समीर अमीन की दो किताबों - 'द वर्ल्ड वी विश टू सी' और 'फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन' के बहाने वरिष्ठ कहानीकार तथा गंभीर अध्येता रमेश उपाध्याय ने पूँजीवाद के वर्चस्व जमाते जाने के साथ आये भूमंडलीय परिवर्तनों का मानीखेज़ अध्ययन किया है. यह लेख भारत भारद्वाज द्वारा संपादित 'पुस्तक वार्ता' के ताज़ा अंक में प्रस्तुत है. हम इसे जनपक्ष के पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत कर रहे हैं.
रमेश उपाध्याय
समाजवाद के विरोधी कुछ भी कहें, जब तक
दुनिया में पूँजीवाद है,
तब तक समाजवाद के भविष्य पर विचार और पुनर्विचार चलता
रहेगा। दुनिया में ऐसे विचारकों की कमी नहीं है, जो समाजवाद को आवश्यक और
संभव मानते हैं तथा अपनी रचनाओं से समाजवाद की संभावनाओं पर विचार करने का एक सही
परिप्रेक्ष्य भी प्रदान करते हैं। ऐसे विचारकों में अन्यतम हैं समीर अमीन।
मिस्र में 1931 में जन्में समीर अमीन का बचपन पोर्ट सईद में बीता। पढ़ाई के लिए पेरिस गये और
सोलह साल की उम्र में ही वहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गये। पढ़ाई पूरी
करके 1957 में काहिरा लौटे और आते ही मिस्र की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये। अरब
राष्ट्रवाद के नेता अब्दुल नासिर के शासनकाल में उन्होंने मिस्र के आर्थिक सलाहकार
के रूप में काम शुरू किया। नासिर जवाहरलाल नेहरू की तरह प्रगतिशील विचारों के थे
और नेहरू के साथ गुटनिरपेक्ष देशों के आंदोलन में शामिल थे। वे मिस्र की राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करने के हिमायती
थे, लेकिन उनकी सरकार में ऐसे लोग भरे हुए थे, जो आमूल परिवर्तन की माँग
करने वाले कम्युनिस्टों के विरोधी थे। अतः नासिर की तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद
उनकी सरकार के कई फैसले गैर-जनतांत्रिक किस्म के होते थे और उनकी कई योजनाएँ असफल
हो जाती थीं।
अंततः नासिर की सरकार कम्युनिस्टों के दमन पर उतर आयी और
समीर अमीन के कई मित्रों को जेल में डाल दिया गया। समीर किसी तरह बच निकले और 1960 में उन्होंने
पेरिस में शरण ली। 1963 में वे ‘अफ्रीकन इंस्टीट्यूट फार इकानामिक प्लैनिंग एंड डेवलपमेंट’ में
प्रोफेसर बने और 1970 से 1980 तक उसके निदेशक रहे। साथ ही वे कई अरब और अफ्रीकी देशों के आर्थिक सलाहकार भी
रहे। 1997 से वे ‘वल्र्ड फोरम फाॅर आॅल्टरनेटिव्स’
नामक संस्था के संचालक तथा उसकी पत्रिका के संपादक हैं।
लेखक के रूप में यों तो समीर अमीन अपनी कई पुस्तकों के लिए
प्रसिद्ध हैं, जैसे ‘इंपीरियलिज्म एंड अनईवन डेवलपमेंट’,
‘यूरोसेंट्रिज्म’,
‘क्लास एंड नेशन’,
‘दि एंपायर आफ केआस’,
‘एंपायर एंड मल्टीट्यूड’, ‘बियोंड यू.एस. हेजेमनी’ इत्यादि (वे स्वयं को ‘स्वाधीन मार्क्सवादी’
कहते हैं और उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक का नाम है ‘अ लाइफ
लुकिंग फारवर्ड: मेमायर्स आॅफ एन इंडिपेंडेंट मार्क्सिस्ट’), लेकिन आज की दुनिया में परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट
करने वाली उनकी छह पुस्तकों की शृंखला विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
सोवियत संघ के विघटन के बाद हुए पूँजीवादी भूमंडलीकरण से
दुनिया में जो परिवर्तन हुए हैं,
उनके कारणों और संभावित परिणामों पर विचार करते हुए समीर
अमीन ने क्रमशः छह पुस्तकें लिखी हैं,
जिनके पीछे एक साझा विचार-सूत्र यह रहा है कि आज मानव
सभ्यता के समक्ष जो चुनौतियाँ उपस्थित हैं,
उनको कैसे पहचाना जाये और कैसे विश्लेषित किया जाये। समीर
अमीन अपनी इन सभी पुस्तकों में आज के बर्बरतापूर्ण पूँजीवाद या साम्राज्यवाद का
मानववादी विकल्प खोजते और बताते दिखायी पड़ते हैं। अतः आज जो लोग एक बेहतर दुनिया
का सपना देखते हैं और उसे साकार करने के लिए प्रयत्नशील हैं, उनके
बीच ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई हैं। मैं इन पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय देने
के बाद उनकी दो पुस्तकों पर विस्तार से विचार करूँगा।
पहली पुस्तक ‘स्पेक्टर्स आफ कैपिटलिज्म’
(1998) में समीर अमीन ने अपने मार्क्सवादी होने को परिभाषित करते
हुए कहा था कि मार्क्सवादी वह है,
जिसका प्रस्थान-बिंदु मार्क्स हैं, लेकिन
वह मार्क्स पर ही अथवा लेनिन और माओ पर ही रुका नहीं रह जाता। इस संदर्भ में
उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद को एक नये ढंग से पढ़ने का प्रस्ताव किया था, जो ‘दृष्टांतों
की स्वायत्तता’
पर आधारित होगा,
क्योंकि दृष्टांत अपने ही एक आंतरिक तर्क के आधार पर विकसित
होते हैं और आज जो इतिहास हमारे सामने है,
उसका निर्माण करते हैं। समीर अमीन के अनुसार इतिहास कोई
स्थिर, स्थायी अथवा निर्विकल्प वस्तु नहीं है। इतिहास में हमेशा विभिन्न संभावनाएँ
मौजूद रहती हैं। अतः इतिहास पर निरंतर पुनर्विचार करना तथा निरंतर उसका पुनर्लेखन
किया जाना जरूरी है। अन्य इतिहासों की तरह पूँजीवाद के इतिहास पर भी यह बात लागू
होती है।
दूसरी पुस्तक ‘आब्सोलेसेंट कैपिटलिज्म’
(2003) में समीर अमीन ने बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के
पहले दशक के बीस वर्षों में स्थापित नये पूँजीवाद का अपना अध्ययन प्रस्तुत करते
हुए सिद्ध किया कि पूँजीवाद पुराना पड़ चुका है, बेकार हो चुका है और इसकी
जगह दुनिया में जब तक एक बेहतर व्यवस्था कायम नहीं हो जाती, तब तक
यह मनुष्य, प्रकृति और समूची जनसंख्याओं के विनाश का कारण बना रहेगा। पूँजीवाद के समर्थक
कुछ भी कहें, वह अपने विकास की समस्त संभावनाएँ खोकर एक मृत और जड़ व्यवस्था बन चुका है, जिससे
आज की दुनिया में तरह-तरह की बीमारियाँ और महामारियाँ फैल रही हैं।
तीसरी पुस्तक ‘दि लिबरल वायरस’
(2004) में आधुनिक काल की राजनीतिक संस्कृति पर विचार करते हुए
समीर अमीन यूरोपीय और अमरीकी राजनीतिक संस्कृति की भिन्नता को सामने लाते हैं।
उनके विचार से यूरोप की राजनीतिक संस्कृति वामपंथ और दक्षिणपंथ के परस्पर-विरोध पर
आधारित है, इसलिए यूरोपीय राजनीति की विशेषता यह रही है कि उसका एक रूपांतरकारी पक्ष
