गुरुवार, 9 जून 2011

अज्ञेय पर मंगलेश डबराल

(अज्ञेय जन्मशती पर उन्हें तथा उनकी काव्य परम्परा को लेकर हिन्दी जगत में चल रही बहस (इस बहस में हमारे हस्तक्षेप यहाँ देखे जा सकते हैं) में हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का यह समीक्षात्मक आलेख एक ज़रूरी हस्तक्षेप करता है. समयांतर के ताज़ा पुस्तक केंद्रित अंक में नामवर सिंह द्वारा संपादित तथा नॅशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अज्ञेय की १५३ कविताओं के संकलन की समीक्षा के बहाने मंगलेश जी इस आलेख में अज्ञेय के काव्य व्यक्तित्व के स्रोतों और उनकी पक्षधरताओं की तलाश करते हैं. मजेदार बात यह है कि इस लेख को पढते हुए अज्ञेय के कविता संकलन 'कितनी नावों में कितनी बार' तथा सुमित्रा नंदन पन्त जी के खंडकाव्य 'पुरुषोत्तम राम' की समीक्षा में लिखे एक आलेख 'बूढा गिद्ध क्यूँ पंख फैलाए' की याद आती है. अब जबकि अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह दोनों ही यू टर्न लेकर अगल-बगल खड़े हैं तो वह लेख तथा अज्ञेय पर नामवर सिंह की पुरानी अवस्थिति हमारे लिए एक महत्वपूर्ण 'पुरातात्विक सामग्री' की तरह काम आयेंगे, जिनकी रौशनी में हम नवनिर्मित अज्ञेय भक्ति के स्मारकों का बेहतर विवेचन कर पायेंगे. खैर वे लेख जल्दी ही यहाँ पेश किये जायेंगे (फेसबुक मित्र यहाँ पढ सकते हैं)...पहले मंगलेश जी का महत्वपूर्ण आलेख.)

