शनिवार, 18 जून 2011

कलम, बन्दूक, आजादी....अँधेरे समय में एक काला दिवस!


आज देश भर के पत्रकारों ने अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ाते जा रहे खतरों के खिलाफ 'काला दिवस' मनाने की घोषणा की है. एक तरफ मीडिया का धनपतियों के हाथों में सिमटता जाना और दूसरी तरफ जनता की आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों का दमन, यह लोकतंत्र के धनतंत्र में बदलते जाने का सबूत है. किसी की वह बात याद आती है कि इस देश में आप तब तक ही सुरक्षित हैं जब तक कोई आपको मारना नहीं चाहता. वंदना शुक्ला का यह लेख इस पूरी प्रक्रिया की गहन छानबीन करता है.

क्या हम नायक-विहीन दौर में जी रहे हैं ?

11 जून  को मिड डे के वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय डे की ,दोपहर बाईक से घर लौटते समय हत्या कर दी गई !        वजह ?..अंडर वर्ल्ड से सम्बंधित ..कुछ संवेदन शील खुलासों कि कोशिश,जो देश कि सुरक्षा व्यवस्था के लिए ख़तरा हो सकते  थेहम दुनियां के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र  का एक हिस्सा हैंकहा तो ये भी जाता है, कि यहाँ हमको अभिव्यक्ति कि पूर्ण स्वतंत्रता हैआप बीच चौराहे पर खड़े होकर अपने पडौसी, अफसर, विरोधी दल, दुकानदार किसी को भी बेतकल्लुफी से गलिया सकते हैं ! कलम, ज़ुबान ,नारेबाजी किसी भी माध्यम का इस्तेमाल कर सकते हैं ! परिवार समाज से शिकायत हैन्यायालय उपलब्ध हैं ! व्यवस्था से कुछ शिकवा चुनाव प्रणाली है ,पिछला नेता हटाओ, नया नेता चुन लो तत्कालीन सरकार को परे धकेल ‘’नई’’सरकार को लगाम सौंप दो !...ये  आज़ादी ठीक वैसी ही है,जैसे कोई खूबसूरत बगीचे में  हाथ में बन्दुक लेकर   मुस्कुराता  हुआ कहे ’’जो चाहते हो कर लो तुम आजाद हो’’ 


आजादी क्या हैअप्राप्य आदर्श का स्वप्नलोक,जो जनता को मोहित कर लेता है?या कम से कम काम और ज्यादा से ज्यादा आराम की लुभावनी धारणा गोर्की कहते हैं’’ आजादी का अर्थ क्या है,यह समझना कठिन है!यों देखो तो आज़ादी का अर्थ है मनचाही जिंदगी !पर चारों तरफ तो अहलकारों का,सरकारी हकीमों का जाल बिछा हुआ है!मनचाही जिंदगी कि बात उनके सामने कोरी कल्पना है !” दरअसल ,आज़ादी किसी मुल्क किसी समाज किसी व्यक्ति कि चाहत नहीं यह एक सार्वभौमिक इच्छा  है,जिसके लिए संघर्ष एक ज़रुरी उपकरण है !परयदि धरती पर सुख के हेतु निरंतर संघर्ष का नाम जीवन है,तो करुना या प्रेम क्या इस संघर्ष में राह के रोडे नहीं ये प्रश्न   एक गहरी सच्चाई से उपजी चिंता है संभवतः प्रेम करुना ,तथा संघर्ष ये लगभग  दो विपरीत विचारधाराएँ हैं जिनके अंतर्संबंध सदा विरोधी रहे,एक असमंजस पूर्ण स्थिति ! 

