मंगलवार, 8 मार्च 2011

महिला दिवस पर…







मौसियां
  • अनामिका

वे बारिश में धूप
की तरह आती हैं–
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सहलाकरलेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र,
बिस्तर और खुदरा उदासियों की।

झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
ठीक से निकलती नहीं।
बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
करती हैं परिहास,
सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आ
वाज़ में बताती जाती हैं–
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं जाता औरों का।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर जाते हैं साये
और गर्भ से रि
सते हैं महीनों चुपचाप–
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इला
ज है–
हँसी और कालीपू
जा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।
बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–
जैसे मौसीपन,
बुआपन, चाचीपंथी,
अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।



वे बारिश में धूप
की तरह आती हैं–
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सह
लाकर
लेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र, बिस्त
र और खुदरा उदासियों की।

झाड़ती हैं जा
ले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें
भी तुझसेठीक से निकलती नहीं।

बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती
हैं जीवन की
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं–
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं
जाता औरों का।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर
जाते हैं साये
और गर्भ से रिस
ते हैं महीनों चुपचाप–
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों
का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है–
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।
बीसवीं शती की
कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।

  • कविता कोश से साभार

4 टिप्‍पणियां:

  1. मौसी हों या बुआ, दादी हों या दीदी, अब इन्हें बंद आँगन की चार दिवारी से बापर निकलने का समय आ गया है -

    अ्रातरराष्ट्रीय महिला दिवस पर स्वर्णकार की नवीनतम कविता की दो पंक्तियाँ -

    अब यह कोई भी न समझे कि नारी पुरष की जूती है,
    हम धूल नहीं हैं पैरों की, नभ, चाँद सितारे छूती हैं।

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  2. बहुत ही अपनी सी लगी ये कविता.....कई भूली-बिसरी बातें याद दिला गयी

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  3. मेरी प्रिय कवियत्री की शानदार कविता

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक.....फिर से पढवाने के लिए धन्यवाद....

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…