कविता का सपाट चेहरा
-मंगलेश डबराल
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की जन्मशती की धूमधाम के बीच कई तरह से यह कहा जा रहा है कि उनका पाठ फिर से किया जाना चाहिए क्योंकि उनमें अपने देश-काल के गंभीर साक्ष्य हैं। ऐसे स्वर भी सुनाई दिये हैं कि हिंदी में अज्ञेय का वही महत्व है जो बांग्ला में रवींद्रनाथ ठाकुर का है। विभिन्न अनुष्ठानों, रजत, स्वर्ण और प्लेटिनम जयंतियों या अमृत महोत्सवों के समय लोगों को उदात्त और अतिशय शब्दावली में याद करना हम भारतीयों की चिरपरिचित प्रवृत्ति है। वास्तविकता यह है कि रवींद्रनाथ का प्रभाव बांग्ला समाज और परवर्ती साहित्य पर इतना गहरा है कि कई रचनाकारों ने बहुत प्रयत्न करके उनसे मुक्ति पाने की कोशिश की । सुकांत भट्टाचार्य से लेकर सुनील गंगोपाध्याय तक अनेक लेखकों-कवियों ने उनकी परंपरा से खुलमखुल्ला विद्रोह किया लेकिन अंततः यह पाया कि रवींद्रनाथ की उपस्थिति, उनकी जड़ें बांग्ला संस्कृति में इतनी व्यापक और बुनियादी हैं कि उनसे पीछा छुड़ाना मुमकिन नहीं। कविता, कहानी, गीत-संगीत, उपन्यास, नाटक, नृत्य, निबंध, चित्रकला, रंगकर्म, अभिनय, हर विधा में वे इस कदर बैठे हुए हैं। प्रसिद्ध बांग्ला फिल्मकार ऋत्विक घटक कभी-कभी अपनी मुंहफट शैली में कहते थे: "हम जहां भी जायें, हर रास्ते पर वह बूढ़ा दाढ़ी हिलाता हुआ दिखाई दे जाता है।'
रवींद्रनाथ की इस उपस्थिति के संदर्भ में अज्ञेय को देखा जाये तो वह लगभग नगण्य दिखती है और कुछ आश्चर्य होता है कि कवियों की परवर्ती पीढ़ियों पर अज्ञेय की संवेदना और उनके विवेक का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सरीखे प्रमुख कवि, जो कि अज्ञेय से अपनी निकटता के दौर में भी सामाजिक रूप से जागरूक कविता लिख रहे थे, जल्दी ही अज्ञेय के प्रभामंडल से बाहर आ गये। अक्सर देखा गया है कि एक पीढ़ी की संवेदना अगली पीढ़ी तक भले ही न जाती हो, लेकिन उसका विवेक जरूर हस्तांतरित होता रहता है। अज्ञेय की विडंबना यह है कि उनका काव्यात्मक विवेक उन्हीं तक सीमित रहा और परवर्ती कविता के काम का नहीं साबित हुआ। यहां तक कि अज्ञेय की तुलना में काफी कम कविता लिखने वाले विजयदेव नारायण साही की कविता से नयी पीढ़ी ने कहीं अधिक संवाद कायम किया। इसी तरह बच्चन जैसे लोकप्रियतावाद की ओर झुके हुए कवि की भाषा ने शमशेर बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय तक को प्रभावित किया। इसमें संदेह नहीं कि तीन सप्तकों के संपादन के माध्यम से अज्ञेय ने नयी कविता की एक बड़ी पीढ़ी को रेखांकित करने का ऐतिहासिक काम किया था और तीनों सप्तकों में शामिल 21 कवियों में से करीब दस कवि अपनी रचना की सार्थकता को अंत तक सिद्ध करते रहे। लेकिन बाद में कविता के नये परिदृश्य और नये प्रस्थापना बिंदुओं से अज्ञेय का कितना संबंध रह गया था, इसका एक स्थूल प्रमाण उनके द्वारा संपादित "चौथा सप्तक' में दिखाई देता है जिसमें शामिल सातों कवि कोई अर्थवान कविता नहीं लिख सके।
आखिर अज्ञेय की विपुल मात्रा में लिखी कविता किसी काम की क्यों नहीं बन पायी? जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी "नाच', "घर', "चीनी चाय पीते हुए', "मेरे देश की आंखें' जैसी कुछ कविताओं में सत्तर और अस्सी के दशक की कविता का रचाव प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन इसके बावजूद उनकी यह नयी प्रयोगधर्मिता स्थायी महत्व की साबित नहीं हो पाती। इसके कारण शायद अज्ञेय की कविता में ही निहित हैं। उन्होंने कविता की प्रक्रिया, भाषा, व्यंजना और बात के संदर्भ में भी कई कविताएं लिखीं हैं। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि छायावाद से बाहर जाने, "मैले हो चुके उपमानों' और "कूच कर गये प्रतीकों के देवताओं' से मुक्ति पाने और प्रेमिका को "ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका' की बजाय "हवा में लहलहाती बाजरे की छरहरी कलगी' जैसा नया संबोधन देने की कोशिश में अज्ञेय के लिए अपनी कविता का घोषणापत्र लिखना जरूरी था। लेकिन यह प्रयोगधर्मिता शुरू से ही अपनी सीमाओं के साथ प्रकट हुई थी। सन्‌ 1949 की एक कविता में वे कहते हैं: "एक मौन ही है जो अब भी नयी कहानी कह सकता है/ इसी एक घट में नवयुग की गंगा का जल रह सकता है।' दरअसल अज्ञेय का यह मौन वर्षों पहले ही उनकी काव्य संवेदना की प्रस्थापना बन चुका था और वह "असाध्य वीणा' को पार करता हुआ आखिरी दौर की "छंद' जैसी कविता तक चला आता है जिसमें वे कहते हैं: "शब्द में मेरी समाई नहीं होगी/मैं सन्नाटे का छंद हूं।' अज्ञेय का यह मौन और सन्नाटा हिंदी के अकादमिक जगत और रूपवादी कहे जाने वाले कवियों के बीच प्रबल आकर्षण और चर्चा का विषय रहा हैऔर इसे कविता की प्रक्रिया का एक पर्याय मान लिया गया है। यह और बात है कि हिंदी विभागों से बाहर कवियों की विशाल बिरादरी में इस मौन की कोई अनगूंज नहीं सुनी गयी और शब्द की सीमाएं बतलाने के अज्ञेय के प्रयासों को उनके काव्य की सीमा के रूप में ही देखा गया। आखिरकार, कवि शब्दों के ही कारीगर होते हैं और उनके अनुभवों की सारी समाई शब्दों में ही होनी चाहिए। अज्ञेय की कविता इस बात का उदाहरण है कि एक उत्कट प्रयोगधर्मिता और नयी राहों की खोज अगर किसी उतनी ही उत्कट अंतर्वस्तु और अनुभवों से संपन्न न हो तो वह किस तरह मौन और मूकता के घट में गंगाजल की तरह रखी हुई रह जाती है।