मनुष्य जाति आज विभाजन का संकट भोग रही है! जाति,ओहदे,कर्म,वंशानुगत,सभ्यता,शिक्षा,राजनीतिक संरचना  अदि से समाज कई भागों में विभाजित हो गया है ! यहाँ तक कि  उनकी जिंदगी और मौत भी इस बंटवारे का एक हिस्सा है ! एकसुरक्षितवर्ग के लिए जीवन एक जश्न और मौत एक महत्वपूर्ण घटना होती  है ,जिसे उत्सव कि तरह प्रसारित किया जाता है ,तो दूसरे संघर्षरत’’तबके के लिए जिंदगी कभी ना बीतने वाली रात और मौत एक चुपचाप आने वाली कोई मामूली सी घटना,किसी बन्दुक कि गोली में बिंधी ,किसी सडक पर ,किसी चौराहे पर,या किसी अन्नरहित पेट में भोजन कि जगह या ,किसी भी ऐसी जगह !

ये  युग चमत्कारों का युग है ! अलबर्ट आइन्स्टाइन कहते हैं ‘’जीवन जीने के दो तरीके हैं !एक इस तरह जैसे चमत्कार जैसा कुछ भी ना हो ! दूसरा इस तरह जैसे हर चीज़ खुद में एक चमत्कार हो !’’ ये दरअसल परिभाषा का एक सरलीकरण है !जिसे व्यक्ति कि सहूलियत या व्यक्तिगत द्रष्टि मान लिया गया है ,लेकिन अब इसके मायने बदल गए हैं!(विशेषतः महानगरों में ) ..यदि आप सुबह घर से निकले और शाम को सकुशल घर वापस पहुँच गए तो ये एक चमत्कार है !यदि नहीं पहुंचे तो ये सामान्य स्थिति ...बस किसी आशंका के सच हो जाने जितनी सहज !

आज़ादी इकहरी नहीं होती ! सार्त्र कहते है ’’आदमी जो आज़ाद रहने के लिए अभिशप्त है,उसे जीवन की हर सांस में आज़ाद  रहना है!और उसकी अंतिम सांस को भी इसी आजादी कि गवाही देनी चाहिए !.लेकिन इस आज़ादी की  कीमत?समझौता या मौतआजादी एक शब्द है ,लेकिन अमूमन हर समाज हर देश हर वर्ग के लिए इसके मायने अलग अलग होते हैं ! एक मजदूर के लिए दो वक़्त का भरपेट भोजन आज़ादी हो सकती है ,तो एक बेरोजगार के लिए नौकरी,एक महिला के लिए घर कि आर्थिक व्यवस्था में सहयोग! किसी समाज का भ्रष्टाचार से मुक्त होना आज़ादी का एक रूप,एक राष्ट्र के लिए खुद कि सरकार और संविधान होना !...वस्तुतः आज़ादी का अर्थ बंधन मुक्ति नहीं होता,’’स्वतंत्र होने के लिए हमारे भीतर जागरूकता और दुस्साहस का होना बहुत ज़रुरी है ताकि एक व्यवस्था(बंधन ) में से निकलकर दुसरी व्यवस्था में ना जकडे जाएँ ! जहाँ भय हो उसे आज़ादी नहीं कहा जा सकता !तो दो ही विकल्प बचते हैं या तो दी गई आज़ादी के नियमों के प्रारूप में जीते रहें या फिर बुद्धिमत्ता के साथ हथेली पर जान लेकर कूद पड़ें सच्चाइयों के मैदान में,अन्याय से जूझने  !

