्जत करना अपना हथियार मानने वाली पुरुष
प्रवृत्ति, ‘साथिन’ संस्था के माध्यम से
नई दृष्टि पाई साँवरी के आगे मंद पड़ जाती है। सोहन और साँवरी मिलकर पुलिस स्टेशन
रिर्पोट लिखवाने जाते हैं । लेकिन दबंगों के प्रभाव में रहने वाली पुलिस उनकी एफ.
आई. आर दर्ज़ करने से माना कर देती है। मदद के लिए सामने आती हैं साथिन शोभा। वह
साँवरी का मेडीकल करवाने उन्हें अस्पताल ले जाती हैं, किन्तु
बगैर कोर्ट आदेश के डाॅक्टर भी साँवरी का मेडिकल करने से मना कर देते हंै। शोभा
मदद लेकर अदालत का आदेश निकलवाकर साँवरी का जयपुर से मेडीकल सार्टिफिकेट बनवाती
हैं और इस प्रकार घटना के दो दिन बाद उनकी रिर्पोट लिखी जाती है।
रिपोर्ट
लिखे जाने के बावजूद बलात्कारियों को गिरफ्तार नहीं किया जाता। वे साँवरी के साथ
किए रेप के अनुभव सुनाते खुले आम घूमते हैं। साँवरी के मामले पर राष्ट्र का व्यापक
ध्यान जाता है और तब स्वयं प्रधानमंत्री इस केस की जाँच सी.बी.आई. से करवाने का
आदेश देते हैं। एक महिला संगठन भी साँवरी की मदद करने आगे आता है। परिणाम स्वरूप
आरोपी गिरफ्तार भी होते हैं, किन्तु एक स्थानीय
विधायक धनराज मीणा (गोविंद नामदेव) और एक पुरोहित नामक वकील के प्रभाववश उनका बाल
भी बाँका नहीं होता। एक गुर्जर वकील (गुलशन ग्रोवर) साँवरी के बचाव में आता भी है,
किन्तु अपनी जाति के दबावों और आरोपों के चलते वह भी उन्हीं के पक्ष
में चला जाता है। न्यायधीश केस को लम्बे समय के टाल देते हैं और केस का फैसला
साँवरी के विरुद्ध चला जाता है। अक्षम पुलिस, भृष्ट न्याय
प्रणाली और गाँव-समाज के असहयोग करने पर भी न्याय पाने के लिए साँवरी देवी
फिर आगे बढ़ती हैं, उनकी वह लड़ाई आज भी जारी है।[24]
राजस्थान के सांमतीय और घोर जातिवादी समाज की जड़ें खोदती फिल्म ‘बबंडर’ में ध्यानाकर्षण योग्य पात्र विधायक धनराज
मीणा भी है। कहने को वह आदिवासी है, किन्तु पक्ष निबल का
नहीं सबल का लेता है। क्या इससे हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि सत्ता पाते ही
व्यक्ति का वर्ण और वर्ग दोनों बदल जाते हैं। वह न दलित रहता है न सवर्ण रह जाता
है तो मात्र शासक बनकर, जिसका ध्येय होता है शासन करना और उस
व्यवस्था में बने रहना, फिर भले ही उसके लिए उसे अपनो की ही
बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। फिल्म में अन्य कलाकार थे-इशरत अली, यशपाल शर्मा, ललित तिवारी, रवि
झाँकल, मोहन भंण्डारी इत्यादि।
‘लाल सलाम’ रूपी (नंदिता दास) और डा. कन्ना (शरद
कपूर) के माध्यम से आदिवासी जनजातियों की संस्कृति और उनकी जीवनशैली (मुख्तः
विवाहपूर्व मुक्त यौन सम्बन्ध) को आधार बनाकर लिखी गई गगन बिहारी बोराटे निर्देशित
फिल्म ‘लाल सलाम’ में आदिवासियों के
मजबूरी मे नक्सलवादी बनने की कथा भी एक अंग के रूप में आई है। स्थानीय दंबग जातियो,
पुलिस और प्रशासन ने उनके जीवन के रास्ते किस तरह बंद कर रखे हैं कि
वे पुलिस की गोली से मारे जाने का सच जानते हुए भी नक्सलवाद की राह पकड़ने को
मजबूर हैं। अन्य कलाकारों के रूप में मकरंद देश पांडे, विजय
