· अशोक कुमार पाण्डेय
लोकपाल बिल को लेकर चले अण्णा हजारे के चार दिन के अनशन और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप देश भर में उन्माद जैसा जो माहौल बन गया था उसके थम जाने के बाद अब एक बार इस पूरे परिदृश्य और इसके निहितार्थों पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। यह देखा जाना ज़रूरी है कि आख़िर जिस लोकपाल बिल की लड़ाई को आज़ादी की दूसरी लड़ाई बताया जा रहा है और जिस अनशन की तुलना महात्मा गांधी द्वारा किये गये अनशनों से की जा रही है, उसमें ऐसा क्या है जो देश को नये सिरे से आज़ाद करा देगा? यह भी देखना होगा कि जो लोग देश के उद्धारक होने का दावा कर रहे हैं और इस दावे को स्थापित करने के लिये किसी भी स्तर तक जाने को तैयार हैं उनकी हक़ीक़त क्या है? आख़िर यह कौन सा क्रांतिकारी लक्ष्य है जिसके लिये वह सरकार केवल चार दिनों में झुक गयी जो इरोम शर्मिला के ग्यारह साल के अनशन के बाद झुकना तो छोड़िये बात करने को भी तैयार नहीं होती। इस अनशन की तुलना गांधी जी के अनशन से किये जाने की बात भी काफ़ी मानीख़ेज़ है। अक्सर अनशनों या शांतिपूर्ण आंदोलनों की बात करते हुए इस ऐतिहासिक तथ्य को भुला दिया जाता है कि जेल के भीतर अपने मानवीय अधिकारों की माँग को लेकर भगत सिंह और उनके साथी भी अनशन पर गये थे। यह कोई दो-चार दिन का अनशन नहीं था। यह महीनों चला और इसका अन्त क्रांतिकारी जतिन बाबू की मौत से हुआ। लेकिन गांधी जी के सामने झुक जाने वाली सरकार भगत सिंह के साथियों के सामने नहीं झुकी, वैसे ही जैसे तमाम मुद्दों पर सरकार के आगे अड़ जाने वाले गांधी भगत सिंह के मुद्दे पर बिना लड़े ही झुक गये। सरकारें शायद झुकने के लिये ‘वीरों’ का चुनाव भी अपनी सुविधा से ही करती हैं।
लोकपाल बिल का मामला काफ़ी पुराना है। ज़ाहिर तौर पर सरकारें इसे लागू करने से बचती रहीं क्यूंकि इसका दायरा प्रधानमंत्री, मंत्रियों और संसद सदस्यों को सीधे घेरे में लेने वाला था। लोकपाल बिल का पहला मसौदा चौथी लोकसभा में 1969 में रखा गया था। बिल लोकसभा में पास भी हो गया था और फिर इसे राज्यसभा में पेश किया गया लेकिन इस बीच लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह बिल पास नहीं हो सका। उसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और 2008 में इसे पुनः पेश किया गया लेकिन अलग-अलग कारणों से इसका हश्र महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही हुआ। इन 42 सालों में अनेक दलों की सरकारें आईं- गईं लेकिन लोकपाल बिल को लेकर सभी के बीच एक आम असहमति बनी रही। यू पी ए की वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में लोकपाल विधेयक को लागू कराने की घोषणा की थी। सरकार बनने के बाद जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में जो राष्ट्रीय सलाहकार समिति बनी थी उसके सामने यह विधेयक चर्चा के लिये रखा भी गया था। इस दौरान देश भर के तमाम बुद्धिजीवी, कानूनविद और सामाजिक कार्यकर्ता इसे लेकर अपने-अपने तरीके से दबाव बना रहे थे। दबाव का एक प्रमुख बिन्दु यह था कि राजनैतिक लोगों के अलावा अन्य क्षेत्रों के लोगों को भी इस विधेयक की निर्मात्री समिति में रखा जाय। और इन दबावों का असर भी दिख रहा था। 