अज्ञेय नाम की त्रासदी की एक तस्वीर डॉ. नामवर सिंह द्वारा संपादित और जन्मशती के उपलक्ष्य में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित "अज्ञेय: संकलित कविताएं' से उभर कर आती है। इसकी कुल 153 कविताओं में अज्ञेय के काव्य का भरसक प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की गयी है हालांकि भूमिका में कहा गया है कि "अन्य संकलनों की तरह यह संकलन भी संपादक की अपनी रुचि और विवेक का फल है।' बेमन से लिखी हुई साढ़े तीन पृष्ठों की इस सामान्य-सी भूमिका में डॉ. नामवर सिंह गहरे पानी में न जाकर अज्ञेय की कविता की कुछ स्थूल और बाहरी विशेषताओं, उनके कुछ काव्य गुणों का उल्लेख करते हैं। मसलन यह कि "नाटकीयता अज्ञेय की कविता का उल्लेखनीय पहलू है। वह सटीक शब्दों के चयन में जितने सर्तक हैं उतने ही कुशल हैं नये शब्दों को गढ़ने में और ऐसे शब्दों की एक लंबी सूची बनायी जा सकती है जो उन्होंने हिंदी को दिये हैं।' या यह कि "वह अपनी कविता में भी कम-सुखन हैं। क्या मजाल कि उनकी कविता में भूल से भी कोई फालतू शब्द आ जाये।' नामवर जी यह बताना भी नहीं भूलते कि "अज्ञेय मीठे व्यंग्य और विनोद का भी शौक रखते हैं।' लेकिन इस भूमिका में डॉ. नामवर सिंह की दो धारणाएं खास तौर से गौर करने लायक हैं। एक तो यह कि "ध्यान से देखें तो अज्ञेय हिंदी में प्रकृति के शीर्षस्थ चित्रकार हैं। उनकी कविता की चित्रशाला में कोमल रूप-छवियों के साथ "अंधड़' के लिए भी यथोचित जगह है', और दूसरी यह कि "अज्ञेय की सच्ची तस्वीर उनकी "नाच' शीर्षक कविता के उस नट की है जो दो खंभों में बंधी हुई तनी रस्सी पर नाचता है।'
हिंदी में प्रकृति के शीर्षस्थ कवि का दर्जा अभी तक सुमित्रानंदन पंत को ही मिला हुआ है। वे पेड़ों, पत्तों, चिड़ियों, बादलों, हिमशिखरों, तारों-नक्षत्रों, सुबह की किरणों और चांद से भरी हुई रातों के आदिकवि हैं। "प्रकृति का भूधराकार शरीर' उन्हीं के पास है और उसका "मौन निमंत्रण' भी। उनकी बहुत सी कविताओं में निसर्ग अपने मौन के माध्यम से निमंत्रण देता रहता है। इसी कारण बदलते हुए काव्य यथार्थ के संदर्भ में पंत की कविता जल्दी ही अप्रासांगिक भी करार दी गयी। लेकिन जब नामवर सिंह सरीखे विद्वान प्रकृति का यह मुकुट अज्ञेय के सर पर पहनाते हैं तो आश्चर्य होता है कि वे अपनी ही बहुचर्चित पुस्तक "छायावाद' को भूल रहे हैं और एक ऐसे कवि को शीर्षस्थ बता रहे हैं जो पंत की कविता से छूटी हुई प्रकृति के चित्र उकेरता है। प्रकृति के रौद्र-उद्दाम चित्रकल्प भी अज्ञेय के "अंधड़' की तुलना में पंत की कविता में अधिक दिखेंगे। अपनी एक कविता में वे बादल को पृथ्वी की तरह उड़ते हुए चित्रित करते हैं। दरअसल, प्रकृति ही नहीं, अज्ञेय की संवेदना, शब्द-योजना और चित्रात्मकता पर सबसे अधिक प्रभाव पंत की कविता का ही है। फर्क शायद यह है कि पंत प्रकृति को एक स्वायत्त, मनुष्य से कहीं बड़ी सत्ता की तरह व्याप्त देखते हैं और "द्रुमों की मृदु छाया' को छोड़कर किसी "बाले के बाल-जाल' में अपने "लोचन' नहीं उलझाना चाहतेजबकि अज्ञेय "नीड़ों में उमंगों सी चढ़ती डगर', "दर्द की रेखा जैसी नदी' और "मौन नीड़ों में विहग-शिशु' को सिर्फ "आंख भर' देखते हैं।
सामाजिक संदर्भों पर लिखी हुई कविताओं को छोड़ दें तो अज्ञेय जब भी प्रकृति की ओर जाते हैं, उनकी संवेदना में पंत हमेशा दस्तक देते रहते हैं: "सामने था आर्द्र तारा नील', "बुझ गया आलोक जग में/ धधकते हैं प्राण मेरे', "रात के सहमे चिहुंकते बाल-खग अब निडर हो चुप हो गये हैं', "यह पथ अगम अंधेरा हो/ अनुभव का कटु फल मेरा हो', "कब कैसे किस आलोक-स्फुरण में इन्हें/ मिला दूं/दोनों हैं जो बंधु सखा चिर सहचर मेरे', "नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड़ को दुलार से टेरती हुई सी गड़रिये की बांसुरी की तान' इसके कुछ उदाहरण हैं। यह शब्दावली कुल मिलाकर नव-छायावादी है, उसकी संरचना भी "देवि-सहचरी-प्राण' जैसी पंक्ति लिखने वाले पंत की रचनाओं से मिलती है और वह प्रयोगधर्मिता, जो "कलगी बाजरे की' सरीखी कविताओं में आज भी पाठक को आकृष्ट करती है, फिर से छायावाद की शरण में चली जाती है। वह प्रकृति को मनुष्य के लिए किन्हीं नये अर्थों में अन्वेषित नहीं करती, जैसा हमें शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल के अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रकृति-काव्य में दिखता है। यही नहीं, शायद हरिवंश राय बच्चन प्रकृति के पर्यवेक्षण में अज्ञेय से अधिक आधुनिक कहे जायेंगे।
अज्ञेय को आधुनिक कविता से एक शिकायत यह रही कि वह बोलती बहुत है, जबकि "कविता को बोलना नहीं चाहिए।' सच यह है कि हिंदी कविता में मौन की उपस्थिति ज्यादा नहीं है और निराला, प्रसाद, महादेवी के छायावाद से शमशेर-नागार्जुन-मुक्तिबोध की त्रयी और फिर बाद के अधिकतर कवियों की रचनाएं अपने देशकाल को मौन के भीतर रूपायित करने की बजाय उसमें हमेशा एक मुखर हस्तक्षेप करती हैं इसलिए इनमें से कोई कवि अज्ञेय का निकटवर्ती नहीं लगता। हिंदी आलोचना इस पर एकमत है कि अज्ञेय की "असाध्य वीणा' उनके मौन की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है और उनके काव्य-चिंतन का सार भी है। डॉ. नामवर सिंह भी इस संकलन में कहते हैं कि "कवि की दृष्टि में मौन ही श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकता है।' मूलतः एक चीनी लोककथा पर आधारित यह कविता अपने पूरे शिल्प-लाघव के साथ उस वीणा