सोमवार, 5 सितंबर 2011

इतिहास को दोहराने की दिक़्क़तें


  • जनलोकपाल मुद्दे पर चल रही बहस में वरिष्ठ कवि नीलाभ अश्क का यह आलेख उस गंभीर बहस को आगे बढाता है जिसे सुभाष गाताडे और आनंद स्वरूप वर्मा के ठीक इसके पहले प्रकाशित आलेख सामने ले आये हैं.  

यह बात मैं शुरू ही में स्वीकार कर रहा हूं कि मैं अन्ना हज़ारे का प्रशंसक नहीं हूं, न उनका अथवा उनके आन्दोलन का समर्थक ही हूं. यह ठीक है कि अन्ना हज़ारे ने ऐसी दुखती हुई रग पर उंगली रखी है जो एक लम्बे अर्से से इलाज-उपचार की मांग करती रही है. भ्रष्टाचार किसी नासूर की तरह हमारे जीवन के हर क्षेत्र में घ र करता चला गया है और इसके साथ ही हर क्षेत्र में - चाहे वह नितान्त निजी क्षेत्र हो या एकदम सार्वजनिक - जवाबदेही के अभाव ने इस नासूर को लगभग लाइलाज बना दिया है. इस बात से भी मुझे इनकार नहीं है कि जबसे अन्ना हज़ारे ने अपना अन्दोलन शुरू किया है, उन्हें आम जनता का, ख़ासकर शहरी और क़स्बाई मध्यवर्ग के लोगों का भरपूर समर्थन मिला है, यहां तक कि दूर-दूर के देशों में भी इसके समर्थन में लोग सामने आये हैं. यह इस बात का भी सबूत है कि एक तो हमारी जनता क़दम-क़दम पर भ्रष्ट आचरण का सामना करते-करते आजिज़ आ चुकी है, दूसरी ओर देश के सार्वजनिक पटल पर जिस तरह के घोटाले सामने आये हैं और उन्हें ले कर सत्ताधारी दलों में -- चाहे वह प्रान्तीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी हो या केन्द्रीय स्तर पर कान्ग्रेस पार्टी -- जैसा दुचित्तापन और लीपा-पोती करने की मानसिकता दिखाई दी है, उससे जनता को यक़ीन होने लगा है कि क़ानूनी और संवैधानिक तरीक़ों से अब बहुत कुछ सपरने वाला नहीं है. इस नासूर से निपटने के लिए कुछ और ही तरीक़े अपनाने होंगे. यह भी सही है कि अन्ना के आन्दोलन ने हमारी केन्द्रीय सरकार को किसी हद तक हिला कर भी रख दिया है. यह सब स्वीकार करने के बाद अगर मैं फिर अन्ना हज़ारे और उनके आन्दोलन की ओर लौटूं तो मैं यही कहना चाहता हूं कि इस सब को ले कर अभी बहुत आशा बंधती नहीं नज़र आती और मेरे ही नहीं बहुतों के मन में सवाल-ही-सवाल हैं.


पहली बात तो यह है कि अभी तक न तो अन्ना हज़ारे ने यह साफ़ किया है न उनके आन्दोलन में शामिल उनके साथियों ने कि उनकी नज़र में क्या भ्रष्टाचार कोई रोग है या रोग का लक्षण ? अगर तो यह रोग है, तब इस से लड़ने की रणनीति अलग होगी और अगर यह लक्षण है, जैसा कि अन्ना और उनके साथियों की अब तक की कार्रवाई से जान पड़ता है, तब भिन्न उपाय अपनाने होंगे और हमें समस्या की गहराई में उतर कर पहले यह तय करना होगा कि उस रोग का स्वरूप क्या है जिसका लक्षण भ्रष्टाचार के रूप में हमें दिखायी दे रहा है; वैसे ही जैसे बुख़ार अपने आप में रोग नहीं होता, बल्कि हम उसे दूर तभी कर पाते हैं जब हम रोग का निदान कर लेते हैं कि बुख़ार तपेदिक़ की वजह से है या मलेरिया अथवा और किसी गड़बड़ी के कारण. 


