सोमवार, 7 मार्च 2011

अरब जागृति का सऊदी अरब में क्या स्वरुप होगा?


यह लेख भाई शमशाद इलाही अंसारी के फेसबुक पेज से

Anti-riot police stand-off with protesters in the Gulf coast town of Awwamiya March 3, 2011. Saudi Shi'ites staged protests in the country's oil-producing eastern province on Thursday, demanding the release of prisoners they say are being held without trial, witnesses said. REUTERS/Zaki Ghawas

इस पृथ्वी पर सबसे पुरानी प्रतिक्रियावादी राजनैतिक व्यवस्था का प्रतीक सऊदी अरब की राजशाही और उसके राजा अब्दुल्लाह के विरुद्ध इन दिनों देश के पूर्वी हिस्सों से आवाज़े उठनी शुरु हो गयी है..पिछले 11 दिनों में छोटे छोटे कई प्रदर्शन कई शहरों के म्यूनिसिपल आफ़िस, श्रम मंत्रालय के दफ़्तरों के समक्ष मुज़ायहरे हुये हैं, कई गिरफ़्तारियां भी हुई, जिसे देखते हुए राजा ने प्रदर्शनों पर न केवल प्रतिबंध लगाया है वरन उन्हे इस्लाम विरोधी की संज्ञा दे डाली है. कुल मिला कर पूरे देश से असंतोष की आवाज़े सुनी जा सकती हैं जिसका मुखर नेतृत्व शियाओं के हाथ में है खासकर पूर्वी प्रदेशों में..अन्य हिस्सों मे लिबरल मुसलमानों ने देश में राजनैतिक सुधारों और मानवाधिकारों की मांग उठायी है.

राजा ने इस असंतोष को देखते हुये ३७ बिलियन डालर की भीख जनता को दी है, इसी दान दक्षिणा के चलते राजा अब तक शासन चलाने में सक्षम था, लेकिन ट्यूनिशिया, मिश्र में अरब जागरुकता और लीबिया में गद्दाफ़ी विरोधियों का सशस्त्र विद्रोह देख रही जनता, राजा की भीख स्वीकार करेगी? कितने समय तक करेगी..यह देखना अभी शेष है.

सऊदी समाज का १५-२९ प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गार है. देश की कुल आबादी कोई २.५ करोड है जिसमें कोई ९० लाख लोग प्रवासी कामगार हैं, शिया मुसलमानों की संख्या कोई १० प्रतिशत के करीब है, सऊदी शियाओं के साथ आमतौर पर सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहुत इम्तयाज़ बरता जाता है, यह एक कटु सत्य है. राजा सुन्नी है और इरान से उसकी खुन्नस, शिया अकीदे और इलाकाई नेतागिरी के मसले पर सर्वविदित है.

जनतांत्रिक ताकतें सऊदी में बेहद कमजोर हैं, इस्लाम के ही किसी दूसरे नमूने का आकार लेकर वहां राजा का विरोध स्वर और स्वरुप लेगा. अभी तक कोई ३८० फ़िरके इस्लाम में हैं और सभी एक को दूसरे से बेहतर साबित करने की फ़िराक में हत्या से लेकर युद्ध तक कर सकते हैं, जो सबसे लीड लेने वाला फ़िरका है और जिसकी ताकत इस जागरुक आंदोलन में, इस क्षेत्र में ज्यादा है, वह शिया संप्रदाय है, यमन अगर टूट गया तो उसके एक हिस्से पर उसका शासन हो सकता है, बहरीन का राजा अगर भगा दिया गया तो शिया मुसलमान वहां सरकार बना सकते हैं, कुवैत और सऊदी में यह समुदाय व्यापक मानवाधिकारों और राजनैतिक सुधारों की मांग कर रहा है, इन सफ़लताओं का फ़ायदा इसे लेबनान में अगले चुनावों में जीत के बतौर मिल सकता है. अभी यह वक्त है कि इस अगुवा ताकत से पूछा जाये कि आप अगर सत्ता में आये, तब आपका कौन सा निज़ाम होगा? आर्थिक नीतियां कौन सी होगी, बैंकों पर कौन राज करेगा? पडौसियों से क्या स्लूक होगा? बहुपार्टी जनतंत्र होगा या इरान के नक्शे कदम पर सरकार बनेगी जिसमें विरोधियों को हर हाल में कुचला जायेगा? शिक्षा नीति क्या होगी? धर्म का कौन सा रुप होगा..किसकी फ़िकह लागू होगी? अल्पसंख्यकों का क्या हश्र होगा?

बारहाल, आने वाले कल में क्या होगा, इसका बस खाका ही खींचा जा सकता है..कुछ कयासे, कुछ ख्यालसाज़ी कुछ इमकानात ही सजाये जा सकते हैं. यह भी हो सकता है कि राजा अब्दुल्लाह इसे आवामी जन विद्रोह को शिया विद्रोह- इरानी षडयन्त्र के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन कर दे. सभी जानते हैं कि सऊदी हवाई सेना के जहाजों ने द्क्षिणी यमन में शिया विद्रोहियों पर राष्ट्रपति सालह की मदद करने के लिये हवाई हमले किये थे. कुल मिला कर हालत राजाओं के लिये साजगार नहीं हैं, मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर इन्हें सऊदी जनता ने देश छोडने के लिये मजबूर कर दिया, तो ये कहां पनाह लेंगे? पाकिस्तान या बांग्लादेश..देखना बाकी है. सत्ता के सबसे प्राचीन, दमनकारी व्यस्था को अब तक के सबसे विकट संकट का सामना है..राजा भी हर तरह से तैय्यार है, जनता इस बदलाव की लडाई को किस स्तर तक ले जाती है और कौन सा निज़ाम लाती है, यह देखना बाकी है.




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