26 फरवरी को पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और नियंत्रण पर बनी कार्यसमिति द्वारा लोकपाल विधेयक के परीक्षण का निर्णय लिया गया। इस कार्यसमिति ने 4 अप्रैल को एक बैठक में पहली बार सिविल सोसाईटी के लोगों से सलाह मशविरा किया। सिविल सोसाईटी के प्रतिनिधियों का नेतृत्व अरुणा राय कर रहीं थीं जबकि इसमें शांतिभूषण, प्रभात कुमार, त्रिलोचन शास्त्री, जगदीप छोक्कर, कमल जसवाल, संतोष हेगड़े, नरेन्द्र जाधव, निखिल डे, शेखर सिंह, वृन्दा ग्रोवर, हर्ष मन्दर, वज़ाहत हबीबुल्लाह, अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश, सर्वेश शर्मा, उषा रामनाथन, अमिताभ मुखोपाध्याय, संतोष मैथ्यू, शांति नारायण, प्रशांत भूषण, सन्दीप पाण्डेय शामिल थे। इस बैठक में तमाम जनान्दोलनों तथा समूहों द्वारा बनाये गये लोकपाल विधेयक के मसौदों पर चर्चा हुई। इस बैठक में तमाम मुद्दों पर सहमतियां बनीं और कुछेक के और अधिक परीक्षण की बात की गयी। इसके बाद 28 अप्रैल को दूसरी बैठक प्रस्तावित थी। (देखें राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की वेबसाईट)
अब सवाल यह है कि इस बीच आख़िर ऐसा क्या हो गया कि बातचीत की प्रक्रिया को छोड़कर अण्णा हजारे और उनके साथी अचानक भूख हड़ताल पर चले गये? आख़िर इस अनशन से उन्होंने ऐसा क्या पा लिया जो बातचीत से नहीं पाया जा सकता था? इस आंदोलन के निहितार्थ क्या थे और इसका परिणाम क्या हुआ? इन सारे सवालों से पहले आइये ज़रा लोकपाल बिल और उससे जुड़ी बहस को विस्तार से समझ लेते हैं।
लोकपाल विधेयक की यह अवधारणा पश्चिम के कुछ लोकतांत्रिक देशों में लागू ओम्बुड्समैन की प्रणाली से ली गयी है। तर्क यह कि लोकपाल एक ऐसी संस्था के रूप में काम करेगा जो भ्रष्टाचार की शिकायतों पर संसद द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त लोगों पर सीधे कार्यवाही कर सकेगा। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर यह आरोप है कि इससे लोकपाल को एक दंत-नख विहीन संस्था में तब्दील हो जायेगा। कारण यह कि इसमें उसे सीधी कार्यवाही का कोई अधिकार देने की जगह केवल अपनी संस्तुतियां सक्षम प्राधिकारी तक पहुंचाने का ही प्रावधान है। इसीलिये इसके बरक्स वैकल्पिक मसौदे प्रस्तुत किये गये हैं। अण्णा की यह लड़ाई ऐसे ही एक वैकल्पिक मसौदे को स्वीकार किये जाने की है।
सरकारी मसौदे और इस वैकल्पिक मसौदे में सबसे बड़ा अंतर यह है कि यह लोकपाल संस्था को एक सलाहकार की जगह सीधे कार्यवाही करने वाली संस्था में तबदील करना चाहता है जो जनता से शिकायत मिलने पर सीधे प्रधानमंत्री तक के ख़िलाफ़ अभियोग चला सकता है। इसके पास पुलिस की शक्तियाँ होंगी और सी बी आई इसके अधीन काम करेगी। जहाँ सरकारी बिल में न्यूनतम छह माह और अधिकतम 7 साल की सज़ा का प्रावधान है वैकल्पिक मसौदा इस सीमा को 6 साल और आजीवन कारावास करना चाहता है।
देखा जाय तो ये दोनों मसौदे दो अतिरेकों पर खड़े हैं। जहाँ सरकारी विधेयक एकदम नखदंत विहीन नज़र आता है वहीं यह वैकल्पिक मसौदा संसद के बरक्स एक ऐसा तानाशाही न्यायधीश खड़ा करना चाहता है जिसकी किसी के प्रति जवाबदारी नहीं। यही नहीं वैकल्पिक मसौदे में यह प्रावधान है कि लोकपाल के पद पर नियुक्ति के लिये केवल न्यायिक क्षेत्र के विशेषज्ञ नहीं अपितु किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को बिठाया जा सकता है…तो संभव है कि वह सर्वसत्तासंपन्न न्यायधीश न्यायिक प्रावधानों और प्रक्रिया से भी अंजान हो। देखा जाय तो यह एक सैनिक शासक जैसा पद होगा जहां शासक को सबको सज़ा देने का हक़ हो और शासक की जवाबदारी किसी के प्रति न हो। भ्रष्टाचार से परेशान आम जन को यह शायद इसीलिये इतना अच्छा लग भी रहा है लेकिन इसके निहितार्थ ख़तरनाक हैं। आखिर अगर देश का प्रधानमंत्री, मंत्रि, न्यायधीश, सेना के अधिकारी अगर भ्रष्ट हो सकते हैं तो २४ कैरेट का ऐसा लोकपाल कहां से लाया जायेगा जो सारी मानवीय कमज़ोरियों से परे हो?