याद कीजिये ,उस मुल्क में जो  क्रूरता के किये कुख्यात है खुलासों के ज़रिये अमेरिकी राजनयिकों कि दुनियां में भूचाल लाने वाले विकिलिक्स  वेबसाईट के संस्थापक जूलियन असान्जे  को प्रतिष्ठित ‘’टाईम’ मेगजीन ने सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति चुना !(अपनी इसी तथाकथित आज़ादी के लिए?) ‘’पर्सन ऑफ द इयर ‘’के लिए सर्वाधिक वोट मिले थे !वहीं असंजे के वकील ने कहा कि असंजे को कोई नुक्सान पहुँचाया जाता है तो वो कुछ गोपनीय सामग्री को सार्वजानिक करेंगे !’’....निश्चित रूप से वे कोई कमज़ोर खेल नहीं खेल रहे थे ! सच्चाइयों (काली करतूतों)के उजागर होने का खौफ , बन्दुक कि गोली  से कहीं अधिक  डरावना होता है ,ठीक उसी तरह जैसे मौत कि खबर का असर मौत से भी ज्यादा दहशत भरा होता है!.उल्लेखनीय है कि ये एक असाधारण और अभूतपूर्व घटना थी और निश्चित रूप से दुस्साहस पूर्ण भी !बेहद संवेदन शील मामला था ना सिर्फ अमेरिका के लिए वरन अन्य देशों के लिए भी ! अफगानिस्तान ईराक में हजारों सैनिकों कि मौत और लाखों बेगुनाहों के क़त्ल के जिम्मेदार देश के लिए एक व्यक्ति को  उड़ा देना  क्या मायने रखता  है?तब जबकि वो व्यक्ति उस देश कि अस्मिता के लिए एक खतरा बना हुआ हो!ज़ाहिर है कि कुछ  भी हो सकता था पर  बावजूद इन आशंकाओं खतरों के चूँकि कि एक पूरा का पूरा समूह था इस  प्रष्ठभूमि में ,जो निरंतर उनके पीछे खड़ा था ना सिर्फ मौजूद बल्कि उनकी हौसलाफजाई करता हुआ ! जैसे (उदहारण स्वरुप)‘’ अलास्का कि रिपब्लिकन पार्टी की प्रमुख नेता साराह पालिन ने खुलेआम कहा  कि अमेरिका के विशेष छः दस्तों को खोजकर असान्जा को उन्हें सफाया करना चाहिए ‘’निस्संदेह यह भी प्रतिबद्धता और निर्भयता के अनेक उदाहरणों में से एक था !

आदमी सिर्फ एक चीज़ से सबसे ज्यादा डरता है और वो है मौत!इसी से बचने के लिए वो तमाम असहमतियों ,अन्यायों को मक्खी की तरह निगलता रहता है!समझौते करता रहता है,!सड़क पर टक्कर मार भाग जाने वाले वाहन से छटपटाते आदमी के अगल बगल से निकल जाने में भी डरता है कि कहीं पुलिस के चंगुल में ना फंस जाएँ !ये कैसी और किसकी आजादी है?घायल आदमी को मर जाने की ?टक्कर मारकर अपराधी के भाग जाने कि?या घरवालों को अवसादित हो जाने तक न्यायलय के चक्कर लगाने किवस्तुतः,आज आजादी,व्यवस्था कि ओर से दी गई मोहलत है और इस मोहलत को पूरी जिंदगी जीने यानि  एक स्वाभाविक मौत तक पहुंचाने  के लिए दो ही रस्ते बचते  हैं ..पहला ,गर्म खून पर धैर्य और सहनशीलता के ठन्डे पानी के छींटे डाल दिए जाएँ ताकि परिवार समाज और आप खुद आपकी उपस्थिति का दीर्घ  कालीन सुख भोग सके जड़ भरत कि तरह बस जीते रहें चुपचाप!या फिर अन्याय ना सह पाने और उसका मुकाबला करने का कीड़ा काट ले आपको और आप खुद को मौत के जंगल में भूखे भेड़ियों के सामने छाती ठोक कर खड़े होने का माद्दा पैदा कर पायें  !

