साहित्य ही नहीं समाज में भी 'नो पालिटिक्स प्लीज़' एक लुभावना और प्रचलित नारा बन गया है इधर. या यों कहें कि यह फ्रेज़ इन दिनों फैशन में है. अराजनीतिक होने को बेहतर होने की तरह देखा-सुना जा रहा है. विश्वविद्यालयों को राजनीति से मुक्त करने की कमान कुलपतियों और प्राध्यापकों ने संभाली है तो साहित्य से राजनीति को बाहर करने की कमान 'कला कला के लिए' के पुराने अलंबरदारों ने. ऐसे में 'अराजनीति की राजनीति' पर केन्द्रित कथन के इस अंक से हम सबको उम्मीद है कि पवित्र शब्दों के सहारे फैलाए जा रहे कुहासे को भेदने में यह अपनी भूमिका निभाएगा. अभी इसी अंक में प्रकाशित मेरा एक आलेख.
मैं बात की शुरुआत एडिनबर्ग वर्ड राइटर्स
कांफ्रेंस, त्रिनिदाद में मुख्य वक्ता के तौर पर दिए गए ओलिव सीनियर के वक्तव्य से
करना चाहूँगा. वह कहती हैं, “राजनीति! व्यग्रता इस पद के संकीर्ण उपयोग से पैदा
होती है. हम अक्सर राजनीति को पार्टीगत राजनीति, चुनावी राजनीति, राजनैतिक नेतृत्व
और इनसे जुड़े विवादों और टकरावों के रूप में समझाते हैं और इसीलिए बहुत से लोग यह
कहते हुए इससे खुद को अलग करते हैं कि ‘मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं. ...
लेकिन राजनीति अपनी बेहद आरम्भिक परिभाषा में ही राज्य चलाने की कला से जुडी
है...मैं कहना चाहती हूँ कि देश की वृहत्तर राजनीति पालने से लेकर कब्र तक
अपरिहार्य रूप से हमारा सबकुछ निर्धारित करती है. रोटी की क़ीमत या बंदूकों की
उपलब्धता राजनीति तय करती है और यह भी कि कोई समृद्ध जीवन जियेगा या फिर किसी
रिफ्यूजी कैम्प में सड़ेगा...वृहत्तर राजनीति उस दुनिया को जिसमें हम पैदा होते हैं
और हमारे दैनंदिन पर्यावरण को निर्धारित करती है और उस ‘राजनीति’ के लिए रास्ता
बनाती है जो जीवन के हर क्षण में हमारे उन व्यक्तिगत निर्णयों में अन्तर्निहित है
जिन्हें लेने के लिए हम अचेतन या सचेतन तौर पर लेने के लिए बाध्य होते हैं.” इस
अर्थ में देखा जाय तो ‘अराजनीति की जो राजनीति’ है वह दरअसल इस वृहत्तर राजनीति से
लोगों को लगातार असम्बद्ध बनाते जाने की है.
