शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

निलय उपाघ्याय की चार कविताएं


निलय उपाध्याय से मेरा पहला परिचय 1994 में आधार प्रकाशन से छपे उनके बहुचर्चित संकलन ' अकेला घर हुसैन का' के माध्यम से हुआ। वह मेरे पढ़ने-लिखने के आरंभिक वर्ष थे और जिन कवियों ने उस दौर में मेरी काव्य संवेदना के विकास में बेहद सहायता की उनमें निलय जी का नाम मैं निःसंकोच ले सकता हूं। बाद में लम्बे समय तक किंचित कारणों से वह साहित्य संसार में नज़र नहीं आये। यह सुखद है कि अब लंबे अरसे बाद वह पुनः सक्रिय नज़र आ रहे हैं। हम उनके आभारी हैं कि हमारे आग्रह पर उन्होंने अपनी कुछ ताज़ा कवितायें जनपक्ष के लिये उपलब्ध कराईं…


चूहे दानी

टूट गई चूहेदानी
टूट गया बरसो का संचित यकीन

दीवारों को जंग खा गई
लाचार है लौह-तीलियाॅ
कह भी नही पाती
कि चैकस नहीं रही अब उसकी चोंच

घर में गेहूॅ के बोरे से
कपड़े तक
कुछ नहीं नहीं सलामत ,
हवा में उड़ते है कविताओं के पन्ने
गांधी की आत्मकथा का हाल देख आती है रूलाई
और यह कैसे बयान करूॅ कि
हमारी नजरो के सामने
एक चूहा आया
रसोई में घुसा , ढक्कन हटाया , रोटी निकाला
और चूहे दानी में घुसकर खाता रहा
इतमिनान से

भाड़ में जाय ऐसी चूहे दानी

मगर चूहे ?

चुहे
किसी से नहीं डरते

बिल्ली की
गर्दन में घंटी बांध देती है
कुतर देते है बांस...
बांसुरी वाले का

क्या सचमुच कोई अयस्क नहीं
धरती के गर्भ मे

क्या सचमुच कोई कारीगर नहीं
किसकी चाकरी मे लगा है विज्ञान

सुनो
अरे कोई तो सुनो..ं

देखो...
अरे कोई तो देखो

नूनी खा गया
नींद मे सोये
मेरे अबोध बेटे की
लोढ़े की तरह एक मोटा चूहा।

वीजडा

मेघ भरे आसमान के नीचे
हमे प्यार की चुटकी से निकालो
हम बीजडे है
धान के

हाथ को
जरा सा हवा मे लहराओ
और रोप दो कही भी
जीवन में

बारिश के बाद
लोक गीतों की लय पर
लोट पोट हुई मिट्टी
सिर्फ हमारा इन्तजार करती है..

हमे आलिंगन में जकड़ेगी
खड़ा करेगी
और महज दो दिन मे
चलना सीखा देगी नमी

हवा
हाथ फेरेगी हमारे जुल्फो में
हमे पालने में झुलाएगी

रोज आकर बतियाएगी हमसे
सूरज और चांद की किरणे

देखते देखते
जवान हो जाऐगे हम

कंछा फेकेगे
मुट्ठियो में नहीं समाएगे
जब मुड़ेगे फलियो की ओर

घूप भरे आसमान के नीचे
हमे प्यार की चुटकी से निकालो
और रोप दो कही भी
जीवन मे

हम बीजडे है
गांव के।
डेली पसिंजर

महज आधा घंटे की देर ने
जब अलग कर दिया काम से
तो फूटी अकल
और अगले दिन
साथ आई स्टेशन पर सायकिल

गाड़ी आई
तो छतो से जैसे भन भनाकर उड़े बर्रे
ठेला वाले खोमचा वाले और कुली
इस तरह मची ठेलम ठेल ..इस तरह उभरा षोर
कि बैठ गया मन
यकीन हो गया कि अब न होगा जाना

जब जोर आजमा कर चढ़ रहे हो चढ़ने वाले
मुश्किल हो तलवे के लिए जगह
कैसे चढ़ेगी लोहे की देह
कहा मिलेगी जगह