आज़ादी कि अभिव्यक्ति क्या है?आपकी अपनी जिंदगी का फलसफा ही ना? ’!या  तथाकथित आज़ादी का एक सुनिश्चित फोर्मेट होना  जिस के बाहर जाने कि अघोषित अनुमति (आज़ादी)पर प्रतिबन्ध हो?जहा आज़ादी चाहने कि कीमत प्रताडना और  उसकी अभिव्यक्ति जीवन का अंत हो चाहे वो ओनर किलिंग का मामला हो,या शिवानी भटनागर जैसी पत्रकार कि हत्या का ,या शराब परोसने को मना कर देने पर गोलियों से भून दिए जाने का !ये कैसी आज़ादी है और किसकी?!इतिहास साक्षी है गांधीजी और स्वतंत्रता संग्राम में अपने जान कि बाज़ी लगा देने वाले शहीदों से लेकर उन आंदोलनकारियों या अपरोक्षतः अपना विरोध दर्ज करने वाले पत्रकारों ,समाज शास्त्रियों,नाटक कारों,कवियों तक जिन्हें इस अभिव्यक्ति का मूल्य समय २ पर सजा स्वरुप प्रतिबन्ध,पलायन,विस्थापन ,कैद या  कि  जान देकर चुकाना पड़ा  !ये अलग बात है कि कुछ भाग्यशाली इन त्रासदियों  के बावजूद जिंदगी बचा पाने में सफल रहे पर ये घटना ज्यादातर उन  देशों कि है जिनके बाशिंदों की जान कि कीमत दुनियां के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र के नागरिकों की जान से कहीं अधिक है !

आज़ादी को पाने व उस छटपटाहट को व्यक्त करने के तरीके अलग अलग होते हैं !संघर्ष शीलता के बाद असफलता कि पीड़ा भोगते जन आन्दोलन ,धरने,हडतालों जैसे प्रत्यक्ष या फिर  एक शांतिपूर्ण पर ज्वलंत/असरदार  माध्यम लेखन के द्वारा !गौरतलब है कि  कहानी,कविता,नाटकअखबार पत्रिकाओं तक ,जहाँ रोष अपने समग्र पैनेपन के साथ स्थितियों पर वार करता है ! नागार्जुन केदार नाथ अग्रवाल,धूमिल,दुष्यंत जैसे असंख्य रचनाकार रहे जिन्होंने अपना विरोध लेखन के मद्ध्यम से दर्ज किया

दुष्यंत त्यागी ने कहा ‘’तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक ना कर
                  तू इस मशीन का पुर्जा है ,तू  मशीन नहीं !’’

और फिर एक आगाह....

‘’ना आंसुओं में ज़मी तर ,ना उँगलियों में लहू
 कहीं बगीचों में ऐसे भी घांस लगती है?’’

अदम जग्जेव्सकी 

‘’जीने के लिए ....एक लंबा जीवन जीने के लिए,
सौंप देना होता है स्वयं को,
भावहीन सितारों में से किसी एक के हवाले !
और कभी कभी इस पर हंसना भी होता है !

कलम की ताकत किसी हथियार से कम नहीं होती !यह एक अपरोक्ष तरीका है विरोध दर्ज कराने का तात्कालीन  व्यवस्था के खिलाफ !अपने देश में ही नहीं बल्कि विदेशी लेखकों ने भी कलम को हथियार बना अपने देश कि सरकारों कुव्यवस्थाओं के खिलाफ खुलकर अपना असंतोष और रोष  व्यक्त किया ! ,नोबेल पुरूस्कार विजेता ओरहन पामुक (तुर्की के उपन्यासकार)विवादास्पद लेखकों में से हैं जो अपने विद्रोही स्वर के कारन अपने देश कि सरकारों से संघर्षरत रहे !ब्रिटिश नाटककार (नोबेल पुरूस्कार विजेता )हेराल्ड पिंटर ईराक युद्ध में अपने देश के शामिल होने के कट्टर विरोधी साहित्यकार रहे !वहीं २००४ की  नोबेल पुरूस्कार प्राप्त साहित्यकार जेलिनेक अपने देश ऑस्ट्रिया के अनुदारवादी राजनीतिबाजों की तीव्र आलोचक रहीं !गौरतलब है कि दुनियां में आज भी रूस की पहचान तालस्तोय ,गोर्की लेनिन और चेखव से होती है लोकतंत्र के संस्थापक मिखाइल गोर्वाचोव से नहीं (भगवत रावत)! आज़ादी चाहने या गुलामी या अन्याय का विरोध करने के लिए हमेशा किसी आक्रामकता कि ज़रूरत नहीं पड़ती (नहीं पड़नी चाहिए)बल्कि इसे अन्य शांतिपूर्ण तरीकों या माध्यम  यथा लेखन ,मंचन,नुक्कड़ नाटकों ,अदि जैसे  ज़रिये से भी उतनी ही गंभीरता के साथ व्यक्त किया जा सकता है  (और संभवतः सुलझाया भी) पर आज़ादी का मुंह बंद करने के लिए हमेशा ही बन्दुक का सहारा लिया जाता है!  