किसी भी समय का प्रचलित सहजबोध दरअसल उस समय की
वर्चस्वशाली राजनीतिक विचारधारा का उत्पाद होता है. यह सहजबोध रोज़-ब-रोज़ की
ज़िन्दगी के विश्वासों, मनोरंजन के साधनों और साहित्य तथा संस्कृति में भी
परिलक्षित होता है. ज़ाहिर है, एक धारा अगर राजनीतिक विचारधाराओं को खारिज़ करते हुए
‘कोई नृप होय हमें का हानि’ का जो दर्शन पेश करती है, तो वह असल में उस समय की
वर्चस्वशाली विचारधारा के लिए पैदा हो रही चुनौतियों को खारिज़ कर रही होती है. इस
रूप में अराजनीति का यह दर्शन वस्तुतः यथास्थितिवाद का दर्शन होता है. बड़े
सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के दौर में साहित्य से लेकर दर्शन तक में इस तरह के
विचार देखे जा सकते हैं. जब सामंतवाद की योरप से विदाई हो रही थी तो हमने बिशप
बर्कले और इम्मानुएल कांट को अपने-अपने तरीके से यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए
संघर्ष करते ही नहीं देखा है बल्कि हेगल जैसे क्रांतिकारी दार्शनिक को भी अपने
क्रांतिकारी दर्शन को प्रशा के शासक के राज्य की अप्रश्नेयता स्थापित करने के लिए
उपयोग करते देखा है. यथास्थितिवाद परिवर्तन की संभावनाओं को रोकने के लिए हमेशा से
ऐसे नए-नए उपकरण लाता रहा है जो प्रथम दृष्टया बहुत पवित्र और मासूम नज़र आते हैं
लेकिन थोड़ा गहराई में जाकर विवेचना करने पर अपने नाखून और पंजो समेत साफ़ दिखाई
देने लगते हैं. अराजनीति की राजनीति साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था का हथियार है. यह
दर्शन हवा में नहीं उपजा. अगर इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर हम शीतयुद्धकालीन राजनीति
को देखें तो अब सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सी आई ए की फाइलों में ही वह पूरा सन्दर्भ
मिल जायेगा जिसमें अराजनीति की राजनीति को प्रोत्साहित किया गया था.
रूसी क्रान्ति के बाद के दौर ने पूरी दुनिया को
उद्वेलित किया था. खासतौर पर लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच समाजवाद एक विकल्प और
प्रेरणास्रोत के रूप में सामने आया था. समाजवादी यथार्थवाद ने उन्हें आम जनता के
दुःख-दर्द और उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष की राह दिखाई थी. पूंजीवादी विश्व के भीतर
भी लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों और विचारकों के बीच मार्क्सवाद बेहद प्रचलित होता
जा रहा था. राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में प्रभुसत्ता जमाये पूंजीपति वर्ग के लिए
यह खतरे की घंटी थी. उसके लिए इसे बर्दाश्त करना मुमकिन न था. आरम्भ में दमन के
सारे प्रयास किये गए. रूसी क्रांति के तुरत बाद १९१८ में अमेरिका में ओवरमैन कमिटी
बनी थी जिसका काम अमेरिका के भीतर बोल्शेविक तत्वों की निगरानी था. इसी क्रम में
१९३८ में बनी अमेरिका की कुख्यात ‘हॉउस
कमिटी आन अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़’ का इतिहास सब जानते हैं जिसने वामपंथ की और झुकाव
रखने वाले तमाम कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को काली सूची में डाल दिया,
मुकदमें चले और सज़ाएँ भी हुईं. चार्ली चैपलिन, आर्सन वैलेस, पाल राबसन, बर्तोल्त
ब्रेख्त जैसे तमाम लेखकों/ कलाकारों को अमेरिका छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया तो बिम्बर्मैन,
डैशियल हेमलेट जैसे कितने ही कलाकार जेलों में सड़े. लेकिन इस दमन के बावज़ूद
पूँजीवादी शोषण के खिलाफ जनता की राजनीतिक चेतना अमेरिका में ही नहीं पूरे योरप और
तीसरी दुनिया के देशों में लगातार बढती गयी और मज़दूरों, किसानों और छात्रों के
आंदोलन विस्तारित होते गए. दुनिया भर में फ़ैल रही इस प्रतिरोध की संस्कृति और उससे
उपजी जनता की जनतांत्रिक तथा परिवर्तनकामी चेतना को दमन से रोका जाना संभव नहीं
था. ऐसे में इसे कुंद करने के लिए साम्राज्यवाद ने नई चाल चली. यह
साहित्य-संस्कृति-कला के क्षेत्र में अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए भेजा गया
‘ट्रोजेन हार्स’ था – ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’!