असल में इस पूरी अवधारणा को अण्णा हजारे के उस गांव की सामाजिक संरचना और फ़ौज़ की पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है, जो उनके जीवन दर्शन का आधार रहे हैं। देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं रही जो सैनिक शासन को सारी समस्याओं की निजात मानते हैं. सेना के प्रति व्ययस्था जिस तरह का अतिशय श्रद्धा भाव जगाती है उसके चलते सैन्य अनुशासन और डंडे के ज़ोर के गुण कई बार अच्छे-खासे बुद्धिजीवी भी गाते मिल जाते हैं. अण्णा हज़ारे के प्रयोग स्थल रालेगांव की सामाजिक संरचना पर जाने-माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल शर्मा ने काफिला नामक वेबसाइट में एक लेख लिखा है ‘द मेकिंग आफ़ अण्णा हज़ारे’। मुकुल बताते हैं कि इस गांव की सामाजिक संरचना बिल्कुल हिन्दू धार्मिक आधार पर की गयी है। यहाँ अण्णा का आदेश अंतिम आदेश है तथा उसका प्रतिरोध कर पाने की हिम्मत किसी को नहीं है। जाति संरचना के पदानुक्रम का पूरा ध्यान रखा जाता है तथा गांव में दलित समुदाय व स्त्रियों को अपने लिये मनुस्मृति के नियमों के अनुरूप ही कार्य करना होता है। यहां की पूरी संरचना संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद के ‘एक धर्म, एक भाषा, एक नेतृत्व’ वाली ही है। वहाँ का सरपंच कहता है – जो अण्णा कहते हैं वह सेना के आदेश की तरह पालन किया जाता है। कोई उसका विरोध नहीं कर सकता। अपने एज़ेण्डे को लागू करने के लिये अण्णा का मानना है कि ‘हमेशा सहमति से ही काम नहीं चलता। कई बार ताक़त का भी उपयोग करना पड़ता है।‘ और उन्होंने वहां पर शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के दबावों का भरपूर इस्तेमाल किया है। बहुत संभव है कि इसकी प्रेरणा उन्हें फ़ौज़ से मिली, जहाँ उन्होंने ड्राइवर से लेकर सिपाही तक की नौकरी करते हुए अफ़सरों के हर आदेश ‘बिना शक़’ मानने का प्रशिक्षण लिया होगा। वैसे कहीं यह अफ़सर की भूमिका निभाने की दमित इच्छा का प्रस्फ़ुटन तो नहीं?
अण्णा और उनके साथी ऐसा ही एक फ़ौज़ी प्रवृति का लोकपाल चाहते हैं और इसके लिये अपने लोगों को विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति में शामिल करवाने की उस मांग को लेकर वह चार दिनों के अनशन पर बैठ थे जिस पर लगभग सहमति राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की विशेषज्ञ समिति में बन चुकी थी और समिति के साथ बैठक 28 तारीख को प्रस्तावित थी। विश्वकप मैचों के ठीक बाद शुरु होकर आई पी एल तमाशे के ठीक पहले ख़त्म हो जाने वाले इस ‘आंदोलन’ की टाइमिंग पर अगर सवाल न भी उठाये जायें तो भी इसके निहितार्थ, भागीदारों की वैचारिक अवस्थितियों और इसके हिट होने के कारणों की पड़ताल तो ज़रूरी है ही।
विश्वकप की खुमारी से ताज़ा-ताज़ा निकली और टू-जी घोटाले, राष्ट्रमण्डल घोटाले और विकीलिक्स के खुलासों से नाराज़ जनता अण्णा के इस आंदोलन से निश्चित तौर पर प्रभावित हुई. विश्वकप के बाद ब्रेकिंग न्यूज़ के अभाव से ग्रस्त मीडिया के लिये भी यह सुनहरा मौका था. वैसे अण्णा के आंदोलन का मीडिया प्रबंधन को भी इसके श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता. जिस तरह से जनता के अराजनीतिकरण की कार्यवाही की जा रही है, उसमें अण्णा को त्याग की मूर्ति की तरह पेश किया गया जिसमें अण्णा ने खुद भी यह एकाधिक बार कहा कि उनका न तो कोई बैंक अकाउंट है न ही कोई संपत्ति (हालांकि हाल में ही घोषित ब्यौरों के अनुसार उनका बैंक अकाऊंट भी है, उसमें अच्छी खासी रकम भी है और उनके व्य़क्तिगत नाम से ज़मीन भी है, ट्रस्ट के नाम से तो खैर है ही.), मीडिया ने उन्हें