मीडिया ,किसी भी प्रजातान्त्रिक देश में एक अहम भूमिका निभाता है !प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया जिसके द्वारा मनोरंजन के अलावा देश में होने वाली घटनाएँ गतिविधियां सूचनाएं हमें प्राप्त होती हैं !पर ‘’आज़ादी कि अभिव्यक्ति’’के बावजूद ये बहुत संवेदनशील माध्यम भी है !

उल्लेखनीय है कि सीपीजेज़ कि ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार इऑनम्प्युनिटी इंडेक्स में भारत  का बारहवां स्थान है  सूचि में जहाँ फ्री मीडिया व  अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता के साथ बड़े शहरों में पत्रकारों में लगातार हिंसा और धमकी की घटनाएँ बढ़ रही हैं !विभिन्न मीडिया कर्मियों को तरह २ से प्रताड़ित किया जा रहा है!प्रजातंत्र के इस चौथे खम्भे के कुछ परिद्रश्य....... -

(1)_अट्ठाईस जनवरी २०११ को छत्तीस गढ़ के युवा पत्रकार उमेश राजपूत को लगातार धमकियाँ मिलती रहीं !तब cpj’s एशिया प्रोग्राम कोर्डिनेटर बोब दित्ज़ ने कहा था ‘’India’s poor record of investigating journalist murders is stedily  growing worse a travesty in what is the world’s largest democracy.’’
‘’if you don’t stop publishing news,you will be killed’’ये धमकी भरा पत्र मिला था २३ जनवरी को नई दुनियां के रिपोर्टर उमेश राजपूत को !सशु ने कहा ‘’ये अभिव्यक्ति की आज़ादी  पर एक सीधा आक्रमण है ,इसे सहजता से नहीं लिया जा सकता ‘’!
उमेश राजपूत अकेले नहीं थे उस वक़्त,जिन्हें धमकियाँ मिल रही थीं !इनके अतिरिक्त तीन और भी पत्रकार थे

(2)३२ वर्षीय रिपोर्टर प्रहलाद गोआला आसाम,सन २००६,गोअला उन दिनों वन विभाग से सम्बंधित एक सीरीज पर काम कर रहे थे और जब से ये लेख प्रकाशित हुआ तब से लगातार धमकियाँ मिल रही थीं !
इस पर यूनेस्को के निर्देशक ने इसकी भर्त्सना करते हुए कहा था कि ‘’पत्रकारों का दायित्व  डेमोक्रेसी को सुचारुतम रूप देना है इस कृत्य से ये सिद्ध होता है कि समाज में अपराध पूरी तरह व्याप्त हो चूका है !’’

 (3)-जनवरी में ही एक दलित कार्यकर्त्ता संपादक मराठी पत्रिका “”विद्रोही’’,इन्हें माओ वादियों से संपर्क तथा देश द्रोहिता का लांछन लगा अरेस्ट कर लिया गया !

(4)-जनवरी में ही सोमनाथ साहू रिपोर्टर ‘’धरित्री’’को इतना प्रताडित  किया गया कि उन्हें पुलिस में रिपोर्ट करनी पड़ी !

(5)-फरवरी-उड़ीसा में ‘’संवाद’’के रिपोर्टर रजत रंजन दास को एक राजनैतिक प्रकरण के विरोध के तहत प्रताड़ित किया गया  !

(6)-फरवरी में ही otv रिपोर्टर किरण कानूनगो और कैमरा  मैन तथा एक अन्य otv रिपोर्टर एन एम् बैसाख और उनके केमरामैन अनूप राय को प्रताड़ित किया गया !

