लखनऊ : वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश को वर्ष 2011 के प्रतिष्ठित ‘आनंद सागर कथाक्रम सम्मान’ से नवाजा जाएगा। कथाक्रम के संयोजक शैलेन्द्र सागर ने बताया कि स्वयं प्रकाश को यह पुरस्कार आगामी 12-13 नवम्बर को आयोजित होने वाले‘कथाक्रम-2011’ कार्यक्रम के मौके पर प्रदान किया जाएगा। यह निर्णय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात लेखक श्रीलाल शुक्ल की अध्यक्षता वाली कथाक्रम सम्मान समिति द्वारा लिया गया था। कथा लेखन के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान करने वाले लेखक को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले इस पुरस्कार के तहत 15 हजार रुपए नकद तथा प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। बीस जनवरी 1947 को इंदौर में जन्मे स्वयं प्रकाश अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिये विख्यात हैं। वह अब तक पांच उपन्यास लिख चुके हैं जबकि उनके नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अपने समकालीन कथाकारों-कवियों-संस्कृतिकर्मि यों पर केन्द्रित उनके रेखाचित्रों के संकलन 'हमसफ़रनामा' के लिए स्वयं प्रकाश के गद्य और चित्रण की बड़ी चर्चा हुई है. का इससे पहले स्वयं प्रकाश को राजस्थान साहित्य अकादमी के रंगे राघव पुरस्कार तथा पहल सम्मान से नवाजा जा चुका है। मूलत: राजस्थान (अजमेर) के निवासी स्वयं प्रकाश के कथा साहित्य में वैज्ञानिक सोच और सहजता का अनूठा और विरल संगम है. उनकी रचनाएं पाठक को अपने साथ बहाकर ले जाते हुए वैचारिक रूप से उद्वेलित और समृद्ध भी करती हैं. अपनी अधिकतर रचनाओं में वे मध्यमवर्गीय जीवन के विविध पक्षों को सामने लाते हुए उनके अंतर्विरोधों, कमजोरियों और ताकतों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि वे हमारे अपने अनुभव संसार का हिस्सा बन जाते हैं. साम्प्रदायिकता एक और ऐसा इलाका है जहां स्वयं प्रकाश की रचनाशीलता अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रदर्शित होती है. स्वयं प्रकाश की खिलंदड़ी भाषा और अत्यधिक सहज शैली का निजी और मौलिक प्रयोग उन्हें हमारे समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार बनाने में बड़ा योगदान है.
इस अवसर पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है उनकी एक कहानी
नेता जी का चश्मा
हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम से सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रना पड़ता था।
कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाज़ार कहा जा सके वैसा एक ही बाज़ार था। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का छोटा-सा कारखाना, दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी। नगरपालिका थी तो कुछ-न-कुछ करती भी रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दी, कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए, कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया। इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘शहर’ के मुख्य बाज़ार के मुख्य चैराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है, बल्कि उसके भी एक छोटे-से हिस्से के बारे में।
पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज़्यादा होने के कारण काफी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर-मान लीजिए मोतीलाल जी- को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर ‘पटक देने’ का विश्वास दिला रहे थे।
जैसा कि कहा जा चुका है, मूर्ति संगमरमर की थी। टोपी की नोक के कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊँची। जिसे कहते हैं बस्ट। और सुन्दर भी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ-कुछ मासूम और कमसिन। फौजी वर्दी में। मूर्ति को देखते ही ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो....’ वगैरह याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था। केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं था। यानी चश्मा तो था, लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चैड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुज़रे और चैराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई। वाह भाई! यह आइडिया भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की, लेकिन चश्मा रियल!
जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे, और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप या कद का नहीं, उस भावना का है वरना तो देश-भक्ति भी आजकल मज़ाक की चीज होती जा रही है।
दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ्रेमवाला चैकोर चश्मा था, अब तार के फ्रेमवाला गोल चश्मा है। हालदार साहब का कौतुक और बढ़ा। वाह भई! क्या आइडिया है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है।
तीसरी बार फिर नया चश्मा था।
हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बाद कस्बे से गुज़रते समय चैराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया, ‘क्यों भई! क्या बात है? यह तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है?’