से संगीत के अवतरण को संभव करती है जिसे कोई नहीं बजा सका था और यह तभी संभव होता है जब स्वयं महामौन एक साधक के रूप में उपस्थित होकर वीणा को गोद में लेता है और वीणा स्वयं इस तरह गा उठती है कि उसका स्वर सबके भीतर गूंजने लगे। किसी श्रोता को उसके स्वर में "तिजोरी में सोने की खनक' सुनाई देती है, किसी को "अन्न की सोंधी खुशबू', किसी को "मंदिर की ताल-युक्त घंटा ध्वनि' और किसी को "लोहे पर सधे हथौड़े की चोटें।' यानी हर व्यक्ति उसमें अपना प्रिय राग सुन लेता है। ज़ाहिर है कि यह यथास्थिति, आत्म को पहचानने, आत्म-सिद्धि का राग है, उसमें कोई परिवर्तन उपस्थित करने का नहीं। यह वीणा जिस पेड़ की लकड़ी से निर्मित हुई है, जिस प्रकृति, बादल, वर्षा, कुहरे, जीव-जंतुओं, गड़रियों की बांसुरी और पर्वतीय गांव के उत्सवों ने उस पेड़ को "अभिमंत्रित' किया है, उस सबका अवतरण और अभ्यर्थना करती हुई यह कविता एक मिथकीय प्रभामंडल की सृष्टि करती है, लेकिन अंततः इतने बड़े प्रयत्न का विसर्जन सिर्फ एक महामौन में होता है और उसके साथ कवि की "वाणी भी मौन' हो जाती है। विडंबना यह है कि यह वह मौन नहीं है जिसमें हिंदी समाज-बल्कि हिंदुस्तानी समाज- और उसका मन जीता है, बल्कि यह एक अवधारणात्मक, अर्ध-दार्शनिक-सा मौन है जो अपनी कोई अनुगूंज नहीं छोड़ता, अपना अध्यात्म प्रकट नहीं करता और एक निरावेग-निरात्म शून्य में तिरोहित हो जाता है।
अज्ञेय की एक और कविता "नाच' पर इन दिनों खास तौर से गौर किया जा रहा है और उसे रचनाकार के अंतर्जगत के साक्ष्य के तौर पर पढ़ा जा रहा है। डॉ. नामवर सिंह ने एकाधिक जगह उसकी चर्चा की है और मार्क्सवादी युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने उस पर एक कुतूहल-भरी टिप्पणी भी लिखी है। बेशक, "नाच' अज्ञेय की जानी-पहचानी तत्सम शब्दावली से मुक्त, एक चुस्त शिल्प में ढली हुई कविता है जिसमें रस्सी पर चलकर दर्शकों को रोमांचित करने वाले नट की यह विडंबना दर्ज हुई है कि लोग उसकी रस्सी, खंभों, रोशनी और तनाव को नहीं, बल्कि सिर्फ उसके नाच को देखते हैं अर्थात अंतर्क्रिया की पीड़ा को नहीं, उसकी परिणति से ही सरोकार रखते हैं। इस कविता की अंर्तवस्तु निश्चय ही मार्मिक है और नटों के करुण कठोर जीवन से जरा भी परिचित लोग जानते हैं कि उनके अबोध बच्चे तक रोजी-रोटी के लिए किस तरह इस कला में माहिर बना दिये जाते हैं। पूरे देश में फैले हुए नटों की यह परंपरा गरीब तबकों से लेकर सर्कस के कलाकारों तक मौजूद हैऔर सामंती दौर में उत्तराखंड जैसी जगहों में राजा के आदेश पर नटों को ढोलक बजाते हुए रस्सियों पर चलना और उनसे नीचे उतरना पड़ता था और इस खेल में कई बार उन्हें प्राण गंवाने पड़ते थे। लेकिन अज्ञेय का यह नट अपनी सामाजिक और वर्गीय चेतना से विच्छिन्न, एक हद तक नट का एकांतिक और आद्‌य-रूप है: जीता-जागता नट नहीं, बल्कि उसका एक प्रतीक, जो देशकाल-विहीन अपने निस्संग अकेलेपन में एक रस्सी पर चलता है और जिसे देखकर एक तकलीफदेह कला पर गुजारा करने वालों की याद नहीं आती।
"नाच'' अगर पाठक को विचलित नहीं करती और सिर्फ कुतूहल पैदा करके रह जाती है तो इसकी वजह यह है कि उसमें उस वस्तुगत सह-संबंध (ऑबजेक्टिव कोरिलेटिव) का अभाव है जिसे तमाम आधुनिकतावादियों के आदर्श टीएस एलियट कविता के लिए लगभग अनिवार्य मानते थे और जिससे कथ्य के अंतर्संबंधों की विश्वसनीय पहचान संभव होती है। कविता यह बताने से चूक जाती है कि नट आखिर क्यों गांठ को खोलकर रस्सी के तनाव में ढील देना चाहता है (वैसे भी यह तथ्य का निषेध है क्योंकि कोई नट ऐसा नहीं चाहता) और दर्शक क्यों रस्सी, गांठ, तनाव, रोशनी और खंभे की अनदेखी करते हैं। यथार्थ में नटों के कतरब देखने वाले दर्शक ऐसा नहीं करते। "वस्तुगत सह-संबंध' के अभाव में इस कविता का नट बेशक गिरता नहीं है लेकिन कविता जरूर गिर पड़ती है। इस सह-संबंध के कई उदाहरण खोजे जा सकते हैं। मसलन, धूमिल जब "मोचीराम' में जब यह कहते हैं कि "सच कहूं बाबूजी/मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है/जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है' या रघुवीर सहाय "रामदास' कविता में बताते हैं कि "रामदास उस दिन उदास था/अंत समय आ गया पास था/उसे बता यह दिया गया था/उस दिन उसकी हत्या होगी' तो हमें उनकी विश्वसनीयता यानी वस्तुपरक सह-संबंध के लिए कविता से बाहर नहीं जाना पड़ता।
इस संचयन में अज्ञेेय सौ वर्ष बाद एक ऐसे कवि के रूप में उभरते हैं जिनका भूगोल ऊंचाइयों-गहराइयों से नहीं, बल्कि समतल-सपाट रेखाओं से निर्मित हुआ है। इसमें अज्ञेय की कुछ चर्चित कविताएं भी छूट गयी हैं। मसलन, "घृणा का गान', "पराजय है याद', "हरी घास पर क्षण भर', "कांगड़े की छोरियां', "जितना तुम्हारा सच है', "सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान', "बांगर और खादर', "भार' और "औपन्यासिक' जैसी कविताएं इस लिहाज से उल्लेखनीय अनुपस्थिति हैं। भारत विभाजन के समय हुए दंगों पर लिखी गयी "शरणार्थी' श्रृंखला की कविताएं भी यहां नहीं हैं जिन पर जाने-माने मार्क्सवादी आलोचक डॉ. मेनेजर पांडे और कवि राजेश जोशी ने पिछले दिनों काफी सकारात्मक टिप्पणियां करते हुए अज्ञेय के सामाजिक सरोकारों को याद करने की कोशिश की है। लेकिन ये सब कविताएं अगर इस संचयन में शामिल होतीं तब भी इसमें संदेह है कि अज्ञेय अपनी समतल कविता से और हिंदी के अकादमिक सरोकारों से ऊपर उठ पाते।

