शनिवार, 18 सितंबर 2010

एक नई किताब…जैसे पेड़ पर एक नई कोंपल

एक नई किताब का आना पेड़ पर एक नई कोंपल के आने जैसा लगता है मुझे…संभावनाओं की सूचना देती एक नई चीज़…अब वह कोंपल एक नई शाखा बन पेड़ को नवजीवन देगी या वक़्त की मार के आगे कुम्हला जायेगी यह तो उसकी ताक़त के साथ-साथ कई दूसरी चीज़ों पर भी निर्भर है। अभि दो दिन पहले डाक से देवास के भाई बहादुर पटेल का पहला काव्य संकलन 'बूंदों के बीच प्यास' मिला। बहादुर से परिचय पुराना है और उनकी कविताओं से भी…लेकिन उन्हें एक साथ इतने सुन्दर धज में देखना बहुत अच्छा लगा। किताब का फ्लैप भाई एकान्त श्रीवास्तव ने लिखा है और प्रकाशित किया है बया प्रकाशन वाले भाई गौरीनाथ जी ने। आप अगर पढ़ना चाहें तो antika56@gmail.com पर उनसे मेल संपर्क कर सकते हैं। यहां प्रस्तुत हैं इसी संकलन से कुछ कवितायें…



दृश्य


मैंने पेड़ को देखा
मैं पेड़ की तरह हरा हो गया
पास से बह रही नदी को देखा
मैं बहने लगा नदी के साथ
हवा ने मुझे छुआ
मंै हवा के साथ उड़ने लगा असमान में
मंैने असमान को देखा
मेरे भीतर भी था एक आसमान
मैंने सुबह को देखा
ताज़ा हो गया
मैंने हर उस चीज को देखा
जो मुझे मिली थी विरासत में
या उससे भी पहले

देखता हूं आज के दृश्य
दृश्य में विद्यमान बहुत सी चीजें
पुराने दृश्यों से मिलती जुलती

कुछ चीजें ऐसी हैं कि
आज के समय को करती हैं अलग
यह दृश्यों को विचारों के साथ देखना है।



पिता की मृत्यु पर बेटी का रुदन
(जब भी कोई मरता है, सबसे पहले दिये गये दुःख फैलते हैं आसपास)


आप पेड़ थे और छांव नहीं थी मेरे जीवन में
पत्ते की तरह गिरी आपकी देह से पीलापन लिये
देखो झांककर मेरी आत्मा का रंग हो गया है गहरा नीला
कभी पलटकर देखा नहीं आपने
नहीं किया याद
आप मुझसे लड़ते रहे समाज से लड़ने के बजाय
मैं धरती के किनारे खड़ी क्या कहती आपसे
धकेल दी गई मैं, ऐसी जगह गिरी
जहां मां की कोख जितनी जगह भी नहीं मिली

आप थे इस दुनिया में
तब भी मेरे लिए नहीं थी धरती
और मां से धरती होने का हक छीन लिया गया है कब से
छटपटा रही थी हवा में
देह की खोह में सन्नाटा रौंद रहा था मुझे
और अपनी मिट्टी किसे कहूं , किसे देश
कोई नहीं आया था मुझे थामने

जीवन इतना जटिल
कितने छिलके निकालेंगे दुःखों के
उसके बाद सुख का क्या भरोसा
कौन से छिलके की परत कब आंसुओं में डुबो दे
हमारी सिसकियों से अपने ही कान के पर्दे फट जायें
हृदय का पारा कब नाभि में उतर आये

प्रेम दुश्मन है सबका
मौत आपकी नहीं मेरी हुई है
हुई है तमाम स्त्रियों की
यह आपकी बेटी विलाप कर रही है निर्जीव देह पर

चीत्कार पहुंच रही है ब्रह्मांड में
जहां पहले से मौजूद है कई बेटियों का हाहाकार
और कोई सुन नहीं पा रहा है.



समय मेरी गिरफ़्त से बाहर था

दिन के कुछ टुकडे़ लेकर निकला
खर्चता रहा उन्हें
वे टुकडे़ जुड़ते गये
कम होते गये जीवन से
और समय हाथ से जाता रहा

जुड़ता रहा उम्र में
खर्च किया समय पूंजी की तरह
जुड़ता रहा सफलता, असफलता के रूप में

समय कभी -कभी तो
पानी की तरह बहाए पैसों सा
बह गया मेरे पास से
सीने में फेफड़ों को कुचलता हुआ समय
चमड़ी को खींचता
लटकाता चला गया

समय चिपका रहा चुम्बकीय ध्रुवों-सा
मैं ज्यों पास गया वह छिटक कर दूर होता गया

समय का बढ़ना एक तरह से घटना है
और घटना बढ़ना
समय कमर की तरह झुकता रहा
कोई लाठी रोक नहीं पायी

कुछ टुकड़े बचाकर जेब में रखना चाहे
अपने बुढ़ापे के लिए
मैं उन्हें सिक्कों की तरह
खनकते हुए सुनना चाहता था
वे शरीर के फटे हिस्से से
गिरते गये एक-एक कर
मैं जीता रहा उनके
अपने पास होने के मुगालते में
समय मेरी गिरफ़्त से बाहर था



परिचय
बहादुर पटेल
जन्म- 17 सितंबर, 1968 को लोहार पीपल्या गांव (देवास , मध्य प्रदेश में)
शिक्षा- एम ए (हिंदी) में
संपर्क- 12-13 मार्तंडबाग़, ताराणी कालोनी, देवास - 455001
ई-मेल- bahadur.patel@gmail.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. kya bat h tumhari kavitaon me bahut nayapan jhalk raha hai .... iska raj jo bhi ho par aapka
    andaj e vaya to bahut hi kamal ka hai

    nai kitab or kavitao ke liye badhai

    swapnil

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  2. बहादुर का यह संग्रह मैंने पढ़ लिया है।

    मालवांचल की सहज संवेदना और ग्राम्य शिल्प की अनगढ़ सुघड़ता से सजा यह संग्रह मुनादी करता है कि एक नए कवि का उदय हो चुका है।
    बधाई।

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