पानवाले के खुद के मुँह में पान ठुँसा हुआ था। वह एक काला मोटा और खुशमिज़ाज़ आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाकर बोला, ‘कैप्टन चश्मेवाला करता है।’
‘क्या करता है?’ हालदार साहब कुछ समय नहीं पाए।
‘चश्मा चेंज कर देता है।’ पानवाले ने समझाया।
‘क्या मतलब? क्यों चेंज कर देता है?’ हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए।
‘कोई गिराक आ गया समझो। उसको चैड़े चैखट चाहिए। तो कैप्टन किदर से लाएगा? तो उसको मूर्तिवाला दे दिया। उदर दूसरा बिठा दिया।’
अब हालदार साहब को बात कुछ-कुछ समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उस नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। बल्कि आहत करती है, मानो चश्मे के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम-संभवतः नेताजी से क्षमा माँगते हुए-लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वाह! भई खूब! क्या आइडिया है।
‘लेकिन भाई! एक बात अभी भी समझ में नहीं आई।’ हालदार साहब ने पानवाले से फिर पूछा, ‘नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहाँ गया?’
पानवाला दूसरा पान मुँह में ठूँस चुका था। दोपहर का समय था, ‘दुकान’ पर भीड़-भाड़ अधिक नहीं थी। वह फिर आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। कत्थे की डंडी फेंक, पीछे मुड़कर उसने नीचे पीक थूकी और मुसकराता हुआ बोला, ‘मास्टर बनाना भूल गया।’
पानवाले के लिए यह एक मज़ेदार बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा ‘मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल’ वाकई कस्बे का अध्यापक था। बेचारे के महीने-भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए-काँचवाला-यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते-बनाते ‘कुछ और बारीकी’ के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अगल से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ....!
हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था। इन्हीं खयालों में खोए-खोए पान के पैसे चुकाकर, चश्मेवाले की देश-भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवाले के पास जाकर पूछा, ‘क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है? या आज़ाद हिंद फौज का भूतपूर्व सिपाही?’
पानवाला नया पान खा रहा था। पान पकड़े अपने हाथ को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को ध्यान से देखा, फिर अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला- ‘नहीं साब! वो लँगड़ा क्या जाएगा फौज में। पागल है पागल! वो देखो, वो आ रहा हैं आप उसी से बात कर लो। फोटो-वोटो छपवा दो उसका कहीं।’
हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मज़ाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक् रह गए। एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूचकी और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत-से चश्मे लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते हैं? क्या यही इसका वास्तविक नाम है? लेकिन पानवाले ने साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था। काम भी था। हालदार साहब जीप में बैठकर चले गए।
दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चैकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े काँचों वाला गोगो चश्मा... पर कोई-न-कोई चश्मा होता ज़रूर.... उस धूलभरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लता के कुछ क्षण देने के लिए।
फिर एक बाद ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी, कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चैराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं।
अगली बार भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से पूछा-‘क्यों भई, क्या बात है? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं है?’
पानवाला उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुँह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से आँखें पोंछता हुआ बोला- ‘साहब! कैप्टन मर गया।’
और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब। कुछ पल चुपचाप खड़े रहे, फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और रवाना हो गए।
बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्थी-जवानी-ज़िंदगी सब कुछ होम देने वालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है। दुखी हो गए। पंद्रह दिन बाद फिर उसी कस्बे से गुज़रे। कस्बे में घुसने से पहले ही खयाल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा।.... क्यों कि मास्टर बनाना भूल गया।.... और कैप्टन मर गया। सोचा, आज वहाँ रुकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएँगे, मूर्ति की तरफ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएँगे। ड्राइवर से कह दिया, चैराहे पर रुकना नहीं, आज बहुत काम है, पान आगे कहीं खा लेंगे।
लेकिन आदत से मजबूर आँखें चैराहा आते ही मूर्ति की तरफ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीखे, ‘रोको!’ जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने ज़ोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते-न-रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़-तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए।
मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। हालदार साहब भावुक हैं। इतनी-सी बात पर उनकी आँखें भर आईं।
संपर्क
33/3, ग्रीन सिटी,
ई-8, अरेरा काॅलोनी,
भोपाल-462039
0755-2562960
Badhai Swyam Praksh ji!
जवाब देंहटाएंमेरे प्रिय कथाकार हैं स्वयं प्रकाश जी,उनकी कहानी पढकर बहुत अच्छा लगा |बहुत दिनों बाद इतनी सहज सुन्दर और रोचक कहानी पढ़ी , ...बहुत बहुत बधाई सर आपको |अशोक आपको धन्यवाद ....
जवाब देंहटाएंswayam prakash ji aapko bahut-bahut badhai- yah samman aapki rachnatmakata ko dekhte hue chhota hai.
जवाब देंहटाएंबधाई स्वयं प्रकाश जी को। कहानी अद्दभुत है।
जवाब देंहटाएं