दो डब्बो के बीच की जगह पर टिकी ही थ्ाि नजर
कि पुकार लिया अनजान चेहरो ने

अपरचित और सधे हाथ
खिड़की से बाहर निकले और थाम लिया
कहा मिला था
कभी आदमी के जीवन मे
यह मान

भीतर जाकर देखा तो
बडे मजे में थी
लोहे की महारानी..ठेलम ठेल
धक्का मुक्की ..पसीने की बदबू से दूर
रूमाल के सहारे खिड़की से बंधी
रह रहकर ऐसे बज उठती थी घंटिया
जैसे मुझसे ही कह रही हो कि
खयाल रखना अपना

अब तो
वही जगह बन गई है उनकी
जाम हो गया है हैन्डल और कैरियर मे
लोहे का हूक

डब्बे खाली हो
तब भी वही टंगती है
ट्रेन की गति से चलती है
वह भी डेली पसिंजर है।



अकथ कथा


1

एक है राम लगन
दूसरा सी टहल

दुनिया के साथ
दुनिया से अलग

बैठे रहते है
पीपल के नीचे
इस तरह ताजगी से भरे
जैसे घरती का दूध पीकर हुए हो जवान

जैसे अभी अभी जमीन से निकले हो
और फेक दिया हो कंछा

जैसे अभी अभी गई पुरवा के
झोके से टकराकर
टपके हो
पीपल के पेड से दो गोदे


2

अगर ऐसा हो
कि पीपल के सारे पत्ते पूड़ी हो जाय
और पोखर का पानी दही
तो मजा आ जाए

क्यो भाई राम लगन

हां भाई सी टहल

अपनी नवीन कल्पना पर
लोट पोट हंसते रहे
देर तक
फिर एकाएक चुप

लगा जैसे
कुछ गलत निकल गया हो
मुंह से
चुप्पी के बीच
पसर गया था चेहरे पर
दुनिया के बासीपन का स्वाद


3

भर लगन
इनकी दुनिया दौडती है
बुंदिया की बाल्टी और हाथी के
कान जैसी पूड़ी पर..

शादी हो
बाराती बन जाय
रात भर नाच देखे
जम कर खाएॅ

मौत हो तो जय श्री राम
माथे पर टीका लगा
बन जाए
बाभन

जाते समय अधिकार से लें
भोजन की दक्षिणा भी..

ईख का गुल्ला
चने का होरहा ,
गेहूॅ की उमी बाजरे का सूरका ,
मकई का पकौढ़ा और जोन्हरी की मुका-मुकी
कितना कुछ दिया है धरती ने जब
हाथ खोलकर
तो कठिन नही है घरती पर जीना
वैसे भी काम करने से अब
किसी का पेट नही भरता
और अकल हो तो कोई
भूखा नही मरता

ये देखिए
पुडी और आलू परवल की सब्जी

ये देखिए
रसगुल्लों की बिछलहर

ये देखिए
रस भरी इमरती जलेबी ...

और ये छिलबिल दही..

बोल भाई राम लगन
हां भाई सी टहल ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. हाँ अशोक भाई। आधार प्रकाशन से छपे कविताओं के सैट के कवियों में निलय का पहला संकलन छपा था। आधार से छपे सैटों के अधिकांश कवि तो बाद में भी नजर आते रहे, लेकिन निलय बीच में गायब हो गये। ‘अकेला घर हुसैन का’ निश्चय ही सम्भावनाओं से भरा उनका कविता-संग्रह था। उनकी कविताएँ अभी शायद ‘पाखी’ में भी नजर आयीं थीं। अब जनपक्ष पर देखा तो लगा कि उनकी कविताएँ बीच के अन्तराल को धकेल पाने में सक्षम हैं। निलय को बहुत-बहुत बधाई !

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  2. बहुत ही बेहतरीन कविताएँ हैं......पढवाने का शुक्रिया

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  3. सभी कविताएं, खासतौर पर शुरू की दो बताती हैं कि निलय ने इधर विट और सेंस ऑफ ह़यूमर को भी समुचित जगह दी है और इससे कविता कुछ अधिक अचूक हुई है। शुभकामनाएं।
    अंबुज

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