1949-50 के दौरान बर्लिन में मार्क्सवादियों की
बहुतायत वाले लेखकों के एक शान्ति सम्मलेन से अलग होकर कुछ लेखकों के जिस प्रयास को शुरुआत में एक
लोकतांत्रिक पहल और लेखकीय अस्मिता की रक्षा जैसे भारी-भरकम विशेषणों से सुशोभित
किया गया था वह असल में अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी सी आई ए द्वारा वित्तपोषित
अभियान निकला. जैसन एप्सटिन में ‘द सी आई ए एंड द इंटेलेक्चुअल्स’ में लिखा है कि
1950 के दशक में संगठित मार्क्सवाद विरोधी लेखन एक धंधा बन गया था. इसकी शाखाएं
योरप, एशिया, अफ्रीका सहित सारी दुनिया में फ़ैली थीं और सी आई ए जो इसके लिए पैसे
दे रही थी उससे रियायती दरों की पत्रिकाएं और किताबें सर्वत्र उपलब्ध थीं. लेकिन
कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम जैसी संस्था केवल मार्क्सवाद विरोधी साहित्य छापने या
रूस से निकले/निकाले हुए कुछ लेखकों की ‘आपबीती’ को प्रसारित करने तक सीमित नहीं
थी. इसने समाजवादी जीवन मूल्यों के बरक्स नए तरह के साम्राज्यवादी जीवन मूल्य तथा
सांस्कृतिक आचरण के प्रचार-प्रसार करने तथा पूरी दुनिया में उसका वर्चस्व स्थापित
करने का प्रयास किया. एप्सटिन आगे कहते हैं कि ‘सी आई ए और फोर्ड फाउंडेशन जैसी
संस्थाओं ने ऐसे बुद्धिजीवियों को शीत युद्ध में अपनी वैचारिक स्थिति के समर्थन के
लिए धन दिया, जिससे वह एक ऐसा विकल्प बना सकें जिसे ‘मुक्त बुद्धिजीवी बाज़ार’ कहा
जा सकता है, जहाँ विचारधारा को निजी प्रतिभा और उपलब्धि से कमतर चीज़ समझा जाय और
जहाँ स्थापित प्रतिबद्धताओं पर शक़ हर तलाश का प्रस्थान बिंदु हो...यह केवल लेखकों
को खरीदने और अपने पक्ष में करने का मामला नहीं था, बल्कि स्वेच्छाचारी और कृत्रिम
मूल्यों की स्थापना का प्रयास था.’ इसे
समझने के लिए फ्रेंसिस स्टोनर सांडर्स की एक किताब ‘हू पेड द पाइपर्स : द सी आई एएंड द कल्चरल कोल्ड वार’ और उस पर मंथली रिव्यू में लिखी जेम्स पेट्रास की समीक्षा
भी महत्वपूर्ण है. जेम्स लिखते हैं, ‘सी आई ए द्वारा वित्तपोषित इन बुद्धिजीवियों
के बारे में विचित्र बात केवल उनकी राजनीतिक सम्बद्धता नहीं है बल्कि उनका यह
बहाना भी है कि वे सत्य के निर्लिप्त शोधक हैं, मूर्तिभंजक मानवतावादी हैं, मुक्त
बुद्धिजीवी या कला कला के लिए के साधक हैं.’ ये विशेषण आपको आज भारत में भी कला के
हर क्षेत्र में सुनने को मिल जायेंगे. हिंदी साहित्य के वाम-विरोधी कैम्प में
‘स्वतंत्रता’ और ‘कला’ की यह चीख-पुकार आपको कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम से
सम्बद्ध रहे अज्ञेय से हमारे समय के कलावाद तथा विचारधारा विहीनता के सबसे बड़े
प्रवक्ता अशोक वाजपेयी के यहाँ ही नहीं बल्कि एकदम नयी पीढ़ी के रचनाकारों में एकदम
साफ़-साफ़ सुनाई देगी. उस दौर में इसका उपयोग अमेरिकी संस्कृति और राजनीति के
वर्चस्व को स्थापित करने के लिए किया गया था और इसे एक हद तक हासिल भी किया गया.
