मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

सड़क पर किसान या नूराकुश्ती?

(  सुबह-सुबह मेल बाक्स के ज़रिये यह पोस्ट मिली…ज़रूरी लगी सो साभार चिपका रहा हूं। स्रोत है -दृष्टिकोण)

राजधानी भोपाल में प्रदेश भर के किसानों ने ऐन मुख्यमंत्री बंगले के नीचे जबरदस्त धरना देकर अपनी ताकत दिखा दी है। कल दिन भर भोपाल में आम जनता की आवाजाही एवं तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुई। आज के अखबारों में किसानों एवं उनके नेताओं के बयान छपे है कि जब उनकी परेशानियाँ किसी को नहीं दिखती तो वे भी किसी की परेशानियाँ क्यों देखें। किसान अपने साथ खाने-पीने का सामान और सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर के आएँ है जिससे लगता है कुछ दिन और राजधानी को उनकी कैद में रहना पडे़गा। 
          धरना भारतीय किसान संघ का है जो कि भारतीय जनता पार्टी का ही भाई-बंद है और राष्ट्रीय सेवक संघ का जाया संगठन है इसलिए इस आयोजन को शक की निगाह से देखा जाना जरूरी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान जो कि आमतौर पर धरना-प्रदर्शनों पर लाठी चार्ज करने में आगे-पीछे नहीं देखते, और अभी कुछ ही दिनों पहले मास्टरों की अच्छी खासी मरम्मत करके उन्हें राजधानी से भगाया गया था, ऐसे में कई महीनों से चल रही किसानों की तैयारी और उनके आक्रामक मूढ़ को न भांप पाकर आज शिवराज प्रशासन पंगु होकर रह गया है यह मानना सरासर नादानी होगी। हमें लगता है कि यह धरना भारतीय जनता पार्टी के उस गुट का प्रायोजित धरना हो सकता है जो शिवराज की राहों में कांटे बिछाने की कई कोशिशें कर चुके हैं और अभी भी करते आ रहे हैं, या फिर जिस तरह से पुलिस-प्रशासन आन्दोलनकारियों के साथ दोस्ताना रवैया अपनाए हुए है उससे लगता है कि इसमें शिवराज सिंह चौहान की ही कोई चाल हो सकती है। यदि शिवराज की चाल है तो खुद उनके विरोधी एक दो दिन में इसका खुलासा कर देंगे, ऐसी उम्मीद है।
          बहरहाल, जो भी हो किसान चाहे भारतीय किसान संघ का किसान हो या किसी और संगठन से जुड़ा किसान, उसकी समस्याओं को पूँजीवादी घरानों की दादागिरी के इस दौर में जिस तरह से नज़रअन्दाज़ किया जा रहा था, उसका प्रतिफल तो मौजूदा पूँजीवाद परस्त सरकारों को मिलना ही चाहिए था। देशभर में जिस तरह किसानों के साथ भेदभाव, षड़यंत्र चल रहे है उसके खिलाफ किसान को एक जुट होना बेहद जरूरी था वर्ना कृषि और किसानों का सर्वनाश सुनिश्चित था। इस धरने में शामिल किसान राजनैतिक रूप से कितने सचेत हैं और अपने ऊपर हो रहे पूँजीवादी हमलों से कितना वाकीफ हैं कहना मुश्किल है, मगर तमाम तथाकथित प्रजातांत्रिक सरकारें जनता की असली ताकत को भूलकर, उन्हें महज वोट समझकर जिस तरह राजकाज चलाती आ रहीं हैं, उन्हें किसानों के इस आक्रामक मूढ़ से डरकर उनके हित में राजकाज चलाना सीखना होगा वर्ना यह तय है कि आने वाले समय में देश की केन्द्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें किसानों और आम जनता के इस आक्रोश से बच नहीं पाएँगी। जनता एक ना एक दिन सच्चाई समझ जाती है और संगठित होकर तख्ते पलटती है आज के पूंजीपरस्त राजनेता इस बात को अगर भूल गए हों तो फिर से याद करलें।
          भोपाल में किसानों का यह हल्ला बोल आन्दोलन राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से परे पूरे देश के किसानों में फैल सकता है और एक राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन में तब्दील हो सकता है इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
पुनश्च- आज राजधानी भोपाल के सारे अखबार किसानों के इस धरने से जनता को हो रही परेशानी की खबरों से भरे पड़े हैं, वे यदि आम जनता को किसानों की परेशानी विस्तार से बताते तो ज़्यादा अच्छा रहता। आखिर किसान राजधानियों की तमाम सुविधाभोगी आम जनता के लिए अन्न उपजाता, है इस बात को नहीं भूलना चाहिए।         

3 टिप्‍पणियां:

  1. किसानों की आड़ में भोपाल में ये असल में राजनीतिक नूरा कुश्ती है ....

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  2. किसानों का इकट्ठा होना बड़ी घटना है, यह महत्वपूर्ण नहीं कि उन के झण्डे का रंग क्या है। उन की एक जुटता बनी रहेगी तो सचाइयाँ उन्हें सही रास्ते पर ले आएँगी।

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