सो, अभी तक अन्ना हज़ारे और उनके साथी भ्रष्टाचार को लक्षण मान कर ही चल रहे लगते हैं जैसा कि उनकी मांगों से भी अनुमान होता है. उन्होंने अब तक जो बयान दिये हैं उनसे लोगों में यही सन्देश गया है कि कुल मिला कर राजनैतिक/प्रशासनिक तन्त्र ही भ्रष्टाचार के लिए ज़िम्मेदार है. उन्होंने अपने दायरे में स्वैच्छिक संस्थाओं, निजी क्षेत्र के उद्यमों-उद्योगों और ऐसे तमाम इलाक़ों को शामिल नहीं किया है जो इस देश-व्यापी भ्रष्टाचार का स्रोत भी हैं और हिस्सा भी. ख़ुद अन्ना और उनके साथियों के पिछले इतिहास को देखें तो भी कई सवाल खड़े होते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार अन्ना के गांव रालेगान सिद्धि के बारे में लिखते हुए मुकुल शर्मा ने बताया कि पिछले 25 बरसों से वहां ग्राम पंचायत या सहकारी समिति के चुनाव नहीं हुए हैं. दलितों के प्रति अन्ना का रुख़ एक सरलीकृत वर्ण-व्यवस्था को ही पुष्ट करता जान पड़ता है. वे कह चुके हैं कि : "महात्मा गांधी का विचार था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक लुहार होने चाहिए और इसी तरह से और लोग भी. उन सभी को अपना काम अपनी भूमिका और अपने पेशे के हिसाब से करना चाहिए, इस तरह से हर गाँव आत्म-निर्भर हो जायेगा. रालेगान सिद्धि में हम यही तरीका आजमा रहे हैं." ऐसी हालत में यह बात हैरत पैदा नहीं करती कि टीम अन्ना के सदस्य आरक्षण विरोधी (और योग्यता समर्थक) आन्दोलन "यूथ फार इक्वेलिटी" से भी जुड़े रहे हैं? इस अभियान की बागडोर उन लोगों के हाथ में है जो ऐसे भारी आर्थिक अनुदान पाने वाले गैर सरकारी संगठनों को चलाते हैं जिन्हें कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स जैसी कम्पनियों से दान मिलता है. अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा चलाये जाने वाले "कबीर" को पिछले तीन वर्षों में फोर्ड फाउंडेशन से 400000 डालर मिल चुके हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान के अंशदाताओं में ऎसी भारतीय कम्पनियां और संस्थान शामिल हैं जिनके पास अल्युमिनियम कारखाने हैं, जो बंदरगाह और सेज बनाते हैं, जिनके पास भू-संपदा के कारोबार हैं और जो करोड़ों करोड़ रूपए के वित्तीय साम्राज्य वाले राजनीतिकों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं. उनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार एवं अन्य अपराधों की जांच भी चल रही है. यही नहीं, फ़िलहाल अन्ना और उनके दल में शामिल लोगों में यही समझदारी  काम करती जान पड़ती है कि भ्रष्टाचार का सम्बन्ध सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसे की अनुचित आवा-जाही से है. भ्रष्टाचार का एक और भी विराट सामाजिक परिप्रेक्ष्य हो सकता है या उसका उपचार हमारे समूचे देश की मनो-सामाजिक बनावट के उपचार में निहित है -- यह सोच फ़िलहाल अन्ना हज़ारे के आन्दोलन में नज़र नहीं आती. इसके साथ-साथ अन्ना ने हमारे देश की बुनियादी अर्थ-व्यवस्था पर भी कुछ नहीं कहा है. मिसाल के लिए उदारीकरण की नीति, मुक्त अर्थ-व्यवस्था, आवारा पूंजी और बड़े कारपोरेट जगत का कितना और कैसा हाथ मौजूदा भ्रष्टाचार के पीछे है इस पर अन्ना और उनके साथी मौन हैं. विदेशी कम्पनियां किस बेरहमी से हमारे देश की प्राकृतिक और दूसरी सम्पदा को लूट रही हैं, कहां-कहां कहर ढा रही हैं और इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार कैसे पनप रहा है, इसका कोई उल्लेख अन्ना के चार्टर में नहीं है.मौजूदा समाज की आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार से उसके सम्बन्धों पर भी हैरतंगेज़ ढंग से अन्ना हज़ारे और उनके साथी ख़ामोश हैं. उनकी दृष्टि में एक सख़्त, तानाशाह-सरीखा लोकपाल ही, जो राजनीतिक दायरे के बाहर रह कर काम करे, इस नासूर का इलाज हैअगर यह भी मान लिया जाये कि उन्होंने लोकपाल या कहा जाये जनलोकपाल की मांग इसलिए उठायी है कि वे भ्रष्टाचार को रोग मान कर चल रहे हैं तो फिर दूसरा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या किसी भी सरकारी अधिनियम से,  किसी सरकार-नियुक्त लोकपाल के माध्यम से अथवा जनलोकपाल के ज़रिये भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना सम्भव है ? सामान्य समझदारी के हिसाब से भी और अन्ना हज़ारे के वक्तव्यों से भी यही क़यास लगता है कि लोकपाल या जनलोकपाल अंकुश ही का काम करेगा जो भ्रष्टाचार को रोकेगा. इसमें प्रथमत: तो यह छिपी हुई स्वीकारोक्ति है कि भ्रष्टाचार तो मनुष्य की प्रकृति है और उसकी रोक-थाम ही की जा सकती है, यानी बाहरी उपाय से ही उस पर अंकुश लगाना सम्भव है. और इसी से दूसरी बात भी उभरती है कि लोकपाल ही समस्या का समाधान है. लेकिन जब भ्रष्ट होना मनुष्य की प्रकृति हो तब क्या लोकपाल भी किसी मुक़ाम पर भ्रष्ट नहीं हो सकता ? और अगर ऐसा हो तब लोकपाल पर अंकुश का काम कौन करेगा ? क्या ऐसा अचूक तरीक़ा या तन्त्र लागू किया जा सकता है जो भ्रष्टाचार की रोक-थाम करे, पर उससे दूषित अथवा प्रदूषित न हो ? कौन नहीं जानता है कि हमारे देश में क़ानूनों की कमी नहीं है. तो भी अपराध पर नियन्त्रण पाने में क़ानून किस हद तक सहायक होते हैं इसे ले कर लम्बी बहस चलती रही है. क्या यही हाल लोकपाल बिल का तो नहीं होने जा रहा है ?