सांडर्स की पूर्वोद्धरित किताब में उन्होंने विस्तार से बताया है कि किस तरह
समाजवादी यथार्थवाद के बरक्स अमूर्तन को एक उच्चतर कला-कसौटी की तरह पेश किया गया
जिसमें राकफेलर सोसायटी ने अकूत धन लगाया. पेरिस में उनकी माँ द्वारा स्थापित कला
दीर्घा अमूर्तन और प्रभाववादी कलाकारों को प्रोत्साहित करने का प्रमुख केंद्र बनी.माडर्न आर्ट पूरी तरह से सी आई ए का हथियार था. इस अभियान में अराजक अवाँ गार्द
आन्दोलन से लेकर ग़ैर कम्यूनिस्ट समाजवादी आन्दोलनों को भी शामिल कर लिया गया.
अराजनीति को स्वाधीनता का पर्याय बनाया जाना साम्राज्यवादी सत्ता के खिलाफ उठने
वाली आवाजों को मद्धम और निराकार बना देने और इस रूप में यथास्थितिवाद को सुदृढ़
करने का महत्त्वपूर्ण औज़ार बना. यह यों ही नहीं है कि आज भी मार्क्सवादी
प्रतिबद्धता के विरूद्ध इन्हीं तर्कों को हथियार बनाया जाता है. ज़ाहिर है अमूर्तन
तथा विचारधाराहीनता के इन मूल्यों ने दुनिया भर के साथ-साथ भारत में भी अराजनीतिकरण
को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में देखा जाय तो इन
सांस्कृतिक नीतियों के साथ-साथ नब्बे के दशक के बाद के एकध्रुवीय विश्व और
नवउदारवादी नीतियों का जनता के इस अराजनीतिकरण में भारी योगदान है. आजादी की लम्बी
लड़ाई के दौरान उपनिवेशवाद से तीखे संघर्ष के दौर में विकसित हुई राजनीतिक चेतना को
सबसे करारा झटका तो 1947 के साम्प्रदायिक विभाजन के दौरान ही लगा जब
धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे की वह नींव ही दरक गयी जिस पर इस आन्दोलन को ईंट दर ईंट
खड़ा किया गया था. तीस के दशक से सक्रिय धार्मिक कट्टरपंथ राजनीतिक क्षेत्र में भले
पैर न जमा पाया हो लेकिन समाज के भीतर उसका प्रभाव बढ़ता गया और शासन व्यवस्था में
भले लोकतान्त्रिक संस्थाएं विकसित होती गयीं लेकिन समाज में सामंती
मूल्य-मान्यताएं जड़ जमाए रहीं और जाति तथा जेंडर जैसी उत्पीड़क सामाजिक संरचनाओं का
प्रभाव बना रहा. शीतयुद्ध के दौरान समाजवाद का जिस तरह का प्रभाव हमारे यहाँ था
उसके चलते अस्सी के दशक तक एक तरह की सक्रिय और सकर्मक राजनीतिक चेतना स्पष्ट
दिखाई देती है. साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद के भरपूर
प्रयास के बाद भी प्रतिबद्धता एक वर्चस्वशाली मूल्य की तरह स्थापित हुई. लेकिन
नब्बे का दशक शुरू होते-होते अमेरिकी वर्चस्व राजनीति से लेकर अर्थनीति और साहित्य-संस्कृति
के क्षेत्र में बिलकुल साफ शुरू होता है और इसी के साथ अराजनीतिकरण की प्रक्रिया
भी. असल में नव उदारवादी मुक्त बाज़ार व्यवस्था का जो माडल संरचनात्मक पुनर्संयोजन
के नाम से अपनाया गया वह अपने आप में लोकतंत्र के मूल मूल्यों के खिलाफ है. एरिक
हाब्स्बाम ने अपने लेख ‘द प्रास्पेक्ट आफ डेमोक्रेसी’ में लिखा है कि ‘बाज़ार की
संप्रभुता आदर्श उदार लोकतंत्र के लिए
पूरक नहीं है बल्कि इसका विकल्प है. वस्तुतः यह किसी भी तरह की राजनीति का विकल्प
है क्योंकि यह किसी भी तरह के राजनैतिक निर्णय को खारिज़ करता है. राजनीतिक निर्णय
शुद्ध रूप से निजी अधिमान्यताओं को पाने की कोशिश कर रहे व्यक्तियों के चुनावों,