अक्सर लगता है कि कई वर्ष पहले शमशेर बहादुर सिंह ने अज्ञेय के बारे में अपनी जो संक्षिप्त राय दी थी उसमें शायद अज्ञेय का समग्र आकलन था। शमशेर सराहना करने के मामले में अत्यंत उदार थे और उन्होंने शायद ही कभी किसी कवि की कठोर आलोचना की होगी। लेकिन नेमिचंद्र जैन और मलयज से अपनी लंबी बातचीत में उन्होंने अज्ञेय के बारे में दो टूक ढंग से एक महत्वपूर्ण बात कही थी: " मुझे उनकी अनुभूतियाँ भी सीमित व्यक्तित्व की और उनकी कविताएँ हैं जो ढली हुई भाषा की हैं. लेकिन वह भाषा जो है वह कड़े चतुर शिल्पी की गढी हुई भाषा है. उसमें वह गरमी जो एक ज़िंदा भाषा में होनी चाहिए उसकी कुछ कमी मुझे लगती है. बहुत ही मेहनत से, क्लेवरली ...ही इज द फाइनेस्ट क्राफ्ट्‌समैन, बट इट इज नाट द लैंग्वेज ,इट इज नॉट अवर लैंग्वेज...ही इज ए क्राफ्ट्समैन। अपनी जन्मशती पर अज्ञेय अंततः एक चतुर शिल्पी ही बन कर रह जाते हैं, भले ही उनके प्रति कभी भक्तों जैसे विश्वास और कभी वकीलों जैसे तर्क पेश किये जाते रहें.
कहना न होगा कि अज्ञेय के बारे में अंतिम सत्य काफी पहले कहा जा चुका था।