तीसरा सवाल यह है कि यह सारी क़वायद यों की जा रही है जैसे कि पहले से कोई व्यवस्था देश में काम न कर रही हो. अगर अन्ना हज़ारे और उनके साथी यह मानते हैं कि देश में संसदीय लोकतन्त्र है,  उसका एक संविधान है और उस संविधान द्वारा निर्वाचित और गठित लोकतान्त्रिक संस्थाएं भी हैं - मसलन न्यायपालिका, संसद अर्थात विधायिका और कार्यपालिका - तब ऐसा कोई प्रावधान या क़दम जो संविधान या इन लोकतान्त्रिक संस्थाओं का उल्लंघन करता हो, वह कैसे जनता को स्वीकार होगा ? अगर यह माना जाये कि पूरी व्यवस्था ही सड़ गयी है, तो फिर एक सड़ी हुई व्यवस्था से सिवा इसके कि वह विदा हो, कुछ भी मांगने का क्या तुक है ? वैसे भी अन्ना हज़ारे और उनके साथियों की तरफ़ से जो पर्चा बंटवाया गया है उसमें उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है कि उनका उद्देश्य "व्यवस्था को बदलना" है. अगर ऐसा है तो फिर सरकार के सामने कोई मांग रखने का क्या औचित्य है ? इस समय हमारे देश में पूंजीवादी अएर्थ-व्यवस्था से युक्त संसदीय लोकतन्त्र है. कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना कभी की ख़ारिज कर दी गयी है. इस समय अगर पुराने गांधीवादी मुहावरे का प्रयोग करें तो "पैसे का राज" है. और वह भी निरुंकुश. हमारा सारा समाज, अगर मतसंग्रह किया जाये तो, एक स्वर से यही कहेगा कि पैसा ही ताक़त, ख़ुशहाली और उन्नति का स्रोत है. हमारे प्रधानमन्त्री जिनके वित्त-मन्त्रित्व काल में मौजूदा व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ था, यह दोहराते नहीं थकते कि आर्थिक उन्नति ही उनकी सफलता का पैमाना माना जाये. इस अर्से में कितने लाख किसानों ने आत्म-हत्याएं की हैं, कितने आदिवासी पूंजीपतियों द्वारा बेघर हुए है, शरणार्थी बन कर बड़े शहरों में आदमी से कई दर्जे नीचे की ज़िन्दगी बसर करने को मजबूर हुए हैं, आम मध्यवर्गीय और विशेष रूप से निम्न मध्यवर्गीय जन कैसी मुसीबतें भुगत रहे हैं, मज़दूरों पर कितना कुठार चला है इसका लेखा-जोखा प्रधानमन्त्री के भाषणों में नहीं मिलता. और अचरज है कि अन्ना की भी नज़र इस पर नहीं गयी है. निजी सम्पत्ति की अवधारणा का कितना और कैसा सम्बन्ध भ्रष्टाचार से है, इस पर भी अन्ना की तरफ़ से कुछ सुनने को नहीं मिलता. यह ठीक है कि वे बार-बार कहते हैं कि उनके पास "अपना" कुछ भी नहीं है, लेकिन अपरिग्रह का जो विचार गांधी ने प्रचारित किया था और जिसके फलस्वरूप बड़े-बड़े लोगों ने अपनी निजी सम्पत्ति का त्याग कर दिया था, उसका कोई संकेत मौजूदा आन्दोलन में नहीं है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि अन्ना यह समझ बैठे हैं कि एक गांव को सफलता से आदर्श गांव में तब्दील करने की हिकमत से ही इस विशाल देश की बहुमुखी और बहुसंख्यक समस्याएं निपटा दी जा सकेंगी ?जिस "सिविक सोसाइटी" का ज़िक्र वे बार-बार करते हैं वह कैसी है, उसमें कौन-कौन है, कौन-कौन नहीं है, इसका भी कोई स्पष्ट सा ख़ाका अन्ना के पर्चे से नहीं लगता. क्या पूंजीपति वर्ग इस सिविक सोसाइटी में है या नहीं ? अगर है तो फिर अन्ना भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को कैसे उस संस्था के पहरेदारों के रूप में कल्पित करते हैं जो वे जनलोकपाल बिल द्वारा बनाना चाहते है ?इस सिलसिले में मैं अरुन्धती राय के एक ताज़ा लेख की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहता हूं जो इस "सिविक सोसाइटी" का उपयुक्त वर्णन करती हैं : "यहाँ अनशन का मतलब मणिपुर की सेना को केवल शक की बिना पर हत्या करने का अधिकार देने वाले क़ानून AFSPA के खिलाफ इरोम शर्मिला के अनशन से नहीं है जो दस साल तक चलता रहा (उन्हें अब जबरन भोजन दिया जा रहा है). अनशन का मतलब कोडनकुलम के दस हजार ग्रामीणों द्वारा परमाणु बिजली घर के खिलाफ किए जा रहे क्रमिक अनशन से भी नहीं है जो इस समय भी जारी है. 'जनता' का मतलब मणिपुर की जनता से नहीं है जो इरोम के अनशन का समर्थन करती है. वे हजारों लोग भी इसमें शामिल नहीं हैं जो जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियमगिरि या बस्तर या जैतपुर में हथियारबंद पुलिसवालों और खनन माफियाओं से मुकाबला कर रहे हैं. 'जनता' से हमारा मतलब भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों और नर्मदा घाटी के बांधों के विस्थापितों से भी नहीं होता. अपनी जमीन के अधिग्रहण का प्रतिरोध कर रहे नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश में कहीं के भी किसान 'जनता' नहीं हैं.     