आज प्रख्यात कथाकार स्वयं प्रकाश जी का जन्मदिन है. उन्हें इस अवसर पर हमारा सलाम और ढेरों शुभकामनाएँ. कुछ दिन पहले हमने उनकी कहानी 'नेताजी का चश्मा' छापी थी. आज उसी पर लिखा हिमांशु पड्या का एक आलेख.
निसार मैं तिरी
गलियों पे ए वतन
“आये दिन
अखबारों के सम्पादकीय,रेडियो,टी.वी.के चैट शो यहाँ तक कि एम टी.वी. पर ऐसे लोग-लेखक,पेंटर,पत्रकार-जिनकी
सहज वृत्ति पर भरोसा किया जा सकता था,पाला बदले हुए नज़र आ रहे थे.मेरी हड्डियां
काँप उठाती हैं क्योंकि रोजमर्रा की ज़िंदगी से मिले सबक से पीड़ादायक तरीके से यह
स्पष्ट होता जाता है कि आपने इतिहास की किताब में जो पढ़ा है वह सही है. फासीवाद का
संबंध जितना सरकार से है उतना ही लोगों से है. यह कि इसकी शुरुआत घर से ही होती
है.बैठकखानों में. शयनकक्षों में . बिस्तरों पर. परमाणु परिक्षण के बाद के दिनों
में अखबारों के शीर्षक थे- ‘आत्मसन्मान का विस्फोट’, ‘पुनरुत्थान का पथ’,’ ‘गौरव
की घड़ी’. शिवसेना के बाळ ठाकरे ने कहा,
“हमने साबित कर दिया है कि अब हम हिंजड़े
नहीं रहे.” (यह किसने कहा था कि हम थे ? यह सही है कि हममें से काफी
महिलायें हैं ,लेकिन जहां तक मुझे जानकारी है, वे वही नहीं होती.) अखबारों को पढकर यह
भेद करना मुश्किल हो गया था कि लोग कब वियाग्रा और कब बम की बात कर रहे हैं-“हमारे पास अधिक शक्ति और पौरुष है.” ( यह हमारे रक्षामंत्री का पाकिस्तान के
परीक्षणों के बाद का बयान था.)
हमें बार बार बताया गया, “ये मात्र परमाणु
परीक्षण नहीं राष्ट्रवाद के भी परीक्षण हैं.”
अरुंधती रॉय
‘कल्पनाशीलता का अंत’, ‘न्याय का
गणित’, पृष्ठ २१
....और इस पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के
सामने दुबला-पतला , मरियल सा, अपाहिज और ( पानवाले के शब्दों में )पागल कैप्टन खडा
है. वह मोर्चे पर नहीं गया, पडौसी मुल्क को गालियाँ बककर उसने अपनी देशभक्ति का
इजहार नहीं किया, न अपने नगर की बिगडती दशा से खीझकर सैनिक शासन की वकालत की,
दूसरे मजहब ( या जाती या भाषा या लिंग ) के लोगों की राष्ट्रभक्ति को संदेह के
घेरे में खडाकर अपनी राष्ट्रभक्ति को पुष्ट भी नहीं किया.( सच तो यह है कि हमें यह
भी नहीं पता कि कैप्टन उस धर्म का है या नहीं जिनकी राष्ट्रभक्ति, सांस्कृतिक
राष्ट्रवादियों की निगाह में असंदिग्ध है.) उसने किया तो बस यह कि अपने लिए एक
छोटी सी भूमिका चुन ली और उसे किसी प्रतिदान की अपेक्षा के बिना निभाता रहा. क्या
कहेंगे ऐसे व्यक्ति को आप ? देशभक्त ? पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के लिए देशभक्ति
के पैमाने कुछ अलग हैं. कैप्टन जैसे लोग उसके लिए गौण, फिर अप्रासंगिक और शनैः
शनैः अस्वीकार्य हो जाते हैं.
क्या मैं
परिस्थितियों को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रहा हूँ ? मैंने इतिहास की किताबों में पढा है कि
हिटलर के यातना शिविरों में यहूदियों के बाद आधे यहूदियों,बूढों,बीमारों,अपाहिजों
और कमजोरों का नंबर आया था.तेंतीस से उनतालीस के वक्फे में वे क्रमशः
गौण,अप्रासंगिक और फिर अस्वीकार्य होते चले गए. यह सब मैंने पढ़ा है देखा नहीं
...पर ..मैंने टी.वी. पर अमीर लोगों को कारों से उतरकर जल रही दुकानों से सामान
लूटते देखा है. मैंने हुंकार सुनी है, “भारतवर्ष में रहना
है तो...”, मैंने उस एस.एम.एस. के बारे में सुना
है-‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते पर सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं.’. मैंने
अखबारों की सुर्ख़ियों में पाया है कि इस समय देश के सामने सबसे बड़ी समस्या किसानों
की आत्महत्या या विनिवेश के चलते बढ़ रही बेकार नहीं बल्कि अफजल की फांसी है.
‘नेताजी का चश्मा’हमारे दैनंदिन जीवन की
कहानी है.यह साधारण लोगों की कहानी है जो मिलकर इस राष्ट्र का निर्माण करते
हैं.पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद की वृहत छवि में इन आम लोगों की साधारणता धुंधला
जाती है.अट्ठारह सौ सत्तावन की डेढ़ सौवीं सालगिरह बीते ज्यादा अरसा नहीं हुआ.
