इशरत पर कविता लाल्टू ने लिख तो ली थी २००४ में ही पर छपी २००५ में, दैनिक भाष्कर में. किसी भी तात्कालिक घटना पर, वह भी इतने सेंसेटिव विषय पर कविता लिखना हमेशा खतरों से भरा होता है. खतरा दोनों स्तर पर होता है विषय के चुनाव के स्तर पर भी और कविता के स्तर पर भी कि कहीं यह तात्कालिक टिपण्णी बन कर न रह जाए. लाल्टू के कवि की सबसे बड़ी विशेषता है संजीदापन. यह संजीदापन महज भावुकता भरा नहीं है बल्कि विचारधारात्मक संजीदापन है, जो उनके किसी भी कविता में देखा जा सकता है, इस कविता में भी. तमाम खतरों के बावजूद कवि का कर्तव्य सताए जा रहे लोगों का पक्षधर होना है, भले ही इसके लिए बाद में उसे निर्मम आलोचना का ही सामना क्यों न करना पड़े. यह प्रतिबद्धता से आती है, क्योंकि प्रतिबद्धता ही पक्षधर होना भी सिखाती है और दूर तक देखने का हूनर भी देती है साथ ही महज पिच्चकारी से कविता को मुक्त भी रखती है. तभी तो यह कविता आज इशरत के लिए चल रहे न्याय की लड़ाई में शरीक होने के लिए हमें निमंत्रित भी कर रही है और हौसला भी बरज रही है. बहरहाल कविता को पढ़ें और आगे बढ़ें- राजीव कुमार
'इशरत'
एक
इशरत!
सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली !
लाखों दिलों की धड़कन बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान ही होगी चली!
सो जा
अब सो जा पगली.
दो
इन्तज़ार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी
उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन
इन्तज़ार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएँगी
सपने देखे जाएँगे
इशरत तू भी जिएगी
गर्मी तो सरकार के साथ है .
तीन
एक साथ चलती हैं कई सड़कें .
सड़के ढोती हैं कहानियाँ .
कहानियों में कई दुःख .
दुखों का स्नायुतंत्र .
दुखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान.
इतने दुःख कैसे समेटूँ
सफ़ेद पन्ने फर-फर उड़ते .
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते. इशरत रे !
(साभार फेसबुक)
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