'जनता' का मतलब सिर्फ उन दर्शकों से है जो 74 साल के उस बुजुर्गवार का तमाशा देखने जुटी हुई है जो धमकी दे रहे हैं कि वे भूखे मर जाएंगे यदि उनका जन लोकपाल बिल संसद में पेश करके पास नहीं किया जाता. वे दसियों हजार लोग 'जनता' हैं जिन्हें हमारे टी.वी. चैनलों ने करिश्माई ढंग से लाखों में गुणित कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे ईसा मसीह ने भूखों को भोजन कराने के लिए मछलियों और रोटी को कई गुना कर दिया था. "एक अरब लोगों की आवाज़" हमें बताया गया. "इंडिया इज अन्ना." वह सचमुच कौन हैं, यह नए संत, जनता की यह आवाज़? आश्चर्यजनक रूप से हमने उन्हें जरूरी मुद्दों पर कुछ भी बोलते हुए नहीं सुना है. अपने पड़ोस में किसानों की आत्महत्याओं के मामले पर या थोड़ा दूर आपरेशन ग्रीन हंट पर, सिंगूर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर, पास्को, किसानों के आन्दोलन या सेज के अभिशाप पर, इनमें से किसी भी मुद्दे पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है. शायद मध्य भारत के वनों में सेना उतारने की सरकार की योजना पर भी वे कोई राय नहीं रखते. किसी आन्दोलन के स्वरूप का पता उसके नारों से भी लगता है. ज़रा देखिये कि अन्ना के आन्दोलन ने कैसे नारों को जन्म दिया है -- (अ) वन्दे मातरम, (ब) भारत माता की जय, (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया, (द) जय हिंद.  इनमें से पहले दो और अख़िरी नारे पर भले ही ज़्यादातर लोग सहमत हों लेकिन तीसरा नारा बड़े आश्चर्यजनक रूप से आपातकाल के नारे "इण्डिया इज़ इन्दिरा, इन्दिरा इज़ इण्डिया" की याद दिलाता है. यही नहीं इस आन्दोलन ने कुछ ऐसे नारे भी पैदा किये जो बुनियादी सभ्यता के ख़िलाफ़ हैं. मैंने और मिराण्डा हाउस के हिन्दी विभाग में पढ़ाने वाली सुश्री रमा यादव ने मेट्रो में सफ़र करते हुए चन्द "जोशीले" अन्नावादियों को "सोनिया जिसकी मम्मी है, वह सरकार निकम्मी है" का नारा लगाते सुना. यही नहीं सरकार के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए युवक गिरोह बना कर नारे लगाते और लोगों को भी नारे लगाने के लिए विवश करते दिखायी दिये. उधर देहरादून से पुराने साथी धीरेन्द्र कुमार ने ख़बर दी की लोग सड़कों पर "जो नहीं है साथ में, चूड़ी पहने हाथ में" का नारा लगा रहे थे और इसमें महिलाएं भी शामिल थीं जिन्हें इस नारे के स्त्री-विरोधी होने का कोई अन्दाज़ा नहीं था.अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की तुलना गान्धी और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों से की गयी है. क्या सचमुच यह आन्दोलन उन आन्दोलनों जैसा है.?
सबसे पहली बात तो यह है कि गान्धी ने सत्याग्रह तो बुनियादी तौर पर आत्म-शुद्धि के, अपने विरोधी का हृदय परिवर्तन करने के, औज़ार के रूप में आविष्कृत किया था, इसलिए नहीं कि अनशन द्वारा अपने विरोधी को ज़बरदस्ती अपनी मांग मानने के लिए मजबूर किया जाये. उन्होंने बार-बार अंग्रेज़ी सरकार और उनके नुमाइन्दों से कहा था कि हिन्दुस्तान पर उनकी हुकूमत अनैतिक है.
और वे उन्हें इस बात का बोध कराने के लिए सत्याग्रह का मार्ग अपना रहे हैं ताकि वे स्वेच्छा से हिन्दुस्तान छोड़ कर चले जायें. यहां लेकिन अन्ना का सारा ज़ोर इस बात पर है कि मौजूदा सरकार उनका जनलोकपाल बिल पारित कर दे या उसमें अमुक मांग जोड़ दे या हटा दे. उनके भाषणों में शान्ति और हिंस की अपीलों के साथ जो फ़्छ्पा हुआ उकसावा भी ध्वनित होता रहता है, वह भी संशय पैदा करता है.
अन्ना का निशाना भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं जान पड़ता, वरना उनका निशाना वे सारे लोग होते जो भ्रष्ट हैं और अन्ना सत्याग्रह इसलिए करते कि ये भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार से किनाराकशी कर लें, जो गांधी का लक्ष्य होता. अगर अन्ना हज़ारे यह कहते कि जो रिश्वत ले रहा है, ग़लत रास्ते पर चल रहा है, वह उससे बाज़ आये और जो रिश्वत दे रहा है या ग़लत बातें बर्दाश्त कर रहा है, वह इस से गुरेज़ करे चाहे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े, तो ज़रूर उनका सत्याग्रह सत्याग्रह कहला सकता था. लेकिन अन्ना ने ऐसा कोई आह्वान नहीं दिया न अपने अनशन के पीछे ऐसी कोई शर्त रखी. एक अन्तर और भी है. गांधी का आन्दोलन पूरे समाज को साथ ले कर चलता था. अन्ना के आन्दोलन का दायरा अब भी बहुत सीमित है. देश की बहुसंख्यक मेहनतकश  किसान-मज़दूर आबादी अभी तक उनके पीछे नहीं आयी है. मुस्लिम बिरादरी के मन में अनेक शक-शुबहे हैं तो दलितों ने अपनी तरफ़ से एक लोकपाल बिल का प्रारूप पेश करने की बात कहते हुए अन्ना और सरकार, दोनों ही के लोकपाल बिलों से असहमति व्यक्त की है. बल्कि दलितों के कुछ संगठनों ने तो आरोप लगाया है कि अन्ना और उनके साथी एक बुनियादी सवर्ण. पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था के हामी हैं.