9 टिप्‍पणियां:

  1. अज्ञेय एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में वे शीर्षस्थ भी थे। छायावाद और रहस्यवाद के युग के बाद हिन्दी-कविता को नई दिशा देने में अज्ञेय जी का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अज्ञेय जी प्रेरणा-स्रोत और मार्ग-दर्शक रहे हैं।
    भाषा की दृष्टि से प्रायः उन्होंने बोल-चाल की भाषा का ही प्रयोग अधिक किया है। लेकिन इन साधारण शब्दों में एक विशेष प्रकार की सांकेतिकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बधर्मिता आदि का समावेश किया है, वह इनकी काव्य-प्रतिभा का सशक्त प्रमाण है। ‘कलंगी बाजरे की’ शीर्षक कविता में नये उपमानों की आवश्यकता रेखांकित किया है।

    “ये उपमान मैले हो गए हैं
    देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!
    कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।“

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  2. अरुण मिश्र facebook पर

    अंततः उस द्रुत गति से विकसित होती ,शिखर शिखर फलांगती कविता का पीछा करते-करते कवि थक जाता है ,हार जाता है ,रीत जाता है ! कवि यदि भावुक है तो वह विरह की रोती कलपती कवितायेँ लिखेगा या गहरे मौन में उतर जायेगा ! किन्तु यदि वह चतुर भी है तो स्वयं को संभालेगा और इस आतंरिक दुर्घटना की हवा भी नहीं लगने देगा ! अब कविता उसके लिए अनायास उड़ानों की कृपा नहीं बल्कि एक उद्दीपक वातावरण में सुदीर्घ धैर्य और श्रम से किये गए जोड़-तोड़ और काट-छाँट का परिणाम होगी ! उसकी कविता में मौलिकता,सहजता और जीवन्तता का ह्रास क्रमशः परिलक्षित होगा ! किन्तु वह इसे छिपाएगा ,! भीतर से असहज किन्तु बाहर से सहज बने रहने का छद्म ओढ़े हुए एक स्थिर और जड़ मुस्कराहट में अपना चेहरा छिपाएगा ! और हर वह जुगत लगाएगा जो उसकी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए आवश्यक होगी ! वह गिद्ध असमय बूढा हो जायेगा लेकिन अपने पंख फैला कर सब को दिखायेगा !

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  3. विडंबना यह कि अज्ञेय के पास शब्‍द-भाषा का वन जितना आकर्षक व घना है, संवेदन-न्‍यूनता का सन्‍नाटा उससे भी अधिक घनघोर एवं त्रासद। उनके यहां बुनते मौन के बरक्‍स जीवन का कोलाहल विपरीत अनुपात में क्रमश:शून्‍य होता जाता है। ऐसे रचनाकार की रचना पहली नजर में कौंध बेशक जगा सकती है लेकिन वह कोई संवेदनासजग दृश्‍य-परिदृश्‍य उपस्थित कदापि नहीं कर सकती। पिछले पांच दशक के दौरान शब्‍द संसार में अज्ञेय की रचना-उपस्थिति को इसी गति-क्रम में देखा जा रहा है तो बेशक इसकी वजह है जमीन से बेहिसाब विकर्षण और आसमान या शून्‍य-सन्‍नाटे के प्रति अपार ललक। मंगलेश जी ने बहुत गहराई से अज्ञेय के सृजन-अवचेतन को भी खंगालने की सफल कोशिश की है। उनके प्रकृति-चित्र सचमुच सुमित्रानंदन पंत की छूटी-फटकी हुई दृश्‍यावली के हीं हिस्‍से महसूस होते हैं। नामवर जी के ध्‍यान से पता नहीं क्‍यों यह बात उतर रही है कि हिन्‍दी कविता में प्रकृति के जितने भी दुर्लभ चित्र सुलभ हैं, उनका सबसे बड़ा परिमाण या विश्‍वसनीय भंडार पंत के पास ही उपलब्‍ध है। मंगलेश ठीक संकेत करते हैं कि अभिव्‍यक्ति के संसार में जिसे शब्‍द की क्षमता-सत्‍ता पर ही संदेह हो उसकी रचना स्‍वयं संदिग्‍ध बन जाती है। भई, जब शब्‍द में समाई नहीं होने का तत्‍व-ज्ञान हो चुका हो तो फि‍र आगे कागज क्‍या काला करना... आश्‍चर्य तो यह कि शब्‍द में समाई न होने के बोध-लाभ के बाद भी अज्ञेय पुण्‍य-पुलकित भाव से आगे भी लगातार लेखन-हानि उठाते रह गये। क्‍यों... गौरतलब यह कि अज्ञेय जहां कुछ नये उपमान पेश कर रहे होते हैं वहां भी यह नयापन स्‍वाभाविक निष्‍पति के रूप में आता नहीं दिखता। अनायास तो कदापि नहीं, बल्कि सायास। ज्‍यादा सटीक कहें तो सप्रयास। यह मजबूरी बयान करते हुए कि चूंकि अब तक के उपमान मैले हो चुके हैं, इसलिए नये तलाशने पड़ रहे है। यानि कि अगर यह मैल छिपने लायक होती तो फिलहाल काम चला लिया जाता लेकिन क्‍या कहें मुसीबत भारी है, उपमान नये जुगाड़ने ही पड़ रहे हैं... जैसा कुछ। बहरहाल, मंगलेश के इस आलेख ने अज्ञेय के बारे में मन में एक स्‍पष्‍ट, परिपक्‍व और सहमतिजन्‍य विचार-निर्मिति संभव की है। उनका और इसकी प्रस्‍तुति के लिए जनपक्ष का आभार...