(7)-मई में इटानगर में अरुणाचल कोंग्रेस के प्रमुख  द्वारा मीडिया कार्यालय पर अटैक करवाए गए !
मई में ही वेस्ट बंगाल में

(8)-तीन पत्रकारों कि पिटाई कम्युनिस्ट पार्टी के सपोर्टर्स द्वारा करवाई गई !

(9)-२१ मई को अज्ञात लोगों द्वारा वी बी उन्नीथन जो एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और केरल में ‘’मात्रभूमि’’के संपादक उन पर लोहे कि रोड से जान लेवा आक्रमण किया गया !

(१०)-11 जून पूर्व पत्रकार कपिल शर्मा को अवैध हिरासत और प्रताडना !

(11)-11  जून को मुंबई मिड डे के वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय डे कि हत्या कर दी गई !उल्लेखनीय है कि इस वक़्त वो अंदर वर्ल्ड पर लिख रहे थे !

खुलासे के द्वारा  अकेले ज्योतिर्मय देश के अग्रणी जनों  और जनता को आगाह  करने का महत्वपूर्ण कार्य करते हुए गोलियों से भून दिए जाते हैं गौरतलब है कि पिछली धमकियों को नज़रंदाज़ करते हुए  ,वहाँ  ‘बाबा’ अपने लाखों प्रसंशकों के बीच अनशन कि मुनादी का लुत्फ़ उठा  रहे होते हैं?!प्रश्न ये उठता है,कि विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र कि ये कैसी प्रणाली है जहा  दलों कि दलदल के किसी भी महिमामंडित नेता ,या  किसी अभिनेता की  जान कि कीमत समझते हुए  अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था मुहैया करवाई जाती  है ,जबकि उसी देश के गले तक डूबे भ्रष्टाचार को सामने लाने या विरोध करने वाले किसी जुझारू व्यक्तिको सरेआम भून दिया जाता है ,और हत्यारे खुले आम घूमते रहते हैं ?पकडे जाते हैं तो मामला ठंडा होने पर छोड़ दिए जाते हैं !कुव्यवस्था और आतंक एक कदम और आगे बढ़ जाता है?

ज़ाहिर है कि ये एक लंबी लड़ाई है ,व्यवस्था के खिलाफ,उन ताकतों के खिलाफ और उन ताकतों को प्रश्रय देने वालों  के खिलाफ ,जिसका  ना सिर्फ मुठ्ठी भर पत्रकारों,लेखकों,सैनिकों,सामाजिक संस्थाओं,स्वयंसेवी संस्थाओं पर  दायित्व है बल्कि हर उस नागरिक का जो कैसे भी कभी भी इस कुव्यवस्था का शिकार बन सकता है उस के चंगुल में फंस सकता है !वास्तविक पत्रकारिता एक निर्भयता का पेशा है जो देश कि रक्षा प्रणालियों में से एक अपरोक्ष मद्ध्यम है !उसे सुचारू रूप से चलाना,पोषित करना,निर्भय होकर उसका साथ देना आम नागरिक का कर्तव्य है !

ज्योतिर्मय डे सहित वो सभी दिवंगत पत्रकार जो इस आतंक का ग्रास बने तथा वे जो बेवजह राजनीती का शिकार हो प्रताड़ित किये गए व ’’देश भर में पत्रकारों पर बढते हमलों के खिलाफ 18 जून को एक राष्ट्र व्यापी काला दिवस आयोजित किया गया है !प्रेस फ्रीडम के संयोजक अजय कुमार पाण्डेय ने कहा है कि पत्रकार डे के शोक संतप्त परिवार के लिए मुआवजा भी मिलना चाहिए !साथ ही पत्रकारों को बन्दुक के लाईसेंस (बगैर सत्यापन के )दिलवाने कि भी मांग की है !सराहनीय कदम !पर यहाँ भी एक ही बात कौंधती है मस्तिष्क में कि एक दिन काला  फीता बाँध  कर रोष ज़ाहिर करना  या नारे लगा लेना  या अतिरिक्त पुलिस आयुक्त को सूचित कर देना ,भविष्य के खतरों से मुक्ति मिल  जाने का यकीं होगा ?  