हमेशा मौजूद रहा है;
जबकि अमरीका की राजनीतिक संस्कृति ‘कंसेंसस’ (सहमति)
पर आधारित होने के कारण राजनीति के रूपांतरकारी पक्ष को नष्ट कर देती है। लेकिन अब
यूरोप की राजनीतिक संस्कृति का भी अमरीकीकरण हो गया है और उदारवाद का वायरस
सर्वत्र फैल रहा है।
चौथी पुस्तक ‘बियोंड यू.एस. हेजेमनी’
(2006) में दुनिया की एकध्रुवीयता की धारणा का खंडन करते हुए उसकी
बहुधु्रवीयता की जरूरत पर जोर दिया गया है। अमरीका के भूमंडलीय वर्चस्व, उसकी
आर्थिक तथा सैनिक शक्ति,
उसके साम्राज्यवादी इरादों और अखिल भूमंडल पर शासन करने के
मंसूबों और प्रयासों पर विचार करते हुए समीर अमीन एकध्रुवीयता का विरोध और
बहुधु्रवीयता का समर्थन करते हुए बताते हैं कि इससे दुनिया के जनगणों को वे जरूरी
हाशिये हासिल होंगे,
जिनमें क्रांतिकारी प्रगति की संभावना होगी।
पाँचवीं पुस्तक ‘दि वर्ल्ड वी विश टु सी’
(2008) में समीर अमीन ने दुनिया में अब तक चले समाजवादी आंदोलनों, अब तक
हुई समाजवादी क्रांतियों और उनके बाद बनी व्यवस्थाओं की सीमाओं की आलोचना की है और
पूँजी के भूमंडलीय आधिपत्य के विरुद्ध ‘‘जनगण के अंतरराष्ट्रीयतावाद’’
के निर्माण की जरूरत पर जोर देते हुए उसकी संभावनाओं पर
विचार किया है।
छठी पुस्तक ‘फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन’
(2010), जिसका उपशीर्षक ‘रिकंस्ट्रक्ंिटग
दि सोशलिस्ट पर्सपेक्टिव’
है,
इक्कीसवीं सदी में समाजवाद के लिए किये जाने वाले संघर्ष की
रणनीति पर विचार करते हुए बताती है कि दुनिया में अब तक रहे विभिन्न प्रकार के
समाजवादों से इक्कीसवीं सदी का समाजवाद भिन्न होगा।
भूमंडलीय परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य और उसकी संभावना को
समझने के लिए पाँचवीं और छठी दोनों पुस्तकों को एक साथ पढ़ना अधिक उपयोगी हो सकता
है। अतः मैं इन दोनों पर किंचित् विस्तार से विचार करना चाहता हूँ।
दि वर्ल्ड वी विश टु सी
इस पुस्तक की मूल स्थापना यह है कि ‘‘पूँजीवाद
एक विश्व-व्यवस्था है,
अतः इसके शिकार लोग इसकी चुनौतियों का सामना भूमंडलीय स्तर
पर संगठित होकर ही कर सकते हैं।’’
लेकिन इसके लिए दुनिया के विभिन्न जनगणों के बीच जो
अंतरराष्ट्रीय एकजुटता होनी चाहिए,
उसमें पूँजी का भूमंडलीय विस्तार और उससे जुड़ा असमान विकास
हमेशा मुश्किलें पैदा करता रहा है। इसी कारण पूँजीवाद को अभी तक कोई गंभीर चुनौती
नहीं दी जा सकी है और उसका प्रभुत्व कायम है। प्रश्न यह है कि इस विश्व-व्यवस्था
को बदलने के लिए दुनिया के विभिन्न जनगणों के बीच एकजुटता कैसे हो। प्रस्तुत
पुस्तक में समीर अमीन ने इसी प्रश्न पर विचार किया है और एक वैकल्पिक बेहतर दुनिया
बनाने के उपाय भी सुझाये हैं।
यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो
समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था ही है। आज की शब्दावली में कहें, तो यदि
पूँजीवादी भूमंडलीकरण संभव है,
तो समाजवादी भूमंडलीकरण भी संभव है। यह कोई नया विचार नहीं
है और समाजवादी विश्व-व्यवस्था बनाने के प्रयास भी नये नहीं हैं। उनका एक इतिहास
है। यह अंतरराष्ट्रीयतावाद का तथा ‘इंटरनेशनल’
नामक संगठनों का इतिहास है। अतः प्रस्तुत पुस्तक में समीर
अमीन पहले इस इतिहास को ही सामने लाते हैं,
ताकि वर्तमान परिस्थिति में उससे जरूरी सबक लिये जा सकें।
‘पहला इंटरनेशनल’
(1864-76) बनने से पहले यूरोप में ‘लीग आॅफ जस्ट’
नामक एक संगठन बना था,
जिसका नारा था ‘‘सभी आदमी भाई हैं’’। जब 1847 में माक्र्स और एंगेल्स उस संगठन में शामिल हुए, तो
उसका पुनर्गठन किया गया। उसका नाम बदलकर ‘लीग आॅफ कम्युनिस्ट’
रखा गया और नारा दिया गया--‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो!’’ माक्र्स-एंगेल्स
ने इसके लिए 1848 में एक घोषणापत्र लिखा,
जो आज सारी दुनिया में ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’
के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार पूँजीपति और सर्वहारा दो
ऐसे वर्ग हैं, जो राष्ट्रीय होने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भी हैं।
अतः साम्यवादी समाज बनाने के लिए सर्वहारा वर्ग को स्थानीय
पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के
विरुद्ध भी संघर्ष करना होगा और इन दोनों प्रकार के संघर्षों में कोई अंतर्विरोध
नहीं है। इस विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए 1864 में ‘इंटरनेशनल
वर्किंगमैन्स एसोसिएशन’
(अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ) नामक एक संगठन बना, जिसमें
माक्र्स और एंगेल्स ने नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। यह ‘पहला
इंटरनेशनल’ कहलाता है। यह संगठन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न विभिन्न देशों
के सर्वहारा वर्ग को--अर्थात् उसके विभिन्न दलों, संगठनों तथा आंदोलनों
को--आपस में जोड़ने का एक प्रयास था। हालाँकि यह साम्यवादियों का संगठन था, पर
इसमें अन्य विचारधाराओं वाले दल,
संगठन और आंदोलन भी शामिल थे। दूसरे शब्दों में, इसमें ‘‘विविधता
के लिए जनतांत्रिक आदर’’
का सिद्धांत अपनाया गया था। समीर अमीन का कहना है कि आज के
समय में अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए इससे एक जरूरी सबक सीखा जा सकता है।
‘दूसरा इंटरनेशनल’
(1889-1914) बिलकुल भिन्न सिद्धांतों पर आधारित था। इसमें जो दल और
संगठन शामिल थे,
वे अंतरराष्ट्रीयतावाद पर कम और राष्ट्रवाद पर ज्यादा जोर
देते थे। राष्ट्रवाद का समर्थन करते-करते वे साम्राज्यवाद का समर्थन करने लगते थे।
मसलन, यदि उनका देश साम्राज्यवादी है,
तो वे साम्राज्यवाद को यह कहकर उचित ठहराते थे कि इससे
उपनिवेशों के जनगणों को उनके ‘पिछड़ेपन’ से निकालकर पूँजीवादी आधुनिकता के दायरे में लाया जा सकता है और वहाँ से उन्हें समाजवादी दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है। वे इसी को ‘प्रगति’ मानते
थे। मगर इतिहास ने उन्हें गलत साबित किया।
‘दूसरे इंटरनेशनल’
की दूसरी बड़ी खामी यह थी कि इसमें ‘‘विविधता
के लिए जनतांत्रिक आदर’’