यही नहीं बल्कि गान्धी से अन्ना की तुलना करने वाले एक बुनियादी अन्तर भी भूल गये हैं. गान्धी जब सत्याग्रह करते थे तो अपने हर समर्थक से यह वादा कराते थे कि वह ऐसा कोई आचरण नहीं करेगा जिसमें हिंसा का लेश भी हो या जिस से उच्छॄंखलता की गन्ध भी आये. यही कारण है कि सब के बरजने के बावजूद गांधी ने चौरा चौरी की घटना के बाद अपना आन्दोलन वापस ले लिया था और उसके बाद भड़की हिंसा के "प्रायश्चित्त स्वरूप"  अपना प्रसिद्ध इक्कीस दिन का उपवास शुरू किया था. अन्ना हज़ारे का आन्दोलन हालांकि अभी तक बहुत हद तक अहिंसक ही रहा है, लेकिन जिस तरह के दृश्य जन्माष्टमी के दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में देखने को मिले, भीड़ का एक हिस्सा नशे की हालत में जिस तरह की गालियां देते हुए पुलिस को उकसाने लगा, मोटरसाइकिलों पर बिना हेल्मेट के सवार तीन-तीन चार-चार नौजवान झण्डे लहराते हुए यातायात के नियमों का उल्लंघन करते नज़र आये, जिस तरह इस आन्दोलन ने सामान्य नागरिकों, यहां तक कि अन्ना का समर्थन करने वालों के लिए भी मुसीबतें खड़ी कीं, और इस सब पर अन्ना हज़ारे और उनके साथी ख़ामोश रहे, उसे देख कर यह अन्दाज़ा करना मुश्किल नहीं कि अन्ना का यह  आन्दोलन किसी भी वक़्त बेक़ाबू हो कर अराजकता की दिशा ग्रहण कर सकता है. अख़बारों में ये ख़बरें भी छपी हैं कि अन्ना हज़ारे के आन्दोलन में शामिल होने के लिए आये लोगों में महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएं भी इस मात्रा में नज़र आयीं कि महिलाओं के लिए अलग स्थान मुक़र्रर करना पड़ा. क्या गांधी के किसी भी आन्दोलन में ऐसा देखने में आया था ?  यह भी ग़ौर-तलब है कि जहां गांधी के आन्दोलन ने 1919  के बाद से ही बड़े पैमाने पर नारी-जागृति का काम किया था, महिलाएं खुल कर आन्दोलनों में हिस्सा लेती थीं, वहीं अन्ना के आन्दोलन में अगर महिलाएं शामिल हैं भी तो कम-से-कम नारी मुक्ति का वह पहलू उसमें से ग़ायब है 
आखिरी बात यह कि गांधी जब सत्याग्रह करते थे तो वे सरकार और सरकारी संस्थाओं से अनुमति नहीं मांगते थे कि वे इस या उस स्थल पर सत्याग्रह या उपवास करेंगे.
अन्ना के आन्दोलन में जैसा नाटकीय घटनाक्रम आन्दोलन का स्थल तय करने के सिलसिले में दिखाई दिया उस से ऐसा लगा जैसे अन्ना का यह कोई प्रायोजित आयोजन हो. यहां हम फिर ध्यान दिला दें कि ऊपर हमने गांधी के जिस उपवास का ज़िक्र किया वह किसी सार्वजनिक स्थल पर नहीं बल्कि मौलाना मुहम्मद अली के घर पर रखा गया था और इक्कीस दिन बाद हिंसा के समाप्त हो जाने पर ही तोड़ा गया था.
गांधी और अन्ना में एक बुनियादी फ़र्क़ यह भी है कि हालांकि गांधी का सारा बल समग्र मानवीय स्थिति पर रहता था, वे बहुत बड़ी मात्रा में अध्यात्म और आध्यात्मिक उपायों को अपनी सामाजिक-राजनैतिक विचारधारा में गूंथे रहते थे, ताहम उन्होंने कभी इस बात से इनकार नहीं किया कि उनका आन्दोलन उतना ही राजनैतिक और सामाजिक भी है. अभी तक अन्ना और उनके साथियों ने यही कहा है कि उनका सम्बन्ध राजनीति से नहीं है. और, यह बात तो हम सब जानते हैं कि राजनीति से कोई सम्बन्ध न रखने की बात कहने वाले की भी एक राजनीति होती है. हमारे प्यारे कवि मुक्तिबोध जब किसी से मिलते थे तो एक सवाल ज़रूर करते थे -- "पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?" इसलिए अभी नहीं तो अपने आन्दोलन के और आगे बढ़ने पर अन्ना हज़ारे और उनके साथियों को अपनी राजनीति तो स्पष्ट करनी ही होगी. अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे गांधी के आन्दोलन की तो बात ही क्या, लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों के भी क़रीब नहीं पहुंच पायेंगे, भले ही इस समय कितनी ही तेजस्विता क्यों न दिखाई दे रही हो.मार्क्स का सुप्रसिद्ध कथन है कि इतिहास अपने को दोहराता है, मगर हू-ब-हू नहीं. पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार स्वांग के रूप में. गांधी का आन्दोलन गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व से मण्डित होने के बावजूद अपने समय और परिस्थितियों की पैदावार था. यही हाल जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन का भी था. उसे दोहराने की कोई भी कोशिश दिक़्क़तें ही पैदा करेगी. जयप्रकाश नारायण ने उसे दोहराने की कोशिश की थी तो अंजाम उन्नीस महीने के आपात काल और उसके बाद की विपदाओं की त्रासदी के रूप में सामने आया था. अन्ना हज़ारे के आन्दोलन में - अगर उसे क़ायदे से संभाला न गया तो स्वांग बनने की तमाम सम्भावनाएं मौजूद हैं जिनका एक ट्रेलर इसी रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के उपवास में लोग देख चुके हैं. या फिर यह एक और भी बड़ी और ख़तरनाक त्रासदी की तरफ़ ले जा सकता है जिस में गृहयुद्ध से ले कर फ़ासीवाद तक के उभरने की सारी सम्भावनाएं मौजूद हों.