‘’इब्शन ‘’की एक कविता -
‘’तुम कहते हो कि मै दकियानूस बन गया ?आश्चर्य!
क्यूँ कि मै तो वहीं रहा ,जो था !मैंने कब कहा कि
प्यादे को हटाओ ,और फर्जी को बढाओ
मै तो कहता हूँ ,मारो गोली पूरे खेल को ही
बस क्रांति तो जगती-तल पर केवल एक हुई .
जो क्रांति थी सच्ची ना धोखा ना फरेब
जिसके आगे बाद की सारी क्रांतियां मात हैं !
वह था प्रलय....
पर उस वक़्त भी लुसिफर खा गया गच्चा !
क्यूंकि नोया,आर्क पर बैठा ,बन गया तानाशाह सच्चा
तो आओ ,उग्रपंथी दोस्तों,,आओ नए सिरे से ज़ोर
लगाओ,ऐसा कि काम अंजाम हो
इसलिए लड़ाकों और वक्ताओं को बुलाओ
सब मिलकर फिर जगती-तल पर प्रलय का दिन लाएं ,
और इस बार आर्क में भी चुपके से आग लगाएं !’’


8 टिप्‍पणियां:

  1. सच्ची आजादी पर पुनर्विचार करने के लिए प्रचुर सामग्री ! विचारोत्तेजक लेख ! बधाई वंदना जी ! आभार अशोक जी !

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  2. बेहद संवेदनशील लेख और पूरी तरह से बर्बरता को खंडित करता हुआ अपने सार्थक अस्तित्व में जीता हुआ ......मन को एक नई ऊर्जा मिली इस लेख को पढकर और नई धार पर नए युग की बात सूझी ... क्या कहूँ शायद ऐसे ही लोग यदि लिखते रहे तो हम एक दिन मकाम हासिल अवश्य करेंगे .... एक आज़ाद दुनिया जो आम आदमी की होगी . तानाशाह जब आम आदमी के हाथों मारे जायेंगे वो दिन .....

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  3. bahut jaroori lekh hai.....sochane ko vivash karata hai.....kya ham aajad hain ?....kya yahi hai loktantra?

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  4. sabse nushkil ye hota hai ki genuine reporter ko bahar se jyada bheetar apne logon se joojhna padta hai. adhikansh patrkar satta ke chatukar hote hain aur jo apvaad hote hain, unke khilaf sajisho.n men shamil hote hain. Haryana men Chharpati ki hatya ke virodh men Karnal men ek pradarshan men ye baat kahne par patrkaar sathi naraj ho gaye the par unke satta se sambandh bane rahe.
    Darasal ye admi ki apni bechainee hoti hai jo use khatron ke bavjood samjhaute se rokti hai.
    Vandana Ji ne khoob mehnat kee hai

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  5. विचारोत्तेजक ... बहुत से लोगों को आज़ादी का सही मतलब खोजने में भी वक़्त लगता है ... आंदोलित और उद्वेलित करता लेख ...

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  6. धन्यवाद आप सभी को!आप ने इस अपेक्षाकृत लंबे लेख को गौर से पढ़ा और अहमियत समझी, सराहा
    !आभार

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  7. कई लेयर्स पर लड़ना है हमें एक टुकड़ा आज़ादी के लिए. और ये आसान एकदम नहीं. लड़ियाँ जितनी बाहर हैं उतनी अन्दर हैं. लेख यकीनन बेहद ज़रूरी है और पूरी तफसील से अपनी बात कहता है. वंदना जी बधाई भी लीजिये और शुक्रिया भी...

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  8. "The law locks up the hapless felon
    who steals the goose from off the common,
    but lets the greater felon loose
    who steals the common from the goose."
    —Anonymous, England, 1821

    Somebody has said it very right. If a poor and hapless man steals a loaf of bread he punished very hard but when a powerful, influential and rich steals a life from body he always moves free.

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