दूसरा गांधी से लेकर न जाने कौन-कौन सी उपाधियां दे डालीं. इस पूरे आंदोलन को लेकर एक उन्माद जैसी स्थिति बनाई गयी और वह जांचा परखा माहौल तैयार किया गया जिसमें ’जो अण्णा के साथ नहीं वह भ्रष्टाचार के खिलाफ़ नहीं”. यही वज़ह थी कि जहां पहले दिन जंतर-मंतर पर कुल तीनेक सौ लोग थे वहीं अंतिम दिन तक यह संख्या काफ़ी अधिक हो गयी. इस पूरी कवायद को आभासी जगत यानि की फ़ेसबुक, ब्लाग आदि पर भी खूब समर्थन मिला. अण्णा हजारे के वर्चुअल समर्थन का यह जोश दरअसल एक आंदोलन में शामिल होने की दमित मध्यवर्गीय आकांक्षा के शाकाहारी प्रतिफलन से उपजा है। इसमें तर्क या दूरदर्शिता की जगह बस एक अथाह भावुकता है…खाये-अघाये जीवन की किसी इतिहास में दर्ज़ हो जाने की इच्छा से उपजी लिजलिजी भावुकता! और यह सिर्फ़ वर्चुअल जगत का सच नहीं है. नई आर्थिक नीतियों के बाद जिस तरह की प्रगति और विकास के स्वप्न दिखाये गये थे वह देश की बड़ी आबादी के लिये अब भी स्वप्न ही हैं। इस पूरे दौर में मंदी से लेकर मंहगाई तक की मार के बीच भ्रष्टाचार की ये ख़बरें उनमें खीज और गुस्सा भरती हैं। इस पूरी परिघटना ने संसदीय राजनीति के प्रति उसके मन में एक अद्वितीय घृणा और अरुचि पैदा कर दी है। लेकिन किसी बेहतर विकल्प के अभाव में वह बुरे तथा अधिक बुरे के बीच एक चुनती है और कुछ दिन बाद उसे पता चलता है कि वह ‘बुरा’ ‘अधिक बुरे’ से भी आगे निकल गया। इन सबके बीच मिस्र और ट्यूनीशिया की ख़बरें उसके मन में भी सड़क पर उतर कर सत्ता को उखाड़ फेंकने की ललक जगाती है लेकिन किसी सक्षम नेतृत्व और विकल्प का अभाव उसके गुस्से को उस क्रांतिक सीमा से पार नहीं जाने देता। वह अपना पहला शरण्य क्रिकेट के नायकों के बीच चुनती है। दूसरे देशों की जीत के साथ विश्वकप की जीत उसे ‘विश्वविजेता’ होने के एक आभासी दर्प और संतोष से भर देती है। लेकिन जीत का ख़ुमार उतरते ही उसके सामने विकीलीक्स के ख़ुलासों में असली विश्वनायक का दर्शन होता है जिसके सामने पक्ष-विपक्ष दोनों दण्डवत हैं…और इन सबके बीच एक महात्मा अवतरित होता है – इस वादे के साथ कि वह तब तक भूखा रहेगा जब तक भ्रष्टाचार मिट नहीं जायेगा। जनता लोकपाल नहीं जानती थी…एक हालिया सर्वे के अनुसार इस सारी क़वायद के बाद भी दिल्ली की अस्सी प्रतिशत जनता नहीं जानती कि लोकपाल क्या बला है? वह तो बस अपने गुस्से, अपने अपमान, अपनी कुंठा को व्यक्त कर देना चाहती थी। अण्णा को इस माहौल में एक उद्धारक की तरह पेश किया गया और जनता को इस संतनुमा व्यक्ति के, जो उसी की भाषा में सारे नेताओं को भ्रष्ट कह रहा था और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये उपवास कर रहा था, पक्ष में ट्वीट करने, फेसबुक पर कुछ समर्थन में लिख देने या फिर जंतर-मंतर पर मीडिया के विशाल हुजूम के सामने चले जाने के उद्धत किया। तमाम सारे लोग इसी उन्मादी मनःस्थिति में अलग-अलग शहरों में सड़क पर आये। जनता के मन में जो गुबार था वह निकल गया। ‘जनता’ के भ्रम में कुछ कम्यूनिस्ट पार्टियां , ग्रुप और बुद्धिजीवी भी सब जानते-बूझते कुछ तो अपने जनान्दोलन न खड़ा कर पाने के अपराध और कुण्ठा बोध से और कुछ ’लोग क्या कहेंगे’ के भय से इस आंदोलन में शामिल ही नहीं हुए बल्कि बाकायदा उन्होंने इसके ‘विजय दिवस’ भी मनाये, लेकिन उनका न तो मीडिया ने न ही ‘जनता’ ने कोई नोटिस लिया…अण्णा और उनके सिपहसालारों से तो इसकी उम्मीद थी भी नहीं। ख़ैर अण्णा का अनशन सफल हुआ और किसी तहरीर चौक की चिंता भी फिलहाल सरकार के मन से निकल गयी। यह एक ऐसा विजय दिवस था जिसमें किसी की हार नहीं हुई।
किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि इसके आयोजकों का यह दावा कि ‘इसके पहले इतने लोग कभी सड़कों पर नहीं आये’ क्या एक सफ़ेद झूठ नहीं है? क्या जयप्रकाश और विश्वनाथ प्रताप सिंह के ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ आंदोलनों का आधार और उनके लक्ष्य दोनों इस तथाकथित आंदोलन से कहीं बहुत बड़े नहीं थे? अगर इन दो जनान्दोलनों को नज़रअंदाज़ भी कर दें तो मज़दूर तथा कर्मचारी एकाधिक बार अपनी मांगों के समर्थन तथा निजीकरण के विरोध में लाखों की संख्या में सड़क पर उतरे हैं. अभी पिछले महीने ही पाँच लाख से अधिक कर्मचारी दिल्ली की सडकॊं पर थे, लेकिन जंतर-मंतर की आधी किलोमीटर की दूरी में कई लाख की भीड जुटा देने वाले मीडिया को पूंजीवाद या निजीकरण के खिलाफ़ सड़क पर उतरे कामगार दिखाई नहीं देते. अण्णा की तुलना जयप्रकाश से करते हुए धर्मवीर भारती की कविता याद करने वालों ने कभी यह नहीं बताया कि जयप्रकाश जी की संपूर्ण क्रांति का क्या हुआ? वैसे जयप्रकाश या विश्वनाथ प्रताप सिंह के आन्दोलन की इस तमाशे से तुलना करना भी अनैतिक है। अपने तमाम कमज़ोरियों के बावज़ूद ये नेता जनता के नेता थे, ये आंदोलन जनता के आंदोलन थे। अपनी भयावह असफलता के बावज़ूद इन्होंने तत्कालीन सत्ताओं के दमन ही नहीं झेले अपितु उन्हें पलटने में भी सफल रहे। इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों ने कभी नहीं बताया कि फिर वे इतने सालों से आज़ादी को झूठा बताने वाले (यह आज़ादी झूठी है-देश की जनता भूखी है) कम्यूनिस्टों को क्यूं गालियां देते रहे? आख़िर पहली के झूठी होने पर ही दूसरी के सच्ची होने के दावे किये जा सकते हैं।
वैसे इस आंदोलन में जिस तरह के लोग शामिल हुए वह भी चौंकाने वाला है। अण्णा के मंच के पीछे बिल्कुल आर एस एस की तर्ज़ पर किसी हिंदू देवी सी छवि वाली भारत माता थीं तो मंच पर आर एस एस के राम माधव, हिन्दू पुनरुत्थान के नये प्रवक्ता रामदेव और नवधनिक वर्ग के पंचसितारा ‘संत’ रविशंकर लगातार रहे। उच्चमध्यवर्गीय युवाओं की जो टोलियां आईं थीं उनमें बड़ी संख्या ‘यूथ फार इक्वेलिटी’ जैसे ‘आंदोलनों’ में भागीदारी करने वालों की थी। आश्चर्यजनक नहीं है कि एक तरफ आरक्षण का विरोध करने वाले रविशंकर मंच पर थे तो दूसरी तरफ़ तमाम युवाओं की पीठ पर ‘आरक्षण और भ्रष्टाचार लोकतंत्र के दुश्मन हैं’ जैसे पोस्टर लगे हुए थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि इन सबके बीच ऐसे आदर्शवादी लोग भी थे जो पूरी इमानदारी से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सड़क पर उतरे थे. लेकिन इस अमूर्त दानव के विरोध से आगे किसी विकल्फ के सवाल की न तो उनके समक्ष कोई समझ थी न ही उसके लिये कोई इच्छाशक्ति. साफ़ है कि नव उदारवादी नैतिकता और सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के युवा पैरोकारों को मोमबत्तियों वाली यह ‘काज़’ मार्का नौटंकी बहुत सुहाती है, जिससे ’हमने भी कुछ किया’ का संतोष उन्हें फिर चैन से आई पी एल देखने देता है। पूंजीपति वर्ग के लिये भी सरकारी तंत्र केन्द्रित यह भ्रष्टाचार विरोध बहुत भाता है। यह उनके व्यापार के लिये नियंत्रणो को और कम करने में सहायक होता है और साथ ही उनके अनैतिक कर्मों से ध्यान हटाये रखता है। आखिर इस ’भ्रष्टाचार विरोध’ की आंधी में विकीलीक्स के साथ राडिय़ा भी तो हवा हो गयीं. बाराबंकी के किसान अमिताभ बच्चन, आई पी एल के 'संत' ललित मोदी, राजनीति के सबसे ’स्वच्छ’ तत्व अमर सिंह, अनेकों मल्टीनेशनल्स के कर्ता-धर्ता सहित तमाम 'जनपक्षधर' लोग अण्णा के समर्थन में थे। आश्चर्य है कि इन लोगों को इतने कड़े क़ानून से डर क्यूं नहीं लगता?