11 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे देश में मध्यवर्ग (उच्च,निम्न) आबादी ज्यादा है, जिन्हें सरकारी-ग़ैरसरकारी भ्रष्टाचार का सामना ज्यादा करना पड़ता है। उच्च वर्ग और ग़रीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की तुलना में।
    जिन्होंने गांधी का अनशन नहीं देखा, जेपी आंदोलन नहीं देखा, जो अन्ना के आंदोलन के सिर्फ दर्शक ही नहीं बने शामिल भी हुए, उनके लिए ये पहला मौका था, पहली बड़ी लडाई लग रही थी, पहला ऐसा प्लेटफॉर्म लग रहा था जहां वो भी खड़े हो सकते हैं, उनकी संख्या से ही उनकी भागीदारी भी हो सकती है। वो इरोम शर्मिला के समर्थक नहीं ऐसा नहीं, मौका मिलने पर वो ये बता भी देंगे।
    अब अन्ना और उनकी टीम ने जनलोकपाल का एक मुद्दा उठाया। पर कुछ लोगों की उम्मीद ज्यादा है, वो चाहते हैं कि अन्ना की टीम में कोई दलित चेहरा हो, कोई मुस्लिम चेहरा हो, वो कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का संगठन है न कि कोई राजनीतिक दल। अब कुछ लोग ये भी चाहते हैं कि टीम अन्ना तरुण विजय पर भी बोले।
    जनलोकपाल के जिस मुद्दे पर ये आंदोलन खड़ा हुआ पहले उस मुद्दे को तो संभलने दीजिए, अब हर दर्द का इलाज टीम अन्ना से मांगना भी तो ठीक नहीं।
    जो जनता उनके साथ खड़ी हुई वो कांग्रेस की सरकार से प्रताड़ित है, जिन्होंने लोगों से रोटी-सब्जी-दाल-दूध तक छीन लिया है। भ्रष्टाचार इस सबके जड़ में है। तो उन लोगों को ये कहकर कि टीवी देखकर तालियां पीटते दर्शक...अच्छा नहीं लगता।