सत्तावन के संग्राम की विशिष्टता यही थी उसमें ‘साधारण’ लोगों ने हिस्सा लिया
था.उत्तर औपनिवेशिक इतिहासकारों ने यह क्रूर सच्चाई दिखाई है कि पुनर्जागरण काळ के
दौर में धीरे धीरे आमजन के सवाल किनारे होते चले गए और राष्ट्रवाद का एक ऐसा वृहद
आख्यान तैयार हुआ जिसमें आमजन की हिस्सेदारी तो थी पर उसके सवालों की नहीं.भगतसिंह
और उनके साथी जब ऐसी आज़ादी को अधूरी बता रहे थे जिसमें मेहनतकश जनता के हितों की
रखवाली न हो तो वे इन्हीं सवालों को उठा रहे थे.स्वयं प्रकाश की कहानी हौले से इस
आम आदमी हमारे सामने ला खडा करती है.कहानी में हमारे नायक का ‘कैप्टन’ नाम पड़ जाना
बताता है कि चाहे उपहास में ही सही पर उसे इस नाम से पुकारा जाना इस बात का
रेखांकन है कि लोक स्मृति कर्ता को उसका श्रेय अवश्य देती है.
पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद की
इकहरी व्याख्या है. इसमें देश में बांधों से उजाडने वाले या उदारीकरण से बेरोजगार
और भूमिहीन बनने वालों की कोई चिंता नहीं है. वहाँ सिर्फ राष्ट्रीय ‘प्रगति’ के
शानदार ( खौफनाक ! ) आंकड़े हैं. ये आंकड़े किन राष्ट्र नागरिकों के हकों को रौंदते
हुए हासिल किये गए हैं और ये ‘शाइनिंग इंडिया’किस वर्ग का ‘शाइनिंग’है , इस बारीकी
में जाने की निगाह इस पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के पास नहीं है.इस वर्ग के लिए
राष्ट्र की पहचान सिर्फ उसकी सीमा है.शायद ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखकर आचार्य
शुक्ल ने लिखा था, “यदि किसी को अपने
देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के
मनुष्य,पशु,पक्षी,लाता,गुल्म,पेड,पत्ते,वन,पर्वत,नदी,निर्झर सबसे प्रेम होगा, सबको
वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा, सबकी सुध करके वह विदेश में आंसू बहायेगा. जो यह भी
नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं जानते कि चातक कहाँ
चिल्लाता है, जो आँख भर यह भी नहीं देखते के आम प्रणय सौराभपूर्ण मंजरियों से कैसे
लड़े हुए हैं, जो यह भी नहीं झांकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है,
वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर
देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि, “भाइयों ! बिना परिचय का यह प्रेम कैसा ? जिनके
सुख-दुःख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं
बनता !” ( चिंतामणि )
(आचार्य शुक्ल का यह निबंध
उस समय का है जब जी.डीपी./जी.एन.पी./औसत आमदनी के नाम पर होने वाले आंकड़ों के छल
छद्म को कल्याणकारी अर्थशास्त्र नामक धारा ने आकर बेनकाब नहीं किया था,पर आचार्य
शुक्ल ने यह लिखा क्योंकि राष्ट्रवाद के अमूर्तन को उन्हें बेनकाब करना था.)
कैप्टन चश्मे वाले के योगदान पर सिर्फ हालदार साहब का ही ध्यान गया
होगा ऐसा नहीं. और लोग भी उसे देखते और प्रेरणा पाते थे. किसी अनजान शख्स ने
सरकंडे का चश्मा बनाकर नेताजी को पहना दिया. चकित कर देने वाला अंत हालदार साहब और
पाठकों को भरोसा दिलाता है कि मोतीलाल मास्टर और कैप्टन चश्मेवाले की विरासत चलती
रहेगी.
यह अनजान नायक कौन है? कहानी
संकेत करती है कि वह कोई बच्चा है. इस बच्चे की उपस्थिति पूरी कहानी पर छा जाती है
और देर तक हमारे साथ रहती है. मानो यह बच्चा श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ से निकला और
चहलकदमी करता हुआ स्वयं प्रकाश की कहानी में आकर आगे बढ़ गया. यह ना तो बड़ों की तरह
साहसिक कारनामे करने वाला वीर बालक है जिसके उल्लेख से हमारी ‘बाल’ कहानियां भरी
होती हैं. (और जो बच्चों के मन में बचपन के फीकेपन का अहसास पैदा करती हैं) और न
ही ऐसा असहाय बच्चा है जिसे कदम कदम पर अहसास कराया जाता है कि अभी वह ‘सच्चा
लेकिन कच्चा’ है और उसे जल्दी बड़े होकर भारतमाता की सेवा करनी है. उसने अपनी
भूमिका चुन ली है जो बेशक किसी से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.
स्वयं प्रकाश की एक और कहानी ‘चौथा हादसा’ से प्रेरणा लें तो “बेशक वह देश हमारा ही नहीं उसका भी है”.
इस बहाने कई जरूरी बातें...
जवाब देंहटाएंये वियाग्रा अंधराष्ट्रवाद का दौर है. राष्ट्रवाद के बुढापे का रोग. राष्ट्रवाद मंडी में पैदा होकर मंडी में ही तिरोहित हो चूका है. अंतरराष्ट्रवाद ही भविष्य की दिशा है. इसके हक में खड़े लेखक ही दीर्घजीवी होंगे और उनकी रचनाएँ भी.
जवाब देंहटाएंराष्ट्रवाद के नाम पर कत्लो-गारत और तमाम तरह की बर्बरताएं इंसानियत को तबतक झेलनी पड़ेंगी जब तक उनका जवाब देनेवाली विश्वबंधुत्व की ताकतों की जडता नहीं टूटेगी.
लेकिन इतिहास में दशक बहुत छोटी इकाई होती है.
क्या ये उदयपुर वाले हिमांशु पंड्या ही हैं? यदि हाँ तो आप इन्हें 'पांड्या' क्यों बना रहे हैं?
जवाब देंहटाएंक्षमा महाप्रभु :)
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