वैसे इस कार्यक्रम के लिये जो धन इकट्ठा किया गया था उसमें सबसे बड़ी भागीदारी जिन्दल एल्यूमिनियम की थी जिसने 25 लाख रुपये दिये तो सुरेन्द्र पाल सिंह नामक एक उद्योगपति ने 10 लाख, राम्की नामक व्यक्ति ने 5 लाख और आयशर के गुड अर्थ ट्रस्ट तथा एक अन्य धनपति अरुण दुग्गल ने 3-3 लाख रुपये दिये। इसके अलावा निजी क्षेत्र के बैंक एच डी एफ़ सी ने भी 50,000 रुपये दिये। यानि कुल 32,69,900 लाख ख़र्च किये गये और 82,87,668 रुपये इकट्ठा किये गये उसमें से 46 लाख 50 हज़ार रुपये पूंजीपतियों के सहयोग से आये! (देखें 14 अप्रैल का टाइम्स आफ़ इण्डिया) कितनी मज़ेदार बात है कि आज भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सबसे प्रमुख तत्व पूंजीपति हैं। अब ऐसे में अण्णा या उनके सहयोगियों का किसी पूंजीपति के ख़िलाफ़ बोलना उचित कहलायेगा क्या? अण्णा ने इनके ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोला। अण्णा ने इस पर भी कुछ नहीं कहा कि पिछले बज़टों में पूंजीपतियों को कारपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क की छूट के नाम पर 21,02, 523 करोड़ रुपयों की छूट भ्रष्टाचार क्यूं नहीं? असल में वह तो बाद में नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करते हुए यह भी भूल गये थे कि सारी संस्तुतियों के बाद भी गुजरात सरकार ने लोकपाल कि नियुक्ति नहीं होने दी है। वहां हुई सरकारी हिंसा तो ख़ैर अपने ठीक पड़ोस के विदर्भ के लाखों किसानों की आत्महत्या की ही तरह उन्हें कभी याद थी ही नहीं। वैसे भूलने की उनकी यह आदत नई नहीं है वह बंबई में उद्धव ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों को भगाये जाते समय यह भूल गये थे कि वह गांधीवादी हैं और उन्होंने उस ‘आंदोलन’ का भी समर्थन किया था। इस बार तो वह बस आर एस एस का कर्ज़ उतार रहे थे या शायद उसका एक और आदेश पालित कर रहे थे।
ज़ाहिर है इस ‘आंदोलन’ का हासिल कूड़ेदान में जाने के लिये अभिशप्त एक और नायक से ज़्यादा कुछ और हासिल नहीं है। लोकपाल जैसी संस्था इस देश से भ्रष्टाचार कभी नहीं मिटा सकती क्यूंकि भ्रष्टाचार की जड़ें विषमता आधारित उस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में हैं जिसके ख़िलाफ़ इस लड़ाई का कोई नायक एक शब्द नहीं बोल सकता। लाभ के येन-केन प्रकारेण संचय को महिमामण्डित करने वाले पूंजीवाद में भ्रष्टाचार अन्तर्निहित है। कण्ट्रोल-परमिट वाले सरकार नियंत्रित पूँजीवाद के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में सबसे बड़ा तर्क यह दिया गया था कि उदारवाद और खुली अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के लिये कोई जगह नहीं होगी। लेकिन आंकड़े गवाही देते हैं कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार का परिमाण कई-कई गुना बढ़ गया। आज इस आर्थिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ चुप रहने वाली कोई लड़ाई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई हो ही नहीं सकती।
वैसे अंत में एक बात और। जिस देश में लाखों लोग नारकीय परिस्थितियों में रोज़ ‘अनशन’ करने पर मज़बूर हैं वहाँ लगभग 33 लाख रुपये ख़र्च करके चार दिन के अनशन पर रहना अनैतिक नहीं है? क्या विरोध के लिये अनशन का हथियार वैसा ही नहीं है जैसे ऊँची जातियों के समृद्ध लड़के झाड़ू लगाकर, जूते पालिश करके आरक्षण का विरोध करते हैं?