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  2. हमारे देश में मध्यवर्ग (उच्च,निम्न) आबादी ज्यादा है, जिन्हें सरकारी-ग़ैरसरकारी भ्रष्टाचार का सामना ज्यादा करना पड़ता है। उच्च वर्ग और ग़रीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की तुलना में।
    जिन्होंने गांधी का अनशन नहीं देखा, जेपी आंदोलन नहीं देखा, जो अन्ना के आंदोलन के सिर्फ दर्शक ही नहीं बने शामिल भी हुए, उनके लिए ये पहला मौका था, पहली बड़ी लडाई लग रही थी, पहला ऐसा प्लेटफॉर्म लग रहा था जहां वो भी खड़े हो सकते हैं, उनकी संख्या से ही उनकी भागीदारी भी हो सकती है। वो इरोम शर्मिला के समर्थक नहीं ऐसा नहीं, मौका मिलने पर वो ये बता भी देंगे।
    अब अन्ना और उनकी टीम ने जनलोकपाल का एक मुद्दा उठाया। पर कुछ लोगों की उम्मीद ज्यादा है, वो चाहते हैं कि अन्ना की टीम में कोई दलित चेहरा हो, कोई मुस्लिम चेहरा हो, वो कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का संगठन है न कि कोई राजनीतिक दल। अब कुछ लोग ये भी चाहते हैं कि टीम अन्ना तरुण विजय पर भी बोले।
    जनलोकपाल के जिस मुद्दे पर ये आंदोलन खड़ा हुआ पहले उस मुद्दे को तो संभलने दीजिए, अब हर दर्द का इलाज टीम अन्ना से मांगना भी तो ठीक नहीं।
    जो जनता उनके साथ खड़ी हुई वो कांग्रेस की सरकार से प्रताड़ित है, जिन्होंने लोगों से रोटी-सब्जी-दाल-दूध तक छीन लिया है। भ्रष्टाचार इस सबके जड़ में है। तो उन लोगों को ये कहकर कि टीवी देखकर तालियां पीटते दर्शक...अच्छा नहीं लगता।