के सिद्धांत को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए ‘‘एक देश
में एक ही पार्टी सही हो सकती है’’
का संकीर्णतावादी सिद्धांत अपनाया गया और ‘सबसे
सही लाइन’ लेकर चलने वाली पार्टी को ही संगठन में शामिल करने पर जोर दिया गया। इससे
अंतरराष्ट्रीयतावाद मजबूत होने के बजाय कमजोर हुआ और साम्यवादी आंदोलन में जो
संकीर्णतावादी प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं,
वे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की सहायक सिद्ध हुईं।
‘तीसरे इंटरनेशनल’
(1919-1943) में साम्राज्यवाद के विरुद्ध मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय
एकजुटता पर जोर देकर ‘दूसरे इंटरनेशनल’
की खामियों को दूर करने की कोशिश की गयी। लेकिन ‘‘सारी
दुनिया के मजदूरों’’
की एकता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने में एक दिक्कत
यह थी कि पश्चिमी देशों में हुई औद्योगिक क्रांति से जैसा मजदूर वर्ग वहाँ पैदा
हुआ था, पूर्व के देशों में नहीं था,
जहाँ औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी। अतः ‘‘पश्चिम
के मजदूरों’’ और ‘‘पूर्व के किसानों’’
को एक करने की नीति अपनायी गयी और फिर उनमें ‘‘दुनिया
के तमाम देशों के उत्पीड़ितों’’
को भी जोड़कर अंतरराष्ट्रीयतावाद के दायरे का विस्तार किया
गया।
लेकिन तब तक दुनिया पूँजीवादी और समाजवादी दो खेमों में बँट
चुकी थी और समाजवादी खेमे का नेतृत्व दुनिया का पहला समाजवादी देश सोवियत संघ कर
रहा था। इस परिस्थिति में ‘तीसरे इंटरनेशनल’
को ‘‘सारी दुनिया में समाजवाद’’
की जगह ‘‘एक देश में समाजवाद’’
के सिद्धांत को अपनाकर तथा पूँजीवादी खेमे के विरुद्ध
समाजवादी खेमे के पक्ष में खड़े होकर ‘‘प्रथम समाजवादी देश’’
को तथा पूरे समाजवादी खेमे को बचाने की नीति पर चलना पड़ा।
इससे कई देशों के साम्यवादी दल ही नहीं,
स्वयं सोवियत संघ में त्रात्स्की जैसे नेता भी सहमत नहीं
थे। इसी मतभेद के चलते त्रात्स्की ने 1938 में ‘चैथे इंटरनेशनल’
की स्थापना की,
लेकिन वह चल नहीं सका।
उस समय एशिया,
अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अनेक नव-स्वतंत्र देश, जो
औपनिवेशिक शासन से मुक्त होकर अपना स्वाधीन विकास करना चाहते थे, इस या
उस खेमे में शामिल होने के बजाय दुनिया की ‘एकध्रुवीयता’
के विरुद्ध ‘बहुध्रुवीयता’
में अपना हित देख रहे थे, ताकि वे दोनों खेमों से
मोल-तोल कर सकें। इसके लिए 1955 में एशिया और अफ्रीका के देशों का एक सम्मेलन बांडुंग में हुआ, जिससे ‘गुटनिरपेक्ष
आंदोलन’ का आरंभ हुआ। इसके नेताओं में भारत के नेहरू और मिस्र के नासिर जैसे लोग थे।
इन देशों ने अपने आर्थिक विकास के लिए पूँजीवादी और समाजवादी तरीकों में से कोई एक
तरीका चुनने के बजाय ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’
वाला तरीका अपनाया,
जो काफी हद तक सफल रहा। फिर 1966 में हवाना में एशियाई, अफ्रीकी
और लैटिन अमरीकी देशों का एक सम्मेलन हुआ,
जिसमें से पुराने ‘इंटरनेशनलों’
की तर्ज पर एक ‘ट्राइकांटिनेंटल’
नामक गठबंधन बना। उधर शीतयुद्ध के चलते पूँजीवादी और
समाजवादी दोनों खेमों की कोशिश यह थी कि इन देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता देकर
अपनी ओर खींचा जाये। इससे गुटनिरपेक्ष आंदोलन में एक प्रकार का अवसरवाद पैदा हुआ
और उसके नेताओं में सिद्धांतहीन समझौते करने की प्रवृत्ति बढ़ी।
शीतयुद्ध में पूँजीवादी खेमे की सफलता यह रही कि उसने
गुटनिरपेक्ष देशों को ‘पूँजीवादी विकास’
के रास्ते पर डाल दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि इन
देशों में स्वाधीनता की जगह परनिर्भरता की,
जनतंत्र की जगह तानाशाही की, मिश्रित अर्थव्यवस्था की
जगह एकाधिकारी पूँजीवाद को बढ़ावा देने की,
सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित करके निजी क्षेत्र को बढ़ाने आदि
की प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं। यही कारण था कि जब सोवियत संघ का विघटन हो जाने पर
पूँजीवादी खेमे ने शीतयुद्ध में स्वयं को विजयी घोषित करते हुए कहा कि दुनिया ‘एकध्रुवीय’ हो गयी
है और अब सारी दुनिया में हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा, तो इन देशों के पास इसे सच
मानकर पूँजीवाद से समझौता कर लेने तथा साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेक देने के सिवा
कोई चारा नहीं रहा। इसी परिस्थिति में निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों वाला वह
पूँजीवादी भूमंडलीकरण शुरू हुआ,
जो आज सारी दुनिया का भयानक सिरदर्द बना हुआ है।
फिर भी समीर अमीन 1955 से 1980 तक के समय को ‘‘संघर्षों के प्रथम भूमंडलीकरण’’
का समय मानते हैं,
जिसमें ‘‘पूँजीवाद के इतिहास में पहली बार पृथ्वी के प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक
राष्ट्र के अंदर ऐसे संघर्ष हुए,
जिन्होंने पूँजीवाद के विकास की दिशा में परिवर्तन का आरंभ
किया’’। इस दौरान ‘केंद्र’ के देशों ने ‘परिधि’ के देशों की माँगों से अपना समायोजन किया, लेकिन 1980 के
बाद इसका उलटा होने लगा। अर्थात् परिधि के देश केंद्र के देशों की माँगों के
अनुसार अपना समायोजन करने लगे। मगर जल्दी ही तथाकथित उभरते हुए देशों (खासकर चीन, भारत
और ब्राजील) में राष्ट्रीय पूँजीवादी विकास की संभावनाएँ पैदा हो गयीं और दुनिया
की एकध्रुवीयता का दावा खोखला मालूम होने लगा।
समीर अमीन ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को निकट से देखा है और
तीसरी दुनिया के अनेक देशों के आर्थिक सलाहकार के रूप में इस यथार्थ को बखूबी समझा
है कि गुटनिरपेक्षता सच्ची गुटनिरपेक्षता नहीं थी। इतना ही नहीं, पूँजीवादी
और समाजवादी नाम के जो खेमे थे,
उनमें समाजवादी खेमा भी सच्चा समाजवादी नहीं था, क्योंकि
उसमें समाजवाद के नाम पर जो व्यवस्था बनायी गयी, वह एक प्रकार की पूँजीवादी
व्यवस्था ही थी,
जिसे ‘स्टेट कैपिटलिज्म’
(राज्य का पूँजीवाद) कहा जा सकता है। दूसरे, स्वयं
को समाजवादी कहने वाले इन देशों ने भी विकास का वही माॅडल अपनाया, जो
पूँजीवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों के सामने रखा था। वह माडल मानो यह कहता
था कि ‘केंद्र’ के देश विकास की दौड़ में आगे निकल चुके हैं और ‘परिधि’
के देशों को अब अपना विकास करके उनके समकक्ष पहुँचना है।
समाजवादी तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन वाले देशों को समझना चाहिए
था कि विकास का यह रास्ता पूँजीवादी रास्ता है, जिस पर चलकर वे कभी भी उन
देशों के समकक्ष नहीं पहुँच पायेंगे। उनके सामने विकल्प यह था कि वे कुछ और करें।
अर्थात् पूँजीवादी रास्ते से भिन्न किसी और रास्ते पर चलकर समाजवाद का निर्माण
करें। समीर अमीन इसे ‘‘कैचिंग अप’’
(समकक्ष पहुँचने) और ‘‘डूइंग समथिंग एल्स’’
(कुछ और ही करने) में से एक को चुनने की स्थिति बताते हुए
कहते हैं कि समाजवादी और गुटनिरपेक्ष दोनों तरह के देशों ने अपने विकास के लिए ‘‘कुछ और
ही करने’’ के बजाय ‘‘समकक्ष पहुँचने’’
वाला तरीका चुना। इसी का परिणाम है सोवियत संघ का विघटन और
पूँजीवादी भूमंडलीकरण।
आज समाजवाद की ओर जाने वाला रास्ता लंबा और कठिन है, जबकि
पूँजीवादी विकल्प चुनना आसान;
लेकिन इन दोनों के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं हो गया है।
समीर अमीन के विचार से ‘‘सभ्यताओं का संघर्ष’’
वास्तव में समाजवाद और पूँजीवाद के बीच का संघर्ष है और यह
संघर्ष ‘परिधि’ के अधीनस्थ देशों में ही नहीं,
बल्कि ‘केंद्र’ के प्रभुत्वशाली देशों में भी लगातार चल रहा है। माओ ने इस वैश्विक या
भूमंडलीय संघर्ष की सही परिकल्पना की थी और इससे निकलने वाले निष्कर्षों को एक
चीनी ढंग की अद्भुत सूक्ति में इस प्रकार पिरोया था कि ‘‘देशों
को स्वाधीनता चाहिए,
राष्ट्रों को मुक्ति चाहिए, और जनगण को क्रांति चाहिए’’।
लेकिन भूमंडलीय पूँजीवाद का भूमंडलीय समाजवाद में रूपांतरण एक लंबी--बहुत
लंबी--प्रक्रिया है,
यह बात उन लोगों,
दलों और संगठनों को याद रखनी चाहिए, जो
समाजवादी क्रांति को अविलंब आवश्यक और संभव मानते हैं। दूसरी तरफ यह बात उन लोगों
को भी याद रखनी चाहिए,
जो इस रूपांतरण को अनावश्यक और असंभव मानते हैं।
भूमंडलीय पूँजीवाद का भूमंडलीय समाजवाद में रूपांतरण क्यों
आवश्यक और संभव है,
इसके कारण बताते हुए समीर अमीन कहते हैं कि सोवियत संघ के
विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण से एक नया युग शुरू हुआ है, जिसने
सारी दुनिया के सामने नयी चुनौतियाँ पेश कर दी हैं। इस नये युग की शुरुआत के साथ
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में बनी तीनों प्रभुत्वशाली व्यवस्थाओं--अर्थात्
पूँजीवादी (कल्याणकारी राज्य वाली व्यवस्था),
समाजवादी (सोवियत संघ वाली व्यवस्था) और राष्ट्रीय-लोकवादी
(तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों वाली व्यवस्था)--का अस्तित्व समाप्त हो गया
है। इनकी जगह नव-उदार पूँजीवाद की जो भूमंडलीय व्यवस्था बनी है, उसमें
उत्पादन का तरीका,
श्रम का स्वरूप और सामाजिक वर्गों तथा समूहों का स्तरविन्यास
बदल गया है।
इससे सामाजिक रूपांतरण के लिए किये जाने वाले स्थानीय तथा
भूमंडलीय संघर्षों के लिए नयी चुनौतियाँ और साथ ही नयी संभावनाएँ भी पैदा हो गयी
हैं। चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि खत्म होता पूँजीवाद संपूर्ण मानवता
का शत्रु बन गया है। हालाँकि संपूर्ण भूमंडल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की
उसकी नव-उदारवादी परियोजना सफल होने वाली नहीं है; क्योंकि वह तर्कहीन, ऊलजलूल
और अयथार्थ है;
फिर भी पूँजीवादी भूमंडलीकरण के रूप में वह सारी दुनिया में
जोर-शोर से चलती नजर आ रही है। कारण यह है कि इससे पहले की तीनों
व्यवस्थाएँ--कल्याणकारी राज्य वाली व्यवस्था,
सोवियत संघ वाली व्यवस्था और राष्ट्रीय-लोकवादी
व्यवस्था--ध्वस्त हो चुकी हैं। इसी कारण दुनिया को देखने, समझने
और व्यवस्थित रखने के अब तक के तमाम तौर-तरीके पुराने और लगभग बेकार हो चुके हैं।
उदाहरण के लिए,
अब मूल अंतर्विरोध पूँजीपति और सर्वहारा के बीच नहीं रहा, बल्कि
पूँजीवाद और संपूर्ण मानवता के बीच का हो गया है, क्योंकि पूँजीवाद संपूर्ण
मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है।
समीर अमीन इसे पूँजीवाद के ‘लुप्तप्राय’
होने की अवस्था कहते हैं। उनके अनुसार पूँजीवाद का कोई
भविष्य नहीं है,
सिवा इसके कि वह एक दूसरी दुनिया के लिए रास्ता छोड़ दे, जिसका
निर्माण संभव है। लेकिन वह स्वतः ही दूसरी दुनिया के लिए रास्ता छोड़कर हट जायेगा, इसकी
संभावना नहीं है। वह खुद तो डूबेगा ही,
संपूर्ण मानवता,
प्रकृति और पृथ्वी को भी ले डूबेगा। अतः उसके ‘लुप्तप्राय’ होने
का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वतः ही लुप्त हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि उसकी जगह
एक दूसरी, बेहतर दुनिया संभव है और उसको संभव करने के लिए इस लुप्तप्राय पूँजीवाद को
हटाना जरूरी है और उसे हटाने के लिए संपूर्ण मानवता को एक लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी
होगी।
जाहिर है,
यह लड़ाई दुनिया के किसी एक देश या कुछ देशों में, अथवा
किसी एक क्षेत्र या कुछ क्षेत्रों में नहीं,
बल्कि सारी दुनिया में लड़ी जायेगी और पूँजीवादी
विश्व-व्यवस्था की जगह एक नयी विश्व-व्यवस्था कायम करने के लिए लड़ी जायेगी। उस नयी विश्व-व्यवस्था का नाम, जब वह
बनेगी, कुछ और भी हो सकता है,
लेकिन फिलहाल उसका नाम समाजवाद ही है। अतः यह लड़ाई भूमंडलीय
पूँजीवाद के विरुद्ध भूमंडलीय समाजवाद के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई है। और यह लड़ाई
आज की दुनिया में सर्वत्र विभिन्न प्रकार के अनेक दलों, संगठनों
तथा आंदोलनों के द्वारा लड़ी जा रही है।
इतना ही नहीं,
दुनिया भर के इन दलों,
संगठनों और आंदोलनों को आपस में जोड़ने की एक प्रक्रिया भी
शुरू हो गयी है,
जिसका सबसे स्पष्ट रूप ‘वल्र्ड सोशल फोरम’
में दिखायी दे रहा है। हालाँकि इसका नाम ‘इंटरनेशनल’ नहीं
है, लेकिन यह उसी तरह का एक अंतरराष्ट्रीयतावादी प्रयास है। फर्क, जो
वर्तमान परिस्थिति की भिन्नता से पैदा हुआ है, यह है कि ‘‘दुनिया
के मजदूरो एक हो!’’