Ashokji kindly accept my congratulations on such an excellent and eye opening article.
जवाब देंहटाएंIf you find time please see the link and comment on the article of Bharat Jhunjhunwala published in Dainik Jagran (19 April 2010) http://santoshkmaurya.blogspot.com/2011/04/bharat-jhunjhunwala.html
Thank you.
धारदार, विचारोत्तेजक, अशोक भाई, अपने ब्लॉग पर लिंक दे रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंधारदार, विचारोत्तेजक, अशोक भाई, अपने ब्लॉग पर लिंक दे रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंइसके बावजूद कि आप जो कह रहे हैं, वह सब सच है आपका यह विश्लेषण अंतत: एक बंद सुरंग के अंदर ले जाकर छोड़ देता है। रास्ता किधर है यह भी न केवल बताना होगा बल्कि उसका नेतृत्व भी करना होगा।
जवाब देंहटाएंजरूरी है इस भ्रम की छंटनी। कुल जमा नौटंकी का हासिल तो यह है कि एक और "देशज" जैसा लगता व्यक्ति "ब्रांड" बन गया। बाजार को इससे ज्यादा क्या चाहिए। साथ ही यह भी साबित हुआ कि इरादे नेक हों, तो सरकारें झुकती ही हैं। वाह वाह लोकतंत्र जय जय अन्ना।
जवाब देंहटाएं@राजेश भाई जब हम अंधेरे युग में रह रहे हैं, तो परेशान करने वाले लेख अंधेरी सुरंग में ही ले जाएंगे और कम से कम परसाई ने जिन टॉर्च बेचनों वालों का जिक्र किया था वे तो रोशनी कतई नहीं दिखाएंगे। रही नेतृत्व की बात तो वह तो सामूहिक ही होगा। अगर सिर्फ अशोक भाई जिम्मेदारी उठाएंगे, तो यहां जैसा कि उन्होंने कहा ही है कि तानाशाही की तरफ जाएंगे।
इस आंदोलन के बरअक्स क्या हम नंदीग्राम, सिंगूर, नेतरहाट, कोयलकारो जैसे सामूहिक नेतृत्व की तरफ देखकर आगे की स्थितियों पर चर्चा कर सकते हैं?
तफसील से आपने सारे रेशे अलग कर दिए. सारगर्भित और स्पष्ट लेख. बधाई!
जवाब देंहटाएंसचिन से सहमत हूँ...
isamai kisi ki har nahi hui kahana galat hai. Janata ki bhavanao ka bhadda mazaq banaya gaya hai. Yah janata ki har hai.
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख ...वास्तविकता में इस आन्दोलन को मीडिया ने जो हवा दी जनता ने उसी का रुख कर कर लिया. बड़ा आश्चर्य हुआ ये जानकार की जंतर मंतर पर आने वालो के ये नहीं पता था की जन लोकपाल क्या हैं और इसके बिना ही इस आन्दोलन को सफल घोषित कर दिया गया. आन्दोलन सफल हो गया पर सिर्फ कुछ लोगो के लिए. मीडिया को धमाकेदार ओपनिंग और जबरदस्त TRP ,अन्ना साहेब की मांगो के आगे सिर्फ चार दिनों में सरकार का घुटने टेक देना, दिल्ली के लोगो को एक नया पर्यटन स्थल और ठीक विश्वकप के बाद एक बार फिर चिल्लाने और नाचने गाने का मौका. इन सब कुछ ने आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य को कहीं पीछे छोड़ दिया. अन्ना साहेब का विश्लेषण भी अति महत्वपूर्ण हैं जिसे संचार माध्यमो ने बिलकुल नकार दिया. जन आन्दोलन के नाम एक नया स्वांग या एक नयी शुरुआत ....शायद अभी हम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं. जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल के अंतर को जानना भी जनता के लिए अति महत्वपूर्ण हैं. जन लोकपाल को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने की जिम्मेदारी कौन लेगा. अभी इन मुद्दों पर चर्च बाकि ही हैं.
जवाब देंहटाएंइस आँख खोलने वाले लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अशोक भैया . ऐसे लेख इस समय की आवशयकता हैं जब समाज का बहुत बड़ा वर्ग सिर्फ और सिर्फ अंधी दौड़ का हिस्सा बना हुआ हैं.
media chahe jise hero bana de. anna ka aandolan bhi media ki den tha. is aandolan ki tulna 'bharat chhodo aandolan', 'sampuran kranti' aur anna ki mahatma gandhi aur JP se ki gayi, bager un aandolanoN ki ushma ko mahsus kiye. ek high school pass confused aur sampradayik aadmi ki esi tulna karte hue media ne khub TRP batori.