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  3. गाँधी और अन्ना की बढ़िया तुलना.....

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  4. हममें से ज्यादा तर कुछ नही करते केवल दूसरों के काम की छानबीन करते हैं । अण्णा हजारे जी ने एक ज्वलंत और बहुसंख्य लोगों को प्रभावित करने वाला मुद्दा उठाया है और उसके प्रति लोगों की प्रतिबध्दता ही उसकी उपयुक्तता साबित करती है । शुरुवात हो चुकी है ।

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  5. काफी व्यवस्थित टिप्पणी है. कुछेक सूचनाएं, जानकारियां और तर्क पिछले एक महीने के दौरान विभिन्न लेखों व टिप्पणियों में आचुके हैं, पर समग्रतः यह लेख पठनीय है. पढ़ा जाएगा, और गुना भी जाएगा. पर शायद उनके द्वारा नहीं जिन्हें इसे पढ़ कर आंदोलन के बारे में अपने अब तक के मूल्यांकन पर पुनर्विचार करना चाहिए. आंख में अंगुली डाल कर तो आप किसी को कुछ दिखा भी नहीं सकते.

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  6. अन्ना इरोम शर्मीला को शायद नही जानते थे, सत्यवचन| उन्होंने किसानो-मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, (उनकी देखरेख तो बामपंथियो का एकाधिकार है, कोइ कुछ कर भी नही सकता), सत्यवचन| अन्ना के पास JNU की डिग्री नही है, सत्यवचन| अन्ना का उपयोग(दुरुपयोग ...नही कहूँगा) हुवा है, सत्यवचन| अन्ना ने बहुत सारे अलग मुद्दों पर कुछ नही किया जहाँ समाज का एक तबका की वर्षो से इंसाफ मांग रहा था, सत्यचन| अन्ना के समर्थको ने शराब पी कर उत्पात मचाया, बन्दे मातरम जैसे साम्प्रदायिक नारे लगाये, सत्यवचन| "मध्य-भारत के वनों में सेना उतारने जैसे मामले पर भी अन्ना कोइ राय नही रखते", जैसे हमारे कुछ मित्र दंतेवाड में ७६ पुलीस्कर्मियो को नक्सलियों (माफ कीजिएगा, आप जिस नाम से पुकारना चाहे उन्हें) द्वारा मारे जाने पर भी कोई राय नही रखते| सब रखिये एक तरफ, हम "बनिए" लोग अन्ना जी का समर्थन करते है क्योकी हमारी समझ इतनी भर है की हम भ्रष्टाचार से त्रस्त है| मेरी चोच उतनी दूर ही जाती है की मेरी जीजाजी (जो बनिये होकर भी लोहा काटते है, एक मजदूर है ) की कम्पनी पिछले १२ सालो से बंद है और टाटा जजों को पैसा खिलाकर तारीख आगे बदहवा रहा है, आपके मजदूर यूनियन बीच में पैसा खा रहे है, बनते काम में अपनी राजनीतक गोटियाँ सेंक रहे है| हम common man अरुंधती राय की बातो को समझ सके, इतनी बुद्धी नही आई है| हम त्रस्त है अपने बेहद निजी जिन्दगी के छोटे-छोटे सी समस्यायों से और अन्ना ने hame सिर्फ एक आश दी है, झूठी ही सही पर हम खुश है| लगे रहे लोग अन्ना अनादोलन के पोस्ट-मार्टम में, hame ना उनकी बड़ी-बड़ी बात समझ में आती है, ना हम समझना चाहते है|

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  7. अन्ना इरोम शर्मीला को शायद नही जानते थे, सत्यवचन| उन्होंने किसानो-मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, (उनकी देखरेख तो बामपंथियो का एकाधिकार है, कोइ कुछ कर भी नही सकता), सत्यवचन| अन्ना के पास JNU की डिग्री नही है, सत्यवचन| अन्ना का उपयोग(दुरुपयोग ...नही कहूँगा) हुवा है, सत्यवचन| अन्ना ने बहुत सारे अलग मुद्दों पर कुछ नही किया जहाँ समाज का एक तबका की वर्षो से इंसाफ मांग रहा था, सत्यचन| अन्ना के समर्थको ने शराब पी कर उत्पात मचाया, बन्दे मातरम जैसे साम्प्रदायिक नारे लगाये, सत्यवचन| "मध्य-भारत के वनों में सेना उतारने जैसे मामले पर भी अन्ना कोइ राय नही रखते", जैसे हमारे कुछ मित्र दंतेवाड में ७६ पुलीस्कर्मियो को नक्सलियों (माफ कीजिएगा, आप जिस नाम से पुकारना चाहे उन्हें) द्वारा मारे जाने पर भी कोई राय नही रखते| सब रखिये एक तरफ, हम "बनिए" लोग अन्ना जी का समर्थन करते है क्योकी हमारी समझ इतनी भर है की हम भ्रष्टाचार से त्रस्त है| मेरी चोच उतनी दूर ही जाती है की मेरी जीजाजी (जो बनिये होकर भी लोहा काटते है, एक मजदूर है ) की कम्पनी पिछले १२ सालो से बंद है और टाटा जजों को पैसा खिलाकर तारीख आगे बदहवा रहा है, आपके मजदूर यूनियन बीच में पैसा खा रहे है, बनते काम में अपनी राजनीतक गोटियाँ सेंक रहे है| हम common man अरुंधती राय की बातो को समझ सके, इतनी बुद्धी नही आई है| हम त्रस्त है अपने बेहद निजी जिन्दगी के छोटे-छोटे सी समस्यायों से और अन्ना ने hame सिर्फ एक आश दी है, झूठी ही सही पर हम खुश है| लगे रहे लोग अन्ना अनादोलन के पोस्ट-मार्टम में, hame ना उनकी बड़ी-बड़ी बात समझ में आती है, ना हम समझना चाहते है|

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  8. विश्लेषण तो बहुत अच्छा किया है नीलाभ जी ने किंतु अन्ना की तुलना गांधी के साथ करना जल्दबाजी लग रही है। कहां गांधी और कहां अन्ना...!हां, नीलाभ जी ने अन्ना के आंदोलन के जो खतरे बताए हैं, वह सचमुच आशंकित करने वाला है।

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  9. सहमत, मैं भी बार-बार यही कह रहा हूँ कि जेपी से तुलना की जगह कोई ओरिजिनल स्क्रिप्ट लाएं.ये प्रायोजित आंदोलन जनता को और नाउम्मीद ही करेंगे.

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  10. बहुत अच्छा मुद्दा उठाया आपने...सारगर्भित आलेख...

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…