राज, राजपाल यादव, अनंत जोग, अखिलेन्द्र मिश्रा, सयाजी शिंदे इत्यादि। ‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर (2000) ममूटी और सोनाली
कुलकर्णी की मुख्य भूमिकाओं वाली जब्बार पटेल निर्देशित एवं कल्याण मंत्रालय भारत
सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म यों तो 1989 में विजय पवार
निर्देशित फिल्म ‘भीम गर्जना’ से कई
मामलों में भव्य और उत्कृष्ट है, किन्तु वह बाबा साहेब के
जीवन की कई तल्ख सच्चाइयाँ और उनके विद्रोही व्यक्तित्व को पूर्ण रूपेण उभारने में
कोताही बरती गई है। कांग्रेस के शासन में बनी इस फिल्म की अन्दरूनी सच्चाई की एक
झलक हम ‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर’ फिल्म
स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन रहे वयोवृद्ध कांग्रेसी दलित नेता/साहित्यकार
माता प्रसाद की आत्मकथा ‘झोंपड़ी से राजभवन’ में पाते हैं। उसमें उन्होंने बाबा साहेब के परिजनों की दखलंदाजियों के
साथ-साथ सरकारी हस्तक्षेप की बात करते हुए, 31 दिसंबर 1995
के जनसत्ता का हवाला कुछ इस प्रकार दिया है-‘बंबई, 30 दिसंबर। डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन
पर फिल्म से जुड़े सारे विवाद सुलझ गए हैं। अब फिल्म में बाबा साहेब को गांधी के
विरोधी के रूप में नहीं दिखाया जाएगा। फिल्म में डाॅ. अंबेडकर के जीवन के उन
प्रसंगों पर जोर दिया जाएगा, जिनसे उनके और गांधी के बेहतर
संबधों का इजहार होता है। फिल्म में उनके और जगजीवन राम के प्रेमपूर्ण संबंध दिखाए
जाएंगे और पूरी फिल्म का स्वरूप ऐसा होगा कि डाॅ. अम्बेडकर का समन्वयवादी स्वरूप
उभरे।[25]’
इस तथ्य से हम अंदाज लगा सकते हैं कि फिल्म सरकारी सहयोग से बनने
वाली फिल्में महान पुरुषों के व्यक्तित्व का सही आकलन न कर पार्टी के एजेंडे के
अनुसार गढ़ी जाती हैं। बाबा साहब पर बनी यह फिल्म भी इसका अपवाद नहीं है।
‘लज्जा’ (2001) भारतीय समाज में नारी दुर्दशा को
केन्द्र में रखकर बनी राजकुमार संतोषी निर्देशित यह फिल्म बताती है कि स्त्री चाहे
विदेश में सर्विस कर रहे एक एन.आर. आई की पत्नी हो या किसी पिछड़े इलाके की दलित
महिला, वह हर जगह उपेक्षित और अपमानित है। वैदेही, जानकी, मैथिली और रामदुलारी चार स्त्रियाँ जो
स्त्रियों के भारतीय आदर्श सीता के ही अन्य रूप हैं के आधार पर चार आधुनिक
स्त्रियों वैदेही (मनीषा कोइराला), जानकी (माधुरी दक्षित),
मैथिली (महिमा चैधरी) और रामदुलारी (रेखा) के शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह की कथा कहती इस फिल्म में दलित बागी ‘फुलवा’ की भूमिका में अजय देवगन की भूमिका भी
सराहनीय थी। ‘लगान’ (2001) यों आशुतोष
गोवारीकर निर्देशित और आमिर खान और ग्रेसी सिंह की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म
काल्पनिक इतिहास के माध्यम से लोगों के क्रिकेट जुनून को भुनाने का सफल प्रयास था,
किन्तु उसके बीच में दलित पात्र कचरा (आदित्य लखिया) की भूमिका को
भी इस परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है कि दलित भले ही ब्राह्मणवाद का शिकार रहा हो,