पसंदगियों या किसी अन्य चीज़ के योग से अलग
सामूहिक हित या समान हितों से सम्बद्ध होते हैं.’ ज़ाहिर है कि बाज़ार ऐसी किसी
सामूहिकता की जगह व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित करता है जहाँ चुनाव की आज़ादी का अर्थ
केवल इस या उस उत्पाद में से किसी एक को चुनना होता है. यहाँ हर व्यक्ति एक
उपभोक्ता है और इस रूप में अगर एक प्रसिद्ध उत्पाद की विज्ञापन पंक्तियों का सहारा
लें तो ‘उसका गर्व पड़ोसी की इर्ष्या’ ही हो सकता है. ऐसे में हाब्स्बाम पाते हैं
कि जो राष्ट्र राज्य की परिकल्पना पूँजीवाद के आरम्भिक दौर में जन्मी थी वह लगातार
कमज़ोर होती चली जाती है. सुखवाद का एक ऐसा भ्रमजाल फैलता चला जाता है जहाँ मनुष्य
किसी सामूहिकता से दूर लगातार अकेला... और अकेला होता जाता है. इसे हम आज अपने
समाज में बहुत स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं. सामूहिकता का यह लोप अंततः मनुष्य को
अराजनीतिक उपभोक्ता और पूंजीपति के काम आने वाले मानव-संसाधन में तब्दील कर रहा
है. जिसे आम तौर पर कैरियरवाद कहा जाता है, वह इसी लक्ष्य की ओर बढ़ता कदम है. यहाँ
यह ज़िक्र भी समीचीन होगा कि राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिणपंथ का वर्चस्व बढ़ने का भी
दौर यही रहा है.
यही नहीं, हाब्सबाम दुनिया भर में पवित्र और
अप्रश्नेय शासन व्यवस्था की तरह व्यवहृत उदार लोकतंत्र के दूसरे पहलुओं को भी
प्रश्नांकित करते हैं. वह बताते हैं कि जहाँ सारी वयस्क जनता को मतदान का अधिकार
इस लोकतंत्र में मिलता है, वहीँ सरकार के वास्तविक निर्णयों में जनता की कोई
भूमिका नहीं होती. उदारता के इस आवरण में सरकारें लगातार वर्चस्वशाली आर्थिक वर्ग
के हितों से संचालित होती हैं और उपलब्ध राजनैतिक विकल्पों में से प्रत्येक इसी
काम को अलग-अलग नारों के साए में अंजाम देता है. यह लोकतंत्र कुल मिलाकर समर्थों
के लोकतंत्र में तब्दील होता है जहाँ उन आवाजों की कोई सुनवाई नहीं होती जिनकी
पहुँच सत्ता प्रतिष्ठानों तक नहीं होती. इसे भारत जैसे देश के सन्दर्भ में देखा जा
सकता है, जहाँ जल-जंगल-ज़मीन की लूट ही नहीं जारी है बल्कि जनता का एक बड़ा तबका
लगातार बदहाली का शिकार होता जा रहा है लेकिन लोकतंत्र में उसकी आवाज़ के लिए कोई
जगह बनती नहीं दिखती और विकल्प के रूप में मौजूद राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों के
बीच इस तरह की नीतियों को लेकर कोई अंतर्विरोध दिखाई नहीं देता. यह प्रक्रिया
लम्बे समय में लोगों के मन में सत्ता व्यवस्था के लिए या तो एक उग्र प्रतिरोध के
रूप में सामने आती है, जैसा माओवादी सशस्त्र विद्रोह के रूप में देखा जा रहा है,
या फिर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रति उदासीनता के रूप में, जिसका ज़िक्र
हाब्सबाम ने पूरे योरप में घटते हुए मतदान प्रतिशतों के रूप में किया है और भारत
में भी यह देखा जा सकता है. यह उदासीनता और विकल्पहीनता ही ‘सारे चोर हैं’ जैसे
हताश नारों में तब्दील होती है जो वस्तुतः सत्ता वर्ग के लिए अनुकूल ही है.