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  4. विडंबना यह कि अज्ञेय के पास शब्‍द-भाषा का वन जितना आकर्षक व घना है, संवेदन-न्‍यूनता का सन्‍नाटा उससे भी अधिक घनघोर एवं त्रासद। उनके यहां बुनते मौन के बरक्‍स जीवन का कोलाहल विपरीत अनुपात में क्रमश:शून्‍य होता जाता है। ऐसे रचनाकार की रचना पहली नजर में कौंध बेशक जगा सकती है लेकिन वह कोई संवेदनासजग दृश्‍य-परिदृश्‍य उपस्थित कदापि नहीं कर सकती। पिछले पांच दशक के दौरान शब्‍द संसार में अज्ञेय की रचना-उपस्थिति को इसी गति-क्रम में देखा जा रहा है तो बेशक इसकी वजह है जमीन से बेहिसाब विकर्षण और आसमान या शून्‍य-सन्‍नाटे के प्रति अपार ललक। मंगलेश जी ने बहुत गहराई से अज्ञेय के सृजन-अवचेतन को भी खंगालने की सफल कोशिश की है। उनके प्रकृति-चित्र सचमुच सुमित्रानंदन पंत की छूटी-फटकी हुई दृश्‍यावली के हीं हिस्‍से महसूस होते हैं। नामवर जी के ध्‍यान से पता नहीं क्‍यों यह बात उतर रही है कि हिन्‍दी कविता में प्रकृति के जितने भी दुर्लभ चित्र सुलभ हैं, उनका सबसे बड़ा परिमाण या विश्‍वसनीय भंडार पंत के पास ही उपलब्‍ध है। मंगलेश ठीक संकेत करते हैं कि अभिव्‍यक्ति के संसार में जिसे शब्‍द की क्षमता-सत्‍ता पर ही संदेह हो उसकी रचना स्‍वयं संदिग्‍ध बन जाती है। भई, जब शब्‍द में समाई नहीं होने का तत्‍व-ज्ञान हो चुका हो तो फि‍र आगे कागज क्‍या काला करना... आश्‍चर्य तो यह कि शब्‍द में समाई न होने के बोध-लाभ के बाद भी अज्ञेय पुण्‍य-पुलकित भाव से आगे भी लगातार लेखन-हानि उठाते रह गये। क्‍यों... गौरतलब यह कि अज्ञेय जहां कुछ नये उपमान पेश कर रहे होते हैं वहां भी यह नयापन स्‍वाभाविक निष्‍पति के रूप में आता नहीं दिखता। अनायास तो कदापि नहीं, बल्कि सायास। ज्‍यादा सटीक कहें तो सप्रयास। यह मजबूरी बयान करते हुए कि चूंकि अब तक के उपमान मैले हो चुके हैं, इसलिए नये तलाशने पड़ रहे है। यानि कि अगर यह मैल छिपने लायक होती तो फिलहाल काम चला लिया जाता लेकिन क्‍या कहें मुसीबत भारी है, उपमान नये जुगाड़ने ही पड़ रहे हैं... जैसा कुछ। बहरहाल, मंगलेश के इस आलेख ने अज्ञेय के बारे में मन में एक स्‍पष्‍ट, परिपक्‍व और सहमतिजन्‍य विचार-निर्मिति संभव की है। उनका और इसकी प्रस्‍तुति के लिए जनपक्ष का आभार...