किन्तु वक्त पड़ने पर मिली छूटों में उन्होंने सवर्णों के कंधे से
कंधा मिलाकर अपनी हिम्मत और बहादुरी का भी परिचय दिया है।
‘मातृभूमि’ (2003) ‘नेशन विदाउट वूमन’ मनीष झा निर्देशित यह फिल्म भी समाज में स्त्री उत्पीड़न की मार्मिक
दास्तान बयान करती है। कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी का
प्रारंभ बेटे की इच्छा के चलते एक पिता द्वारा अपनी नवजात बेटी को दूध के टब में
डालकर मार डालने के कई साल बाद (सन् 2050) की परस्थितियों का
वर्णन है, जब हमारे समाज में स्त्रियाँ की संख्या न्यून हो
जाएगी। फिल्म में बिहार का एक पुरूष बाहुल्य गाँव दिखया गया है, जिसमें हिंसा और पाशविकता उनकी प्रवृत्ति बन चुकी है। गाँव के गँवार और
आक्रमक युवा; समलैंगिक और अप्राकृतिक यौन संबंधों के बाबजूद,
पत्नियों के लिए बेताव हैं। कुछ लोग गलत फायदा भी उठाते हुए लड़की
के भेष में लड़के को दुल्हन बनाकर, मोटी रकम ऐंठ ले जाते
हैं।
गाँव
में पाँच लड़कों के धनी पिता रामचरन (सुधीर पाण्डेय) अपने कुल-पुरोहित जगन्नाथ
(पीयूष मिश्रा) के माध्यम से, कल्कि (ट्यूलिप
जोशी) नामक युवति को पाँच लाख देकर ब्याह/खरीद लाते हैं! रामचरन कल्कि को अपने
पाँचों बेटों की ही बहू नहीं बनाता, बल्कि क्रमानुसार सप्ताह
में दो दिन वह भी कल्कि के साथ हमबिस्तर होता है!! इस उत्पीड़न उलट राम चरन का
छोटा बेटा सूरज (सुशांत सिंह) ही कल्कि से सम्मान और कोमलता का भाव रखता है।
स्वाभाविक है कि इससे कल्कि का झुकाव सूरज के प्रति बढ़ जाता है, जिससे सूरज के पिता और बड़े भाईयों को जलन होती है। वे कल्कि की उपेक्षा
और सूरज का प्रेम सह नहीं पाते और सूरज की हत्या कर देते हैं!!! इस संबंध में
कल्कि अपने पिता को पत्र लिखती है। खबर लगने पर घर आया पिता, विरोध के बजाय कल्कि के ससुर को भी उसका एक पति मानते हुए; एक लाख रुपए और ऐंठ ले जाता है!!! भयभीत कल्कि अपने घरेलू दलित नौकर रघु
(विनम्र पंचारिया) के साथ, घर से भागने का प्रयास करती है।
घर से भागकर वे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाते, उससे
पहले ही कल्कि के पाँचों पति रास्ते में रघु को घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं।
रास्ते से पकड़कर लाई गई कल्कि को घर नहीं ले जाया जाता, बल्कि
गौशाला में गाय की रस्सी से बाँधकर डाल दिया जाता है। एक दलित के साथ भागने के
कारण अपवित्र हुई कल्कि कई दिनों-महीनों गौशाला में बलात्कार का शिकार होती रहती
है। उसे यह सजा उसके अपने कहे जाने तथाकथित पाँचों पति ही नहीं देते, बल्कि रघु की हत्या के बाद सकते में आए रघु के दलित भाई-बंधु भी देते
हैं!!! इन क्रमागत बलात्कारों के बीच कल्कि गर्भवती हो जाती है और इस बात को लेकर
विवाद छिड़ता है कि कल्कि से होने वाला बच्चा किसका है। दलित सवर्णों में दंगा
होता है और इस दंगे में कोई नहीं बचता, सवर्ण न दलित। शेष
बचती है कल्कि, उसकी नवजात बच्ची और सुक्खा (अमीन गाजी) नामक
दलित युवक जो रघु के बाद उस घर में नौकर के रूप में आया था।...बड़े शोध और साहस के
साथ बनाई गई यह फिल्म स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले हर-एक वर्ग