की जगह यह ‘लुप्तप्राय’
पूँजीवाद के विरुद्ध संपूर्ण मानवता के एक होने का आह्वान
कर रहा है। समीर अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’
के बारे में विस्तार से विचार किया है तथा उसकी संभावित
शक्तियों और सीमाओं को स्पष्ट किया है।
समीर अमीन की यह पुस्तक उस उथल-पुथल को समझने में काफी
सहायक है, जो आज बृहत्तर मध्य-पूर्व के क्षेत्र में जारी है। इसमें दिखाया गया है कि इस
क्षेत्र में तीन शक्ति-समूहों के बीच राजनीतिक संघर्ष चल रहा है। एक वे, जो
अपने राष्ट्रवादी अतीत की दुहाई देते हैं,
लेकिन वास्तव में राष्ट्रीय-लोकवादी युग (जैसे भारत के ‘नेहरू
युग’ की तरह मिस्र में ‘नासिर युग’)
की नौकरशाहियों के पतनशील तथा भ्रष्ट उत्तराधिकारी हैं।
दूसरे वे, जो राजनीतिक इस्लाम की दुहाई देते हैं। और तीसरे वे, जो
आर्थिक उदारवाद से मेल खाने वाली ‘जनतांत्रिक’
माँगों के आधार पर स्वयं को संगठित करते हैं। (‘‘जनतंत्र
की माँग’’ पिछले दिनों मिस्र तथा अन्य अरब-अफ्रीकी देशों में तानाशाहियों के विरुद्ध चले
आंदोलनों में देखने में आयी। लेकिन ये आंदोलन अपनी वांछित परिणति, अर्थात्
जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना तक नहीं पहुँच सके।) वाम भी एक चौथे शक्ति-समूह के
रूप में वहाँ मौजूद है,
लेकिन वह कमजोर है। वाम चूँकि आम जनता के हितों को ध्यान
में रखता है, इसलिए उक्त तीनों शक्ति-समूहों में से कोई भी अपनी सत्ता मजबूत कर ले, यह उसे
स्वीकार नहीं है। उसे मालूम है कि ये तीनों शक्ति-समूह उन कंप्राडोर वर्गों का
हित-साधन करते हैं,
जो वर्तमान साम्राज्यवादी व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। अमरीकी
कूटनीति अपने लाभ के लिए इन तीनों शक्ति-समूहों को आपस में लड़ाती रहती है।
बृहत्तर मध्य-पूर्व के शासक कमोबेश अमरीका के हाथ की
कठपुतली हैं। लेकिन वहाँ के वाम की दिक्कत यह है कि वह इन शासकों के विरुद्ध उक्त
तीनों शक्ति-समूहों से गठबंधन नहीं कर सकता,
इसलिए इनके मुकाबले शासकों को बेहतर समझता है। समीर अमीन के
विचार से वहाँ वाम को आम जनता के आर्थिक और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए, जनतंत्र
के लिए तथा राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए संघर्ष चलाना चाहिए। ये तीनों चीजें परस्पर
अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं।
बृहत्तर मध्य-पूर्व का क्षेत्र आज केंद्रीय महत्त्व का
क्षेत्र इस अर्थ में है कि वहाँ जो संघर्ष हो रहा है, वह कोई
स्थानीय संघर्ष नहीं है। इसे केवल यहाँ के तानाशाहों के विरुद्ध यहाँ की जनता के
संघर्ष के रूप में न देखकर आज के साम्राज्यवाद के सरगना और बाकी सारी दुनिया के
जनगणों के बीच के संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। इस क्षेत्र पर उसका काबिज
रहना सारी दुनिया के लिए खतरनाक है,
अतः इस क्षेत्र में उसको हराना सारी दुनिया के स्वतंत्रता, संप्रभुता
और वास्तविक जनतंत्र चाहने वाले जनगणों के लिए जरूरी है। इराक पर किये गये अमरीकी
हमले और कब्जे को समीर अमीन ने ‘‘इस सदी का उसका पहला आपराधिक आक्रमण’’
कहा है। लगभग उसी तरह दूसरा आपराधिक आक्रमण उसने लीबिया पर
किया। और पूरी आशंका है कि ऐसे आक्रमण आगे भी जारी रहेंगे, क्योंकि
समीर अमीन के अनुसार अमरीका और ‘नाटो’ की शक्तियाँ पूरी पृथ्वी पर अपना सैनिक नियंत्रण कायम करना चाहती हैं।
प्रश्न उठता है: ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? समीर
अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में एक अध्याय इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए लिखा है
और उसमें एक नये ‘इंटरनेशनल’
की,
अर्थात् ‘पाँचवें इंटरनेशनल’
की प्रस्तावना की है। उनका कहना है कि आज की दुनिया में
पूँजी का प्रभुत्व है और प्रभुत्वशाली पूँजी अपनी रणनीतियों का भूमंडलीकरण कर रही
है। इसका जवाब इसके शिकार लोग अपने संघर्षों का भूमंडलीकरण करके ही दे सकते हैं।
‘‘तो क्यों न एक नया ‘इंटरनेशनल’
बनाया जाये,
जो पूँजी के विरुद्ध किये जा रहे दुनिया के तमाम जनगणों के
संघर्षों की एकता के लिए एक कारगर ढाँचा उपलब्ध करा सके?’’ समीर
अमीन इस प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ में देते हैं,
मगर इस शर्त पर कि ‘पाँचवाँ इंटरनेशनल’
दूसरे,
तीसरे और चैथे ‘इंटरनेशनल’
जैसा नहीं,
बल्कि ‘पहले इंटरनेशनल’
की तरह बनाया जाना चाहिए। अर्थात् यह केवल राजनीतिक
पार्टियों का और वह भी ‘‘एक देश की एक ही सही पार्टी’’
को शामिल करके बनाया गया संगठन नहीं होना चाहिए, बल्कि
इसमें पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध और संघर्ष करने वाले तमाम व्यक्तियों, समूहों, संगठनों
और आंदोलनों को एकत्र होना चाहिए। फिर उनका जो भी मोर्चा या संगठन बने, उसमें ‘‘विविधता
के लिए जनतांत्रिक आदर’’
की भावना अवश्य रहनी चाहिए।
इस संदर्भ में समीर अमीन दो प्रकार की राजनीतिक संस्कृतियों
की बात करते हैं--‘कंसेंसस’ (मतैक्य) वाली दक्षिणपंथी संस्कृतियाँ और ‘काॅन्फ्लिक्ट’
(मतभेद) वाली वामपंथी संस्कृतियाँ। नया ‘इंटरनेशनल’ बनाने
के लिए मतभेद वाली संस्कृतियों को पहचानना,
उन्हें आपस में जोड़ना और उनका ऐसा संगठन बनाना जरूरी है, जिसमें
सब साथ चल सकें,
लेकिन अपनी-अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार भिन्न
विचार रखने तथा भिन्न कार्यक्रम लेकर चलने की आजादी भी सबको रहे।
इस प्रकार की आजादी समीर अमीन को ‘वल्र्ड
सोशल फोरम’ के मंचों पर नजर आती है। उन्होंने लिखा है कि इन मंचों पर होने वाली बहसें ‘पहले
इंटरनेशनल’ में हुई बहसों की याद दिलाती हैं। अतः आकस्मिक नहीं कि समीर अमीन ने ‘वल्र्ड
सोशल फोरम’ के बामाको सम्मेलन में की गयी ‘अपील’ को ‘पाँचवें इंटरनेशनल’
के निर्माण का आधार बताया है। बामाको पश्चिम अफ्रीकी देश
माली की राजधानी है। यहाँ 2006 में आयोजित ‘वल्र्ड सोशल फोरम’