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  5. अज्ञेय पर पंकज बिष्ट के बाद अब मंगलेश डबराल जी को पढ़ना अच्छा लगा. असहमति नही है, पर कुछ चीज़े अज्ञेय के मौन के पक्ष में कहना चाहती हूँ. वों जितने हिन्दी के शब्द जानते थे, जितने उन्होंने रचे, शायद उसकी तुलना में बहुत लोग नही है. फिर भी अगर उन्हें ये कहना पड़ता है कि शब्दों की समर्थता एक हद के बाद चूक जाती है, तो ये उनकी व्यक्तिगत सीमा की तरह नही मान लिया जाना चाहिए. सिर्फ अज्ञेय ही नही, कई भाषाओँ के कवि, और बहुत से साधारण लोग जो पढ़ना-लिखना नही जानते, वों अपने जीवन अनुभव में इसे लगातार महसूस करते है, कि सब कुछ कहा नही जा सकता, और ठीक वैसे नही कहा जा सकता जो व्यक्ति महसूस करता है, या जो चाहता कि सुननेवाला उसका अर्थ निकाले. मंगलेश जी भी कहते है...
    "प्रेम होगा तो हम कहेंगे कुछ मत कहो
    प्रेम होगा तो हम कुछ नहीं कहेंगे
    प्रेम होगा तो चुप होंगे हम
    प्रेम होगा तो हम शब्दों को छोड़ आएंगे
    रास्ते में पेड़ के नीचे
    नदी में बहा देंगे
    पहाड़ पर रख आएंगे"।
    तो मुझे लगता है कि सिर्फ इसलिए कि अज्ञेय शब्दों की सीमा को पहचानते थे, उनके खिलाफ इस तरह का आरोप नही बनता कि उन्हें खारिज़ किया जाय. शायद वों इस हद तक इसे आजीवन पहचानते थे कि तोड़.फोड़ में नए शब्द और बिम्ब बुनते रहे. अपनी सीमा में वों अपाहिज नही बने बल्कि अपनी रचनाशीलता से लड़ते हुये उन्होंने भाषा को समृद्ध किया. ये मौन की पक्षधरता जीवन अनुभवों की कमी और उससे दूरी का भी शायद मामला न हो. किसी सीधी रेखा में उनका जीवन चला नही था, तो ये कुछ उनको कम आंकना भी है. जैसे उन्हें हिंदी का रविन्द्रनाथ बना देना उनको बहुत अधिक आंकना है. मौन की पक्षधरता को इसी तरह देखा जाना चाहिए कि वों भाषा की और लिखने वाले मीडियम में ज़बरदस्त प्रयोगधर्मी होते हुये भी इसकी सीमा को पहचानते थे. रविन्द्रनाथ और अज्ञेय की तुलना और प्रभाव पर मेरी सहमति है, और रविन्द्रनाथ इतने व्यापक इसीलिए भी है, कि उनका दख़ल किसी एक मीडियम में नही है, सब जगह है, लिखने में, संगीत में, नाटक में, चित्रकारी में, वैकल्पिक शिक्षा के अनुसंधान में और भी जाने कहां कहां.
    अज्ञेय सिर्फ शब्द शिल्पी थे, हिंदी के प्रयोगधर्मी लेखक थे, बहुत हद तक भाषा से और अभिव्यक्ति की सीमाओं से लड़ने वाले लेखक थे. एक चीज़ जो मुझे १५-२० साल पहले दोनों को लेकर परेशान करती थी वों ये कि रविन्द्रनाथ कभी बहुत खुलकर आज़ादी की लड़ाई में नही उतरे, लागातार ब्रिटिश हुकूमत से उनके मधुर सम्बन्ध बने रहे, और अज्ञेय भी आजादी के बाद की जो हलचल देश के तमाम जन आन्दोलनों में चली उससे दूरी बनाकर रहे. "गोरा" पढना शायद इस मामले की पहली खिड़की थी, कि कलाकार सिर्फ अपने तत्कालीन समय के लिए नही होता, तत्कालीन राजनीतिक पोस्टर भी नही होता. वों भूत वर्तमान भविष्य तीनो में आवाजाही करता है. रविन्द्रनाथ यही करते थे, इसीलिए अप्रासंगिक नही होंगे. अज्ञेय की ये खिड़की, समय की बहुत छोटी थी, फिर भी वर्तमान को निरपेक्ष होकर देखना, भूत और परंपरा में जड़ीभूत न होना और भविष्य को आँख उठाकर देखना उन्हें आता था.

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  6. अज्ञेय पर मंगलेश जी का यह आलेख अज्ञेय की कविता पर बहुत ही यथार्थपरक विश्लेषण लगा. मंगलेश जी ने अज्ञेय और उनके बरक्श पंत, रघुवीर सहाय और अन्य समानांतर कवियों की कविता से तुलना करते हुए बहुत ही तर्कसंगत और महत्त्वपूर्ण गंभीर बातें की है जिन पर विमर्श किया जाना चाहिए..श्याम बिहारी श्यामल जी, स्वप्नदर्शी की टिप्पणी भी बहुत महत्त्वपूर्ण लगी..इस महत्त्वपूर्ण आलेख को साझा करने के लिए जनपक्ष का आभार!

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  7. mangalesh ji ka lekh agyey ki kavita par achchhi roshani dalata hai. Nach kavita ka unhone jo vishleshan kiya hai vah achchhaa hai. Ve 'nach' se jo ummeed karate hain vah aapako ahmad nadim kasmi ki nazm 'fan' me milegee. Agyey ki kavitayon samajik sarokar ki kavitaye nahi hain.

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  8. एक बार फिर से इस लेख को पढ़ा. हिंदी कविता की ऐतिहासिक समझ के लिहाज़ से लगता है कि अभी फिर एक दफे और पढ़ा जा सकता है. दूसरी दफे अज्ञेय का सारांश लगता है इन पंक्तियों में है...

    "अज्ञेय की कविता इस बात का उदाहरण है कि एक उत्कट प्रयोगधर्मिता और नयी राहों की खोज अगर किसी उतनी ही उत्कट अंतर्वस्तु और अनुभवों से संपन्न न हो तो वह किस तरह मौन और मूकता के घट में गंगाजल की तरह रखी हुई रह जाती है।"

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