की खिचाई ही नहीं करती, अपितु यह अपील भी करती है कि स्त्री
के बगैर समाज में भंयकर अराजकता और हिंसा भी फैल जाएगी, जो अंततः
विनाश का ही कारण बनेगी। अन्य कलाकार थे आदित्य श्रीवास्तव, पीयूष
मिश्रा, मुकेश भट्ट, पंकज झा, मुकेश कुमार इत्यादि।
‘एकलव्य: द राॅयल गार्ड’ (2005) विधु विनोद चैपड़ा
निर्देशित और अमिताभ बच्चन सैफ अली खान, संजय दत्त, जैकी श्राफ, शर्मीला टैगोर और विद्या बालन की मुख्य
भूमिकाओं वाली यह फिल्म पौराणिक पात्र ‘एकलव्य’ को नए संदर्भों में इस प्रश्न के साथ प्रस्तुत करती है कि क्या अपने और
अपने समाज के स्वार्थों का बलिदान कर अपना अँगूठा (शक्ति) सदैव के लिए किसी को
समर्पित कर देना उचित होगा? राजस्थान की राजपूती पृष्ठभूमि
में एक दलित परिवार है जो नौ पीढ़ियों से एक राजपरिवार के संरक्षक का कार्य करता आ
रहा है। उसी परिवार का एक किंवदंती पुरुष है एकलव्य (अमिताभ बच्चन) है, जो तमाम अन्तद्र्वन्द्वों से गुजरकर अंत में पौराणिक एकलव्य को गलत सिद्ध
करता, अंत अपने पुत्र राज्यवर्धन (सैफअली खान) की रक्षा करने
के रूप में अगूँठा दान करने से इंकार कर देता है। दलित पुलिस इंसपेक्टर पन्नालाल
चमार की भूमिका में सजंय दत्त का रोल भी काफी विद्रोही बन पड़ा है।
‘धर्म’ (2007) भावना तलवार निर्देशित और पकंज कपूर
एवं सुप्रिया पाठक अभिनीत यह फिल्म, हिन्दू कट्टरता के बीच
साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवतावाद की खोज का एक अभिनव प्रयास है। एक उच्च
प्रतिष्ठित सनातनी हिन्दू पंडित चतुर्वेदी (पकंज कपूर) का हृदय परिर्वतन तब होता
है, जब वह एक मुस्लिम बच्चे के संपर्क में आता है। फिल्म में
हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीच यह भी दिखाया गया है कि जिस मानवतावाद के
मार्ग पर एक धार्मिक हिन्दू बड़े गहरे अन्तद्र्वन्द्व के बाद खड़ा हो पाता है;
उस मार्ग पर शास्त्र और स्मृतियों के कोढ़ से दूर दलित एवं
स्त्रियाँ, पहले से ही सहज होकर चले आ रहे हैं। फिल्म में
पुरोहित का हृदय परिवर्तन वेद-पुराणों के बीच किंचित मात्रा में मिले मानवतावाद के
साथ-साथ, जात-पाँत विरोधी कबीर पंथी दलित साधु और अपनी पत्नी
के प्रभाववश भी दिखाया गया है।
‘वैलकम टू सज्जन पुर’ (2008) एक षड्यंत्र के तहत और
कुछ वास्तविक अर्थों में अभी तक की अधिकांश फिल्मों में, पिछड़ों
को दलित विरोधी और उत्पीड़क ही चित्रित किया गया है, किन्तु
यह पहला अवसर है जब श्याम बेनेगल की यह महत्वपूर्ण फिल्म दबे रूप में ही सही,
दलितों के प्रति पिछड़ों का झुकाव प्रदर्शित करती है। गाँव की
अहिरवार (दलित) लड़की का ठाकुर (यशपाल शर्मा) के लड़के द्वार बलात्कार और ठकुराइन
द्वारा लड़की हत्या के केस में फँसे होने के परिपेक्ष्य में, नायक आँख चढ़ाकर व्यंग्य में लड़की के बदचलन होने की बात नकारता है,
तब उसकी दलित पक्षधरता स्वयं सिद्ध हो जाती है। दूसरे इस फिल्म का
एक अन्य एक मजबूत पक्ष दलित, आदिवासी और स्त्रियों की भाँति
भारत और संभवतः हर जगह उपेक्षित ‘किन्नर’ हैं, जो हाशिए पर पड़े अन्य समाजों की भाँति अपने
नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत ही नहीं, चुनाव जीतकर सŸाा भी प्राप्त करते हैं। ‘चमकू’ (2008) कबीर कौशिक निर्देशित और बाॅबी देओल और प्रियंका चैपड़ा मुख्य भूमिकावाली
इस फिल्म में एक नक्सली युवक चमकू के हिंसा के विरुद्ध हृदय परिवर्तन की कहानी है।
‘रेड अलर्ट: द वार विदइन (2009) अनंत नारायण
महादेवन निर्देशित और सुनील शेट्टी एवं समीरा रेड्डी अभिनीत यह फिल्म नरसिंहा नाम
एक ऐसे आदिवासी युवक की सच्ची कहानी है, जो जंगल में
आने-जाने वाले लोगों को खाना बनाकर खिलाता था। एक दिन पुलिस और नक्सलियों की
मुठभेड़ में वह नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वह न चाहते हुए भी माओवादियों के साथ
हिंसात्मक कार्यवाही करने को बेवश है। अन्त में तंग आकर वह गैंग के मुखिया की
हत्या कर वहाँ से भाग आता है। अन्य कलाकार थे सीमा विश्वास, भाग्यश्री,
नसीरुद्दीन शाह, विनोद खन्ना, आशीष विद्यार्थी, गुलशन ग्रोवर इत्यादि।
‘पीपली लाइव’ (2010) अनुषा रिज़वी और महमूद फारुकी
निर्देशित यह फिल्म क़र्ज़ में डूबे एक दलित किसान के आत्महत्या करने के निर्णय पर
मीडिया और प्रशासन द्वारा हुल्लड़ मचाये जाने से तंग घर उसके घर से गायब हो जाने
को लेकर एक व्यंग्यात्मक फिल्म है। ‘रावण’ (2010) मणिरत्नम दक्षिण के फिल्मकार हैं और दक्षिण में रावण को उत्तर की भाँति
प्रतिनायक के रूप में नहीं देखा जाता है। उसने सीता का अपहरण काम वासना से प्रेरित
न होकर अपनी बहन के अपमान के प्रतिशोध स्वरूप किया था। वह अंत तक सीता के साथ
दुष्कृत्य नहीं करता, किन्तु राम फिर भी सीता के चरित्र पर
संदेह करते हैं। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में रावण की भूमिका में
जहाँ अभिषेक बच्चन थे तो सीता की भूमिका में उनकी पत्नी ऐश्वर्या राय। ‘आक्रोश’ (2010) मूलतः आॅनर किलिंग की एक सत्य घटना
पर आधारित इस फिल्म में बिहार की घोर जातिवादी पृष्ठभूमि, सांमतीय
अत्याचार, और पुलिसिया तानाशाही के बीच, एक सवर्ण युवती गीता (बिपाशा बसुु) और दलित पुलिस अफसर प्रताप कुमार के
प्रेम, संघर्ष और पुर्नमिलन की सार्थक कहानी भी समानंतर दिशा
में साथ-साथ चलती है। ‘आरक्षण’ (2011) प्रकाश
झा निर्देशित और अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, मनोज बाजपेयी, दीपिका पादुकोण और प्रतीक बब्बर
अभिनीत यह फिल्म ‘आरक्षण’ जैसे
संवेदनशील मुद््दे को विभिन्न कोणों से दिखाती मध्यांतर के बाद बगैर किसी
निष्कर्ष पहुँचे, निजी कोचिंग प्रणाली की ओर मुड़ जाती है।
कहानी म.प्र. की राजधानी भोपाल के एक काॅलेज में साथ-साथ पढ़ रहे दो घनिष्ट
दलित-सवर्ण मित्र दीपक (सैफ अली खान) और सिद्धार्थ (प्रतीक बब्बर) की है। आरक्षण
जैसे विवादास्पद मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का निर्णय सार्वजनिक होता है और उनके बीच
दरार पैदा हो जाती है और वे अपने-अपने जातिय हितों को लेकर आमने-सामने होते हैं।
तमाम उतार चढ़ाव और अपनी-अपनी जातियों के प्रतिनिधियों, नेताओं
और प्रशासनिक अधिकारियों की काली करतूतों के बीच अंत में समीप होते हैं डाॅ.