में जो अपील की गयी थी, वह ‘बामाको
अपील’ कहलाती है। यह विस्तार से लिखा गया एक विचारणीय दस्तावेज है, जो
अपने मूल और संपूर्ण रूप में ही पढ़ा जाना चाहिए। अतः यहाँ उसका संक्षिप्त सार
प्रस्तुत करने के बजाय उसमें से उभरने वाली उस दूसरी या बेहतर दुनिया की एक झलक ही
देख लेना उचित होगा:
वह दुनिया समस्त मनुष्यों तथा जनगणों की एकजुटता के आधार पर
बनेगी।
वह दुनिया पूरी तरह और समूचे तौर पर नागरिक तथा लैंगिक
समानता पर आधारित होगी।
उस दुनिया में एक ऐसी सार्वभौम सभ्यता होगी, जो
जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ प्रस्तुत करेगी।
उस दुनिया में प्रकृति, पृथ्वी के संसाधन तथा
कृषि-भूमि विक्रय की वस्तु नहीं होंगे।
उस दुनिया में कला,
साहित्य,
संस्कृति,
विज्ञान,
शिक्षा और स्वास्थ्य भी क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं होंगे।
उस दुनिया में जीवन की समस्त गतिविधियाँ पूरी तरह
जनतांत्रिक होंगी और उसकी नीतियाँ सभी समाजों, राष्ट्रों तथा जनगणों की
स्वायत्तता की रक्षा करते हुए उनकी प्रगति को सुनिश्चित करेंगी।
समीर अमीन का दृढ़ विश्वास है कि यह ‘बेहतर
दुनिया’ अथवा ‘दूसरी दुनिया’
बनाना जरूरी है और बनायी जा सकती है। इस प्रकार समीर अमीन
क्रांति की दो मूलभूत पूर्वापेक्षाओं ‘जरूरी’ और ‘संभव’ को आज की दुनिया में मौजूद वास्तविकताओं के रूप में देखते हैं। बेहतर या दूसरी
दुनिया से उनका अभिप्राय है भूमंडलीय समाजवाद, जिसे वे सर्वथा आवश्यक और
संभव मानते हैं। इसी विचार को वे अपनी दूसरी पुस्तक ‘फ्राॅम
कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन’
में आगे बढ़ाते हैं।
फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन
यह पुस्तक इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीय समाजवाद की आवश्यकता
के साथ-साथ उसकी संभावना भी बताती है,
लेकिन उसके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं करती। समाजवाद
संबंधी भविष्यवाणियाँ प्रायः माक्र्स द्वारा की गयी पूँजीवाद की इस परिभाषा के
आधार पर की जाती हैं कि इस व्यवस्था में उत्पादन के साधनों में निरंतर सुधार होता
रहता है, जिससे उत्पादन की शक्तियों का निरंतर विकास होता रहता है। इस परिभाषा से ‘‘पनचक्की
ने सामंतवाद दिया,
भाप के इंजन ने पूँजीवाद दिया’’ जैसी
बातें निकलती हैं,
जिनके आधार पर कहा जाता है कि आज की प्रौद्योगिकी पूँजीवाद
को चला रही है,
कल की बेहतर प्रौद्योगिकी इससे बेहतर व्यवस्था (समाजवाद)
बनायेगी और उसे चलायेगी।
समीर अमीन इसे ‘टेक्नोलाॅजिज्म’
(प्रौद्योगिकीवाद) कहते हैं, जिसके आधार पर यह माना
जाता है कि उत्पादन की शक्तियों का विकास एक ऐसी बाहरी शक्ति है, जो
एकतरफा ढंग से सामाजिक संबंधों को गढ़ती है। लेकिन समीर अमीन का कहना है कि यह अतीत
के और आज के प्रभुत्वशाली बुर्जुआ चिंतन की विशेषता है और यह ‘प्रौद्योगिकीवाद’ आज
उत्तर-आधुनिकतावाद के रूप में प्रचलित है,
जो यह बताता है कि पूँजीवाद भविष्य में नये-नये रूप धारण
करता रहेगा, लेकिन दुनिया में रहेगा हमेशा पूँजीवाद ही।
समीर अमीन ऐसी भविष्यवाणियों के विरुद्ध ‘अंतर्विरोधों
के द्वंद्ववाद’
के आधार पर आज के भूमंडलीय यथार्थ का विश्लेषण करते हुए यह
बताते हैं कि ‘‘भविष्य हमेशा खुला हुआ है’’
और ‘‘स्वयं इतिहास के पहले इतिहास के कोई नियम नहीं होते’’, अतः
किसी भी समय विभिन्न विकल्पों की संभावनाएँ मौजूद रहती हैं। मार्क्स के इस कथन से
कि ‘‘हमें दुनिया को सिर्फ समझना नहीं है,
हमें तो इसे बदलना है’’
समीर अमीन पूरी सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इसमें
मौजूदा दुनिया को बदलकर जो दुनिया बनायी जानी है, उसका खाका या नक्शा भी
शामिल है, जिसके आधार पर नयी दुनिया को बनाया जाना है। और इसमें यह बात भी शामिल है कि
उस दुनिया को बनाने वाले मनुष्य ‘‘इतिहास की वस्तु’’
नहीं,
बल्कि ‘‘इतिहास के निर्माता’’
हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में मार्क्स' के बारे में प्रचलित कई
भ्रमों का खंडन करते हुए माक्र्स को नये ढंग से पढ़ने की जरूरत पर जोर दिया गया है।
उदाहरण के लिए, मार्क्सवाद को प्रायः ‘श्रमिक वर्गों की विचारधारा’ माना जाता है और ‘श्रमिक
वर्गों’ में प्रायः ‘उत्तर’ के अर्थात् पूँजीवादी देशों के श्रमिक वर्गों को ही गिना जाता है। इस प्रकार
माक्र्सवाद पूँजीवादी व्यवस्था के प्रमुख केंद्रों में स्थित ‘औद्योगिक
सर्वहारा’ द्वारा की जाने वाली क्रांति और परिणामस्वरूप उसी की मुक्ति का विचार बनकर रह
जाता है, जबकि मार्क्स ने दुनिया के सभी देशों के सभी शोषित-उत्पीड़ित लोगों की मुक्ति
की बात की थी और इसके लिए वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था को ही बदलने का विचार
प्रस्तुत किया था। समीर अमीन इस संदर्भ में आज के पूँजीवाद के बारे में कहते हैं
कि यह केवल श्रमिक वर्ग के शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था नहीं, बल्कि
मानवता के ही विनाश की व्यवस्था बन गया है,
अतः इसके परे जाना आवश्यक हो गया है।
पूँजीवाद आरंभ से ही एक भूमंडलीय व्यवस्था है। इस ऐतिहासिक
तथ्य को रेखांकित करते हुए समीर अमीन पूँजीवाद के बारे में, माक्र्सवादियों
के बीच भी, प्रचलित कई भ्रमों का खंडन करते हैं। पहला भ्रम ‘विकास
की अवस्थाओं’ से संबंधित है,
जिसके कारण यह मान लिया जाता है कि दुनिया दो तरह के देशों
में बँटी हुई है। एक तरफ ‘विकसित देश’
हैं,
जो ‘केंद्र’ में हैं और दूसरी तरफ ‘पिछड़े हुए देश’
हैं,
जो अभी ‘परिधि’ पर पड़े हुए हैं,
लेकिन चूँकि पूँजीवादी व्यवस्था विकास की एक अनिवार्य और
अपरिहार्य अवस्था है,
इसलिए ‘परिधि’ के देशों को अनिवार्यतः ‘केंद्र’ के देशों की भाँति ‘विकसित’ देश बनना है। मानो यह कोई दौड़ है,
जिसमें ‘‘पिछड़ गये’’
देशों को तेजी से दौड़कर ‘‘आगे बढ़े हुए’’ देशों
को जा पकड़ना है!