वास्तविक और वृहत्तर राजनीति से उदासीन इस जनता के समक्ष सत्ता वर्ग जाति, धर्म और
क्षेत्रीयता के सवालों को ज़ोर-शोर से उठाकर आर्थिक शोषण के सवाल को इसकी धूल-गर्द
में दबाने की कोशिश करता है और इस तरह दक्षिणपंथी उभार की ज़मीन तैयार होती
है.
जनता
के प्रतिरोध को भोथरा बनाने के लिए उनके अराजनीतिकरण और यथास्थितिवाद का सबसे ताज़ा
हथियार हैं एन जी ओ. इन्हें वित्त उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं का चरित्र वही है जो
फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं का था. पूंजीपतियों के फंड से समाजसेवा का दावा
करने वाली इन संस्थाओं की असल भूमिका जनता के गुस्से को दबाने वाले सेफ्टी वाल्व
की है. इन हालात में अगर हाल में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को देखेंगे तो यह
स्पष्ट है कि नव उदारवादी नीतियों के चलते समाज में पैदा हुई विसंगतियों के चलते
उपजे गुस्से के प्रतिफल इन आन्दोलनों के एजेंडे पर कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं था. ‘भ्रष्टाचार’ और ‘काला धन’ जैसे मुद्दे सीधे-सीधे अपील करते हैं. जब
हम नई आर्थिक नीतियों की बातें करते हैं तो वे इतनी लोक-लुभावन तरीके से नहीं की
जा सकतीं. एक टैक्टिस के रूप में इन मुद्दों पर आन्दोलन शुरू तो किया जा सकता है
लेकिन इस समस्या की जड में उपस्थित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प की
प्रस्तुति और उसे लागू करने वाली राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की लड़ाई ही इनके
खिलाफ कोई फैसलाकुन लड़ाई हो सकती है. लेकिन ये आन्दोलन अपनी इच्छाशक्ति और अपनी
वर्गीय संरचना के कारण कहीं से भी इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए गंभीर नहीं दिखते और
कुल मिलाकर भ्रष्टाचार विरोध के नारे के भीतर दरअसल पूंजीपतियों के एजेंडे को ही
आगे बढाते हैं. यही वजह है कि ये आन्दोलन एक सीमा तक
आगे बढ़ने के बाद भटक गए. यह भटकाव भी सत्ता व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के हित में
है. लम्बे समय बाद सड़क पर उतरा मध्यवर्ग फिर एक हताशा से ग्रस्त है और यह दौर
निर्मम नीतियों को बेरोकटोक लागू करने के लिए बिलकुल उचित है. इसके खिलाफ किसी
बड़े आन्दोलन की कोई संभावना फिलहाल दिखाई नहीं दे रही.
ज़ाहिर
है कि ये सारे हालात जनता की किसी सामूहिक पहलकदमी के खिलाफ हैं. कम्यूनिस्ट
पार्टियाँ जिन्हें जनता के राजनीतिकरण और व्यापक तथा आमूलचूल परिवर्तनों का वाहक
होना था वे अपने भरपूर प्रयासों के बावज़ूद कोई विकल्प देती नहीं दिखाई दे रहीं.