प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के प्रभाववश, जो बगैर किसी
भेदभाव के हर वर्ग, जाति और धर्म के विद्यार्थी को बेहतर
शिक्षा मुहैया कराने को कृतसंकल्प हैं। ‘जयभीम काॅमरेड’
(2011) आनंद पटवर्धन निर्देशित यह बहुप्रशंसित फिल्म 1997 में मुम्बई की एक दलित बस्ती मेें बाबा साहेब आम्बेडकर की मूर्ति के
विरूपित करने के विरोध में खड़े हुए 10 दलित युवकों की पुलिस
ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पुलिस की इस नृशंसता और प्रशासन की चुप्पी से आहत
वहाँ के एक वामपंथी दलित कवि विलास घोगड़े विरोध स्वरूप स्वयं को गोली मारकर
आत्महत्या कर ली थी। फिल्म मरे हुए विलास के सीने पर जयभीम लिखा नीला झंडा मिलना
इस बात का प्रतीक है कि सवर्ण बाहुल्य वामपंथ में दलित और जाति का मुद्दा आज भी
उपेक्षित है और हारकर दलितों को अंत में अम्बेडकरी विचारधारा की ओर लौटने को बेवश
हैं। ‘षूद्र: द राइजिंग’ (2012) अपने
नाम अनुकूल यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक शताब्दी बाद दलितों के फिल्म निर्माण के
क्षेत्र में आगमन के रूप में कोट की जा सकती है। भारतरत्न बाबा साहेब अम्बेडकर को
समर्पित और संजीव जायसवाल निर्देशित यह फिल्म प्राचीन भारत में आर्यो के आगमन के
बाद शूद्रो पर लादी गई तमाम अशक्ताओं और उनके आधार पर सदियों चले जघन्य अत्याचारों
की एक लोमहर्षक श्रंखला प्रस्तुत करती है। भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने
वाला मीडिया किस प्रकार दलित विरोधी है, यह इस फिल्म के
निर्माण और प्रदर्शन में डाली गई सफल रुकावटों से एक बार फिर सिद्ध हो गया। वितरक
फिल्म के प्रदर्शन अधिकार खरीदने को तैयार नहीं और सिनेमाघर फिल्म दिखाने को...!
चक्रव्यूह (2012) भुखमरी, बेरोजगारी और
विस्थापन के बीच आदिवासियों का उनके जल, जंगल, ज़मीन से बेदख़ल करना, दूसरी ओर नक्सली सफाये के नाम
पर सरकार के हरित मृगया (ग्रीन हंट) अभियान में पुलिस द्वारा आदिवासियों का सफाया।
‘आरक्षण’ के बाद नक्सलवाद के प्रति
हमारी दृष्टि साफ करती प्रकाश झा की इस महत्वपूर्ण फिल्म, पुलिस
मुखबिर से नक्सली बने युवक कबीर (अभय देओल) के माध्यम से, अंततः
लाल सलाम के पक्ष में ही अपना झुकाव प्रदर्शित करती है। अन्य कलाकार थे-अर्जुन
रामपाल, मनोज वाजपेयी, अंजलि पाटिल और
ईशा गुप्ता इत्यादि।
अंत
में कुछ अपवादों को छोड़कर गंगा सहाय मीणा के शब्दों में कहूँ तो-‘‘दलित-आदिवासियों को सिनेमा में लाने की कोशिशें मुख्यतः सुधारवादी और रूमानी
दृष्टिकोण से प्रेरित थीं। दलित जीवन की वास्तविक समस्याएँ सम्पूर्णता में आना अभी
शेष है।... आए दिन दलितों के घर जलाए जा रहे हैं, आदिवासियों
को उनके जल, जंगल और ज़मीन छीने जा रहे हैं, लेकिन हमारा सिनेमा इस पर मौन है। इसकी सबसे बड़ी वजह सिनेमा पर बाजार और पूँजी
का नियंत्रण तो है ही, सिनेमा जगत में दलित-आदिवासियों की
अनुपस्थिति भी है। जैसे स्वयं दलित-आदिवासियों ने साहित्य, राजनीति
और सामाजिक आन्दोलनों के क्षेत्र में आकर अपनी आवाज बुलंद की, वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में भी उन्हें स्वयं आकर हस्तक्षेप करना पड़ेगा,
तभी सिनेमा की वास्तविक तस्वीर बदल सकती है।[26]
सम्पर्क
ठ-15
गौतम नगर साठ फीट रोड
थाठीपुर
ग्वालियर-474011 (म.प्र.)