विकास का यह रूपक पूँजीवाद के भूमंडलीय रूप साम्राज्यवाद
द्वारा गढ़ा गया है और माक्र्सवाद से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह रूपक दुनिया
के देशों के बीच अगड़े-पिछड़े का भेद पैदा करता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को आदर्श
व्यवस्था मानकर चलता है। यह अन्य देशों को विकसित पूँजीवादी देश बनकर अपना पिछड़ापन
दूर करने के लिए कहता है। यह पूँजीवाद को निर्विकल्प बताता है और पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चलना तथा ‘केंद्र’ के
देशों का अनुसरण करना ‘परिधि’के देशों के लिए अपरिहार्य बताता है।
समीर अमीन विकास की इस पूँजीवादी अवधारणा को नकारते हुए
पूँजीवाद को एक ऐसी विश्व-व्यवस्था मानते हैं, जो शुरू से ही ‘‘भूमंडलीय
पैमाने पर पूँजी के संचय’’
पर आधारित रही है। इस प्रक्रिया में कुछ देशों ने दूसरे
देशों को लूटकर अपना ‘विकास’ किया है और लूटे गये देशों को ‘पिछड़ा’ बनाया है। इस प्रकार ‘विकास’ और ‘पिछड़ापन’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अतः जब तक दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था कायम
है, यह स्थिति बदलने वाली नहीं है। और इस भूमंडलीय व्यवस्था में चूँकि ‘पिछड़े’ देशों
के लोगों का शोषण-उत्पीड़न कम होने के बजाय बढ़ना ही है, उनके
मानवीय तथा प्राकृतिक संसाधनों के अपहरण और विध्वंस का सिलसिला उत्तरोत्तर अधिक
विनाशकारी रूपों में जारी रहना ही है;
इसलिए इस पूँजीवादी व्यवस्था को आज और अभी बदलने का प्रयास
करना संपूर्ण मानवता के सामने उपस्थित एक ऐतिहासिक रूप से आवश्यक और अनिवार्य
कर्तव्य है।
पूँजीवाद की इस भूमंडलीय व्यवस्था को बदलकर जिस वैकल्पिक
भूमंडलीय व्यवस्था के निर्माण की बात समीर अमीन करते हैं, उसे वे
समाजवाद ही कहना जरूरी समझते हैं। लेकिन वे उसे ‘‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद’’ कहते
हुए समाजवाद के उन रूपों से अलगाते हैं,
जो अब तक अस्तित्व में रहे हैं। वे यह नहीं बताते कि
इक्कीसवीं सदी का समाजवाद ‘‘कैसा होगा’’
या ‘‘कैसा होना चाहिए’’। उनका कहना है कि वह कोई बनी-बनायी ‘बौद्धिक परियोजना’
नहीं है,
जिसे सिर्फ लागू किया जाना या अमल में लाया जाना हो। वह तो
दुनिया भर के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों का परिणाम ही होगा और वे संघर्ष
कैसे चलेंगे, उनके क्या रूप होंगे,
यह भविष्य ही बतायेगा।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि समीर अमीन भाग्यवादियों की
तरह सब कुछ भविष्य पर छोड़ देना चाहते हैं। वे एक
ऐसी दुनिया बनाने का प्रस्ताव
करते हैं, जो सभी मनुष्यों और जनगणों की एकजुटता पर आधारित हो; जो
पूर्णतः नागरिक तथा लैंगिक समानता पर आधारित हो; जो ऐसी सार्वभौम सभ्यता को
जन्म दे, जिसमें जीवन के समस्त क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ हों, जिसमें
लोगों का समाजीकरण जनतांत्रिक ढंग से हो;
जिसमें पृथ्वी के समस्त प्राकृतिक संसाधनों को बाजार से अलग
रखा जाये; जिसमें सांस्कृतिक उत्पादों,
वैज्ञानिक ज्ञान,
शिक्षा और स्वास्थ्य को भी बाजार से अलग रखा जाये; जिसमें
राष्ट्रों तथा जनगणों की स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पूर्ण जनतंत्रीकरण तथा
सामाजिक प्रगति की नीतियों को बढ़ावा दिया जाये; और जिसमें ‘उत्तर’ तथा ‘दक्षिण’ के
समस्त जनगण साम्राज्यवाद-विरोधी अंतरराष्ट्रीयतावाद के आधार पर एकजुट हों।
इस प्रकार समीर अमीन पूँजीवाद की बर्बर व्यवस्था के विरुद्ध
समाजवादी (बल्कि साम्यवादी) सभ्यता के निर्माण का प्रस्ताव करते हैं और इसके लिए वर्तमान
भूमंडलीय यथार्थ को समाजवादी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत पर जोर देते हुए
जनगणों के अंतरराष्ट्रीयतावाद के पुनर्निर्माण का उपाय बताते हैं। उनके अनुसार आज
का भूमंडलीय यथार्थ और उसमें निहित इक्कीसवीं सदी के समाजवाद की संभावनाएँ इस
प्रकार हैं:
आज की दुनिया सैनिक शक्ति के लिहाज से एकध्रुवीय है और वह ‘उत्तर’ के कुछ
देशों के सामूहिक साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़ी हुई है, जिनका नेता अमरीका है।
लेकिन यह सामूहिक साम्राज्यवाद कोई अभेद्य दीवार नहीं है। इसमें दरारें हैं, इसलिए
इसमें अमरीका निर्णायक रूप से हमेशा लाभ उठाते रहने की स्थिति में नहीं है। अतः वह
अपनी आर्थिक कमियों और कमजोरियों को दूर करने के लिए संपूर्ण पृथ्वी पर अपना सैनिक
नियंत्रण कायम करना चाहता है। उसकी इस परियोजना से ‘दक्षिण’
के समस्त जनगणों को खतरा है। लेकिन ‘दक्षिण’ के
देशों ने पूँजीवादी विकास को ही विकास का एकमात्र रास्ता या तरीका मानकर अमरीकी
नेतृत्व वाले सामूहिक साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़े रहने को ही अपनी नियति मान
लिया है। आवश्यकता इस बात की है कि ‘दक्षिण’ के देश इस सामूहिक साम्राज्यवाद की गुलामी से मुक्त हों। और वे मुक्त हो सकते
हैं, यदि वे उन उदारवादी विभ्रमों से मुक्त हो सकें, जिनके चलते उन्होंने स्वयं
को ‘पिछड़ा’ हुआ मानकर ‘आगे बढ़े हुए’
देशों के समकक्ष पहुँचने की दौड़ में शामिल मान लिया है और
यह भी मान लिया है कि इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है। मगर विकल्प है। वे इन
विभ्रमों से मुक्त होकर इस विश्व-व्यवस्था से अपना नाता तोड़ सकते हैं और अपने-अपने
ढंग से अपना विकास कर सकते हैं।
लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें अपना एक मजबूत मोर्चा बनाना
होगा और वह तभी बन सकता है,
जब उनके जनगण इस प्रक्रिया में शामिल हों और वे ऐसा मोर्चा
बनाने की जिम्मेदारी केवल अपने राज्यों पर न डाल दें। ‘दक्षिण’ के
जनगणों का ऐसा मजबूत मोर्चा यूरोप,
एशिया,
अफ्रीका और लैटिन अमरीका के भी समस्त जनगणों को एक नये
अंतरराष्ट्रीयतावाद की ओर ले जा सकता है। इससे दुनिया एकध्रुवीय की जगह बहुध्रुवीय
बन सकती है और भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद कायम करना संभव हो सकता
है।
लेकिन इन संभावनाओं के मौजूद होने का मतलब यह हर्गिज नहीं
है कि यह सब आसानी से हो जायेगा। भूमंडलीय पूँजीवाद से भूमंडलीय समाजवाद की ओर
जाने का रास्ता विकट बाधाओं और चुनौतियों से भरा होगा। लेकिन यदि उन चुनौतियों का
सामना आज के भूमंडलीय यथार्थ को इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के परिप्रेक्ष्य में
देखते-समझते हुए किया जाये,
तो रास्ते की समस्त बाधाओं को दूर किया जा सकता है। इसके
बारे में समीर अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में कुछ सुझाव दिये हैं, जो इस
प्रकार हैं:
लगभग तीन दशकों से अमरीकी नेतृत्व वाला साम्राज्यवादी
तिगड्डा (अमरीका,
यूरोप,
जापान) दुनिया के तमाम जनगणों के विरुद्ध, जिनमें
इस तिगड्डे के जनगण भी शामिल हैं,
एक जबर्दस्त आक्रामक रुख अपनाकर जनतांत्रिक संस्थाओं और
व्यवस्थाओं को नष्ट कर रहा है,
जनतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रहा है और जन-आंदोलनों का
बर्बर दमन कर रहा है। वह अपने विरुद्ध विद्रोह कर सकने वाले देशों की सरकारों को
खरीद रहा है या सैनिक आक्रमणों के जरिये उन्हें हटाकर वहाँ के जनगणों पर अपनी
कठपुतली सरकारें थोप रहा है,
जो अपने जनगणों के विरुद्ध देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा
करती हैं। इस जबर्दस्त और सर्वतोमुखी आक्रमण के प्रतिरोध में जनगण जागरूक होकर
संघर्ष करने लगे हैं। लेकिन अभी तक इन संघर्षों का स्वरूप स्थानीय और
प्रतिरक्षात्मक ही है तथा उनमें आपसी तालमेल भी नहीं है। मसलन, भारत
में दलितों, आदिवासियों,
स्त्रियों,
अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए किये जाने वाले आंदोलन, किसानों
और मजदूरों के आंदोलन,
पर्यावरण की रक्षा आदि के लिए किये जाने वाले आंदोलन
अलग-अलग चल रहे हैं। जरूरत है कि वे एकजुट होकर आज के पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के
विरुद्ध संघर्ष करें और प्रतिरक्षात्मक नहीं,
बल्कि आक्रामक रुख अपनायें।
जन-आंदोलन चलाने वाले संगठन जनतांत्रिक आधार पर एकजुट होकर
परस्पर सहयोग करें और अपने-अपने सीमित लक्ष्यों के साथ-साथ सामाजिक रूपांतरण के
बड़े लक्ष्य को भी ध्यान में रखें। वह बड़ा लक्ष्य ‘इक्कीसवीं सदी के समाजवाद’ के रूप में सबके सामने
स्पष्ट होना चाहिए। चूँकि वह भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह लेने वाला भूमंडलीय समाजवाद
होगा, इसलिए स्थानीय तथा राष्ट्रीय आंदोलनों को दुनिया के समस्त जनगणों की एकजुटता
के आधार पर एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करना चाहिए।
इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में आज के भूमंडलीय यथार्थ को देखते
हुए विभिन्न देशों के स्थानीय जन-आंदोलनों को अपना जनतांत्रिक राजनीतिकरण करना
चाहिए और मिथ्या आंदोलनों द्वारा पैदा किये जाने वाले विभ्रमों तथा भटकावों के
प्रति सावधान रहना चाहिए। उदाहरण के लिए,
‘सिविल सोसाइटी’
के नाम पर चलाये जाने वाले उन आंदोलनों से, जो सभी
तरह की राजनीति को गंदी या भ्रष्ट बताते हुए राजनीति से अलग रहने की बात करते हैं।
अथवा उन ‘भूमंडलवादी’
लोगों के विचारों से,
जो कहते हैं कि दुनिया एक ग्लोबल गाँव बन गयी है, इसलिए
अब राष्ट्र-राज्यों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है।
इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के लिए जरूरी है सारी दुनिया के
जनगणों का ऐसा अंतरराष्ट्रीयतावाद,
जो सभी देशों तथा उनके जनगणों की संप्रभुता और स्वायत्तता
का आदर करने वाला अंतरराष्ट्रीयतावाद हो। भूमंडलीय समाजवाद भूमंडलीय पूँजीवाद की
तरह सारी दुनिया को एक जैसा बनाने वाली व्यवस्था नहीं, बल्कि
एक ऐसी व्यवस्था होगा,
जिसमें सब देशों की संस्कृतियाँ और विशिष्ट जीवन-शैलियाँ
सुरक्षित रहें तथा सृजनशील ढंग से अपने-आपको विकसित और समृद्ध बना सकें।
पूँजीवाद पतनशीलता और बर्बरता की ओर ले जाने वाली व्यवस्था
है। शीत युद्ध के दौरान यह मिथ्या प्रचार किया गया था कि समाजवाद में जनतंत्र नहीं
हो सकता। उस समय की समाजवादी कहलाने वाली व्यवस्था ने, जो
वास्तव में सच्ची समाजवादी व्यवस्था नहीं थी,
इस मिथ्या प्रचार को पुष्ट भी किया। लेकिन सोवियत संघ के
विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती गयी है कि
पूँजीवाद ही जनतंत्र का शत्रु है और सच्चा जनतंत्र समाजवाद में ही संभव है।
समाजवाद की सच्ची जनतांत्रिक व्यवस्था ही दुनिया को बर्बरता से सभ्यता की ओर ले जा
सकती है।
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रमेश उपाध्याय
हिंदी के वरिष्ठ कथाकार तथा प्रतिष्ठित पत्रिका कथन के संस्थापक.
संपर्क - rameshupadhyaya@yahoo.co.in
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