इसकी वज़ह उनकी अक्षमता से अधिक इस तथ्य में ढूंढी जानी चाहिए कि क्या उनके पास इस
नव-उदारवादी व्यवस्था का कोई संवहनीय विकल्प है? पूँजीवाद आज अपने उस रूप से पूरी
तरह बदल चुका है जिसके खिलाफ़ शुरूआती दौर में लड़ाइयाँ लड़ी गयीं थी. आज वह एक मज़बूत
और गतिशील व्यवस्था के रूप में ही सामने नहीं है बल्कि उसने सांस्कृतिक, राजनीतिक
और आर्थिक क्षेत्र में पूरी तरह अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है. ऐसे में जनता
उसके खिलाफ किसी फैसलाकुन लड़ाई में तभी शामिल हो सकती है जब उसके सामने एक ऐसा
विकल्प हो जो आज के पूँजीवाद की तुलना में बेहतर जीवन दे सकने की स्थिति में लगता
हो. आज यह एक कटु सत्य है कि संसदीय तथा क्रांतिकारी वाम ऐसे किसी स्पष्ट विकल्प
की रूपरेखा प्रस्तुत कर पाने में असफल हैं. इसीलिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह है कि
पूँजीवाद की निर्ममतम संभव आलोचना के साथ एक ऐसा मार्क्सवादी विकल्प तैयार किया
जाय.
और
यह जिम्मेवारी केवल राजनीतिक पार्टियों की नहीं बल्कि हम लेखकों, संस्कृतिकर्मियों,
बुद्धिजीवियों, कलाकारों सभी की है कि संस्कृति और साहित्य से लेकर राजनीति तक में
एक तरफ कलावाद और अराजनीति के नाम पर फलने-फूलने वाली ताक़तों और उनके षड्यंत्रों
का पुरजोर मुकाबिला किया जाय तो दूसरी तरफ इस मानवविरोधी व्यवस्था के मानवीय
विकल्पों के निर्माण में पूरी ताक़त के साथ लगा जाय. यह सवाल दरअसल मनुष्यता के
अस्तित्व से जुड़ा हुआ है.
अराजनीति के इस भयावह दौर में महेश्वर की ये पंक्तियाँ
याद रखी जानी चाहिए -
तुम मारे जाओगे
मारे जाओगे
क्योंकि
जीवन में कहाँ सीखी
तुमने
आदमी के अकेलेपन में
आदमी के साथ हिस्सा बँटाने की राजनीति!
मेहनत से लिखा गया गंभीर लेख है.बधाई आपको .राजनीती के नाम पर नाक भों सिकोड़ने वाले किस कदर जनविरोधी परिवर्तन विरोधी राजनीती में लिप्त हैं और बाज़ार इनका बड़ा हथियार है....एन जी ओ वाले मुद्दे को कुछ और विस्तार दिया जा सकता था.
जवाब देंहटाएंबार-बार पढ़ा जाने वाला लेख, आपकी मेहनत को सलाम अशोक भाई.
जवाब देंहटाएं'सामूहिकता का यह लोप अंततः मनुष्य को अराजनीतिक उपभोक्ता और पूंजीपति के काम आने वाले मानव-संसाधन में तब्दील कर रहा है. जिसे आम तौर पर कैरियरवाद कहा जाता है, वह इसी लक्ष्य की ओर बढ़ता कदम है. यहाँ यह ज़िक्र भी समीचीन होगा कि राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिणपंथ का वर्चस्व बढ़ने का भी दौर यही रहा है....' एतिहासिक सन्दर्भों के साथ ,वर्तमान की वस्तुगतता में पूंजीवाद की विभिन्न असंगतियों और उसकी राजनीति को उसकी तार्किक परिणति में व्याखित करता यह लेख अपनी इच्छा में मनुष्यता के एक बेहतर विकल्प की बात करता है .. गंभीर होकर मेहनत से इस लेख द्वारा हमारी जानकारी बढाने के लिए अशोक भाई साधुवाद के पात्र हैं
जवाब देंहटाएंअशोक जी सचमुच बहुत मेहनत करते हैं। अच्छा लेख, बधाई
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण आलेख । ब्लॉगपोस्ट में जो लिंक दी गई हैं उनके लिये वह option दो जिससे वे नई विंडो में खुलें ।
जवाब देंहटाएं