मोबाइलः 91-989337530
[1]
शर्मा डाॅ. राम विलास-भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली-पटना, प्रथम संस्करण 1996 पृ. 211
[2] चौरसिया
आनंद-सिनेमा पर हावी रहा नायिकाओं का ग्लैमर दैनिक भास्कर (नवरंग) 11 दिसंबर 1999 पृ. 2
[3]
कीर धनंजय (अनु. गजानन सुर्वे)-डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित, पाॅप्युलर प्रकाशन प्रा लि. 301, महालक्ष्मी चेंबर्स भुलाभाई देसाई रोड, मुम्बई 400026
पृ. 255।
[4] वही, 447
[5]
वही, 449।
[6] गाँधी
मोहनदास कर्मचन्द-सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, सस्ता
साहित्य मण्डल प्रकाशन नई दिल्ली-1 संस्करण सत्ताइसवा-2005,
पृ.18।
[7]
भारद्वाज प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा दैनिक भास्कर (नवरंग) 18 दिसंबर 1999 पृ.2
[8] सोंथलिया
विनोद-रूढ़िवादिता के विरुद्ध न्यू थियेटर्स का सिंहनाद,
वसुधा-81 (हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं
सदी तक) वर्ष-6, पृ. 44।
[9] भारद्वाज
प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा, वही,
पृ.2
[10]
वही, पृ. 2
[11] चौकसे जयप्रकाश-आधी हकीकत आधा फसाना, दैनिक भास्कर (नवरंग) 4 दिसंबर 1999 पृ.1।
[12]रवि रवींद्र कुमार-सिनेमा में यथार्थ अंकन की दूसरी पहल,
वसुधा-81 वही, पृ. 336
[13]
diwar’
1975, from Wikipedia, the free
encyclopedia.
[14]
Aakrosh’
a film by Govind Nihalani, Mosrbaer supar Dvd No.DHIFS274’ part-2.
[15]
कृष्ण संजय-तू मुखिया को मार कर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे, वसुधा-81 वही, पृ. 420
[16] ‘Gulami’
a Film by J.P. Dutta, Mosrbaer Video CD
No.VHIF0016, part-1.
[17] Gulami’ 1985,
from Wikipedia, the free encyclopedia
[18]
तिवारी बजरंग बिहारी-आख्यान एक दलिता स्त्री का,
ए. असफल के उपन्यास ‘स्त्री का पुनर्जन्म’
की भूमिका से
[19] खेतान प्रभा-स्त्री उपेक्षिता, हिन्द
पाॅकेट बुक्स, प्रा.लि. नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2004,
फ्लैप से
[20] ‘Bandit Queen’ 1994,
from Wikipedia, the free encyclopedia
[21] मिश्र प्रदीप-कभी-कभी
दीख पड़ता है ऐसा समर, वसुधा-81 वही, पृ. 487।
[22]वही, पृ. 489
[23]
त्रिपाठी सत्यदेव-आओ, सिनेमा
में दलित-दलित खेलें, वसुधा-81 वही,
पृ. 493।
[24] ‘Bavander’ 2000, from Wikipedia, the free encyclopedia
[25]
प्रसाद माता-झोंपड़ी से राजभवन, नमन
प्रकाश नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002 पृ.
390
[26]
मीणा गंगा सहाय-सिनेमा के दलित आदिवासी प्रश्न,
जनसत्ता, 18 मई 2012।
बहुत सुन्दर विश्लेषण है। एक जगह इतनी सारी जानकारियां प्रस्तुत कर दी गयीं हैं। बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंMaine jiwan me pahli bar itna satik our sarthak lekh paya.bahut-bahut badhai.
जवाब देंहटाएंBahatrin our kadua sach hai.sargarbhit lekh hai bahut 2 badhai.
जवाब देंहटाएंसुन्दर विश्लेषण !!http://www.gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE#.UmAHB9JHIwY
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