जवाब देंहटाएंashok bhai SHANDAR aalekh he.
इस आलेख से जाहिर है कि आप लोकपाल की अवधारना के खिलाफ नहीं हैं. आप की आपत्ति उस के तानाशाही रूप पर है. लोकपाल का स्वरुप अंततः क्या होगा , इस पर बहस जारी है. अन्ना इस बहस के खिलाफ नहीं हैं. वे कह चुके हैं कि बातचीत के बाद जो प्रारूप बने , अगर उसे भी संसद खारिज कर देती है, तो वे इसे चुपचाप स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि संसद सर्वोपरि है. इस लिए कम से कम इस मसले पर अन्ना का रवैया किसी भी तरह लोकतंत्र विरोधी नहीं कहा जा सकता.
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह दो चुनावों के बीच एक पांचसाला निरंकुशतंत्र की तरह व्यवहार करे.लोकपाल इसी रोग का एक प्रस्तावित उपाय है.
यह समय उसे अधिक से अधिक बेहतर बनाने के लिए
बहस तेज करने का समय है.
मुद्दा अन्ना नहीं हैं. लोकपाल है. और यह मुद्दा उन करोडो युवा -गैरयुवा हिन्दुस्तानियों का है जिन के साथ मौजूदा हिन्दुस्तानी लोकतंत्र ने धोखा किया है.
लोकपाल क्रांति नहीं है. लेकिन क्रांतिकारी लोकमत केनिर्माण की दिशा में एक कदम जरूर है.
मान भी लें कि अन्ना किसीसाजिश के तहत यह सब कर रहे हैं , लेकिन इस वक़्त इस ऐसा है कि अगर अन्ना पीछे हटे तो जनता उन्हें भी माफ़ नहीं करेगी . लोग आयेंगे , जो इस लड़ाई को आगे ले जायेंगे. लेकिन कोई तो वजह होगी जो संघी - कंघी ( संघ- कांग्रेस )भाईचारे के पेट में इस कदर मरोड़ उठने लगी है. यह तय है कि वे मिल कर लोकपाल विधेयक को एक अनंत इंतज़ार में धकेल देने को कुछ भी उठा न रखेंगे. असली लड़ाई अभी शुरू होनी है.
बहुत ज़बरदस्त शोध है अन्ना एंड कंपनी पर.... दरअसल आपका इतना खुलकर लिखना बहुत ज़रूरी था .अन्ना के आंदोलन पर सभी के मन में बहुत सवाल थे ... इस मेहनत के लिए ह्रदय से आभार !
जवाब देंहटाएंASHOK BHAI, BAHUT BADIYA KAMSE KAM JANTA KO KUCH TO HAQIKAT KA SAMNA HUA. KHER JO BHI APN ITNI SPASHT BATAIN KI HAIN KAFI ACHCHHE AKADE IKADTHE KIYE HAIN JOKI KHULA MAT RAKHNE KE LIYE AVSHAK THE. KHER JO BHI HUA ACHCHHA HUA ANNA HI SAHI KUCH TO ANKUSH LAGE GA IS CONGRAS GOVT. PAR KYA KAREN ASHOK JI BHRASHTACHAR ITNA BAD GAYA HAI KI ABTO SANS LENA BHI DUBHAR HOGAYA HAI. AB APHI BATAO KI AISE MAIN ISPAR KAISE ANKUSH LAGAYA JASKTA HAI ISHKA MASAUDA SHAYAD HAMAIN HI TYAR KARNA HOGA MATLAM AAM JANTA KO KYUN NA HUM SABHI MILKAR EK WORK OUT TYAR KARAIN. BATAIN ISKE LIYE EK VICHAR BANCH KA AYOJAN KAB AUR KAHAN KARAINGE REPLY APKE JABAW KA INTJAR RAHEGA
जवाब देंहटाएंFrom: SHRIKANT "CHANCHAL
इस 'भीड़-राम' लीला की अंतिम ताली पर भी ज़रूर गौर कर ले -- सिमरन और इकरा -- |
जवाब देंहटाएंपर्दे के पीछे वाली आँख सामाजिक हो या न हो ,राजनीतिक ज़रूर है |
दूसरी आधी आज़ादी ? ? ?
पता नहीं टोपी कहाँ रख दी मैंने ?
अत्यन्त विचारणीय…बहुत बहुत आभार। अन्ना आन्दोलन पर एक अच्छी पड़ताल…
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